मंगलवार, 25 अगस्त 2020

महात्मा गांधी की हिंदुस्तानी ज़बान में हिंदुस्तानी ग़ज़ल

L To R : Lyricst Shekhar Astitv, Screen Writer Kamalesh Pandey & Devmani Pandey

हिंदुस्तानी ज़बान में हिंदुस्तानी ग़ज़ल


मैंने एक ग़ज़ल पोस्ट की थी। कुछ दोस्तों ने कहा कि यह हिंदुस्तानी ग़ज़ल है। आसान हिंदी और आसान उर्दू के मेल से जो आम फ़हम भाषा बनती है उसे महात्मा गांधी ने हिंदुस्तानी ज़बान नाम दिया था। ग़ज़ल का मतला है-

सजा है इक नया सपना हमारे मन की आंखों में
कि जैसे भोर की किरनें किसी आंगन की आंखों में

यह ग़ज़ल कहने के बाद मुझे महसूस हुआ कि यह उसी बहर यानी छंद में है जिसमें संत कबीर ने एक ग़ज़ल कही है- 

हमन है इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या
रहे आज़ाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या

संत कबीर की यह ग़ज़ल मुंबई के संगीतकार कुलदीप सिंह के एक संगीत अलबम में शामिल है। उनकी कंपोजीशन सुनकर मुझे लगा कि यह धुन तो कहीं सुनी हुई है। थोड़ा सोचने पर याद आया कि यह तो एक लोक धुन है। हमारे गांव की महिलाएं इस धुन में 'सोहर' गीत गाती हैं। इसका मतलब है कि ग़ज़ल भले ही हमको अरबी फ़ारसी से हासिल हुई मगर इसके कई छंद हमारे लोक जीवन में पहले से मौजूद हैं। लोक जीवन से ही चौपाई का छंद लेकर महाकवि जायसी ने पद्मावत महाकाव्य की रचना की। चौपाई छंद में काफ़ी ग़ज़लें कही गईं है- 

दिल के ज़ख़्मों को क्या सीना 
दर्द बिना जीना क्या जीना

"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी" यह भी लोकजीवन का लोकप्रिय छंद है। इसमें भी ढेर सारे शायरों ने ग़ज़लें कही हैं- 

देर लगी आने में तुमको शुक्र है फिर भी आए तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा वैसे हम घबराए तो

फ़िराक़ साहब ने कहा था- ज़िंदगी से गुफ़्तगू का नाम ग़ज़ल है। दुष्यंत कुमार ने कहा- "मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं।" मुझे आमफ़हम हिंदुस्तानी ज़बान के वो शेर ख़ासतौर से पसंद आते हैं जिनमें ज़िंदगी की तस्वीर नज़र आती है। मसलन किसी का शेर है- 

मुद्दत से उसकी छांव में बैठा नहीं कोई 
इक रोज़ वो दरख़्त इसी ग़म में मर गया

किसी महानगर में सांस लेता हुआ यह तनहा 'दरख़्त' पुरुष भी हो सकता है, महिला भी। लॉकडाउन के दौरान जानलेवा तनहाई का अज़ाब कई दरख़्त झेल रहे हैं। शहर आने से पहले मैंने देखा था कि गांव में बच्चों के साथ खेलते हुए बूढ़े कितना ख़ुश नज़र आते हैं इस पर मैंने एक शेर कहा-

कुछ परिंदों ने बनाए आशियाने शाख़ पर 
गांव के बूढ़े शजर को फिर जवानी मिल गई

मुझे लगता है कि जो लोग गांव से चलकर शहर आए हैं गांव कभी उनका साथ नहीं छोड़ता। पूरी ज़िंदगी मुंबई में बसर करने वाले शायर ज़फ़र गोरखपुरी ने लिखा-

मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में 
अपनी घरवाली को इक कंगन दिलाने के लिए 

हालांकि अब गांव वालों के हाथ में भी मोबाइल आ चुका है मगर दाम्पत्य प्रेम को दर्शाने वाले ज़फ़र साहब के इस शेर में आज भी मुझे लुत्फ़ आता है-

मेले ठेले पान मिठाई सब छाती के घाव बने
सजनी आँगन बीच अकेली बस की भीड़ में बालम तन्हा

● मुम्बई में हिंदुस्तानी प्रचार सभा ●


आज़ादी के कुछ साल पहले जब हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बता कर सियासत ने दिलों में दरार पैदा करने की साज़िश रची तब महात्मा गांधी ने दिलों की दूरी को पाटने के लिए पेरीन बेन नरीमन के नेतृत्व में मुंबई के चर्नी रोड स्टेशन के पास सन् 1942 में हिंदुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना की। जब यहां इमारत बनी तो उसका नाम महात्मा गांधी मेमोरियल बिल्डिंग रखा गया। यहां पर आज भी सरल हिंदी और सरल उर्दू मुफ़्त में सिखाई जाती है। यहां एक विशाल पुस्तकालय है जिसमें हिंदी उर्दू पुस्तकों का समृद्ध भंडार है।

महात्मा गांधी की दिलों को जोड़ने वाली मंशा को कई बुद्धिजीवी समझ नहीं पाए। उन्होंने कहा- हिंदुस्तानी ज़बान कोई ज़बान नहीं होती। कुछ ने कहा- हिंदुस्तानी ज़बान बोलचाल की हिंदी का ही एक लहजा है। अगर देखा जाए तो हिंदुस्तान से लेकर पाकिस्तान तक उन ग़ज़लकारों के कलाम जनता के बीच लोकप्रिय हुए जिन्होंने हिंदुस्तानी ज़बान में शायरी की।

वडोदरा के शायर ख़लील धनतेजवी गुजराती और हिंदुस्तानी ज़बान में शेर कहते हैं। हिंदी में उनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनके कुछ शेर मुझे याद आ रहे हैं-

अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूँ 
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ

इतनी महंगाई कि बाज़ार से कुछ लाता हूं 
अपने बच्चों में उसे बांट के शर्माता हूं

दौलत बंटी तो भाइयों का दिल भी बंट गया 
जो पेड़ मेरे हिस्से में आया था कट गया 

इन शेरों में शामिल जो सच है वह हिंदुस्तानी समाज का सच है। मेरे ख़याल से हिंदुस्तानी ज़बान में हिंदुस्तानी समाज का सच बयान करने वाली ग़ज़लों को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहने में कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए।

मैं कई बहुभाषी गोष्ठियों में शामिल रहा हूं। मराठी कवि कहता है- ग़ज़ल पेश कर रहा हूं। गुजराती कवि कहता है- ग़ज़ल पेश कर रहा हूं। हिंदी कवि कहता है- 'हिंदी ग़ज़ल' पेश कर रहा हूं। यह सुनकर बड़ा अजीब लगता है। सुनाते समय 'हिंदी' पर इतना आग्रह क्यों? हिंदी विशेषण तो तब लगना चाहिए जब ग़ज़ल पर कोई विमर्श करना हो। मसलन दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल या आज़ादी के बाद हिंदी ग़ज़ल।

एक बातचीत में कविवर गोपालदास नीरज ने कहा था- हिंदी में हज़ारों लोग ग़ज़ल कह रहे हैं मगर 'तग़ज़्ज़ुल' (शेर कहने का हुनर) सिर्फ़ दो-चार लोगों के ही पास है। नीरज जी ने यह भी कहा था कि हिंदी कवि जो ग़ज़लें कह रहे हैं उनको 'गीतिका' नाम देना बेहतर होगा। हिंदी कवियों ने उनकी बात नहीं मानी और अपनी लिखी हुई ग़ज़ल को 'हिंदी ग़ज़ल' कहने लगे।

ग़ज़ल कहना जितना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी है उसे सुनाना। जब हम जनता के सामने ग़ज़ल पेश करते हैं तो हमें दाद तभी मिलती है जब शेर में 'तग़ज़्ज़ुल' यानी शेरियत हो। श्रोताओं की प्रतिक्रिया से शायर को अपनी ख़ामियों का पता चलता है। बिना काग़ज़ देखे अगर ग़ज़ल को याद करके पेश किया जाए तो बेहतर है। 

21वीं सदी में ग़ज़ल का चेहरा काफ़ी बदल गया है। नए दौर के संगीत की तरह ग़ज़ल ऊंचे सुर में बात करती है। उसमें पत्रकारिता है, लाउडनेस है। मगर इमोशन और गहराई ग़ायब है। मुझे लगता है कि हिंदुस्तानी ज़बान में कही गई हिंदुस्तानी ग़ज़ल मो रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार के गायन की तरह फास्ट फूड के ज़माने में भी दिलों की तार झंकृत करती रहेगी।

दुष्यंत कुमार ने सौ ग़ज़लें नहीं कहीं। अदम गोंडवी भी सौ ग़ज़लें नहीं कहीं। मगर इस दौर में कई कवि ऐसे हैं जो एक हज़ार से अधिक ग़ज़लें कह चुके हैं। कई कवि ऐसे हैं जिनके आठ दस ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मैं उनकी प्रतिभा को प्रणाम करता हूं। इस भंडार में दाना कितना है और भूसा कितना है यह तो वक़्त ही बताएगा।

आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क: बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

डॉ राहत इंदौरी : सख़्त राहों में भी आसान सफ़र

शायर राहत इंदौरी के साथ शायर देवमणि पांडेय

रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर


उजाला बांटने वालों पे क्या गुज़रती है 
किसी चराग़ की मानिंद जलके देखूंगा

डॉ राहत इंदौरी पिछले पचास सालों से अपनी शायरी के ज़रिए ज़िंदगी की तारीकियों में रोशनी की लकीर खींचने का काम कर रहे थे। उन्होंने ग़ज़ल प्रेमियों को एहसास में भिगोया, हंसाया और उस मुक़ाम तक पहुंचाया जहां से लुत्फ़ और सुकून का दरवाज़ा खुलता है। डॉ राहत ने ग़ज़ल के हुस्न को बरकरार रखते हुए अदायगी के  पुरअसर अंदाज़ से ऐसा करिश्मा किया कि देश विदेश में उनके चाहने वालों की तादाद बढ़ती चली गई । जो लोग बाज़ौक हैं, शायरी में दिलचस्पी रखते हैं उनको राहत के दो चार शेर ज़रूर याद होंगे। राहत इंदौरी की शायरी के गुलशन में एक तरफ़ मुहब्बत के फूल खिलते हैं तो दूसरी तरफ़ वो सच्चाइयां मौजूद हैं जिनसे ज़िंदगी रोज़ रूबरू होती है।

मुंतज़िर हूं कि सितारों की ज़रा आंख लगे 
चांद को छत पे बुला लूंगा इशारा करके

ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर

डॉ राहत इंदौरी और मुशायरे

मुशायरे की अपनी ज़रूरतें होती हैं। मुशायरे में कामयाबी की शर्त है सामयीन यानी श्रोताओं से दाद वसूल करना और तालियां बजवाना। यह दोनों कारनामे डॉ राहत इंदौरी ने बख़ूबी अंजाम दिए। वे अक्सर कहते थे- मुझे पता है ग़ज़ल क्या होती है और मैं यह भी जानता हूं कि मुशायरा क्या है। डॉ राहत के पास मुशायरों में ग़ज़ल पेश करने का परफार्मिंग आर्ट था। इसके लिए वे बेहद मशहूर हुए। मगर उनकी कामयाबी में कंटेंट की अहमियत और इज़हार ए बयां का सलीक़ा भी शामिल है। ज़िंदगी, समाज और सियासत के मसाइल पर उनकी अच्छी पकड़ थी। कई बार उनके शेर बहस और विवाद का मुद्दा भी बने। दिलों को बांटने वाली सियासत पर उनके कुछ शेर ऐसे हैं जिनका मतलब लोग अपने अपने तरीक़े से निकालते हैं। किसी को ये  शेर अच्छे लगते हैं और कोई इनसे ख़फ़ा है- 

