शुक्रवार, 21 मई 2010

मेरी पहचान है शेर ओ सुख़न से : नक्श लायलपुरी


कवि देवमणि पाण्डेय ,समाजसेवी रामनारायण सराफ, शायर निदा फ़ाज़ली और शायर नक़्श लायलपुरी (मुम्बई 2005)

नक़्श से मिलके तुमको चलेगा पता

नक्श लायलपुरी की शायरी में ज़बान की मिठास, एहसास की शिद्दत और इज़हार का दिलकश अंदाज़ मिलता है । उनकी ग़ज़ल का चेहरा दर्द के शोले में लिपटे हुए शबनमी एहसास की लज़्ज़त से तरबतर है। शायरी के इस समंदर में एक तरफ़ फ़िक्र की ऊँची-ऊँची लहरें हैं तो दूसरी तरफ़ इंसानी जज़्बात की ऐसी गहराई है जिसमें डूब जाने को मन करता है । नक़्श साहब की शायरी में पंजाब की मिट्टी की महक, लखनऊ की नफ़ासत और मुंबई के समंदर का धीमा-धीमा संगीत है-

मेरी पहचान है शेरो-सुख़न से
मैं अपनी क़द्रो क़ीमत जानता हूं

ज़िंदगी के तजुरबात ने उनके लफ़्ज़ों को निखारा संवारा और शायरी के धागे में इस सलीक़े से पिरो दिया कि उनके शेर ग़ज़ल की आबरु बन गए । फ़िल्मी नग़मों में भी जब उनके लफ़्ज़ गुनगुनाए गए तो उनमें भी अदब बोलता और रस घोलता दिखाई दिया -

· रस्मे-उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे-
· मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूँगा सदा-
· यह मुलाक़ात इक बहाना है-
· उल्फ़त में ज़माने की हर रस्म को ठुकराओ-
· माना तेरी नज़र में तेरा प्यार हम नहीं-
· तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे-
· तुम्हें हो न हो पर मुझे तो यकीं है-
· कई सदियों से,कई जनमों से,तेरे प्यार को तरसे मेरा मन-
· न जाने क्या हुआ,जो तूने छू लिया,खिला गुलाब की तरह मेरा बदन-
· चाँदनी रात में इक बार तुझे देखा है,ख़ुद पे इतराते हुए,ख़ुद से शरमाते हुए-

नक़्श साहब का जन्म 24 फरवरी 1928 को लायलपुर (अब पाकिस्तान का फैसलबाद) में हुआ।उनके वालिद मोहतरम जगन्नाथ ने उनका नाम जसवंत राय तजवीज़ किया।शायर बनने के बाद उन्होंने अपना नाम तब्दील किया।अब उनके अशआर इस क़दर दिलों पर नक़्श हो चुके हैं कि ज़माना उन्हें नक़्श लायलपुरी के नाम से जानता है -

नक़्श से मिलके तुमको चलेगा पता
जुर्म है किस क़दर सादगी दोस्तो

नक़्श लायलपुरी 1947 में जब बेवतन हुए तो लायलपुर से पैदल चलकर हिंदुस्तान आए और लखनऊ को अपना आशियाना बनाया।पान खाने और मुस्कराने की आदत उनको यहीं से मिली।उनकी शख़्सियत में वही नफ़ासत और तहज़ीब है जो लखनऊ वालों में होती है।लखनऊ की अदा और तबस्सुम उनकी इल्मी और फ़िल्मी शायरी में मौजूद है-

कई बार चाँद चमके तेरी नर्म आहटों के
कई बार जगमगाए दरो-बाम बेख़ुदी में

नक़्श लायलपुरी 1951 में रोज़गार की तलाश में मुम्बई आए और यहीं के होकर रह गए।लाहौर में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का जो जज़्बा पैदा हुआ था उसे मुम्बई में एक माहौल मिला-

हमने क्या पा लिया हिंदू या मुसलमां होकर
क्यों न इंसां से मुहब्बत करें इंसां होकर

सिने जगत ने उन्हें बेशक़ दौलत,शोहरत और इज़्ज़त दी मगर उनकी सादगी को यहाँ की चमक-दमक और रंगीनियां रास नहीं आईं-

