मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मुहब्बतों का पैग़ाम : हिंदुस्तान में सूफ़ीवाद

सूफ़ी अलबम 'कबीराना सूफ़ीयाना' के लोकार्पण समारोह में लखमेंद्र खुराना, गायक विवेक प्रकाश, संगीतकार ख़य्याम, सूफ़ी सिंगर कविता सेठ, कवि नारायण अग्रवाल, उदघोषक देवमणि पाण्डेय और टाइम्स म्यूज़िक के पूर्व सीईओ अरुण अरोड़ा। 

सूफी संत और वसुधैव कुटुम्बकम
सूफ़ी संतों और सूफ़ी शायरों ने पूरी दुनिया को मुहब्बत का पैग़ाम दिया। इन्होंने अपने रब के साथ ऐसा पाक और रुहानी रिश्ता जोड़ा कि उन्हें अपने दिल के आईने में पूरी दुनिया का अक्स नज़र आने लगा। सूफ़ी शायरी और सूफ़ी संगीत के ज़रिए दिल से दिल के तार जोड़ने का यह सिलसिला आज भी जारी है। सूफ़ीवाद का आग़ाज़ कहा जाता है कि आठ सौ साल पहले ईरान में इमाम ग़ज़ाली के ज़रिए सूफ़ीवाद का आग़ाज़ हुआ। वहाँ से तुर्की होते हुए इसकी ख़ुशबू हिंदुस्तान पहुंच गई। फ़ारसी शायर जलालुद्दीन रूमी और हाफ़िज़ शीराजी ने सूफ़ीवाद को अपने कलाम के ज़रिए दूर दूर पहुंचाया। आज भी लोग मौलाना रूमी से इतनी मुहब्बत करते हैं कि सन् 2007 को पूरी दुनिया में ‘इयर ऑफ दि रूमी’ के नाम से मनाया गया था। यह उनकी 800वीं बरसी थी। मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी का जन्म अफ़गानिस्तान के बल्ख में 30 सितम्बर 1207 को हुआ। रूमी ने अपना जीवन तुर्की में बिताया। 17 दिसम्बर 1273 को तुर्की के कोन्या में उनका इंतक़ाल हुआ। वे फ़ारसी के महत्वपूर्ण लेखक थे। शायर शम्स तबरीज़ी से मिलने के बाद रूमी की शायरी में मस्ताना रंग आया था। इनके काव्य संग्रह का नाम है दीवान ए शम्स। रूमी ने सूफ़ीवाद में दरवेश परंपरा को आगे बढ़ाया। रूमी की मज़ार पर सैकड़ों सालों से सालाना आयोजन होते रहे हैं। बारहवीं सदी में कई सूफ़ी फ़कीर हिंदुस्तान आए। ख्वाजा अब्दुल चिश्ती ने हेरात में 'चिश्ती धर्म संघ' की स्थापना की थी। सन् 1192 ई. में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती हिंदुस्तान आए। उन्होंने यहाँ चिश्ती परम्परा की शुरुआत की। उनकी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र अजमेर था। इन्हें ग़रीब नवाज़ कहा जाता है। प्रमुख सूफ़ी सन्तों में बाबा फ़रीद, ख्वाजा बख़्तियार काकी, शेख़ सलीम चिश्त एवं शेख़ बुरहानुद्दीन ग़रीब का नाम लिया जाता है। सुल्तान इल्तुतमिश के समकालीन ख्वाजा बख़्तियार काकी ने फ़रीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। बाबा फ़रीद का आम लोगों से बहुत लगाव था। उनकी अनेक रचनाएं 'गुरुग्रंथ साहिब' में शामिल हैं। बाबा फ़रीद को ग़यासुद्दीन बलबन का दामाद बताया जाता है।
मशहूर सूफ़ी संत हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का कार्यकाल देखा। मगर उन्होंने किसी सुल्तान की परवाह नहीं की। शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया को महबूब-ए-इलाही कहा गया। हिंदुस्तान में निज़ामुद्दीन औलिया के शागिर्द अमीर ख़ुसरो के कलाम के ज़रिए सूफ़ीवाद ने अवाम के साथ अपना रिश्ता जोड़ लिया। ख़ुदा से मेल होने के बाद आदमी अपनी दुनियावी पहचान से आज़ाद होकर एक अलग ही दुनिया में पहुंच जाता है। अमीर ख़ुसरो लिखते हैं- छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नैना मिलाइ के... बुतख़ाने के परदे में काबा सूफ़ीवाद मुहब्बत के दयार में फ़कीर की तरह घूमने-फिरने की आज़ादी है। ऐसा माना जाता है कि क़तरे से लेकर समंदर तक, ज़र्रे से लेकर आसमान तक अल्लाह हर चीज़ में है। अगर अल्लाह हर चीज़ में है तो वह बुत में भी है। मशहूर शायर डॉ इक़बाल ने अपनी एक ग़ज़ल के ज़रिए सूफ़ीवाद को इस तरह परिभाषित किया है- बुत में भी तेरा या रब जलवा नज़र आता है बुतख़ाने के परदे में काबा नज़र आता है माशूक के रुतबे को महशर में कोई देखे अल्लाह भी मजनूँ को लैला नज़र आता है इक क़तरा-ए-मय जब से साक़ी ने पिलाई है उस रोज़ से हर क़तरा दरिया नज़र आता है साक़ी की मुहब्बत में दिल साफ़ हुआ इतना जब सर को झुकाता हूँ शीशा नज़र आता है दिल और कहीं ले चल ये दैरो-हरम छूटे इन दोनों मकानों में झगड़ा नज़र आता है अल्लाह को पाने के लिए जोगी बनना ज़रूरी नहीं है। घर-गृहस्थी में रहकर भी अल्लाह तक पहुँचा जा सकता है। बीवी से मुहब्बत है तो अल्लाह से भी प्रेम हो सकता है। सूफी संत नूर मुहम्मद फ़रमाते हैं- नूर मुहम्मद यह कथा, है तो प्रेम की बात जेहि मन कोई प्रेम रस, पढ़े सोई दिन रात