मुहब्बतों का सबक़ दे रहे हैं दुनिया को 
जो ईद अपने सगे भाई से नहीं मिलते

सभी का ख़ून शामिल है यहां की मिट्टी में 
किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है

डॉ राहत ने अपने इज़हार के लिए जिस ज़बान को अपनाया वो गली, मुहल्लों और चौराहों पर बोली जाने वाली ज़बान है। इस हिंदुस्तानी ज़बान को आम आदमी भी समझता है और पढ़े लिखे लोग भी पसंद करते हैं। आम आदमी की तरह उन्होंने भी सपने देखे। डॉ राहत की शायरी में सपनों की ताबीर कम है और ख़्वाबों के टूटने की गूंज ज़्यादा हैं। फिर भी वे इतने सीधे-साधे लहजे में बात करते हैं कि उनके कई शेर एक बार सुनते ही श्रोताओं को याद हो जाते हैं।

अफ़वाह थी कि मेरी तबीयत ख़राब है 
लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया 

लोग हर मोड़ पर रुक रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

शाखों से टूट जाएं वो पत्ते नहीं हैं हम 
आंधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

ज़िंदगी क्या है ख़ुद ही समझ जाओगे 
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

पढ़े लिखे शायर डॉ राहत इंदौरी

डॉ राहत इंदौरी पढ़े लिखे शायर थे। उर्दू में एम ए और पीएचडी थे। इंदौर विश्वविद्यालय में उन्होंने 16 साल उर्दू साहित्य पढ़ाया। दस साल तक अदबी पत्रिका 'शाख़ें' का संपादन किया। हिंदुस्तान में मुशायरों के इतिहास पर पीएचडी हासिल की। डॉ राहत को यह पता था कि मुशायरों की शायरी का फ़न अलग है। इसलिए उन्होंने मुशायरों में मशहूरियत और कामयाबी का जमकर लुत्फ़ उठाया। मगर अदब का दामन भी नहीं छोड़ा। यही कारण है कि उर्दू में उनकी 6 किताबें प्रकाशित हुईं। हिंदी में भी उनकी एक किताब मंज़रे आम पर आई- 'चांद पागल है'।

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है 
चांद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है 
उसकी याद आई है सांसों ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है

राहत साहब के साथ कई बार मुझे भी कविता पाठ का अवसर मिला। कुछ साल पहले दक्षिण मुंबई के एक बैंक में वे कविता पाठ के लिए आए। बोले- यार मेरी हालत ख़राब है। डॉक्टर ने नॉनवेज खाने और शराब पीने के लिए मना कर दिया है। मैं एक साथ चालीस मिनट नहीं पढ़ पाऊंगा। आप मुझे थोड़ा थोड़ा दो बार पढ़वाइए। उस कार्यक्रम में कवि प्रदीप चौबे भी थे। हम तीनों के कविता पाठ के तीन दौर हो गए। डॉ राहत ने वहां कुछ ऐसे भी अशआर पेश किए जो आमतौर पर वे मुशायरों में नहीं पढ़ते।

नौजवां बेटों को शहरों के तमाशे ले उड़े 
गांव की झोली में कुछ मजबूर माँएँ रह गईं
एक-इक करके हुए रुख़सत मेरे कुनबे के लोग 
घर के सन्नाटे से टकराती हवाएं रह गईं

अपना तो मिले कोई 

मैंने कुरियर से राहत इंदौरी को अपना ग़ज़ल संग्रह 'अपना तो मिले कोई' भेजा। तीसरे दिन मैंने फ़ोन किया। उन्होंने कहा नहीं मिला। चौथे पांचवें दिन भी जवाब था- नहीं मिला। मेरे कुरियर वाले ने इंदौर के कुरियर वाले को फ़ोन किया। उसने बताया कि किताब को एक मैडम ने रिसीव किया है। थोड़ी देर बाद डॉ राहत का फ़ोन आया। उन्होंने ठहाका लगाया। बोले- यार आपकी किताब को मेरी बेगम ने रिसीव किया था। उनको किताब की डिजाइन ख़ूबसूरत लगी तो पन्ने पलटने शुरू किए। शायरी अच्छी लगी तो उन्होंने आपकी किताब को अपने तकिए के नीचे रख लिया। एक हफ़्ते से वही पढ़ रही हैं।

डॉ राहत इंदौरी इस दौर के मुशायरों के सबसे लोकप्रिय शायर थे। उनके नाम से मुशायरों में भीड़ जुटती थी। वे पूरी तैयारी के साथ मुशायरों में जाते थे। उन्होंने कभी आयोजकों को निराश नहीं किया। उनके पास लिखने का फ़न और हुनर था। मंच पर कलाम पेश करने की जो अदा थी वह किसी और शायर के पास नहीं है। इसलिए उनकी कमी लोगों को हमेशा महसूस होती रहेगी।

न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो 
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो 
हमारे ऐब हमें उंगलियों पे गिनवाओ 
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

डॉ राहत इंदौरी की ग़ज़लें संगीत के कई अल्बम में शामिल हुईं। मुम्बई के गायक जसविंदर सिंह की आवाज़ में उनकी एक ग़ज़ल काफ़ी मशहूर हुई।

सख़्त राहों में भी आसान सफ़र लगता है 
ये मेरी माँ की दुआओं का असर लगता है
एक वीराना जहाँ उम्र गुज़ारी मैंने
तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है
    
