बुधवार, 15 अगस्त 2018

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल अँधेरे अभी आशियानों में हैं


देवमणि पांडेय की ग़ज़ल

अँधेरे अभी आशियानों में हैं
उदासी के मंज़र मकानों में हैं 
    
ज़ुबां वाले भी काश समझें कभी 
वो दुःख-दर्द जो बेज़ुबानों में हैं

परिंदों की परवाज़ कायम रहे 
कई ख़्वाब शामिल उड़ानों में हैं

घरों में हैं महरूमियों के निशां
कि अब रौनक़ें बस दुकानों में हैं

कहाँ गुम है मंज़िल पता ही नहीं
निगाहें मगर आसमानों में हैं

मुहब्बत को मौसम ने आवाज़ दी 

दिलों की पतंगें उड़ानों में हैं


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देवमणि पांडेय ग़ज़ल : इक फूल मुहब्बत का




देवमणि पांडेय ग़ज़ल

इक फूल मुहब्बत का फिर दिल में खिले कोई
इस शहर की गलियों में अपना तो मिले कोई

आ जाए मुहब्बत का इस सिम्त कोई झोंका
उम्मीद की शाख़ों पे पत्ता तो हिले कोई

आँखों में उतर आए चेहरा वो ग़ज़ल जैसा
फिर नींद मेरी महके,फिर ख़्वाब खिले कोई

उजड़े हुए इस दिल की बस इतनी तमन्ना है
फिर टूट के पहले-सा एक बार मिले कोई

होंठों से नहीं कहता क्या मुझसे शिकायत है
ख़ामोश निगाहों से करता है गिले कोई



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