बॉलीवुड में गीतकार ज़फ़र गोरखपुरी
किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने
मगर कोई चेहरा भी तुमने पढ़ा है
फ़िल्म ‘बाज़ीगर’ (1993) में ज़फ़र गोरखपुरी का यह लोकप्रिय गीत आज भी रेडियो पर
काफ़ी सुनाई पड़ता है। महेश भट्ट की फ़िल्म ‘तमन्ना’ (1998) में भी ज़फ़र साहब का गीत काफ़ी पसंद किया गया-
ये आईने जो तुम्हें कम पसंद करते हैं
इन्हें पता है तुम्हें हम पसंद करते हैं
मशहूर फ़िल्म लेखक और अभिनेता कादर ख़ान ने फ़िल्म 'शमा' (1981) बनाई और गीत लिखने
की ज़िम्मेदारी ज़फ़र साहब को सौंपी। संगीतकार थीं उषा खन्ना। 'शमा' के सारे गाने
पसंद किए गए। लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ।
चाँद अपना सफ़र ख़त्म करता रहा
शमा जलती रही, रात ढलती रही
दिल में यादों के नश्तर से टूटा किए
एक तमन्ना कलेजा मसलती रही
'शमा' फ़िल्म की कामयाबी के बाद कादर ख़ान ने ज़फ़र
साहब को ऑफर दिया कि आप कुर्ला छोड़कर अंधेरी आ जाइए। पांच साल तक आपके मकान का
किराया मैं अदा करूंगा। कादर ख़ान के इस प्रस्ताव को ज़फ़र साहब ने विनम्रता से
ठुकरा दिया। उन्होंने जवाब दिया- "मैं एक स्कूल में पढ़ाता हूं। बच्चों के
साथ मेरा जो रिश्ता है मैं उसे रिटायरमेंट तक कायम रखना चाहता हूं। मैं स्कूल की
नौकरी नहीं छोड़ूंगा।"
देख तमाशा लकड़ी का
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ज़फ़र साहब जब नौजवान थे तो एक नौजवान क़व्वाली गायक
अपनी पहचान बनाने के लिए बेताब था। उसका नाम था युसूफ़ आज़ाद। ज़फ़र साहब से युसूफ़
आज़ाद ने एक ऐसी क़व्वाली लिखने की गुज़ारिश की जिसके दम पर उन्हें शोहरत और पहचान
मिल जाए। ज़फ़र साहब ने उनको यह मशवरा दिया कि अधिकांश क़व्वाल सिर्फ़ मुहब्बत की
शायरी गाते हैं। मैं तुम्हारे लिए एक अलग क़िस्म की क़व्वाली लिख देता हूं। उससे
तुम्हें जल्दी पहचान मिलेगी। ज़फ़र साहब ने अपने इस नौजवान दोस्त के लिए लिखा-
सोच तू पगले सर तेरे
एहसान है कितना लकड़ी का
चांद को छूने वाले इंसां
देख तमाशा लकड़ी का
इस क़व्वाली.में यह बताया गया है कि बचपन से
लेकर मरने तक इंसान के जीवन में लकड़ी क्या रोल अदा करती है- ‘साठ बरस में कमर झुकी तो हाथ में डंडा लकड़ी का’। युसूफ़ आज़ाद की आवाज़ में यह क़व्वाली इतनी ज़्यादा लोकप्रिय हुई कि कई
और युसूफ़ आज़ाद पैदा हो गए। मसलन- बड़े युसूफ़ आज़ाद, छोटे युसूफ़ आज़ाद, असली युसूफ़
आज़ाद इत्यादि।
बड़ा लुत्फ़ था जब कुंवारे थे हम तुम
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साठ साल पहले के उस दौर में टेलीफ़ोन एक दुर्लभ चीज़
थी। ज़फ़र साहब की लोकप्रियता बढ़ी तो फ़िल्म वालों ने कुर्ला की टेढ़ी-मेढ़ी
गलियों में उन्हें ढूंढ निकाला। फ़िल्म "पुतलीबाई" में ज़फ़र साहब के गीत को अपार लोकप्रियता हासिल हुई।
कैसे बेशर्म आशिक़ हैं ये आज के
इनको अपना बनाना ग़ज़ब हो गया
धीरे धीरे कलाई लगे थामने
इनको उंगली थमाना ग़ज़ब हो गया
फ़िल्म "नूर ए इलाही" (1976) में लिखी ज़फ़र साहब की जवाबी क़व्वाली ने लोकप्रियता का
कीर्तिमान रच दिया। पूरी दुनिया में आज भी स्टेज पर जवाबी क़व्वाली के जो मुक़ाबले
होते हैं उनमें यह क़व्वाली शामिल होती है। आज भी इसे सुनकर श्रोता झूम उठते
हैं-
भरे शहर में सबको प्यारे थे हम तुम
मुहब्बत में सब के दुलारे थे हम तुम
बड़ा लुत्फ़ था जब कुंवारे थे हम तुम
सुनो जी …...