डॉ राहत इंदौरी के गीत कई फ़िल्मों में रिकॉर्ड हुए। पेश हैं उनके चंद सिने गीत जो काफ़ी पसंद किए गए-

1.कोई जाए तो ले जाए (घातक) 
2.नींद चुराई मेरी (इश्क़) 
3.देखो देखो जानम हम (इश्क़) 
4.देख ले आंखों में आंखें डाल (मुन्ना भाई एमबीबीएस) 
5.तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है (ख़ुद्दार)
6.ज़िंदगी नाम को हमारी है (आशियां)
7.धुंआ धुआं ... (मिशन कश्मीर)

डॉ राहत इंदौरी का जन्म इंदौर में 1 जनवरी 1950 को हुआ। उनका इंतक़ाल 70 साल की उम्र में 11 अगस्त 2020 को हुआ। इंग्लैंड और अमेरिका से लेकर उन्होंने कई देशों की यात्राएं कीं और अपनी शायरी से श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन  किया। राहत इंदौरी के गुज़रने के बाद कवियों और शायरों की निष्ठा पर भी बात शुरू हो गई है। हमारे कुछ दोस्तों का कहना है कि कवियों और शायरों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे सबके हैं और उनका रचनाकर्म सबके लिए होना चाहिए। 

सबसे ज़्यादा ऐतराज़ राहत इंदौरी के एक शेर के इस मिसरे पर हो रहा है कि "किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है।" यह शेर काफ़ी पुराना है। मुंबई में जब शिवसेना का ख़ौफ़ था तो हिंदी समाज के लोग यह शेर सुनकर ख़ूब तालियां बजाते थे। जब मनसे का ख़ौफ़ हुआ तो उन लोगों ने भी ख़ूब तालियां बजाईं थीं जो आज इस शेर पर ऐतराज़ कर रहे हैं। इससे लगता है कि देश और काल के अनुसार शेर के मानी बदलते रहते हैं। 'बाप का हिंदुस्तान' या "बाप की जागीर" एक मुहावरा है। हमें इस मुहावरे का भी ध्यान रखना चाहिए।

पंडित नेहरू के दोस्त शायर जोश मलीहाबादी पाकिस्तान जाकर पछताए थे। फिर भी नेहरू जी की कृपा से वो हर साल मुंबई के सालाना मुशायरे में भाग लेने के लिए आते थे और कई कई दिन रुकते थे।

राहत इंदौरी ने पाकिस्तान के एक मुशायरे में एक शेर पढ़ा था। इससे देश के प्रति उनकी भावना ज़ाहिर होती है। 

वो अब पानी को तरसेंगे जो गंगा छोड़ आए हैं
हरे झंडे के चक्कर में तिरंगा छोड़ आए हैं

हक़ीक़त यह है कि मुशायरा और कवि सम्मेलन साहित्य नहीं होता। वहां तालियां बजवाने के लिए मंचीय कवि और शायर जनता की भावनाओं का नाज़ायज़ फ़ायदा उठाते हैं। राजनीतिक हस्तियों का मज़ाक उड़ाते हैं। इसके लिए इतिहास में झांकें तो कई कवियों की पिटाई भी हो चुकी है। हमारे हिंदी कवियों ने भी आदरणीय अटल जी के घुटने और कुंवारेपन का कम मज़ाक नहीं उड़ाया है।

मेरे ख़याल से एक रचनाकार का नज़रिया स्वस्थ होना चाहिए। उसे अभिव्यक्ति में संतुलन रखना चाहिए। निदा फ़ाज़ली ने आडवाणी जी की रथ यात्रा पर नज़्म लिखी थी। अयोध्या विवाद पर कैफ़ी आज़मी ने 'दूसरा बनवास' कविता लिखी थी। दोनों ने इन रचनाओं का कई बार सार्वजनिक पाठ किया। दोनों को हिंदी जगत ने भी पसंद किया। यही रचनात्मकता है। हम सब रचनाकारों को मंच पर भी अभिव्यक्ति की आज़ादी और लेखन की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। हिंदी काव्य मंचों पर फूहड़ नोकझोंक करने वाली कवित्रियों को और संचालकों को जो लोग लाखों रुपए का भुगतान कर रहे हैं वे भी समाज के दुश्मन हैं। ऐसे लोग हमारे संस्कारों में ज़हर घोल रहे हैं। उनसे सावधान रहने की ज़रूरत है। 

शायर राहत इंदौरी के बेटे सतलज इंदौरी ने राहत साहब की आख़िरी ग़ज़ल हमसे साझा की। पेश है वही ग़ज़ल।

नए सफ़र का जो ऐलान भी नहीं होता
तो ज़िंदा रहने का अरमान भी नहीं होता

तमाम फूल वही लोग तोड़ लेते हैं
जिनके कमरों में गुलदान भी नहीं होता

ख़ामोशी ओढ़ के सोई हैं मस्ज़िदें सारी
किसी की मौत का ऐलान भी नहीं होता

वबा ने काश हमें भी बुला लिया होता
तो हम पर मौत का अहसान भी नहीं होता  (वबा = महामारी)

***
आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126
devmanipandey.blogspot.Com


रविवार, 9 अगस्त 2020

ऐ मेरे वतन के लोगो : रो पड़े प्रधानमंत्री पं नेहरू

पं नेहरू और लता मंगेशकर

ऐ मेरे वतन के लोगो : पं नेहरू और लता मंगेशकर


अक्टूबर 1962 में जब हम अपने घरों में बैठकर दीवाली मना रहे थे उस समय हमारी सेना के जवान हिमालय की दुर्गम बर्फ़ीली पहाड़ियों में दुश्मनों के साथ ख़ून की होली खेल रहे थे। चीन के साथ हमने हिंदी चीनी भाई भाई की चादर बुनी थी। रिश्तों की वह चादर तार-तार हो गई थी। चीन ने हमारे ऊपर आक्रमण करके हमें स्तब्ध कर दिया था। चीन की भारी-भरकम सेनाओं के सामने टिकना आसान काम नहीं था। हमारे हिंदुस्तानी जवानों ने बहुत बहादुरी से मुक़ाबला किया। हमारी सैन्य तैयारी पूरी नहीं थी। हमारी सेना के पास बर्फ़ में पहने जाने वाले समुचित कपड़े और जूते नहीं थे। परिणाम ये हुआ कि हमारे काफ़ी सैनिक इस युद्ध में शहीद हुए। पूरे देश में दुख और हताशा छा गई। यह तय किया गया कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर युद्ध में शहीद जवानों के परिवारों के सहायतार्थ रक्षा मंत्रालय और फ़िल्म जगत की ओर से एक चैरिटी कार्यक्रम का आयोजन किया जाए। 