सूफ़ीवाद पर चर्चा करते हुए शायर देवमणि पाण्डेय, सूफी सिंगर कविता सेठ और कवि नारायण अग्रवाल

सूफ़ी होने का मक़सद

सूफ़ी लोग सूफ़ यानी ऊन का लबादा पहनते थे। सूफ़ी होने का मक़सद है फ़कीर होना। मुहब्बत, सादगी और इंसानियत ही इनका मज़हब है। धन-दौलत से इन्हें कुछ मतलब नहीं। सूफ़ी और संत पूरी दुनिया को अपना घर समझते हैं। सूफ़ियों ने मज़हब की पाबंदियों से बाहर निकलकर पूरी दुनिया की भलाई के लिए मुहब्बत और इंसानियत पर ज़ोर दिया। सूफ़ियों में दिलों को जोड़ने की भावना थी। उन्होंने किसी भी भेदभाव से ऊपर उठकर इंसान के दिलों को जोड़ने का काम हमेशा किया। सूफ़ियों की तरह हमारे देश के संत कवियों ने भी जात-पांत, धर्म और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर, प्रेम के धागे से लोगों के दिलों को जोड़ने का काम बड़ी ख़ूबसूरती से किया। जो इंसान इस प्रेम को पा लेता है उसे किसी और चीज़ की ज़रुरत नहीं रह जाती। कबीर ने लिखा है- कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय रोम रोम में रमि रहा, और अमल कोउ नाय सूफ़ीवाद और संतवाणी का तसव्वुर एक ही है। दोनों मज़हब और धर्म में नहीं बंटे। यूनीवर्सल बने रहे। दोनों ने अपना रिश्ता अल्लाह से और ईश्वर से जोड़ा। पूरी दुनिया को अपना परिवार और सभी को एक जैसा माना। सूफ़ियों और संतों ने दुनिया के सभी इंसानों के लिए मुहब्बत का पैग़ाम दिया। उन्हें इंसानियत का रास्ता दिखाया। ख़ुदा से मुहब्बत यानी परमात्मा से आत्मा का मिलन ही इनकी ज़िंदगी और इनकी शायरी का मक़सद था। हिंदुस्तान में सूफ़ी काव्य परम्परा रामानंद के शिष्य कबीर को कुछ लोग सूफ़ी संत शेख़ तकी का शागिर्द बताते हैं। कबीर पर सूफ़ियों का काफ़ी असर दिखाई देता है- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय हिंदुस्तान में मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, नूर मुहम्मद आदि कई ऐसे रचनाकार हुए जिन्हें सूफ़ी परम्परा को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है। जायसी ने पदमावत, अखरावट, और कान्हावत जैसे महाकाव्य लिखकर सूफ़ी साहित्य में इज़ाफ़ा किया। सूफ़ियाना आशिक़ में तड़प, क़सक और दर्द का होना ज़रूरी है। जायसी के पदमावत में इन भावनाओं की गहराई दिखाई देती है। इस प्रेम कथा में रानी पदमावती को परमात्मा और राजा रत्नसेन को आत्मा के रूप में पेश किया गया है। ख़ास बात यह है कि हिंदुस्तान के सूफ़ी कवियों और शायरों ने प्रेम काव्य लिखने के लिए सारे अफ़साने हिंदू मैथोलॉजी से लिए। सूफ़ी कवि यहाँ के जीवन, लोकाचार और लोक संस्कृति से भली भांति वाक़िफ़ थे। रानी नागमती के जुदाई के दर्द को सामने लाने के लिए जायसी ने बारहमासा लिखा जो लोक जीवन की झांकी का बेजोड़ नमूना है। पिय से कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग! सों धनि बिरह जरि मुई, तेहिके धुँआ हम लाग सूफ़ीवाद की ख़ुशबू पंजाब की संतवाणी में भी नुमायां है। गुरुनानक, बुल्ले शाह, वारिस शाह और बाबा फ़रीद के सूफ़ी कलाम से मुहब्बतों की ऐसी बारिश हुई जिसमें समूचा हिंदुस्तान तरबतर हो गया। गुरुनानक ने दिलों को रोशन करने का काम किया। अव्वल अल्ला नूर उपाया, क़ुदरत ते सब बंदे एक नूर ते सब जग उपज्यां , कौन भले कौन मंदे शायरी की रिवायत में महबूब को ख़ुदा का दर्जा हासिल है। शायरी की ख़ूबसूरती इसी फ़न में है कि उसे इशारों में बयां किया जाए। यानी चाहे उसे ख़ुदा के लिए समझिए या महबूब के लिए। सच्चा सूफ़ी ख़ुशी में रक्स करता है और दुख में हँसता है। यानी जब वो ख़ुदा से अपना रिश्ता जोड़ लेता है तो उसके लिए ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ नहीं रह जाता। तसव्वुफ़ के इस सफ़र में पूरी दुनिया उसे अपना ही घर लगने लगती है। तब वह पूरी दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाता है और लोगों के दिल और ज़ह़न को रोशन करके उन्हें इंसान होने का मतलब समझाता है। ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब तुझे हम वली समझते, जो न बादा-ख़्वार होता
आपका- देवमणि पाण्डेय सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 M : 98210-82126