इस क़व्वाली में मियां बीवी की जो नोकझोंक है वह
अद्भुत है। बेमिसाल है। इसे सुनने के बाद आप समझ पाएंगे कि शादी से पहले इंसान की
ज़िंदगी कितनी पुरसुकून होती है। यूट्यूब पर सोनू निगम और बेला सालुंखे की आवाज़ में
यह क़व्वाली का नये रंगरूप में भी मौजूद है। ज़फ़र साहब की क़व्वालियों ने संगीत जगत
में धूम मचा दी। मंच के क़व्वाली गायकों ने इन्हें घर घर तक पहुंचा दिया। मगर ज़फ़र
साहब क़व्वाली लेखक नहीं बनना चाहते थे। इसलिए उनके पास क़व्वाली के अगले जो
प्रस्ताव आए उन्होंने लिखने से मना कर दिया।
हम निगाह से तेरी आरती उतारेंगे
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जगजीत सिंह ने ज़फ़र साहब की कई ग़ज़लें गाईं। लताजी
के साथ अपने ‘सजदा’ अलबम में भी उनको शामिल
किया। पंकज उधास को लोकप्रिय बनाने में ज़फ़र साहब के की नज़्मों और ग़ज़लों का बहुत
योगदान रहा।
ऐ ग़मे जिंदगी! मुझको दे मशवरा
एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा.
मैं कहाँ जाऊँ, होता नहीं फ़ैसला.
एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा.
पंकज उधास ने 'द मूमेंट' नाम से ज़फ़र साहब
की रचनाओं का सोलो अलबम जारी किया। उनकी एक नज़्म बहुत चर्चित हुई-
और आहिस्ता कीजिए बातें,
धड़कने कोई सुन रहा होगा.
लफ़्ज़ गिरने न पाएं होठों से,
वक़्त के हाथ इनके चुन लेंगे.
ज़फ़र साहब का एक गीत मेहंदी हसन और साबरी ब्रदर्स
से लेकर दुनिया के दर्जनों सिंगर ने गाया। पाकिस्तानी गायिका नैला मुग़ल की आवाज़
में जब आप यह गीत सुनेंगे तो आपको बहुत लुत्फ़ मिलेगा।
अब के साल पूनम में, जब तू आएगी मिलने
हमने सोच रक्खा है, रात यू गुज़ारेंगे
धड़कनें बिछा देंगे, तेरे शोख़ क़दमों में
हम निगाह से तेरी आरती उतारेंगे
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शंकर राव चव्हाण ज़फ़र
साहब के बहुत बड़े प्रशंसक थे। एक समय ऐसा आया कि सरकारी कोटे से ज़फ़र साहब को
अंधेरी के शास्त्री नगर में अपना घर मिल गया। यहां रह कर उन्होंने फ़िल्म जगत को कई
अच्छे गीतों से समृद्ध किया। भोजपुरी फ़िल्म 'गंगा की बेटी' में ज़फ़र साहब ने भोजपुरी में गीत लिखे। उनके भोजपुरी गीत भी बहुत
पसंद किए गए।
मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहाँ
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शहर के अज़ाब, गांव की मासूमियत और ज़िंदगी की
सच्चाइयों को अपनी क़लम से ज़ुबान देने वाले ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे ख़ुशनसीब शायर थे
जिसने फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी जैसे लीजेंड
शायरों से अपने कलाम के लिए दाद वसूल की। सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उन्होंने
मुशायरे में फ़िराक़ साहब के सामने ग़ज़ल पढ़ी थी-
मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहाँ,
मय बराबर बटे चारसू दोस्तो!