मुंबई के फ़िल्म जगत में यह सूचना पहुंचते ही निर्देशक महबूब ख़ान की अध्यक्षता में एक संयोजन समिति बनाई गई। दिलीप कुमार, सी रामचंद्र, मदन मोहन और नौशाद ने कार्यक्रम की तैयारी शुरू कर दी। जब लोगों को मालूम हुआ कि मुंबई के कलाकारों को सेना के विशेष विमान से दिल्ली ले जाया जाएगा और फाइव स्टार होटल में ठहराया जाएगा तो कई कलाकार इस प्रयास में जुट गए कि वे भी इसी बहाने दिल्ली घूम आएं। गीतकार पं प्रदीप सीधे साधे इंसान थे। वे इस तरह के झमेले से दूर रहना पसंद करते थे। यही कारण था कि जब सी रामचंद्र ने दो-तीन बार उनसे इस मौक़े के लिए एक गीत लिखने का अनुरोध किया तो वे 'लिख दूंगा, लिख दूंगा' कहकर उन्हें टालते रहे। लगभग सारी तैयारी हो चुकी थी। उस समय फ़िल्म के प्रदर्शन के पहले उसके गीतों की पब्लिसिटी नहीं होती थी। फ़िल्म जगत में इस बात की बड़ी चर्चा थी कि संगीतकार नौशाद ने फ़िल्म 'लीडर' के लिए मो रफ़ी की आवाज़ में जो गीत रिकॉर्ड किया है उसे दिल्ली में पेश किया जाएगा। फ़िल्म 'लीडर' उस समय तक प्रदर्शित नहीं हुई थी। शकील बदायूंनी का लिखा हुआ वह गीत था- 

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं 
सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं 

ज़रा याद करो कुर्बानी


पं प्रदीप की उदासीनता से संगीतकार सी रामचंद्र परेशान थे। इसका पता महबूब ख़ान को लग गया। अगले दिन सुबह कुर्ता लुंगी पहने महबूब ख़ान प्रदीप के घर पहुंच गए। दोनों बहुत अच्छे मित्र थे। महबूब ख़ान ने कहा- देखो प्रदीप, तुम्हारी एक नहीं चलेगी। इस कार्यक्रम के लिए तुम्हें एक गीत तो लिखना ही पड़ेगा। जब तक तुम हां नहीं कहते मैं यहीं बैठा रहूंगा। आख़िरकार उन्होंने प्रदीप को गीत लिखने के लिए राज़ी कर लिया। 

रात भर करवटें बदलने के बावजूद प्रदीप को कोई विषय नहीं सूझा। सुबह वे अख़बार पढ़ रहे थे। उसमें शेर सिंह, होशियार सिंह आदि कुछ बहादुर सैनिकों की शौर्य गाथाएं प्रकाशित हुई थीं कि किस तरह उन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ दुर्गम बर्फ़ीली पहाड़ियों में दुश्मनों से लोहा लिया और देश की ख़ातिर क़ुर्बान हो गए। अचानक प्रदीप के मन में एक मंज़र उभरने लगा। कितनी बहनों ने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधकर, कितनी माताओं ने अपने बेटों के मस्तक पर तिलक लगाकर और कितनी वीरांगनाओं ने अपने पतियों की आरती उतारकर उनको रणक्षेत्र में भेजा होगा। देश की ख़ातिर सीमा पर दुश्मनों से लड़ते हुए इन सपूतों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया। वे लौटकर घर नहीं आए। 

गीतकार पं प्रदीप, गायिका लता मंगेशकर और संगीतकार सी रामचंद्र 1962 में
कवि प्रदीप को विषय मिल गया था। अभी उसे इज़हार का रास्ता नहीं मिल पाया था। शाम को वे अपने मित्र फ़िल्म शहीद के खलनायक राम सिंह से मिलने के लिए शिवाजी पार्क गए थे। शिवाजी पार्क में प्रदीप के मन में गीत का जन्म हुआ। उनके होठों से कुछ शब्द छलक उठे- "जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो क़ुर्बानी।" इसी एक लाइन को गुनगुनाते हुए प्रदीप घर पहुंचे तो गीत का मुखड़ा बन गया। गाड़ी को इंजन मिल जाए तो डिब्बा जोड़ने में देर नहीं लगती। अगले दिन गीत तैयार था। 

संगीतकार सी रामचंद्र आए। प्रदीप ने गीत का मुखड़ा सुनाया। उनका चेहरा उतर गया। बोले- गुरू, आपने ये क्या लिख दिया। यहां तो सर कटाने की बात चल रही है और आप रोने धोने बैठ गए। क्या मुझे नीचा दिखाएंगे। प्रदीप ने उन्हें समझाया- अन्ना, पहले तुम शांत चित्त से पूरा गीत सुनो। जोश की अपेक्षा करुणा में ज़्यादा शक्ति होती है। अन्ना ने पूरा गीत सुना। उन्हें महसूस हुआ कि प्रदीप जी की बात में वज़न है। प्रदीप जी की ख़ासियत है कि अपने लिखे अधिकतर गीतों की धुन उन्होंने ख़ुद बनाकर संगीतकारों को दीं। संगीतकारों की सुविधा के लिए उनके पलंग के नीचे हमेशा एक हारमोनियम रखा रहता था। सी रामचंद्र ने हारमोनियम निकाला। ज़मीन पर बैठ गए। प्रदीप जी के सामने एक ट्रे में चाय का कप रखा हुआ था। उन्होंने कप नीचे रखा। तश्तरी को उल्टा करके गोद में रखा और बजाते हुए गाना शुरू कर दिया- 

