सोमवार, 6 दिसंबर 2021

गीतकार हरिश्चंद्र का उपन्यास कुलक्षिणी



गीतकार हरिश्चंद्र का उपन्यास कुलक्षिणी

भक्ति गीतों के क्षेत्र में गीतकार हरिश्चंद्र दास ने बहुत नाम कमाया है। उनके लिखे हुए भक्ति गीतों ने पद्मश्री अनूप जलोटा की आवाज़ में कामयाबी का कीर्तिमान क़ायम किया। आज भी रेडियो पर हरिश्चंद्र का भक्तिगीत सुनाई पड़ता है- 

दुख से मत घबराना पंछी उड़ना तुझे अकेला है

गीतकार हरिश्चंद्र के भोजपुरी गीतों के कई अल्बम बने और कई भोजपुरी फ़िल्मों को उन्होंने अपने गीतों से लोकप्रिय बनाया। अब गीतकार हरिश्चंद्र दास ने एक नया करिश्मा दिखाया है। आरके पब्लिकेशन मुंबई से उनका एक उपन्यास प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों में आया है। हरिश्चंद्र का यह उपन्यास सरस गद्य और रोचक कथा का अद्भुत नमूना है। 

हरिश्चंद्र का उपन्यास 'कुलक्षिणी'  एक ऐसी सुशील युवती की जीवन गाथा है जो अपने नारी सुलभ गुणों से ससुराल वालों का दिल जीत लेती है। मगर वक़्त के साथ पासा पलटता है और इस सुशील युवती को कुलक्षिणी घोषित करके गृह त्याग पर मजबूर किया जाता है। कई उतार-चढ़ाव और त्रासद घटनाओं के बाद अंततः उसी परिवार में एक सुलक्षिणी के रूप में उसकी पुन: वापसी होती है। 

बेस्टसेलर किताबों की तरह यह किताब सहज, सरल और प्रवाहमय है। एक बार आप पढ़ना शुरू करेंगे तो पढ़ते चले जाएंगे। कहीं भी कोई गति अवरोधक नहीं आता। हरिश्चंद्र जी की लेखन शैली में ऐसा जादू है कि उपन्यास की घटनाएं फ़िल्म के दृश्यों की तरह आंखों के सामने साकार हो उठती हैं। इस उपन्यास के सारे चरित्र ऐसे हैं जो हमें गांव और क़स्बों में अक्सर दिखाई पड़ते हैं। इसलिए पाठक इन चरित्रों के साथ बड़ी सहजता से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है। 

कुलक्षिणी उपन्यास के रूप में हरिश्चंद्र जी ने पाठकों को नायाब तोहफ़ा दिया है। इसके लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई। मेरी मंगलकामना है कि इस ख़ूबसूरत उपन्यास की सुगंध घर घर में पहुंचे। मुझे उम्मीद है कि हरिश्चंद्र की रचनात्मकता का सफ़र ऐसी ही जीवंतता के साथ जारी रहेगा और वे अपनी कामयाबी का परचम लहराते रहेंगे।

इस पुस्तक का मूल्य ₹295 है। इसे प्राप्त करने के लिए यहां संपर्क करें-

आरके पब्लिकेशन : 
90225-21190, 98212-51190 
गीतकार हरिश्चंद्र : 93221-82627

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आपका-
देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 मो : 98210 82126

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

आहटों के अर्थ : सीमा अग्रवाल का नवगीत संग्रह

 



फूलों की चौपालों में खुशबू जब नृत्य करेगी

"नई कविता के तेवर को छंद में जीने का यत्न ही नवगीत है।" यह परिभाषा सन् 1982 में प्रकाशित नवगीत दशक-1 की भूमिका में सम्पादक गीतकार उमाकांत मालवीय ने दी थी। नवगीत दशक का लोकार्पण श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने आवास पर किया था। निराला की सरस्वती वंदना में आए नवगति शब्द को नवगीत की पीठिका मानने वाले गीतकार यश मालवीय नवगीत को कविता की समानांतर काव्य विधा मानते हैं।


सन् 1958 में प्रकाशित समवेत गीत संकलन गीतांगिनी की भूमिका में सम्पादक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने पहली बार नवगीत शब्द का उल्लेख किया। उन्होंने लिखा था- "नवगीत बदले स्वर के नए गीत हैं।" सन् 1960 में नवगीत चर्चा में आ चुके थे। इसलिए सन् 2020 में जब नवगीत 60 वर्ष का हुआ तो कई पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले और लखनऊ, बनारस आदि शहरों में उत्सव भी मनाया गया। 


पारंपरिक गीत व्यक्तिगत सुख दुख का अनुगायन था, नवगीत समकालीन संदर्भों का शिलालेख है। नवगीत ने पारम्परिक गीत विधा में नई चेतना का संचार किया। सीमित दायरे से बाहर निकलकर गीत के इस नए तेवर ने नए बिम्ब, नए प्रतीक और नए कथ्य को अपना सहयात्री बनाया। कवयित्री सीमा अग्रवाल इसी नवगीत विधा की एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। उनके नवगीत संग्रह का नाम है 'आहटों के अर्थ।'


मैं तुम्हारी याद में हूं/ या हवा में उड़ रही हूं/ सोच तो लूं


नर्म घेरे हैं तुम्हारी/ बाजुओं के

या कि मैं लिपटी हुई हूं/ बादलों में 

पक्षियों के झुंड में मैं/ खो गई हूं 

गुम हुई हूं या कि खुद की/ हलचलों में 


दूर होती जा रही हूं/ या कि खुद से जुड़ रही हूं

सोच तो लूं


सीमा अग्रवाल के पास हिंदी की समृद्ध शब्द संपदा, कथ्य की विविधता और अभिव्यक्ति का कौशल है। वे जब किसी चिरपरिचित विषय पर भी लिखती हैं तो उसमें नयापन और जीवंतता घोल देती हैं। बसंत ऋतु पर उनके गीत 'घर है राह जोहता' की पंक्तियां देखिए-