चंद लोगों की ख़ातिर जो मख़सूस हों,
तोड़ दो ऐसे जामो-सुबू दोस्तो!
ज़फ़र साहब की यह ग़ज़ल सुनकर फ़िराक़ साहब ने ऐलान किया
था कि ये नौजवान बड़ा शायर बनेगा। उस दौर में ज़फ़र गोरखपुरी प्रगतिशील लेखक संघ
से जुड़े हुए थे। उनकी शायरी से शोले बरस रहे थे। फ़िराक़ साहब ने उन्हें समझाया-
"सच्चे फ़नकारों का कोई संगठन नहीं होता। वे किसी संगठन में फिट ही नहीं हो
सकते। अब विज्ञान, तकनीक और दर्शन का युग है। इन्हें पढ़ना होगा। शिक्षितों के युग
में कबीर नहीं पैदा हो सकता। वाहवाही से बाहर निकलो।"
उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता
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फ़िराक़ साहब की नसीहत का ज़फ़र गोरखपुरी पर गहरा असर
हुआ। वे संजीदगी से शायरी में जुट गए। ज़फ़र गोरखपुरी ने अलग और आधुनिक अंदाज़
अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया। उनकी शायरी में विविधरंगी
शहरी जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति की महक और गांव के सामाजिक जीवन की मनोरम झांकी
है। इसी ताज़गी ने उनकी ग़ज़लों और गीतों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया। उनके
विविधतापूर्ण सृजन ने एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया। उर्दू के फ्रेम में हिंदी
की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज़ में पेश किया। सन् 1962 में जब उनका पहला
काव्य संग्रह 'तेशा' प्रकाशित हुआ तो फ़िराक गोरखपुरी ने उसकी समीक्षा लिखी।
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उर्दू दैनिक इंक़लाब में मेरी एक ग़ज़ल प्रकाशित हुई।
एक शायर ने ज़फ़र साहब को फ़ोन करके कहा- आपके शागिर्द देवमणि पांडेय की इंक़लाब
में बड़ी अच्छी ग़ज़ल शाया हुई है। ज़फ़र साहब ने जवाब दिया- पांडेय जी मेरे
शागिर्द नहीं हैं। वो मेरे दोस्त हैं। मुझसे अपनी ग़ज़लों पर दोस्ताना मशविरा लेते
हैं। मैं भी अपने दोहे और गीत पर उनसे दोस्ताना मशविरा लेता हूं। हमारा यह रिश्ता
दोस्ती का है। एक बार ज़फ़र साहब ने मुझे एक दोहा सुनाकर मशविरा मांगा-
लिखने को सात आसमां, पढ़ने को पाताल.
ले देकर कुल ज़िंदगी, पैंसठ सत्तर साल.
मैंने उनको मशवरा दिया कि 'सात' शब्द में एक मात्रा
ज़्यादा हो रही है। 'सत' का वज़्न आ रहा है।। उन्होंने फ़रमाया कि मैं चाहूं तो एक
मात्रा कम कर के वज़्न बराबर कर सकता हूं। मगर हमारे यहां सात आसमां का तसव्वुर
है। इसलिए यहां मैंने जानबूझकर आज़ादी ली है। जो शायरी के क़द्रदान हैं वो सात और
आसमां लफ़्ज़ को आपस में मिलाकर सातास्मां पढ़ेंगे तो वज़्न बराबर हो जाएगा। ज़फ़र
साहब के दोहों में आज के दौर की दास्तान होने के साथ-साथ देहाती ज़िंदगी का उल्लास
भी है और दर्द भी है-
जा कर बैठें चार पल, किन पेड़ों के पास.
