गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए : ज़फ़र गोरखपुरी

ज़फ़र गोरखपुरी की ग़ज़लें

शहर के अज़ाब, गांव की मासूमियत और ज़िंदगी की वास्तविकताओं को सशक्त ज़ुबान देने वाले शायर ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे ख़ुशनसीब शायर हैं जिसने फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी जैसे शायरों से अपने कलाम के लिए दाद वसूल की है। सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उन्होंने मुशायरे में फ़िराक़ साहब के सामने ग़ज़ल पढ़ी थी-

मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहाँ 
मय बराबर बटे चारसू दोस्तो
चंद लोगों की ख़ातिर जो मख़सूस हों 
तोड़ दो ऐसे जामो-सुबू दोस्तो

इसे सुनकर फ़िराक़ साहब ने सरे-आम ऐलान किया था कि ये नौजवान बड़ा शायर बनेगा। उस दौर में ज़फ़र गोरखपुरी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए थे और उनकी शायरी से शोले बरस रहे थे। फ़िराक़ साहब ने उन्हें समझाया- सच्चे फ़नकारों का कोई संगठन नहीं होता। वे किसी संगठन में फिट ही नहीं हो सकते। अब विज्ञान, तकनीक और दर्शन का युग है। इन्हें पढ़ना होगा। शिक्षितों के युग में कबीर नहीं पैदा हो सकता। वाहवाही से बाहर निकलो।

फ़िराक़ साहब की नसीहत का ज़फ़र गोरखपुरी पर गहरा असर हुआ। वे संजीदगी से शायरी में जुट गए। वह वक़्त भी आया जब उर्दू की जदीद शायरी के सबसे बड़े आलोचक पद्मश्री डॉ.शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा - ‘ज़फ़र गोरखपुरी की बदौलत उर्दू ग़ज़ल में पिछली कई दहाइयों से एक हलकी ठंडी ताज़ा हवा बह रही है। इसके लिए हमें उनका शुक्रिया और ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए।’


ज़फ़र गोरखपुरी बहुमुखी प्रतिभा वाले ऐसे महत्वपूर्ण शायर हैं जिसने एक विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया। उनकी शायरी में विविधरंगी शहरी जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति की महक और गांव के सामाजिक जीवन की मनोरम झांकी है । इसी ताज़गी ने उनकी ग़ज़लों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया । उनकी विविधतापूर्ण शायरी ने एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया । उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज में पेश किया।


गायक राजकुमार रिज़वी, कवि देवमणि पाण्डेय और शायर ज़फ़र गोरखपुरी


ज़फ़र गोरखपुरी ने बालसाहित्य के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। परियों के काल्पनिक और भूत प्रेतों के डरावने संसार से बाहर निकालकर उन्होंने बालसाहित्य को सच्चाई के धरातल पर खड़ा करके उसे जीवंत,मानवीय और वैज्ञानिक बना दिया ।पिछले 40 सालों से उनकी रचनाएं महराष्ट्र के शैक्षिक पाठ्यक्रम में पहली से लेकर बी.ए.तक के कोर्स में पढाई जाती हैं। अपनी रचनात्मक उपलब्धियों के कारण उन्हें अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और प्रशंसा मिली।

ज़फ़र गोरखपुरी का जन्म गोरखपुर ज़िले की बासगांव तहसील के बेदौली बाबू गांव में 5 मई 1935 को हुआ । प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त करने के बाद उन्होंने मुंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया । सन 1952 में उनकी शायरी की शुरुआत हुई। उर्दू में ज़फ़र गोरखपुरी के अब तक पांच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – (1) तेशा (1962), (2) वादिए-संग (1975), (3) गोखरु के फूल (1986), (4) चिराग़े-चश्मे-तर (1987), (5) हलकी ठंडी ताज़ा हवा(2009)। बच्चों के लिए भी उनकी दो किताबें आ चुकी हैं–‘नाच री गुड़िया’ ( कविताएं 1978 ) तथा ‘सच्चाइयां’ (कहानियां 1979)। हिंदी में उनकी ग़ज़लों का संकलन आर-पार का मंज़र (1997) नाम से प्रकाशित हो चुका है।

गुज़िश्ता 50 सालों से ज़फ़र गोरखपुरी की कई रचनाएं महाराष्ट्र सरकार के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल हैं जिन्हें लाखों बच्चे रोज़ाना पढ़ते हैं। रचनात्मक उपलब्धियों के लिए ज़फ़र गोरखपुरी को महाराष्ट्र उर्दू आकादमी का राज्य पुरस्कार (1993 ), इम्तियाज़े मीर अवार्ड (लखनऊ ) और युवा-चेतना गोरखपुर द्वारा फ़िराक़ सम्मान (1996) प्राप्त हो चुका है। उन्होंने 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की और वहां कई अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया ।

सम्पर्क : ज़फ़र गोरखपुरी : ए-302, फ्लोरिडा, शास्त्री नगर, अंधेरी (पश्चिम), मुम्बई – 400 053