ये अंजुमन,ये क़हक़हे,ये महवशों की भीड़
फिर भी उदास,फिर भी अकेली है ज़िंदगी


फ़िल्म राइटर्स एसोसिएसन,मुम्बई के मुशायरे में स्व.गणेश बिहारी तर्ज़,
 क़मर जलालाबादी, शायर नक़्श लायलपुरी और कवि देवमणि पाण्डेय (1999)


छात्र जीवन में हम कुछ दोस्त अक्सर फ़िल्म ‘चेतना’ का यह गीत मिलकर गाया करते थे- ‘मैं तो हर मोड़ पर / तुझको दूँगा सदा / मेरी आवाज़ को / दर्द के साज़ को / तू सुने ना सुने ! तब मैंने कहा था- अगर मैं कभी मुम्बई गया तो इसके गीतकार से ज़रूर मिलूँगा। एक मुशायरे में मैंने नक़्श साहब की सदारत में कविता पाठ किया।उन्होंने बताया- पाँच टुकड़े में बंटी हुई इस धुन पर गीत लिखने में उन्हें सिर्फ़ 10 मिनट लगे थ। वे मुझे फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन में लाए। उम्र के फ़ासले को भूलकर हमेशा दोस्ताना लहजे में बात की। उनका मन बच्चे की तरह निर्मल और शख़्सियत आइने की तरह साफ़ है। 22 अप्रैल 2004 को अपना काव्यसंकलन ‘तेरी गली की तरफ़’ भेंट करते हुए उन्होंने कहा- अगले महीने मेरे एक दोस्त इस किताब का रिलीज़ फंकशन आयोजित कर रहे हैं। अगले महीने उनके दोस्त गुज़र गए।‘तेरी गली की तरफ़’ का लोकार्पण आज तक नहीं हुआ।


नक़्श लायलपुरी की ग़ज़लें


(1)
कोई झंकार है, नग़मा है, सदा है क्या है ?
तू किरन है, के कली है, के सबा है, क्या है ?

तेरी आँख़ों में कई रंग झलकते देख़े
सादगी है, के झिझक है, के हया है, क्या है ?

रुह की प्यास बुझा दी है तेरी क़ुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है, क्या है ?

नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है, क्या है ?

होश में लाके मेरे होश उड़ाने वाले
ये तेरा नाज़ है, शोख़ी है, अदा है, क्या है ?

दिल ख़तावार, नज़र पारसा, तस्वीरे अना
वो बशर है, के फ़रिश्ता है, के ख़ुदा है, क्या है ?

बन गई नक़्श जो सुर्ख़ी तेरे अफ़साने की
वो शफ़क है, के धनक है, के हिना है, क्या है ?

(2)
जब दर्द मुहब्बत का मेरे पास नहीं था
मैं कौन हूँ, क्या हूँ, मुझे एहसास नहीं था