ऐ मेरे वतन के लोगो 
ज़रा आंख में भर लो पानी 
जो शहीद हुए हैं उनकी 
ज़रा याद करो क़ुर्बानी 

इन लाइनों को प्रदीप ने चार पांच बार दोहराया। अन्ना ने उनकी धुन को थोड़ा सा पॉलिश किया। कुछ मित्र स्वर जोड़े और धुन तैयार हो गई। जब वही धुन हारमोनियम पर बजा कर उन्होंने प्रदीप जी को गीत के बोल सुनाए तो प्रदीप जी भी मुग्ध हो गए। बाद में अन्ना ने प्रदीप से कहा था- अगर आप इसकी धुन बना कर नहीं देते थे तो शायद मैं कुछ और तरह की धुन बनाता और उसमें इतनी कशिश नहीं होती। 

गीत के लिए गायिका का चयन 


प्रदीप ने अन्ना से कहा कि तुम यह वादा करके जाओ कि इस गीत के बारे में किसी को भी नहीं बताओगे। यहां तक कि अपने बीवी बच्चों को भी नहीं। फ़िल्म जगत में आइडिया चोरी होने का बहुत ख़तरा रहता है। अन्ना ने वादा कर लिया। प्रदीप ने कहा- तुम लता से इसे गाने के लिए बात करो। अन्ना पशोपेश में पड़ गए। बोले- आप तो जानते ही हैं कि आजकल लता मुझसे नाराज है। उसने मेरे साथ गाना बंद कर दिया है। वह किसी भी क़ीमत पर इसे गाने को राज़ी नहीं होगी। यही सोच कर मैंने इस गाने के लिए पहले ही आशा भोंसले को कह दिया है। प्रदीप जी ने कहा- लता की आवाज़ में जो करुणा है वह किसी भी गायिका में नहीं है। तुम आशा को समझाओ, मैं लता से बात करता हूं। 

प्रदीप जी का बहुत सम्मान करती हैं लता मंगेशकर। उन्हें बाबूजी कहती हैं। प्रदीप जी को यक़ीन था कि वे लता को मना लेंगे। दूसरे दिन सुबह ताड़देव के फ़िल्म सेंटर में लता मंगेशकर की रिकॉर्डिंग थी। प्रदीप वहीं पहुंच गए। लता को स्टूडियो के एक कोने में ले गए और सीधे कह दिया- लता, तुमको अन्ना के साथ मेरा एक गीत गाना है। लता आश्चर्य से बोलीं- बाबूजी, आप ये क्या कह रहे हैं। मैंने अन्ना के साथ गाना बंद कर दिया है। प्रदीप ने समझाया- सुनो बेटी, फ़िल्म लाइन में आए दिन मनमुटाव तो होते ही रहते हैं। इसका मतलब यह थोड़े ही है कि तुम ज़िंदगी भर के लिए दुश्मनी ठान लो। और देखो, दूसरी तरफ़ मो रफ़ी भी पूरी तैयारी के साथ आ रहा है। यह इशारा काफी अहम् था। उन दिनों रफ़ी और लता में भी अनबन चल रही थी। लता ने रफ़ी के साथ भी गाना बंद कर दिया था। लता यह भी जानती थीं कि प्रदीप के गीत और अन्ना के संगीत के सामने किसी और की क्या बिसात। लता मान गईं। 

अचानक एक समस्या सामने आ गई। कार्यक्रम की स्मारिका प्रकाशित होने वाली थी। महबूब ख़ान ने सी रामचंद्र से कहा- आप प्रदीप के गीत का मुखड़ा दीजिए। स्मारिका में प्रकाशित करना है। उन्होंने प्रदीप जी को सम्पर्क किया। प्रदीप जी ने कहा मैं कुछ सोचता हूं। किसी भी हाल में किसी को भी यह पता नहीं चलना चाहिए कि लता मंगेशकर कौन सा गीत गा रही हैं। काफ़ी सोचने के बाद प्रदीप ने गीत के मुखड़े से पहले चार लाइनें जोड़ीं और वही लाइनें स्मारिका में प्रकाशित हुईं- 

ऐ मेरे वतन के लोगो 
तुम ख़ूब लगा लो नारा 
यह शुभ दिन है हम सब का 
लहरा लो तिरंगा प्यारा 
पर मत भूलो सीमा पर 
वीरों ने हैं प्राण गंवाए 
कुछ याद उन्हें भी कर लो 
जो लौट के घर ना आए 

नेशनल स्टेडियम में संगीत समारोह 


27 जनवरी को संगीत का यह कार्यक्रम दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में आयोजित था। इस कार्यक्रम में हेमंत कुमार, जयदेव, सी रामचंद्र, अनिल विश्वास, शंकर जयकिशन, नौशाद, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और उषा खन्ना जैसे संगीतकारों के अलावा राज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद, राजेंद्र कुमार जैसे कई मशहूर अभिनेता और अभिनेत्रियां शामिल होने वाली थीं। इसलिए उस दिन दिल्ली शहर में ख़ासी चहल-पहल थी। नेशनल स्टेडियम कई हज़ार श्रोताओं से खचाखच भरा था। बाहर की भारी भीड़ को देखते हुए इंडिया गेट के आस पास का यातायात दोपहर से शाम तक के लिए रोक दिया गया था। 