झाड़ बुहारी कर शुभ को न्यौतूं/ अगरू महकाऊं 

चलूं सूर्य की अगवानी को/ वंदनवार सजाऊं 

चुप-चुप सी है खड़ी रसोई/ जरा इसे सहला दूं

तनिक नेह की आंच अगोरूं/ चूल्हे को सुलगा दूं


अपने समय पर सीमा जी की अच्छी पकड़ है। वे समय के सवाल को जब रचनात्मकता के कटघरे में प्रस्तुत करती हैं तो हमारे सामने एक जानी पहचानी दुनिया खुल जाती है- 


साथ एक के चार मुफ़्त हैं/ उपदेशों की पैंठ लगी है/ गली गली 


रंग बिरंगी कहीं झंडियां/ कहीं सजी है चमचम पन्नी 

हद से मीठी कहीं बुलाहट/ ग्राहक काट न जाए कन्नी

 

पर फैशन के महादौर में/ नहीं परखना क्या असली है/ क्या नकली 


उनकी क़लम के दायरे में घर आंगन की घरेलू दुनिया है। मौसम और उत्सव हैं, साथ ही रिश्ते नाते भी सांस लेते हैं। नानी और नतनी को साथ-साथ देखना सुखद लगता है-


अहा चल पड़ीं/ नानी नतनी/ सुंदर-सुंदर बनकर 

टिकुली लाली/ काजल माला/ मधु मुस्कान पहनकर 


कल ने कल की उंगली थामी/ कहा नहीं घबराना 

कोई भी मुश्किल हो तुम हमको/ आवाज लगाना 


हम दोनों मिल जुल कर/ डांटेंगे मुश्किल को तन कर


सीमा अग्रवाल के नवगीतों में समय के ज्वलंत सवाल, समाज और राजनीति के स्याह पक्ष और माहौल की विसंगतियां नज़र आती हैं। प्रेम और प्रकृति का चित्रण भी सीमा जी बड़ी निष्ठा और समर्पण के साथ करती हैं। ज़िन्दगी के क्षितिज पर भावनाओं के इंद्रधनुष को वे इस तरह साकार करती हैं-


तुम अबीर हो बस जाओ/ मेरी सांसों में 

मैं फागुन हो जाऊं 


फूलों की चौपालों में/ खुशबू जब नृत्य करेगी

पूरनमासी ओढ़ निशा तब /महुए सा महकेगी


मैं पलाश भर आंचल में तब/ अगर कहो तो 

मिलने तुमसे आऊं


नवगीत की प्रचलित परंपरा के अनुसार उन्होंने एक लाइन और डेढ़ लाइन के मुखड़ों का काफ़ी उपयोग किया है। संप्रेषणीयता में असर के लिए और लोक स्मृति में बस जाने के लिए दो लाइन के मुखड़े ज़्यादा असरदार होते हैं। जहां-जहां उन्होंने दो लाइन के मुखड़ों का उपयोग किया है वहां वहां यह असर दिखाई देता है- 


बर्तन बोले बर्तन से/ हम देख देख हैरान 

हमसे ज्यादा खड़क रहे हैं/ अक्लमंद इंसान


नई कविता से होड़ लेने की कोशिश में नवगीत विधा का नुकसान भी हुआ। नवगीतों की भाषा और शिल्प में जटिलता, शुष्कता और कृत्रिमता का आगमन होने से जनमानस में उनकी लोकप्रियता का ह्रास हुआ। यह ख़ुशी की बात है कि सीमा अग्रवाल ने ख़ुद को इन सीमाओं से बचाया है। अपने नवगीतों को उन्होंने संवेदना, सरसता और तरलता से सजाया है।


गीत और नवगीत एक ऐसी नाज़ुक गेय काव्य विधा है जिसमें समाज के खुरदरे और जटिल यथार्थ की भी कोमल अभिव्यक्ति होती है। सीमा जी ने अपने शब्द चयन, वाक्य विन्यास और सृजनात्मक प्रस्तुति में हर जगह इस रचनात्मक कौशल का निर्वाह किया है। वस्तुतः यह उनकी उपलब्धि है। मैं उनको इस नवगीत संग्रह के लिए बधाई देता हूं और उम्मीद करता हूं कि उनके इस रचनात्मक कौशल का सर्वत्र स्वागत किया जाएगा।


शारदेय प्रकाशन, 5/234, विपुल खंड, गोमती नगर, लखनऊ से प्रकाशित इस नवगीत संग्रह का मूल्य है 250 रूपये।

आपका-

देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 मो : 98210 82126

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

चित्रनगरी संवाद मंच में ढब्बूजी उर्फ़ आबिद सुरती

 

चित्रनगरी संवाद मंच की अड्डेबाजी में ढब्बूजी

चित्रनगरी संवाद मंच की रविवार 28 नवम्बर 2021 की अड्डेबाजी में ख़ास मेहमान थे प्रतिष्ठित कथाकार, चित्रकार और कार्टूनिस्ट आबिद सुरती। 'धर्मयुग' के ढब्बूजी फेम आबिद सुरती की उम्रउम्र 86 साल है। हिंदी, उर्दू, गुजराती, अंग्रेजी आदि विभिन्न भाषाओं में उनकी 80 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे इतने चुस्त-दुरुस्त हैं कि उनकी ऊर्जा से नौजवानों को रश्क होता है।

ड्रॉपडेड फाउंडेशन के ज़रिए आबिद सुरती ने जल संरक्षण में कीर्तिमान कायम किया है। महानायक अमिताभ बच्चन ने केबीसी कार्यक्रम में उनके इस फाउंडेशन को दस लाख का डोनेशन दिया। इंद्रजाल कामिक्स के उनके सुपर हीरो बहादुर की तस्वीर अभिनेता शाहरुख ख़ान ने अपने घर में लगा रखी है।

आबिद सुरती के साथ गपशप का लुत्फ़ उठाने के लिए हमारे 15 रचनाकार कलाकार दोस्त हाज़िर हुए। आबिद जी ने बड़े रोचक तरीके से इंद्रजाल कामिक्स के अपने सुपर हीरो बहादुर की संकल्पना के बारे में बताया। यह भी बताया कि अपने इस सुपर हीरो को साकार करने के लिए कैसे उन्होंने डाकुओं के इलाक़े में जाकर उनकी कार्यशैली की जानकारी हासिल की।