ज़फ़र गोरखपुरी की ग़ज़लें


(1)
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा
मै सूरज बनके इक दिन अपनी पेशानी से निकलूंगा

मुझे आंखों में तुम जां के सफ़र की मत इजाज़त दो
अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूंगा

नज़र आ जाऊंगा मैं आंसुओं में जब भी रोओगे
मुझे मिट्टी किया तुमने तो मैं पानी से निकलूंगा

मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी
अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा

ज़मीरे-वक़्त में पैवस्त हूं मैं फांस की सूरत
ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकालूंगा

यही इक शै है जो तनहा कभी होने नहीं देती
ज़फ़र मर जाऊंगा जिस दिन परेशानी से निकलूंगा

(2)

मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझको पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए

रेत मेरी उम्र, मैं बच्चा, निराले मेरे खेल
मैंने दीवारें उठाई हैं गिराने के लिए

वक़्त होठों से मेरे वो भी खुरचकर ले गया
एक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए

देर तक हंसता रहा उन पर हमारा बचपना
तजरुबे आए थे संजीदा बनाने के लिए

यूं बज़ाहिर हम से हम तक फ़ासला कुछ भी न था
लग गई एक उम्र अपने पास आने के लिए

मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घरवाली को एक कंगन दिलाने के लिए

(3)

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए
लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर
दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

दिल में तेरे ख़याल की बनती है एक धनक
सूरज सा आइने से गुज़रता दिखाई दे

चल ज़िंदगी की जोत जगाएं, अजब नहीं
लाशों के दरमियां कोई रस्ता दिखाई दे

हर शै मेरे बदन की ज़फ़र क़त्ल हो चुकी
एक दर्द की किरन है कि ज़िंदा दिखाई दे

(4)

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
दिए को ज़िंदा रखती है हव़ा, ऐसा भी होता है

उदासी गीत गाती है मज़े लेती है वीरानी
हमारे घर में साहब रतजगा ऐसा भी होता है

अजब है रब्त की दुनिया ख़बर के दायरे में है
नहीं मिलता कभी अपना पता ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ
तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर
बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है

तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में
तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है

1.मोजज़ा = चमत्कार



आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के : सूर्यभानु गुप्त की ग़ज़लें

परिचय : कवि सूर्यभानु गुप्त 

जन्म : 22 सितम्बर, 1940, नाथूखेड़ा (बिंदकी), जिला : फ़तेहपुर ( .प्र.) बचपन से ही मुंबई में 12 वर्ष की उम्र से कविता लेखन।

प्रकाशन : पिछले 50 वर्षो के बीच विभिन्न काव्य-विधाओं में 600 से अधिक रचनाओं के अतिरिक्त 200 बालोपयोगी कविताएँ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। समवेत काव्य-संग्रहों में संकलित एवं गुजराती, पंजाबी, अंग्रेजी में अनूदित

फ़िल्म गीत-लेखन : ‘गोधूलि’ (निर्देशक गिरीश कर्नाड ) एवंआक्रोशतथासंशोधन’ (निर्देशक गोविन्द निहलानी ) जैसी प्रयोगधर्मा फ़िल्मों के अतिरिक्त कुछ नाटकों तथा आधा दर्जन दूरदर्शन- धारवाहिकों में गीत शामिल।
प्रथम काव्य-संकलन : एक हाथ की ताली (1997), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली – 110 002
​​पुरस्कार : 1. भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर , 2. परिवार पुरस्कार (1995), मुम्बई
पेशा : 1961 से 1993 तक विभिन्न नौकरियाँ सम्प्रति स्वतंत्र लेखन

सम्पर्क : 2, मनकू मेंशन, सदानन्द मोहन जाधव मार्ग, दादर ( पूर्व ), मुम्बई- 40001,
दूरभाष : 099694-71516 / 022-2413-7570


सूर्यभानु गुप्त की ग़ज़लें

(1)


पहाड़ों के क़दों की खाइयाँ हैं
बुलन्दी पर बहुत नीचाइयाँ हैं

ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम
कि लोग अपनी ही ख़ुद परछाइयाँ हैं

गले मिलिए तो कट जाती हैं जेबें
बड़ी उथली यहाँ गहराइयाँ हैं

हवा बिजली के पंखे बाँटते हैं
मुलाज़िम झूठ की सच्चाइयाँ हैं

बिके पानी समन्दर के किनारे
हक़ीक़त पर्वतों की राइयाँ हैं

गगन-छूते मकां भी, झोपड़े भी
अजब इस शहर की रानाइयाँ हैं

दिलों की बात ओंठों तक आए
कसी यूँ गर्दनों पर टाइय़ाँ हैं

नगर की बिल्डिंगें बाँहों की सूरत
बशर टूटी हुई अँगड़ाइयाँ हैं

जिधर देखो उधर पछुआ का जादू
सलीबों पर चढ़ीं पुरवाइयाँ हैं

नई तहज़ीब ने ये गुल खिलाए
घरों से लापता अँगनाइयाँ हैं

असर में लोग यूँ हैं रोटियों के
ख़यालों तक गईं गोलाइयाँ हैं

यहाँ रद्दी में बिक जाते हैं शाइर
गगन ने छोड़ दी ऊँचाइयाँ हैं

कथा हर ज़िंदगी की द्रोपदी-सी
बड़ी इज़्ज़त-भरी रुस्वाइयाँ हैं

जो ग़ालिब आज होते तो समझत
ग़ज़ल कहने में क्या कठिनाइयाँ हैं

( 2)