कार्यक्रम में श्रोताओं की पहली क़तार में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन, प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू, रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण, श्रीमती इंदिरा गांधी तथा कई अन्य मंत्री और सांसद विराजमान थे। 'जन गण मन' से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। उद्घोषक थे डेविड अब्राहम। प्रमुख सितारों ने स्टेज पर आकर संगीतकारों का परिचय दिया। तलत महमूद की दो ग़ज़लें काफ़ी पसंद की गईं। महेंद्र कपूर, सुमन कल्याणपुर और शांति माथुर भी अच्छे रहे। मो रफ़ी ने फ़िल्म लीडर का मशहूर गीत गाया- "सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं।" मगर वे श्रोताओं में कोई जोश नहीं पैदा कर सके। 

बंगाली कलाकारों को भारी असफलता का सामना करना पड़ा। हेमंत दा के साथ संध्या मुखर्जी, उत्पला सेन और सतिननाथ मुखर्जी आदि ने क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का मशहूर मार्चिंग सांग "ऊर्धे गगनने बाजे ढोल" पेश किया। यूं तो यह गीत आज़ादी के आंदोलन का एक हिस्सा था। पहले से ही लोकप्रिय था। मगर यहां वह गीत पूरी तरह फ्लॉप हो गया। 
पं नेहरू और लता मंगेशकर


गीत सुनकर
पं नेहरू रो पड़े


सी रामचंद्र और लता मंगेशकर इन सारी चीज़ों को ग़ौर से देख रहे थे। अन्ना को अपने संगीत और लता की आवाज़ पर नाज़ था। लता को अपने ऊपर भरोसा था। अब लता की बारी थी। उन्होंने ईश्वर का स्मरण किया और अपनी आवाज़ का जादू बिखेरना शुरू किया। पूर्व योजना के अनुसार उन्होंने सबसे पहले गाया- आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे। लता की आवाज़ का जादू श्रोताओं पर छा गया। जब उन्होंने 'अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम’ गाना शुरू किया तो माहौल में पाकीज़गी उतर आई। 

इस गीत को सुनकर श्रोता सम्मोहित हो चुके थे। यह गीत समाप्त हुआ तो पल भर के अंतराल के बाद ज़ोर शोर से गरबा की धुन बजने लगी। अभी तक पूरा वातावरण सादगी और पवित्रता में लिपटा हुआ था। गरबा का लाउड संगीत सुनकर लोग चौंक कर इधर-उधर देखने लगे। मगर सन्नाटा क़ायम था। अचानक सामने पसरे सन्नाटे को चीरती हुई करुणा में भीगी लता मंगेशकर की स्वर लहरी धीरे-धीरे माहौल पर छाने लगी- 

ऐ मेरे वतन के लोगो 
तुम ख़ूब लगा लो नारा 
यह शुभ दिन है हम सबका 
लहरा लो तिरंगा प्यारा 

यहां तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था। मगर जब लता ने अगली लाइनें पेश कीं- 

पर मत भूलो सीमा पर 
वीरों ने हैं प्राण गवाएं 
कुछ याद उन्हें भी कर लो 
जो लौट के घर ना आए 

इतना सुनना था कि दिलों में हलचल शुरू हो गई। यूं लगा जैसे किसी ने ताज़ा घाव कुरेद दिया हो। वहां पर सिर्फ़ साधारण जनता ही नहीं थी। वहां ऐसे कई परिवार थे जिन्होंने चीनी युद्ध में अपना कोई न कोई प्रिय जन खो दिया था। सूनी मांग वाली विधवाएं थीं। आहत ममता वाली माताएं थीं। जवान बेटे को खो देने वाले लाचार बाप थे। भीगी आंखों वाली बहने थीं। बाप से बिछड़े अनाथ बच्चे थे। अपने प्रिय दोस्त को अलविदा कहने वाले ढेर सारे सैनिक थे। इन सबके बीच लता की दर्द भरी आवाज़ गूंज रही थी- 

ऐ मेरे वतन के लोगो 
ज़रा आंख में भर लो पानी 
जो शहीद हुए हैं उनकी 
ज़रा याद करो क़ुर्बानी 

लोगों के चेहरों पर पीड़ा की रेखाएं गहराने लगीं। आंखों के कोने भीगने लगे। स्टेडियम के बाहर का शोर थम गया था। अंदर तो लगता था कि लोगों ने सांस भी लेना बंद कर दिया गया है। इस संजीदा सन्नाटे में लता मंगेशकर गाती रहीं- 

जब घायल हुआ हिमालय 
ख़तरे में पड़ी आज़ादी 
जब तक थी सांस लड़े वो 
फिर अपनी लाश बिछा दी 
हो गए वतन पर निछावर 
वे वीर थे कितने गुमानी 

अब पं नेहरु जी ख़ुद पर क़ाबू न रख सके। आंखों से आंसू बहने लगे। उनकी रुलाई देखकर आसपास बैठे मंत्री और राजनेताओं की भी आंखों में नमी उतर आई। पं नेहरू जैसे महान व्यक्ति को रोता हुआ देखकर किसी को कोई ताज्जुब न हुआ। गीत में कुछ ऐसा जादू था जो सबको मर्माहत किए हुआ था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बेहद प्रिय व्यक्ति हमारा दुख बांट रहा हो। हमें चीनी युद्ध का सामना अचानक करना पड़ा था। युद्ध के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं थी। इस युद्ध में हमारे ढेर सारे निर्दोष जवान मारे गए थे। इसके लिए पं नेहरू ख़ुद को गिल्टी महसूस कर रहे थे। उनके अंदर की सारी पीड़ा आंसुओं के साथ बह चली। कई आंखें रो रही थीं मगर सबके कान लता की आवाज़ पर लगे हुए थे- 'जब अंत समय आया तो' ... 