लेखनी और ब्रश के दम पर बेलौस ज़िन्दगी जीने वाले आबिद सुरती अद्भुत लेखक हैं। उनकी एक चित्रकथा 'दौड़' पर राज कपूर फ़िल्म बनाना चाहते थे। इसके लिए कई बैठकें हुईं और यह सिलसिला बीस साल चला। अंततः राज कपूर के निधन के साथ यह अध्याय बंद हो गया। राज कपूर की शख़्सियत और कार्यशैली के बारे में उनके संस्मरण बहुत दिलचस्प थे।

आबिद जी का बचपन दक्षिण मुंबई के डोंगरी मोहल्ले में बीता। बचपन में वे फुटपाथ पर सोते थे। उनके कुछ सहपाठी ऐसे भी थे जो आगे चलकर बहुत बड़े माफिया और डान बने। अपने आत्मकथात्मक उपन्यास 'सूफ़ी' में उन्होंने इन घटनाओं का दिलचस्प वर्णन किया है। उनकी यह किताब हिंदी में वाणी प्रकाशन और अंग्रेजी में पेंगुइन से प्रकाशित हुई।  एक ज़माने में उनकी 'काली किताब 'भी बेहद चर्चित रही है। इस किताब का सात भाषाओं में अनुवाद हुआ।

चित्रनगरी संवाद मंच की  अड्डेबाजी में आबिद सुरती के शिरकत करने वालों के नाम हैं-

देवयानी जोशी, नवीन जोशी 'नवा', मोइन अहमद देहलवी, अतुल कुमार वी, रवींद्र यादव, भारतेंदु विमल, के पी सक्सेना, संजीव निगम, प्रदीप गुप्ता, अनिल गौड़, राजेश भट्ट, दिनेश दुबे, देवमणि पांडेय और दीनदयाल मुरारका।

चित्रनगरी संवाद मंच के अड्डे पर रचनाकारों, कलाकारों और काव्य प्रेमियों का हमेशा स्वागत है।गपशप का लुत्फ़ उठाने के लिए आप भी पधारिए। पता है-

इडलिश कैफ़े, होटल रॉयल चैलेंज के सामने, निकट ओबेरॉय माल, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, शाम 6:00 से 8:00 बजे।

आपका-
देवमणि पांडेय : 98210-82126

खटराग : केपी सक्सेना 'दूसरे' का काव्य संग्रह



नहीं सिधाई की बहुत, इस युग में दरकार


कवि, लेखक, व्यंग्यकार के.पी. सक्सेना 'दूसरे' के नए काव्य संग्रह का नाम है खटराग। उनके इस खटराग में कई काव्य विधाएं शामिल हैं। अपनी बात में उन्होंने लिखा है- "काव्य लेखन मेरे लिए न तो शब्दों की जादूगरी है और न ही वैचारिक जुगाली। यह आंसुओं का अनुवाद है जो अमूमन व्यंग्यात्मक शैली में दोहा, मुक्तक, क्षणिका या अतुकांत कविता के रूप में काग़ज़ पर अवतरित होने के लिए आतुर हो उठता है। कविता वक़्त के साथ अपना रंग बदलती है। जब हम ख़ुश होते हैं तो कविता झूमने लगती है और जब हम उदास होते हैं तो सर टिकाने के लिए एक कांधे की तरह हाज़िर हो जाती है।"


अपनी अनुभूतियों के रूपांतरण के लिए कवि केपी सक्सेना ने बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया है। इसलिए उनकी अभिव्यक्ति सहजता से पाठकों तक पहुंच जाती है। किसी भी विधा में बात कहते समय वे यथार्थ का दामन कभी नहीं छोड़ते। उनके दोहे 'गागर में सागर' युक्ति को चरितार्थ करते हैं। उनका कहना है-


लघुकथा से बात बन जाए अगर,

क्यों पुलिंदों में मगज़मारी करें l 

सार जीवन का छुपा दो लाइनों में 

हम तो दोहों की तरफ़दारी करें II


केपी सक्सेना की दोहावली में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों शामिल हैं। उनकी अभिव्यक्ति के प्लेटफार्म पर त्रेता, द्वापर, नीति, अनीति, प्रेम, प्रकृति, चुनाव, राजनीति, धर्म, संस्कृति आदि विविध विषय दिखाई देते हैं। मिसाल के लिए उनके चंद दोहे देखिए- 


युग कोई भी हो रहा, दगा न पूजा जाय। 

नाम विभीषण आज भी, कुल में रखा न जाय II


वह भी मां स्तुत्य है, जो दे सुत को श्राप। 

कैकेई कारण बनी, रावण मरा ना आप II 


छल से जब एकलव्य का, लिया अंगूठा दान। तब ही से जग में घटा, गुरुओं का सम्मान II


नहीं सिधाई की बहुत, इस युग में दरकार।

सभी काटते छांट कर, पहले सीधी डार II


जो धमकी से ना सधे, वो साधे मुस्कान। 

झरना देखो प्रेम से, रेत रहा चट्टान II


सदा काम आवे नहीं, कोरा पुस्तक ज्ञान। 

जीवन से जो सीख ले, होय सफल इंसान II


'काना' कहकर क्यों करें, काने का अपमान।

'समदर्शी' कह देखिए, करे निछावर जान II


रचनात्मकता को धार देने के लिए व्यंग्य का लहजा असरदार साबित होता है। अपने युग के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए केपी सक्सेना इस लहजे का भी बढ़िया इस्तेमाल करते हैं-


ना कालिख, ना गालियां, ना जूतम-पैज़ार। 

आख़िर दिनभर मीडिया, कैसे करे प्रचार II 


उनकी महिमा आज तक, सका न कोई भेद।

बालों को काला करें, धन को करें सफ़ेद II


केपी सक्सेना के खटराग में 63 मुक्तक भी शामिल हैं। इन मुक्तकों में भी उन्होंने अपने समय और समाज के सच को बयान करने में कोई कोताही नहीं की है। सीधी साधी भाषा में और सहज सरल लहजे में वे जो कुछ भी कहना चाहते हैं वह आसानी से पाठकों तक पहुंच जाता है-