टूटा मेरा हर ख़्वाब, हुआ जबसे जुदा वो
इतना तो कभी दिल मेरा बेआस नहीं था

आया जो मेरे पास मेरे होंट भिगोने
वो रेत का दरिया था, मेरी प्यास नहीं था

बैठा हूँ मैं तनहाई को सीने से लगा के
इस हाल में जीना तो मुझे रास नहीं था

कब जान सका दर्द मेरा देखने वाला
चेहरा मेरे हालात का अक्कास नहीं था

क्यों ज़हर बना उसका तबस्सुम मेरे ह़क में
ऐ ‘नक़्श’ वो इक दोस्त था अलमास नहीं था

(3)
मैं दुनिया की हक़ीकत जानता हूँ
किसे मिलती है शोहरत जानता हूँ

मेरी पहचान है शेरो सुख़न से
मैं अपनी कद्रो क़ीमत जानता हूँ

तेरी यादें हैं , शब बेदारियाँ हैं
है आँखों को शिकायत जानता हूं

मैं रुसवा हो गया हूँ शहर भर में
मगर ! किसकी बदौलत जानता हूँ

ग़ज़ल फ़ूलों सी, दिल सेहराओं जैसा
मैं अहले फ़न की हालत जानता हूँ

तड़प कर और तड़पाएगी मुझको
शबे-ग़म तेरी फ़ितरत जानता हूँ

सहर होने को है ऐसा लगे है
मैं सूरज की सियासत जानता हूँ

दिया है ‘नक़्श’ जो ग़म ज़िंदगी ने
उसे मै अपनी दौलत जानता हूँ

(4)
पलट कर देख़ लेना जब सदा दिल की सुनाई दे
मेरी आवाज़ में शायद मेरा चेहरा दिख़ाई दे

मुहब्बत रौशनी का एक लमहा है मगर चुप है
किसे शमए- तमन्ना दे किसे दाग़े जुदाई दे

चुभें आँख़ों में भी और रुह में भी दर्द की किरचें
मेरा दिल इस तरह तोड़ो के आईना बधाई दे

खनक उठें न पलकों पर कहीं जलते हुए आँसू
तुम इतना याद मत आओ के सन्नाटा दुहाई दे

रहेगा बन के बीनाई वो मुरझाई सी आँख़ों में
जो बूढ़े बाप के हाथों में मेहनत की कमाई दे

मेरे दामन को बुसअत दी है तूने दश्तो दरिया की
मैं ख़ुश हूँ देने वाले, तू मुझे कतरा के राई दे

किसी को मख़मलीं बिस्तर पे भी मुश्किल से नींद आए
किसी को नक़्श दिल का चैन टूटी चारपाई दे
(5)एक आँसू गिरा सोचते सोचते
याद क्या आ गया सोचते सोचते

कौन था, क्या था वो, याद आता नहीं
याद आ जाएगा सोचते सोचते

जैसे तसवीर लटकी हो दीवार से
हाल ये हो गया सोचते सोचते

सोचने के लिए कोई रस्ता नहीं
मैं कहाँ आ गया सोचते सोचते
3
मैं भी रसमन तअल्लुक़ निभाता रहा
वो भी अक्सर मिला सोचते सोचते

फ़ैसले के लिए एक पल था बहुत
एक मौसम गया सोचते सोचते

‘नक़्श’ को फ़िक्र रातें जगाती रहीं
आज वो सो गया सोचते सोचते



आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

बुधवार, 12 मई 2010

तुमको देखा तो ये ख़याल आया : जावेद अख़्तर


हमको ज़हीन लोग हमेशा अज़ीज़ थे : जावेद अख़्तर 

जब इंसान की शोहरत की बुलंदियों को छूने लगती है तब उसके बारे में कई क़िस्से कहानियां चल पड़ते हैं। एक रियल्टी शो में शायर जावेद अख़्तर से सवाल पूछा गया- क्या आप और शबाना आज़मी में कभी लड़ाई-झगड़ा भी होता है ? जावेद बोले - दरअसल हमारे पास झगड़े के लिए वक़्त ही नहीं हैं। महीने में 20 दिन शबाना बाहर रहती हैं। महीने में 10 दिन मैं बाहर रहता हूँ। संयोगवश कभी कभार एयरपोर्ट पर आमना सामना हो जाता है तो हलो-हाय कर लेते हैं। जब साथ होंगे ही नहीं तो झगड़े कब होंगे।

ख़ुश शक्ल भी है वो ये अलग बात है मगर
हमको ज़हीन लोग हमेशा अज़ीज़ थे

मुंबई के पांच सितारा होटल सहारा स्टार में मुनव्वर राना की किताब 'नए मौसम के फूल' का लोकार्पण सहारा समय के न्यूज डायरेक्टर उपेंद्र राय ने आयोजित किया था। संचालन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई थी। समारोह में भरोसा न्यास इंदौर के संयोजक अरविंद मंडलोई मौजूद थे। उन्होंने मुझसे निवेदन किया कि इंदौर में चार केंद्रीय मंत्रियों की मौजूदगी में जावेद अख़्तर को भरोसा अवार्ड से नवाज़ा जाएगा। आप इस कार्यक्रम का संचालन कर दीजिए।

