देवमणि पांडेय की ग़ज़ल
अँधेरे अभी आशियानों में
हैं
उदासी के मंज़र मकानों में
हैं
ज़ुबां वाले भी काश समझें
कभी
वो दुःख-दर्द जो
बेज़ुबानों में हैं
परिंदों की परवाज़ कायम
रहे
कई ख़्वाब शामिल उड़ानों में
हैं
घरों में हैं महरूमियों के
निशां
कि अब रौनक़ें बस दुकानों
में हैं
कहाँ गुम है मंज़िल पता ही
नहीं
निगाहें मगर आसमानों में
हैं
मुहब्बत को मौसम ने आवाज़
दी
दिलों की पतंगें उड़ानों में
हैं
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