बंदिशें कुछ तो ढील दे मौला, 

ख़्वाहिशों को ज़मीन दे मौला। 

देख दिन की नमाज़ भी पढ़ ली, 

अब तो शामें हसीन दे मौला II


10 मार्च 1947 में सतना, मध्य प्रदेश में जन्मे केपी सक्सेना कृषि विज्ञान तथा हिंदी में स्नातकोत्तर हैं। उन्होंने क़ानून की उपाधि भी प्राप्त की है। 35 सालों तक भारतीय खाद्य निगम में सेवा के पश्चात उन्होंने सन् 2004 में ऐच्छिक सेवानिवृत्त ले ली और स्वतंत्र लेखन करने लगे। केपी सक्सेना एक दृष्टि संपन्न रचनाकार हैं। अपने आसपास की घटनाओं, माहौल और जीवन पर उनकी हमेशा नज़र रहती है। इसलिए वे अपनी रचनाओं में समय के सच को बयान करते हैं। अभिव्यक्ति की यही ईमानदारी उन्हें एक उम्दा क़लमकार के रूप में स्थापित करती है। हमारी मंगल कामना है कि उनकी यह लेखनी इसी तरह हमेशा सक्रिय रहे। वे साहित्य के गुलशन में विविध रंगी फूल खिलाते रहें और जीवन की बग़िया को महकाते रहें। 


बीएफसी पब्लिकेशन, गोमती नगर, लखनऊ से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य है 200 रुपए। आप मोबाइल नंबर 95840 25175 और 95944 80055 पर कवि के.पी. सक्सेना 'दूसरे' से संपर्क कर सकते हैं।



आपका-

देवमणि पांडेय 


सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 मो : 98210 82126


मैं उर्दू बोलूं : अजय सहाब का शेरी मज्मूआ

 



अंधे परख रहे यहां मेयारे रोशनी 

शायर अजय सहाब का पहला शेरी मज्मूआ 'उम्मीद' सन् 2015 में शाया हुआ था और ख़ूब मक़बूल रहा। हाल ही में उनका दूसरा शेरी मज्मूआ 'मैं उर्दू बोलूं' मंज़रे आम पर आया है। इसके ज़रिए भी उन्होंने अपनी रचनात्मकता के फ़न और हुनर का जलवा दिखाया है। क्लासिकल ग़ज़ल की जो विरासत हमें मीर ओ ग़ालिब से हासिल हुई है उसे बड़ी ख़ूबसूरती से अजय सहाब ने आगे बढ़ाया है-


वो तअल्लुक़ तेरा मेरा, था कोई बुत मोम का

फ़ुरक़तों की आग में, अपना वो रिश्ता जल गया 


हम गए थे उनसे करने अपनी हालत का गिला 

उनके चश्मे पुरशरर से सारा शिकवा जल गया


साहिर उनके प्रिय शायर हैं। साहिर की तरह सहाब के पास भी अपने तजुर्बात के इज़हार के लिए धारदार तेवर है। एहसास की गहराई है। बोलती हुई मीठी ज़बान है। इसलिए सहाब की ग़ज़लें और नज़्में सीधे दिल के दरवाजे पर दस्तक देती हैं और हमारी भावनाओं के साथ एक अंतरंग रिश्ते में ढल जाती हैं।


मग़रिब से आ गई यहां तहज़ीबे बरहना 

मशरिक तेरी रिवायती पाकीज़गी की ख़ैर


अंधे परख रहे यहां मेयारे रोशनी 

दीदावरे हुनर तेरी, दीदावरी की ख़ैर


सहाब के पास शायरी का जो सरमाया है वह रिवायती भी है और जदीद भी है। उनकी सोच का कैनवास बहुत वसीह है। इसमें मुहब्बत की धड़कन है। सोच की लहरें हैं। फ़िक्र के उफ़क़ पर ज़िन्दगी की सतरंगी धनक है-


तेज तूफ़ान में उड़ते हुए पत्ते जैसा 

ज़िन्दगी तेरा मुक़द्दर भी है तिनके जैसा


तुमको फ़ुर्सत ही नहीं उसको पहनके देखो

अपना रिश्ता है जो उतरे हुए गहने जैसा


सहाब दौरे हाज़िर के मसाइल और सवालात को अल्फ़ाज़ में ढालने का हुनर जानते हैं। यही वजह है कि उनकी शायरी को हर तरह के पाठक और सामयीन पसंद करते हैं। सहाब के पास साफ़ नज़रिया है। लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा है। बिना किसी अवरोध के उनके सोच की कश्ती जज़्बात की झील में तैरती हुई नज़र आती है-


या तो सच कहने पर सुक़रात को मारे न कोई

या तू संसार से सच्चाई को वापस ले ले 


और कितनों के सफ़ीने यहां डूबेंगे ख़ुदा 

इस समंदर से तू गहराई को वापस ले ले


सहाब एक ऐसे मोतबर शायर हैं जिनकी शायरी अदबी रिसालों में शाया होती है। संगीत की स्वर लहरियों में गूंजती है। मुशायरों के मंच पर अवाम से गुफ़्तगू करती है। सहाब को उर्दू से बेइंतहा मुहब्बत है। उनकी उर्दू इतनी नफ़ीस है कि उससे बड़े-बड़े शायरों को रश्क हो सकता है। 


लिखा है आज कोई शेर मैंने उर्दू में 

ये मेरा लफ़्ज़ भी इतरा के चल रहा होगा


"अल्फ़ाज़ और आवाज़" स्टेज कार्यक्रम के ज़रिए भी अजय सहाब देश विदेश में उर्दू ज़बान और उर्दू अदब का परचम लहराते हैं। यूट्यूब पर उनके इस कार्यक्रम के करोड़ों दर्शक हैं। 


जैसे पुराना हार था रिश्ता तेरा मेरा 

अच्छा किया जो रख दिया तूने उतार के 


दिल में हज़ार दर्द हों, आंसू छुपा के रख 

कोई तो कारोबार हो, बिन इश्तेहार के


फ़िक्र की आंच, एहसास की शिद्दत और सोच की गहराई के ज़रिए सहाब ने अपने शायराना सफ़र को एक खूबसूरत मुक़ाम तक पहुंचाया है। हमारी दुआ है कि उनकी तख़लीक़ का यह सफ़र मुसलसल इसी तरह कामयाबी की नई मंज़िलें तय करता रहे। रायपुर छ.ग. में अजय साहब एक सरकारी महकमे में उच्च अधिकारी हैं। हमें उनकी इस ख़्वाहिश का एहतराम करना चाहिए-