जावेद अख़्तर को भरोसा आवार्ड


इंदौर के शांतिमंडप में बड़े घराने की शादियां सम्पन्न होती हैं। 11 फरवरी 2010 को दोपहर 12 बजे वहां सचमुच शादी जैसा माहौल था। चाट, चायनीज़, और इटालियन पास्ता से लेकर रजवाड़ी भोजन तक के स्टाल सजे हुए थे। जावेद अख़्तर की रचनात्मक उपलब्धियों पर केंद्रित पुस्तक ‘जैसे जलता दिया’ का यह लोकार्पण समारोह था। बतौर संचालक मैंने माइक संभाला। मंच पर बैठे राजनेता बलराम जाखड़, जस्टिस जे.एस .वर्मा, शायर मुनव्वर राणा, संस्थाध्याक्ष शरद डोशी और सत्कार मूर्ति जावेद अख़्तर मंडप की रंगीनियां और ख़ुशलिबास भीड़ देखकर मुस्करा कर रहे थे। यह पता लगाना मुश्किल था कि सामने जो लोग बरातियों की तरह सजधज कर आए हैं उन्हें शायरी से ्मुहब्बत है या स्वादिस्ट व्यंजनों से लगाव है। मौक़े की नज़ाकत देखते हुए मैंने भूमिका बांधी। इस वक़्त मुंबई में गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं। हम इस ऊँचाई पर गर्व कर सकते हैं। मगर ऐसी चीजों के साइड इफेक्ट भी होते हैं। इस मौज़ू पर बीस साल पहले ही जावेद अख़्तर ने एक शेर कहकर हमें आगाह कर दिया था -

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गये

यह शेर सुनकर लोगों ने तालियां बजाईं। शाम को अभय प्रशाल स्टेडियम में लगभग दस हज़ार लोगों की भीड़ थी। मैंने फिर भूमिका बांधी कि कैसे एक शायर अपने समय से आगे होता है और इंदौर शहर के भौतिक विकास का ज़िक्र करते हुए मैंने जावेद अख़्तर का एक शेर कोट कर दिया -

इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं
होठों पे लतीफे हैं, आवाज़ में छाले हैं

तालियां बज गईं। मंच पर पद्मश्री गोपलदास नीरज और पदमश्री बेकल उत्साही के साथ ही चार केंद्रीय मंत्री भी मौजूद थे- बलराम जाखड़, फ़ारूक़ अब्दुल्ला, सलमान ख़ुर्शीद और श्रीप्रकाश जायसवाल। जावेद अख़्तर को एक लाख रुपये के भरोसा आवार्ड से सम्मानित किया गया। जावेद अख़्तर ने ‘ये वक़्त क्या है’ नज़्म सुनाकर श्रोताओं से भरपूर दाद वसूल की।

दर्द के फूल खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं

जावेद अख़्तर के टाक शो में तसलीमा नसरीन


अगले दिन 12 फरवरी 2010 को इंदौर के रवींद्र नाट्यगृह में एक टॉक शो का आयोजन था। जावेद अख़्तर ने ऐलान कर दिया कि सभागार में मौजूद कोई भी आदमी कोई भी सवाल पूछ सकता है। सफेद कुर्ते-पाज़ामे में सजधज कर आए जावेद तेज़ रोशनी में काफ़ी चमक रहे थे। एक मोटे आदमी ने पहला सवाल किया- आप इतने तरो-ताज़ा कैसे रहते हैं ? सवाल सुनकर लोग हंसने लगे। जावेद ने जवाब दिया- अगर आप मेरी तरह रात में देर से सोएं, सुबह देर से उठें और जो भी अंट-शंट मिले खाएं तो आप भी मेरी तरह तरो-ताज़ा दिखने लगेंगे। ज़ाहिर है फिर से ठहाका लगा।