इसके साथ ही माहौल में ढेर सारे समवेत स्वर गूंजने लगे- आ आ आ …। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि स्टेज पर सिर्फ़ लता और सी रामचंद्र ही थे। इतने सारे स्वरों में जैसे आकाशवाणी हो रही थी। बात यह थी कि सी रामचंद्र ने कई लड़के लड़कियों को चुपचाप पर्दे के पीछे खड़ा कर दिया था और अब उन्हीं का कोरस गान माहौल में गूंज रहा था। इस कोरस ने जैसे सब को नींद से जगा दिया। इसी के साथ लता ने गीत की आख़िरी लाइनें पेश कीं- 

जब अंत समय आया तो 
कह गए कि अब मरते हैं 
ख़ुश रहना देश के प्यारो 
अब हम तो सफ़र करते हैं 
तस्वीर नयन में खींचो 
क्या लोग थे वो अभिमानी 

गीत समाप्त हो गया मगर सन्नाटा बरकरार था। कोई कुछ ना बोला। लोग यादों में डूबते उतराते रहे। कई जगह सिसकियों की आवाज़ साफ़ साफ़ सुनाई पड़ रही थी। एक गीत ने इतिहास रच दिया था। लाखों लोगों की भावनाएं उससे जुड़ गईं थीं। नेहरू जी ने रुमाल से अपनी आंखें पोछीं। धीरे से उठकर मंच पर लता के पास गए। उनके मुंह से सिर्फ़ एक वाक्य निकला- बेटी, तुमने मुझे रुला दिया। स्वर में स्नेह की गर्मी महसूस करके लता की आंखें सजल हो गईं। कुछ देर बाद नेहरु जी ने पूछा- हू इज द राइटर, मैं उससे मिलना चाहता हूं। प्रदीप की खोज होने लगी। किसी ने बहाना बना दिया- शायद तबीयत ख़राब थी इसलिए नहीं आ पाए। 

गीतकार पं प्रदीप

छ: महीने बाद पं नेहरू कांग्रेस के एक सम्मेलन में मुंबई आए। ग्रांट रोड के रेडीमनी स्कूल ग्राउंड में आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने कवि प्रदीप को मिलने के लिए बुलाया। नेहरु जी ने खड़े होकर प्रदीप का स्वागत किया। उनके हाथ थाम लिए और बोले- प्रदीप जी, वही गीत मैं आप की आवाज़ में सुनना चाहता हूं। प्रदीप जी ने पंडित नेहरू के सामने अपना गीत सुनाया। प्रदीप जी एक दिन ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। सामने वर्दी में एक सैनिक था। बातचीत में उसने प्रदीप जी को पहचान लिया। उसने प्रदीप जी के चरण स्पर्श किए। बोला- आपके गीत के अंत में आता है "जय हिंद, जय हिंद की सेना"। ऐसा सम्मान हमें कभी नहीं मिला। यह हिंद की सेना के लिए गौरव की बात है। 

ऐ मेरे वतन के लोगो...गीत को फ़िल्म जगत के कई लोग ख़रीदना चाहते थे। मुंह मांगी क़ीमत देने को तैयार थे। प्रदीप जी ने मना कर दिया। बोले- जिस गीत के चारों ओर प्रधानमंत्री के आंसुओं की झालर लगी हो उसे मैं बेच नहीं सकता। प्रदीप जी ने इस गीत की सारी रायल्टी चीनी युद्ध में शहीद सैनिकों के परिवारों को भेंट कर दी। देश विदेश में आज तक लता मंगेशकर का ऐसा कोई स्टेज प्रोग्राम नहीं हुआ जिसमें इस गीत की फ़रमाइश न की गई हो। यह एक ऐसा प्रेरक गीत है जिसने हमें अपने देश के वीर जवानों से प्रेम करना सिखाया। उनकी क़ुर्बानी को याद करना सिखाया। ऐसे अमर गीत के रचयिता पं प्रदीप को प्रणाम। 

ऐ मेरे वतन के लोगो

​ऐ मेरे वतन के लोगो
तुम खूब लगा लो नारा 
ये शुभ दिन है हम सब का 
लहरा लो तिरंगा प्यारा 

पर मत भूलो सीमा पर 
वीरों ने है प्राण गँवाए 
कुछ याद उन्हें भी कर लो 
जो लौट के घर न आये 

ऐ मेरे वतन के लोगो
ज़रा आँख में भर लो पानी 
जो शहीद हुए हैं उनकी 
ज़रा याद करो क़ुरबानी 

जब घायल हुआ हिमालय 
खतरे में पड़ी आज़ादी 
जब तक थी साँस लड़े वो 
फिर अपनी लाश बिछा दी 

संगीन पे धर कर माथा 
सो गये अमर बलिदानी, जो शहीद... 

जब देश में थी दीवाली 
वो खेल रहे थे होली 
जब हम बैठे थे घरों में 
वो झेल रहे थे गोली 
थे धन्य जवान वो आपने 
थी धन्य वो उनकी जवानी, जो शहीद... 

कोई सिख कोई जाट मराठा 
कोई गुरखा कोई मदरासी 
सरहद पर मरनेवाला 
हर वीर था भारतवासी 
जो खून गिरा पर्वत पर 
वो खून था हिंदुस्तानी, जो शहीद... 

थी खून से लथ-पथ काया 
फिर भी बन्दूक उठाके 
दस-दस को एक ने मारा 
फिर गिर गये होश गँवा के 
जब अन्त-समय आया तो 
कह गये के अब मरते हैं 
खुश रहना देश के प्यारों 
अब हम तो सफ़र करते हैं 
क्या लोग थे वो दीवाने 
क्या लोग थे वो अभिमानी, जो शहीद... 

तुम भूल न जाओ उनको 
इस लिये कही ये कहानी, जो शहीद... 

जय हिन्द... जय हिन्द की सेना 
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द 

आपका- देवमणि पांडेय

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