मेरे ओहदे से, न क़द से, न बदन से जाने

मुझको दुनिया मेरे मेयार ए सुख़न से जाने


प्रकाशक : विजया बुक्स, 1/10753 सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली 110032

क़ीमत 295/- रूपये 


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आपका-

देवमणि पांडेय 


सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 मो : 98210 82126


बुधवार, 3 नवंबर 2021

सफ़र इक ख्वाब का : अभिलाष का काव्य संग्रह

तेरा ख़याल ही काफी है उम्र भर के लिए

'इतनी शक्ति हमें देना दाता' इस लोकप्रिय प्रार्थना गीत के गीतकार अभिलाष का काव्य संग्रह 'सफ़र इक ख्वाब का' प्रकाशित हुआ है। इसमें अभिलाष की ग़ज़लें और नज़्में शामिल हैं। निर्माता-निर्देशक अभिनेता धीरज कुमार के अनुसार यह एक ऐसे कवि का सफ़रनामा है जो पिछले 42 सालों से मुंबई की माया नगरी में क़लम के सहारे अपने वजूद की हक़ीक़त तलाश कर रहा था। अभिलाष की रचनाओं में वही ताज़गी, सादगी और फ़िलासफ़ी है जो उनके निजी जीवन में भी झलकती रही।

गीतकार अभिलाष का जन्म 13 मार्च 1946 को दिल्ली में हुआ। दिल्ली में उनके पिता का व्यवसाय था। वे चाहते थे कि अभिलाष व्यवसाय में उनका हाथ बटाएं। लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ। छात्र जीवन में बारह साल की उम्र में अभिलाष ने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। मैट्रिक की पढ़ाई के बाद वे मंच पर भी सक्रिय हो गए। उनका वास्तविक नाम ओम प्रकाश कटारिया है। उन्होंने अपना तख़ल्लुस 'अज़ीज़' रख लिया। ओमप्रकाश' अज़ीज़' के नाम से उनकी ग़ज़लें, नज़्में और कहानियां कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 'अज़ीज़' देहलवी नाम से अभिलाष ने मुशायरों में शिरकत की। मन ही मन साहिर लुधियानवी को अपना उस्ताद मान लिया।

दिल्ली के एक मुशायरे में साहिर लुधियानवी पधारे। नौजवान शायर 'अज़ीज़' देहलवी ने उनसे मिलकर उनका आशीर्वाद लिया। साहिर साहब को कुछ नज़्में सुनाईं। साहिर ने कहा- मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं तुम्हारे मुंह से अपनी नज़्में सुन रहा हूं। तुम अपना रास्ता अलग करो। ऐसी ग़ज़लें और नज़्में लिखो जिसमें तुम्हारा अपना रंग दिखाई पड़े। 

इस किताब की नज़्में पढ़ते हुए साहिर का अंदाज़ ए बयां याद आना स्वाभाविक है। अभिलाष जी की नज़्म 'क़ैद' की कुछ लाइनें देखिए- 


सिलसिले कितने बने और बन के टूट गए 

मैं तेरी याद की ज़िंदां से रिहा हो न सका 

उम्र भर ग़म में जला फिर भी तक़ाज़ा मुझसे 

तेरी इक पल की मुहब्बत का अदा हो न सका


साहिर का मशवरा मानकर ओमप्रकाश अज़ीज़ जब गीतकार अभिलाष बन गए तो उनकी नज़्मों में उनका अपना रंग नज़र आया। 'सफ़र इक ख़्वाब का' नज़्म की चंद लाइनें देखिए-


शानो-शौक़त जिसे महलों की न रास आई कभी 

ज़िन्दगी अपनी बसर जिसने की नादारों में 

पा लिया जिसने ख़ुद अपने को मैं वो गौतम हूं

क़ैद जो हो न सका, ऐश की दीवारों में 


मैं ही गांधी हूं, अहिंसा का निगहबान हूं मैं

मुझको पाओगे सदाक़त के तरफ़दारों में



अभिलाष की ग़ज़लों में दिल की जो दुनिया है उसमें मुहब्बत के सभी मौसम शामिल हैं। चंद अशआर देखिए-


सुकून ए दिल के लिए, राहत ए जिगर के लिए

तेरा ख़याल ही काफ़ी है उम्र भर के लिए 


न सही गाता हुआ, गुनगुनाता मिल जाता

कहीं तो शख़्स कोई मुस्कुराता मिल जाता 


किस क़दर दुश्वार है ये ज़िन्दगी का रास्ता

आंसुओं से हो रहा है, तय ख़ुशी का रास्ता


जिस गली में भूल आया हूं मैं अपनी ज़िन्दगी 

पूछता हूं हर किसी से उस गली का रास्ता 


पलकों पर आंसुओं का जनाज़ा लिए हुए 

दिल घुट रहा है बारे तमन्ना लिए हुए 


नज़दीक जाके देखा तो महसूस ये हुआ 

हर आदमी है चेहरे पर चेहरा लिए हुए 


ख़याल आता है मुझको कि मैं भी ज़िंदा हूं

तेरे ख़याल की गलियों से जब गुज़रता हूं 


इस काव्य संग्रह में अभिलाष जी के दस क़त्आत भी शामिल हैं। उनका एक क़त्आ देखिए- 


गंगा जमुना का नीर हो जाता 

सारी दुनिया की पीर हो जाता 

अर्थ समझा न अपने होने का 

वरना, मैं भी कबीर हो जाता


अपनी रचनाओं में गीतकार अभिलाष ने अपने अनुभव, सुख-दुख, सोच और सरोकार को इस तरह अभिव्यक्त किया है कि वह पढ़ने वालों को बड़ी जल्दी सम्वेदना की डोर में बांध लेता है। उन्होंने जिस ज़मीन पर अपना सफ़र तय किया है और जिस आसमान को अपना हमसफ़र बनाया है उसी का अक्स अपनी रचनाओं में दिखाया है। उन्होंने संघर्ष का एक लंबा रास्ता तय किया है। इस रास्ते में फूल कम है कांटे ज़्यादा हैं। अभिलाषा ने पलकों पर आंसुओं का जनाज़ा लिए हुए अपना सफ़र तय किया है। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में जो नमी है, जो तरलता है वह पाठकों के अंतर्मन को भिगो देती है। उम्मीद है कि अभिलाष का यह संकलन पाठकों को पसंद आएगा।