अपने घर में ही अजनबी की तरह
मैं सुराही में इक नदी की तरह

एक ग्वाले तलक गया कर्फ़्यू
ले के सड़कों को बन्सरी की तरह

किससे हारा मैं, ये मेरे अन्दर
कौन रहता है ब्रूस ली की तरह

उसकी सोचों में मैं उतरता हूँ
चाँद पर पहले आदमी की तरह

अपनी तनहाइयों में रखता है
मुझको इक शख़्स डायरी की तरह

मैंने उसको छुपा के रक्खा है
ब्लैक आउट में रोशनी की तरह

टूटे बुत रात भर जगाते हैं
सुख परीशां है गज़नवी की तरह

बर्फ़ गिरती है मेरे चेहरे पर
उसकी यादें हैं जनवरी की तरह

वक़्त-सा है अनन्त इक चेहरा
और मैं रेत की घड़ी की तरह

(3)
हर लम्हा ज़िन्दगी के पसीने से तंग हूँ
मैं भी किसी क़मीज़ के कॉलर का रंग हूँ

मोहरा सियासतों का, मेरा नाम आदमी
मेरा वुजूद क्या है, ख़लाओं की जंग हूँ

रिश्ते गुज़र रहे हैं लिये दिन में बत्तियाँ
मैं बीसवीं सदी की अँधेरी सुरंग हूँ

निकला हूँ इक नदी-सा समन्दर को ढूँढ़ने
कुछ दूर कश्तियों के अभी संग-संग हूँ

माँझा कोई यक़ीन के क़ाबिल नहीं रहा
तनहाइयों के पेड़ से अटकी पतंग हूँ

ये किसका दस्तख़त है, बताए कोई मुझे
मैं अपना नाम लिख के अँगूठे -सा दंग हूँ

(4)

सुबह लगे यूँ प्यारा दिन
जैसे नाम तुम्हारा दिन

पाला हुआ कबूतर है
उड़, लौटे दोबारा दिन

दुनिया की हर चीज़ बही
चढ़ी नदी का धारा दिन

कमरे तक एहसास रहा
हुआ सड़क पर नारा दिन

थर्मामीटर कानों के
आवाज़ो का पारा दिन

पेड़ों-जैसे लोग कटे
गुज़रा आरा-आरा दिन

उम्मीदों ने टाई-सा
देखी शाम, उतारा दिन

चेहरा-चेहरा राम-भजन
जोगी का इकतारा दिन

रिश्ते आकर लौट गए
हम-सा रहा कुँवारा दिन

बाँधे-बँधा दुनिया के
जन्मों का बन्जारा दिन

अक्ल़मन्द को काफ़ी है
साहब ! एक इशारा दिन

(5)


जिनके अंदर चिराग जलते हैं
घर से बाहर वही निकलते हैं

बर्फ़ गिरती है जिन इलाकों में
धूप के कारोबार चलते हैं

दिन पहाड़ों की तरह कटते हैं
तब कहीं रास्ते निकलते हैं

ऐसी काई है अब मकानों पर
धूप के पाँव भी फिसलते हैं

खुदरसी उम्र भर भटकती है
लोग इतने पते बदलते हैं

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के
मूड आता है तब निकलते हैं

(6)

दिल में ऐसे उतर गया कोई
जैसे अपने ही घर गया कोई

एक रिमझिम में बस, घड़ी भर की
दूर तक तर--तर गया कोई

आम रस्ता नहीं था मैं, फिर भी
मुझसे हो कर गुज़र गया कोई
दिन किसी तरह कट गया लेकिन
शाम आई तो मर गया कोई

इतने खाए थे रात से धोखे
चाँद निकला कि डर गया कोई

किसको जीना था छूट कर तुझसे
फ़लसफ़ा काम कर गया कोई

मूरतें कुछ निकाल ही लाया
पत्थरों तक अगर गया कोई

मैं अमावस की रात था, मुझमें
दीप ही दीप धर गया कोई

इश़्क भी क्या अजीब दरिया है
मैं जो डूबा, उभर गया कोई

(7)

दिल लगाने की भूल थे पहले
अब जो पत्थर हैं फूल थे पहले

तुझसे मिलकर हुए हैं पुरमानी
चाँद तारे फिजूल थे पहले

अन्नदाता हैं अब गुलाबों के
जितने सूखे बबूल थे पहले

लोग गिरते नहीं थे नज़रों से
इश्क के कुछ उसूल थे पहले

जिनके नामों पे आज रस्ते हैं
वे ही रस्तों की धूल थे पहले

आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126