हमसे दिलचस्प कभी सच्चे नहीं होते हैं
अच्छे लगते हैं मगर अच्छे नहीं होते हैं

एक पत्रकार ने सवाल किया- आपको भी सरकारी सुरक्षा क्यों दी गई थी। जावेद ने बताया- यह सुरक्षा न तो मुझे बाल ठाकरे के कारण मिली थी और न ही राज ठाकरे के कारण। दरअसल यह सुरक्षा मुझे अपने ही मुस्लिम भाइयों के कारण मिली। हुआ यह कि मुंबई के एक मुस्लिम संगठन ने फतवा जारी कर दिया कि अगर तसलीमा नसरीन मुंबई आएंगी तो उनका सर काट दिया जाएगा। यह फतवा पढ़कर मैंने ख़ासतौर से तसलीमा को मुंबई बुलवाया। एक अदबी समारोह में उनका सम्मान और भाषण हुआ। वे सकुशल वापस गईं। हमारे मुस्लिम भाइयों की नाराज़गी को देखते हुए सरकार ने मुझे छ: महीने तक सरकारी सुरक्षा मुहैया कराई।

अपनी वजहे-बरबादी सुनिए तो मज़े की है
ज़िंदगी से यूँ खेले, जैसे दूसरे की है

उर्दू भाषा पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में जावेद अख़्तर ने ज़ोर देकर कहा कि उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है। यह नार्थ इंडिया की भाषा है और इसमें वहां का कल्चर समाया हुआ है। अगर इसे मुसलमानों तक सीमित किया गया तो यह नार्थ इंडिया के कल्चर से महरुम हो जाएगी।

फ़िल्म जगत में साम्प्रदायिकता के सवाल पर जावेद अख़्तर ने कहा कि बॉलीवुड का वर्क कल्चर साम्प्रदायिकता से बहुत ऊपर है। आप एक फ़िल्म में एक गाना देखते हैं तो उसके पीछे गीतकार, संगीतकार और गायक से लेकर कम से कम दस लोगों की मेहनत होती है। हर आदमी इसी भावना से काम करता है कि गीत को कामयाबी मिले। एक ही लक्ष्य होने के कारण दिल में साम्प्रदायिकता की भावना आती ही नहीं। अगर हमारे देश के सारे नेता देश की कामयाबी को ही अपना लक्ष्य बना लें तो हमारे देश से साम्प्रदायिकता ख़त्म हो जाएगी।

समूचे शहर को जामू सुगंध कर दूंगा


मेरे पास जावेद अख़्तर का जो काव्य संकलन ‘तरकश’ है उस पर उनके हस्ताक्षर के नीचे 1-1-1996 तारीख़ है। उस दौरान जावेद को कविता पाठ के लिए काफी जगहों पर बुलाया गया और वे गए। आईडीबीआई बैंक, कफ परेड, मुंबई के एक कवि सम्मेलन में शिरकत करके हम लोग वापस लौट रहे थे। जावेद की कार में मैं और कवि सूर्यभानु गुप्त भी थे। चर्चगेट में इरोस सिनेमा पर फ़िल्म की जो होर्डिंग लगी थी उस पर नीचे लिखा था- दिग्दर्शक जामू सुगंध। जावेद ने कहा- यार ये नाम बहुत अच्छा है। इसके साथ क़ाफ़िया क्या लगेगा ? सूर्यभानु जी बोले- चंद, बंद, छंद चल जाएगा। मसलन- शराफ़त मैं बंद करा दूंगा। जावेद बोल पड़े-

बस आज से ही शराफ़त मैं बंद कर दूंगा
समूचे शहर को जामू सुगंध कर दूंगा

जावेद की मां सफ़िया अख़्तर ने अपनी किताब ‘ज़ेरे-लब’ में ज़िक्र किया है कि जावेद ने 5 साल की उम्र से ही तुकबंदी शुरु कर दी थी। अब तो वे बात बात में अपना यह हुनर दिखा देते हैं। एक दिन मैं उनसे मिलने जुहू उनके घर गया। मिलते ही उन्होंने पूछा- और निदा साहब के क्या हाल हैं! मैंने बताया- रविवार को ‘जनसत्ता सबरंग’ में उनकी एक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है -

कहीं कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है

जावेद अख़्तर ने दूसरा मिसरा सुनाने का मौक़ा मुझे नहीं दिया। झट से दूसरा मिसरा लगा दिया-