 


फ़िल्मसिटी रोड गोरेगांव पूर्व के इडलिश कैफ़े में 19 मार्च 2020 को चित्र नगरी संवाद मंच की अड्डेबाजी में सिने गीतकार अभिलाष की मौजूदगी ने हमेशा के लिए इस बैठक को यादगार बना दिया।


27 सितंबर 2020 को अभिलाष जी का स्वर्गवास हो गया। अपने गीतों के जरिए वे हमेशा हम सब की स्मृतियों में ज़िंदा रहेंगे। 


गीतकार अभिलाष का यह काव्य संग्रह  'सफ़र इक ख्वाब का' समाज विकास मंच, गोकुल धाम, गोरेगांव पूर्व के महामंत्री दिवेश यादव के सौजन्य से प्राप्त हुआ। इस सुंदर उपहार के लिए दिवेश जी का शुक्रिया।

 

आपका-

देवमणि पांडेय 


सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 मो : 98210 82126


प्रकाशक : विजय जाधव, सृजन प्रकाशन गोमती, एफ-2, 2:4, सेक्टर 8ब, सीबीडी बेलापुर, नई मुंबई 400614

फ़ोन : 97 69 66 83 69


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गुरुवार, 23 सितंबर 2021

सुहबतें फ़क़ीरों की : रक़ीब का ग़ज़ल संग्रह


 सुहबतें फ़क़ीरों की : रक़ीब का ग़ज़ल संग्रह

सतीश शुक्ला 'रक़ीब' नेकदिल इंसान और उम्दा शायर हैं। शायरी की शाहराह पर कई सालों के मुसलसल सफ़र के बाद हाल ही में उनका पहला शेरी मज्मूआ मंज़रे-आम पर आया है। इसका नाम है 'सुहबतें फ़क़ीरों की'।


हर ख़ुशी क़दम चूमे कायनात की उसके 

रास आ गईं जिसको सुहबतें फ़क़ीरों की 


सतीश शुक्ला 'रक़ीब' ने अपने फ़िक्र ओ फ़न को उसी रास्ते का हमवार बनाया है जो रास्ता मीर ओ ग़ालिब से चलता हुआ हम सब तक आया है। इस रिवायती शायरी में वे अपना रंग घोलने में कामयाब हुए हैं -


तुम्हारे शहर में मशहूर नाम किसका था 

मिरा नहीं था तो फिर एहतराम किसका था


वो कल जो बज़्मे - सुखन में सुनाया था तूने 

बहुत हसीन था लेकिन कलाम किसका था


रक़ीब के इज़हार में एहसास की ख़ुशबू है। उनकी ग़ज़लों में मुहब्बत की धनक मुस्कुराती हुई नज़र आती है। वे मुहब्बत की इस जानी पहचानी दुनिया में और कोई न कोई दिलचस्प पहलू निकाल ही लेते हैं-


आपसे तुम, तुमसे तू, कहने लगे 

छू के मुझको, मुझको छू, कहने लगे 


पहले अपनी जान कहते थे मुझे 

अब वो जाने आरज़ू कहने लगे 


रक़ीब के दिल की दुनिया में जज़्बात के ऐसे ख़ुशरंग नज़ारे हैं जो सब को भाते हैं। वहां मुहब्बत का एक गुलशन आबाद है। इस गुलशन में हवाएं मुहब्बत की ख़ुशबू बांटती हैं-


हवा के दोश पे किस गुलबदन की ख़ुशबू है 

गुमान होता है सारे चमन की ख़ुशबू है


अपने जज़्बात के इज़हार के लिए रक़ीब ने उर्दू ज़बान का ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया है। उनकी उर्दू आम बोलचाल की उर्दू है। ज़बान से उनका जो रिश्ता है उसे आप उन्हीं के एक शेर से समझ सकते हैं-


हर एक लफ़्ज़ पे वो जां निसार करता है

अदब नवाज़ है उर्दू से प्यार करता है 


भारतीय साहित्य संग्रह नेहरू नगर, कानपुर से प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह का मूल्य है 400 रूपये। ग़ज़लों की इस दिलकश किताब के लिए सतीश शुक्ला रक़ीब को बहुत-बहुत बधाई। उम्मीद है कि उनकी तख़लीक़ का यह सफ़र इसी ख़ूबसूरती से आगे भी जारी रहेगा। 


आपका- 

देवमणि_पांडेय 


सम्पर्क : सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

98921 65892 & 99675 14139

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

आधारशिला : कवि मंगलेश डबराल पर केंद्रित


आधारशिला : कवि मंगलेश डबराल पर विशेष

अपने-अपने दौर में बड़ी कविता उन्हीं लोगों ने लिखी है जो कविता को जीवन के बीच खोजते रहे। कबीर, मीरा, निराला, मुक्तिबोध आदि कवियों में समय और संवेदना का बहुत अंतराल है पर अगर कबीर और मीरा की कविता हमें आज भी विचलित कर देती है और इतनी पुरानी होने के बावजूद आधुनिक और आवश्यक लगती है तो इसलिए कि उन्होंने कविता को जीवन से दूर और अलग नहीं माना और वे उस कविता को साहस के साथ धरती पर उतार लाए जो एक धुंधली शक्ल में हवा में तैर रही थी।

यह कहना है हिंदी के  दिवंगत कवि  मंगलेश डबराल का। आधारशिला के जनवरी 2021 अंक  में कवि मंगलेश डबराल पर विशेष सामग्री दी गई है। साहित्य, समय और समाज के बारे में मंगलेश डबराल जी से की गई बातचीत बहुत महत्वपूर्ण और सार्थक है। मंगलेश जी के अनुसार कविता के जो बुनियादी कथ्य रहे हैं उनमें एक यह है कि हम अपने जीवन, अस्तित्व और नियति के सवालों का सामना करें।

मंगलेश जी का यह कहना भी ग़ौरतलब है कि आज़ादी के बाद से हिंदी में जो भी सार्थक कविता लिखी गई है उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह चीखना चिल्लाना तो दूर, बोलती भी बहुत कम है पर कहती बहुत कुछ है और इस कहने में ही वह सत्ता प्रतिष्ठान से अपने बुनियादी विरोध को दर्ज कर देती है।

