L To R : Lyricst Shekhar Astitv, Screen Writer Kamalesh Pandey & Devmani Pandey |
हिंदुस्तानी ज़बान में हिंदुस्तानी ग़ज़ल
मैंने एक ग़ज़ल पोस्ट की थी। कुछ दोस्तों ने कहा कि यह हिंदुस्तानी ग़ज़ल है। आसान हिंदी और आसान उर्दू के मेल से जो आम फ़हम भाषा बनती है उसे महात्मा गांधी ने हिंदुस्तानी ज़बान नाम दिया था। ग़ज़ल का मतला है-
सजा है इक नया सपना हमारे मन की आंखों में
कि जैसे भोर की किरनें किसी आंगन की आंखों में
यह ग़ज़ल कहने के बाद मुझे महसूस हुआ कि यह उसी बहर यानी छंद में है जिसमें संत कबीर ने एक ग़ज़ल कही है-
हमन है इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या
रहे आज़ाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या
संत कबीर की यह ग़ज़ल मुंबई के संगीतकार कुलदीप सिंह के एक संगीत अलबम में शामिल है। उनकी कंपोजीशन सुनकर मुझे लगा कि यह धुन तो कहीं सुनी हुई है। थोड़ा सोचने पर याद आया कि यह तो एक लोक धुन है। हमारे गांव की महिलाएं इस धुन में 'सोहर' गीत गाती हैं। इसका मतलब है कि ग़ज़ल भले ही हमको अरबी फ़ारसी से हासिल हुई मगर इसके कई छंद हमारे लोक जीवन में पहले से मौजूद हैं। लोक जीवन से ही चौपाई का छंद लेकर महाकवि जायसी ने पद्मावत महाकाव्य की रचना की। चौपाई छंद में काफ़ी ग़ज़लें कही गईं है-
दिल के ज़ख़्मों को क्या सीना
दर्द बिना जीना क्या जीना
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी" यह भी लोकजीवन का लोकप्रिय छंद है। इसमें भी ढेर सारे शायरों ने ग़ज़लें कही हैं-
देर लगी आने में तुमको शुक्र है फिर भी आए तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा वैसे हम घबराए तो
फ़िराक़ साहब ने कहा था- ज़िंदगी से गुफ़्तगू का नाम ग़ज़ल है। दुष्यंत कुमार ने कहा- "मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं।" मुझे आमफ़हम हिंदुस्तानी ज़बान के वो शेर ख़ासतौर से पसंद आते हैं जिनमें ज़िंदगी की तस्वीर नज़र आती है। मसलन किसी का शेर है-
मुद्दत से उसकी छांव में बैठा नहीं कोई
इक रोज़ वो दरख़्त इसी ग़म में मर गया
किसी महानगर में सांस लेता हुआ यह तनहा 'दरख़्त' पुरुष भी हो सकता है, महिला भी। लॉकडाउन के दौरान जानलेवा तनहाई का अज़ाब कई दरख़्त झेल रहे हैं। शहर आने से पहले मैंने देखा था कि गांव में बच्चों के साथ खेलते हुए बूढ़े कितना ख़ुश नज़र आते हैं इस पर मैंने एक शेर कहा-
कुछ परिंदों ने बनाए आशियाने शाख़ पर
गांव के बूढ़े शजर को फिर जवानी मिल गई
मुझे लगता है कि जो लोग गांव से चलकर शहर आए हैं गांव कभी उनका साथ नहीं छोड़ता। पूरी ज़िंदगी मुंबई में बसर करने वाले शायर ज़फ़र गोरखपुरी ने लिखा-
मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घरवाली को इक कंगन दिलाने के लिए
हालांकि अब गांव वालों के हाथ में भी मोबाइल आ चुका है मगर दाम्पत्य प्रेम को दर्शाने वाले ज़फ़र साहब के इस शेर में आज भी मुझे लुत्फ़ आता है-
मेले ठेले पान मिठाई सब छाती के घाव बने
सजनी आँगन बीच अकेली बस की भीड़ में बालम तन्हा
● मुम्बई में हिंदुस्तानी प्रचार सभा ●
आज़ादी के कुछ साल पहले जब हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बता कर सियासत ने दिलों में दरार पैदा करने की साज़िश रची तब महात्मा गांधी ने दिलों की दूरी को पाटने के लिए पेरीन बेन नरीमन के नेतृत्व में मुंबई के चर्नी रोड स्टेशन के पास सन् 1942 में हिंदुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना की। जब यहां इमारत बनी तो उसका नाम महात्मा गांधी मेमोरियल बिल्डिंग रखा गया। यहां पर आज भी सरल हिंदी और सरल उर्दू मुफ़्त में सिखाई जाती है। यहां एक विशाल पुस्तकालय है जिसमें हिंदी उर्दू पुस्तकों का समृद्ध भंडार है।