ऐसी ग़ज़लें छपवाने में पैसा लगता है

सन् 1996 में अपने काव्य संग्रह 'तरकश' को जावेद अख़्तर ने अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड करके ऑडियो बुक बनवाई। चर्चगेट मुम्बई के एसएनडीटी कॉलेज में उनका कविता पाठ था। उन्होंने हाल के बाहर अपनी किताब के पोस्टर लगवाए। बुक और ऑडियोबुक का स्टाल लगवाया। कविता पाठ के समय कहा- विदेशों में लोग घर का सामान ख़रीदने की लिस्ट बनाते हैं तो उसमें उन किताबों के नाम भी शामिल कर लेते हैं जिन्हें ख़रीदना होता है। मैं चाहता हूं कि हिंदुस्तान में भी राशन की दुकान पर किताबों की बिक्री हो तो बेहतर होगा।

जावेद अख़्तर के फ़िल्मी कैरियर से आप सब भलीभांति वाक़िफ़ हैं। बतौर गीतकार उनकी पहली फ़िल्म थी 'साथ साथ' मगर 'सिलसिला' पहले रिलीज़ हो गई। फ़िल्म साथ साथ  में कुलदीप सिंह का संगीत था। फ़िल्म के सारे गीत पसंद किए गए। "तुमको देखा तो ये ख़याल आया" गीत बहुत मशहूर हुआ। निर्देशक रमन कुमार की फ़िल्म 'साथ साथ' (1985) के समय जावेद हिंदी सिनेमा के स्टार राइटर थे। कुलदीप सिंह नए संगीतकार थे। उन्होंने कुलदीप सिंह का क्लास ले लिया। उन्हें एक नज़्म दी- "ये तेरा घर ये मेरा घर"।  कहा- पापा जी, इसे कम्पोज़ करके लाइए फिर देखता हूं आगे क्या करना है। कुलदीप सिंह की बनाई धुन जावेद को पसंद आई। उन्होंने फ़िल्म के सभी गाने लिखे।

फ़िल्म 'सिलसिला' में शिव हरि का संगीत है। शीर्षक गीत की धुन के अनुसार म्यूज़िक ट्रैक इतना ही था- "देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले"। जावेद अख़्तर ने संगीतकार शिव हरि से म्यूजिक ट्रैक ज़रा सा तब्दील करने की गुज़ारिश की। संगीतकार उनकी बात मान गए तो ये गीत बना-

देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए 
दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए 

करण जौहर ने फ़िल्म 'कुछ कुछ होता है' के गीत लिखने के लिए जावेद साहब को संपर्क किया। जावेद साहब को फ़िल्म का नाम बहुत बुरा लगा। उन्होंने साफ़-साफ़ लिखने से मना तो नहीं किया लेकिन प्यार से करण को समझाया कि इस समय मैं बहुत व्यस्त हूं। यह फ़िल्म बना लो। आगे फिर कभी साथ में काम करेंगे।

जावेद अख़्तर संगीतकारों के साथ सहयोग बनाए रखते हैं। ऐसे मौक़े कई बार आए हैं जब उन्होंने संगीतकार के कहने पर अपने लिखे गीतों में तब्दीलियां की हैं। फ़िलहाल फ़िल्म जगत का मौसम बदल गया है। अजीब तरह की फ़िल्में बन रही हैं। उनमें अजीब तरह के गीत आ रहे हैं। ऐसे माहौल में अब जावेद अख़्तर जैसे जहीन और हुनरमंद गीतकार की ज़रूरत कभी-कभी ही महसूस की जाती है।

जावेद अख़्तर की शायरी


ग़म होते हैं जहां ज़हानत होती है
दुनिया में हर शय की क़ीमत होती है
अकसर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं
अकसर क्यूं कहते हैं हैरत होती है

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब
सबकी ख़ातिर हैं यहां सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है
ज़ख़्म तो हमने इन आँखों से देखे हैं
लोगों से सुनते हैं मरहम होता है

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता


आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126

devmanipandey.blogspot.Com