आधारशिला के इस अंक में शामिल कहानियां, कविताएं, फ़िल्म समीक्षा, आलेख और अन्य रचनाएं भी अच्छी और पठनीय हैं।

उल्लेखनीय है कि आधारशिला के प्रधान संपादक दिवाकर भट्ट विदेशों में हिन्दी साहित्य और हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए कटिबद्ध हैं। वे हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के अभियान से भी जुड़े हैं।

सम्पर्क का पता है-

आधारशिला प्रधान : संपादक दिवाकर भट्ट
बड़ी मुखानी, हल्द्वानी, नैनीताल (उत्तराखंड)- 263 139 फ़ोन : 98970 872 48 , 86501 636 23

आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063
98210 82126

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रविवार, 7 फ़रवरी 2021

पुस्तक भेंट करने की परंपरा : रोचक क़िस्से


 पुस्तक भेंट करने की परंपरा

आयोजन शुरू होने से पहले लेखक महोदय अपनी कार की डिक्की में सौ डेढ़ सौ किताबें लेकर पहुंच गए। उन्होंने नाम पूछ पूछ कर लोगों को किताबें भेंट करनी शुरू कर दीं। एक किताब कथाकार सूरज प्रकाश को भी प्राप्त हुई जिस पर लिखा था- 'सूरज प्रकाश को सप्रेम भेंट'। थोड़ी देर बाद कुछ लोग और आ गए तो लेखक महोदय यह भूल गए कि किसको किताब दी थी और किसको नहीं। उन्होंने सूरज प्रकाश से दोबारा पूछा- आपका नाम ? सूरज प्रकाश ने मुस्कुराकर जवाब दिया- रशीद ख़ान। उन्होंने एक किताब पर लिखा- 'रशीद खान को सप्रेम भेंट' और सूरज प्रकाश को दोबारा किताब पकड़ा दी। 


कल शाम हम लोग फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व के फिएस्टा रेस्टोरेंट में कथाकार सूरज प्रकाश की अगुवाई में अड्डेबाज़ी के लिए बैठे थे। हमारे साथ शायर राजेश राज़ और कवि राजू मिश्रा भी मौजूद थे। हम लोगों के बीच पुस्तक भेंट करने की संस्कृति पर मज़ेदार चर्चा हुई।


क़िस्सा शायर बाक़र मेहंदी का


उर्दू के जाने-माने शायर और नक़्काद बाक़र मेहंदी के घर जाकर एक नौजवान ने उनको अपना नया काव्य संग्रह भेंट किया। बाक़र मेहंदी ने उलट पुलट कर दो तीन पन्ने देखे। फिर उस किताब को खिड़की से बाहर फेंक दिया। नौजवान हैरत से बोला- यह आपने क्या किया ? बाक़र मेहंदी बोले- जब तुम अपना काम कर रहे थे तो मैंने तुम्हारे काम में कोई दख़ल नहीं दिया। अब मैं अपना काम कर रहा हूं तो तुम क्यों एतराज़ कर रहे हो। 

 

क़िस्सा शायर सरदार जाफ़री का


भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर सरदार जाफ़री एक मुशायरे में दिल्ली गए थे। एक शायर ने उन्हें अपना शेरी मज्मूआ भेंट किया। दूसरे दिन वह शायर किसी काम से चांदनी चौक गया तो फुटपाथ पर रद्दी की दुकान पर अपनी वही किताब देखी। उठाकर देखा तो उसमें वह पन्ना भी सही सलामत था जिस पर उसने सरदार जाफ़री का नाम मुहब्बत के साथ लिखा था।


शायर ने फ़ोन किया और शिकायत की। सरदार जाफ़री ने जवाब दिया- मेरे घर में चार ही किताबें रखने की जगह है। मीर और ग़ालिब का दीवान है। कबीर और मीरा का काव्य संग्रह है। अब आप ही बताइए कि इनमें से मैं कौन सी किताब को बाहर निकाल दूं और आप का काव्य संग्रह घर में रखूं। शायर खामोश हो गया। 


इस मामले में हिंदी के समालोचक रामविलास शर्मा का नज़रिया ग़ौरतलब है। जब कोई रचनाकार उन्हें किताब भेंट करता तो वे तुरंत उसे वापस कर देते। वे कहते थे- "मुझे किताब ख़रीद कर पढ़ने की आदत है मैं आपकी किताब ख़रीद कर पढ़ लूंगा।"


अब आप ख़ुद ही यह तय कीजिए कि आपको अपनी नई नवेली किताब किसे भेंट करनी है और किसे नहीं।


आपका-

देवमणि पांडेय


सम्पर्क: बी-103, दिव्य स्तुति, 

कन्या पाडा, गोकुलधाम, 

फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, 

मुम्बई-400063, M : 98210 82126


नौजवान दोस्तो! तानसेन नहीं कानसेन बनिए

अपना भी कोई सानी रख

हिंदी के कई नौजवान कवि किसी गोष्ठी में जाते हैं तो सिर्फ़ सुनाने की फ़िराक़ में रहते हैं। दूसरा कवि क्या सुना रहा है, उस पर ध्यान नहीं देते। इनमें कई ऐसे भी होते हैं जो अपनी कविता सुना कर धीरे से खिसक भी जाते हैं। ऐसी ही एक काव्यगोष्ठी में कवयित्री-अभिनेत्री हेमा चंदानी अंजुलि ने एक ग़ज़ल पढ़ी, जिसमें एक शेर यह भी था -

अपने को तन्हा ना कर ,
अपना भी कोई सानी रख.