महात्मा गांधी की दिलों को जोड़ने वाली मंशा को कई बुद्धिजीवी समझ नहीं पाए। उन्होंने कहा- हिंदुस्तानी ज़बान कोई ज़बान नहीं होती। कुछ ने कहा- हिंदुस्तानी ज़बान बोलचाल की हिंदी का ही एक लहजा है। अगर देखा जाए तो हिंदुस्तान से लेकर पाकिस्तान तक उन ग़ज़लकारों के कलाम जनता के बीच लोकप्रिय हुए जिन्होंने हिंदुस्तानी ज़बान में शायरी की।
वडोदरा के शायर ख़लील धनतेजवी गुजराती और हिंदुस्तानी ज़बान में शेर कहते हैं। हिंदी में उनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनके कुछ शेर मुझे याद आ रहे हैं-
अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूँ
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ
इतनी महंगाई कि बाज़ार से कुछ लाता हूं
अपने बच्चों में उसे बांट के शर्माता हूं
दौलत बंटी तो भाइयों का दिल भी बंट गया
जो पेड़ मेरे हिस्से में आया था कट गया
इन शेरों में शामिल जो सच है वह हिंदुस्तानी समाज का सच है। मेरे ख़याल से हिंदुस्तानी ज़बान में हिंदुस्तानी समाज का सच बयान करने वाली ग़ज़लों को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहने में कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए।
मैं कई बहुभाषी गोष्ठियों में शामिल रहा हूं। मराठी कवि कहता है- ग़ज़ल पेश कर रहा हूं। गुजराती कवि कहता है- ग़ज़ल पेश कर रहा हूं। हिंदी कवि कहता है- 'हिंदी ग़ज़ल' पेश कर रहा हूं। यह सुनकर बड़ा अजीब लगता है। सुनाते समय 'हिंदी' पर इतना आग्रह क्यों? हिंदी विशेषण तो तब लगना चाहिए जब ग़ज़ल पर कोई विमर्श करना हो। मसलन दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल या आज़ादी के बाद हिंदी ग़ज़ल।
एक बातचीत में कविवर गोपालदास नीरज ने कहा था- हिंदी में हज़ारों लोग ग़ज़ल कह रहे हैं मगर 'तग़ज़्ज़ुल' (शेर कहने का हुनर) सिर्फ़ दो-चार लोगों के ही पास है। नीरज जी ने यह भी कहा था कि हिंदी कवि जो ग़ज़लें कह रहे हैं उनको 'गीतिका' नाम देना बेहतर होगा। हिंदी कवियों ने उनकी बात नहीं मानी और अपनी लिखी हुई ग़ज़ल को 'हिंदी ग़ज़ल' कहने लगे।
ग़ज़ल कहना जितना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी है उसे सुनाना। जब हम जनता के सामने ग़ज़ल पेश करते हैं तो हमें दाद तभी मिलती है जब शेर में 'तग़ज़्ज़ुल' यानी शेरियत हो। श्रोताओं की प्रतिक्रिया से शायर को अपनी ख़ामियों का पता चलता है। बिना काग़ज़ देखे अगर ग़ज़ल को याद करके पेश किया जाए तो बेहतर है।
21वीं सदी में ग़ज़ल का चेहरा काफ़ी बदल गया है। नए दौर के संगीत की तरह ग़ज़ल ऊंचे सुर में बात करती है। उसमें पत्रकारिता है, लाउडनेस है। मगर इमोशन और गहराई ग़ायब है। मुझे लगता है कि हिंदुस्तानी ज़बान में कही गई हिंदुस्तानी ग़ज़ल मो रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार के गायन की तरह फास्ट फूड के ज़माने में भी दिलों की तार झंकृत करती रहेगी।
दुष्यंत कुमार ने सौ ग़ज़लें नहीं कहीं। अदम गोंडवी भी सौ ग़ज़लें नहीं कहीं। मगर इस दौर में कई कवि ऐसे हैं जो एक हज़ार से अधिक ग़ज़लें कह चुके हैं। कई कवि ऐसे हैं जिनके आठ दस ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मैं उनकी प्रतिभा को प्रणाम करता हूं। इस भंडार में दाना कितना है और भूसा कितना है यह तो वक़्त ही बताएगा।
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क: बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126