ज़फ़र हमारे भाग्य में, शहरों का बनबास.
कौन बसंती धो गई, नदी में अपने गाल.
तट ख़ुशबू से भर गया, सारा पानी लाल.
रोटी बासी लगती है स्टील की थाली में
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ज़फ़र साहब ने अपने अदबी गीतों की पांडुलिपि तैयार कर
ली थी मगर वो प्रकाशित नहीं हो सकी। उन्होंने मुझे अपने कई गीत सुनाए थे। उनके गीत
दिल को छूते हैं क्योंकि उसमें अपनी मिट्टी की ख़ुशबू, एहसास की शिद्दत और रिश्तों
की सुगंध है। मिसाल के तौर पर एक गीत की चंद लाइनें देखिए-
ओ री सखी! ये डलिया बुनना कैसा नीक लगे
सखी उन्होंने लिक्खा था पिछली दीवाली में
बुन रखना इक डलिया सावन की हरियाली में
रोटी बासी लगती है स्टील की थाली में
साजन खा न सकें जी भर के क्या ये ठीक लगे
ओ री सखी! ये डलिया बुनना कैसा नीक लगे
संगीत के ख़ज़ाने में ज़फ़र गोरखपुरी के गीत एक क़ीमती
इज़ाफ़ा हैं। बल्कि यूँ कहा जाए कि ये गीत ऐसे मोड़ का पता देते हैं जहाँ से गीतों
का एक नया क़ाफ़िला आगे की ओर रवाना होगा। गोरखपुर ज़िले की बासगांव तहसील के बेदौली
बाबू गांव गांव में 5 मई 1935 को जन्मे ज़फ़र गोरखपुरी का इंतक़ाल मुंबई में 29
जुलाई 2017 को हुआ। उनके उर्दू में पांच संकलन प्रकाशित हुए। हिंदी में ज़फ़र साहब
की ग़ज़लों का संकलन आर-पार का मंज़र नाम से प्रकाशित हुआ। ज़फ़र गोरखपुरी ने बाल
साहित्य के क्षेत्र में भी सराहनीय योगदान दिया। उनकी रचनाएं महराष्ट्र के शैक्षिक
पाठ्यक्रम में पहली कक्षा से लेकर बी.ए. तक के कोर्स में पढाई जाती हैं। अंत में
आप सबके लिए पेश है फ़िल्म 'शमा' से ज़फ़र गोरखपुरी का एक गीत। संगीतकार उषा खन्ना द्वारा संगीतबद्ध
इस गीत को लता मंगेशकर ने गाया है।
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चाँद अपना सफ़र ख़त्म करता रहा
शमा जलती रही, रात ढलती रही
दिल में यादों के नश्तर से टूटा किए
एक तमन्ना कलेजा मसलती रही
चाँद अपना सफ़र...
बदनसीबी शराफ़त की दुश्मन बनी
सज संवर के भी दुल्हन न दुल्हन बनी
टीका माथे पे इक दाग़ बनता गया
मेहंदी हाथों से शोले उगलती रही
चाँद अपना सफ़र...
ख़्वाब पलकों से गिर कर फ़ना हो गए
दो क़दम चल के तुम भी जुदा हो गए
मेरी हारी थकी आँख से रात दिन
इक नदी आँसूओं की उबलती रही
चाँद अपना सफ़र...
सुबह मांगी तो ग़म का अंधेरा मिला
मुझको रोता सिसकता सवेरा मिला
मैं उजालों की नाकाम हसरत लिए
उम्र भर मोम बन कर पिघलती रही
चाँद अपना सफ़र...
चंद यादों की परछाईयों के सिवा
कुछ भी पाया न तनहाईयों के सिवा
वक़्त मेरी तबाही पे हँसता रहा
रंग तक़दीर क्या-क्या बदलती रही
चाँद अपना सफ़र...
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आपका-
देवमणि पांडेय
DevmaniPandey : B-103, Divya Stuti, Kanya Pada,
Gokuldham, Film City Road, Goregaon East, Mumbai-400063, 98210 82126
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