गोष्ठी की समाप्ति पर इस शेर के लिए मैंने हेमा चंदानी को बधाई दी। मेरी नज़र में काव्य गोष्ठी कविता की एक कार्यशाला होती है जिसमें एक सजग रचनाकार कुछ न कुछ ज़रूर सीखता है। वह अपने बड़े से भी सीख सकता है और अपने छोटे से भी सीख सकता है। हेमा चंदानी से मैं सीनियर हूं, लेकिन मैंने उनसे यह सीखा कि शायरी में 'सानी' शब्द का कितना ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया जा सकता है। अब आइए इस शेर के बारे में थोड़ी सी गुफ़्तगू की जाए।

यह एक सीधा सादा शेर है जिसमें मशविरा दिया गया है कि अकेले रहना ठीक नहीं, किसी को अपना साथी बनाओ। कुछ ऐसा ही कभी मैंने भी अपने एक शेर में कहा था-

रहोगे कब तलक तन्हा किसी के अब तो हो जाओ
बशर की ज़िंदगानी तो फ़क़त दो-चार दिन की है

हेमा जी के शेर का हुस्न बस एक लफ़्ज़ 'सानी' में समाया हुआ है। यानी आपका सानी या साथी कैसा होना चाहिए।

(1) सानी का अर्थ है जोड़ीदार। एक मुहावरा है- "अमुक का कोई सानी नहीं है"। यानी अमुक जी बेजोड़ हैं। तो आपको एक ऐसा दोस्त बनाना है जो बेजोड़ हो।

(2) ग़ज़ल के ऊपर वाले मिसरे को ऊला कहते हैं और नीचे वाले मिसरे को सानी कहते हैं । यानी आप ऊला हैं और आपको एक सानी यानी जोड़ीदार चाहिए। ऊला और सानी मिसरे में रब्त यानी गहरा रिश्ता होना ज़रूरी है तभी शेर मुकम्मल होता है। जैसे दोनों हाथ की हथेलियों को आप मिलाते हैं तो नमस्कार की मुद्रा बन जाती है। या दोनों हाथ टकराते हैं तो ताली की आवाज़ सुनाई पड़ती है। यानी दोनों हाथ एक दूसरे के जोड़ीदार हैं और उनमें रब्त भी है।

(3) शायरी की रिवायत के अनुसार सानी मिसरा हमेशा ऊला से बेहतर होना चाहिए। यानी आप जिससे दोस्ती करना चाहते हैं वह आप से बेहतर हो। आपसे ज़्यादा समझदार हो कि आप उससे कुछ सीख सकें। तो अगर आप अब तक ऊला की तरह अकेले हैं तो आप अपना कोई सानी तलाश कीजिए। अगर आपको अपना सानी मिल गया तो आप एक ग़ज़ल के शेर की तरह मुकम्मल हो जाएंगे।

(4) यही ज़िन्दगी का दर्शन है जो हेमा चंदानी के शेर से ध्वनित हो रहा है। यानी इस शेर में सपाट बयानी नहीं है। इस शेर में जो व्यंजना है अगर आप उसको समझ पाते हैं तो यह शेर आपको बहुत अच्छा लगेगा।


किसी काव्यगोष्ठी में जाने का शऊर और सलीक़ा यही है कि आप वहां से कम से कम दो लाइन तो अपने साथ लेकर आएं। आप हमेशा तानसेन यानी सुनाने वाला मत बनिए। आप अच्छे कानसेन यानी श्रोता भी बनिए तभी आप कुछ सीख सकेंगे। अंत में मैं फिर से कवयित्री हेमा चंदानी को बधाई और शुभकामनाएं देता हूं कि वे इसी तरह बेहतरीन शेर कहती रहें।

आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िलसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 
मो : 98210-82126

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

सुलगते मौसम में इमरोज़ आलम

सुलगते मौसम में इमरोज़ आलम

इमरोज़ आलम का शायराना मिज़ाज उनके चेहरे पर तबस्सुम के गुल खिलाता है। यह तबस्सुम उनकी शख़्सियत में चार चांद लगाता है और काव्य रसिकों को उनके क़रीब लाता है। इमरोज़ आलम में शायर होने की सारी ख़ूबियां मौजूद हैं। जोश है, जज़्बा है और जुनून है। उनका पहला शेरी मजमूआ “सुलगते मौसम में” जब मंज़रे आम पर आया तो उन्होंने हास्य कलाकार जॉनी लीवर से पुस्तक का लोकार्पण कराया। 

इमरोज़ आलम एक अलग ही राह के मुसाफ़िर हैं। मगर उनकी शायरी कभी इक़बाल की तरह सोते हुए को जगाती है। कभी साहिर लुधियानवी की तरह ख़ुद से बतियाती है। कभी वो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के लहजे में क्रांति की मशाल जलाते हैं और कभी अहमद फ़राज़ के रंग में डूब कर मुहब्बत की ग़ज़ल सुनाते हैं - 

अंदेशा बिछड़ जाने का होता भी बहुत है
ऐ जान मगर तुझपे भरोसा भी बहुत है

इमरोज़ आलम की शायरी में ख़ूबसूरत मंज़रकशी है। यही ख़ासियत उनमें स्क्रिप्ट राइटर बनने का ख़्वाब जगाती है। उन्हें पूरा यक़ीन है कि एक दिन उनकी भी मेहनत रंग लाएगी और यह फ़िल्म इंडस्ट्री सलीम जावेद की तरह उन्हें भी सर आंखों पर बिठाएगी। 

इमरोज़ आलम की शायरी में मुहब्बत के अफ़साने पोशीदा हैं। दिल टूटने की सदाएं भी हैं। टूटे हुए दिल का यही दर्द उनकी शायरी की ताक़त भी है -

न तुम से नज़रें मिलाते न बेकली होती
बड़ी हसीन हमारी ये ज़िंदगी होती

तुम्हारे होने ने बर्बाद कर दिया हमको
वगरना हमसे कहां जान शायरी होती

इमरोज़ आलम ने अपने ज़ाती तजरुबों से शायरी का तामहल बनाया है। उसे सूरज की तपिश और चांद की किरनों से सजाया है। इस दयार में मुहब्बत के फूल मुस्कुराते हैं और नागफ़नी के कांटे भी जगह पाते हैं। कहीं रोशनी का उपहार है तो कहीं अंधेरों की सौग़ात है। इमरोज़ आलम की शायरी में धनक के सभी रंग नज़र आते हैं। अभी उन्हें यह तय करना है कि रिवायत की क़दीम राह पे चलना है, कि नए सफ़र का आग़ाज करना है। मेरी दिली ख़्वाहिश है कि ऊपर वाला उन्हें राह दिखाए और मंज़िले मक़सूद तक पहुंचाए। आमीन। 


आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क: बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, 
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126