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

गायक राजेंद्र नीना मेहता : जब आँचल रात का लहराए

(बाएं से-) समाजसेवी विनोद टिबड़ेवाला, उदघोषक देवमणि पाण्डेय, पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल, सिंगर राजेंद्र नीना मेहता, कवयित्री माया गोविंद, कथाकार आर.के.पालीवाल और गुरु अरविंदजी
 राजेंद्र नीना मेहता को जीवंती कला सम्मान

मौसम बारिश का था। मगर चारों तरफ आग बरस रही थी। सन 1947 के अगस्त माह के आख़िरी दिन थे। देश को आज़ादी मिली। मगर आज़ादी की खुशियां बंटवारे की कोख़ से जन्मे दंगों की ट्रेजडी में तब्दील हो गईं। जलते मकानों, उजड़ी दुकानों और सड़क पर पानी की तरह बहते इंसानी ख़ून के ख़ौफ़नाक मंज़र ! इनसे तमाम माहौल में रुह को थर्रा देने वाली दहशत फैल गई थी। सन्नाटे को चीरता हुआ फ़ौज का एक ट्रक लाहौर में एक मकान के सामने रुका। धडधड़ाकर दस-बारह जवान नीचे कूदे। दरवाजे पर दस्तक दी। सामने एक ख़ौफ़ज़दा औरत और नौ साल का सहमा हुआ बच्चा खड़ा था। बच्चे का बाप कारोबार के सिलसिले में बाहर गया था। उन्हें हुक्म मिला- कोई भी एक संदूक उठा लो । हम तुम्हें कैंम्प तक छोड़ देंगे। फिर हमारी ज़िम्मेदारी ख़त्म। जवाब का इंतज़ार किए बिना झट से एक फ़ौजी ने कोने में रखा संदूक उठाया। पलक-झपकते मां-बेटे को ट्रक में चढ़ाया और डीएवी कालेज के मुहाजिर कैम्प में लाकर डाल दिया। बीस दिनों के बाद बिछड़ा हुआ बाप आकर अपने बेटे से मिला। मुसीबतों का दरिया पार करने के बाद जब ये परिवार हिंदुस्तान की सरहद में दाख़िल हुआ तो संदूक खोला गया। उस संदूक में एक हारमोनियम था। कई शहरों की ख़ाक छानने के बाद आख़िरकार वो बच्चा उस हारमोनियम के साथ आर्ट और फ़न की नगरी मुंबई पहुंचा। मुंबई ने उसे और उसने मुंबई को अपना लिया। आज उस बच्चे को लोग ग़ज़ल सिंगर राजेंद्र मेहता के नाम से जानते हैं। 

शनिवार 30 अक्टूबर 2010 को भवंस कल्चर सेंटर अंधेरी (मुम्बई) में जाने माने ग़ज़ल सिंगर राजेंद्र-नीना मेहता को जीवंती फाउंडेशन की ओर से जीवंती कला सम्मान से विभूषित किया गया। वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल, प्रतिष्ठित कथाकार-आयकर आयुक्त आर.के.पालीवाल,समाजसेवी विनोद टिबड़ेवाला और संस्थाध्यक्ष कवयित्री माया गोविंद ने उन्हें यह सम्मान भेंट किया। कवि देवमणि पाण्डेय ने राजेंद्र मेहता से उनके फ़न और शख़्सियत के बारे में चर्चा की। राजेंद्र मेहता ने अपनी ग़ज़लों की अदायगी से श्रोताओं को अभिभूत कर दिया। श्रोताओं की माँग पर उन्होंने अपना लोकप्रिय नग़मा भी पेश किया-

जब आंचल रात का लहराए और सारा आलम सो जाए 
तुम मुझसे मिलने शमा जलाकर ताजमहल में आ जाना

ग़ज़ल के मंच की पहली जोड़ी 

वर्ष था 1963 और तारीख थी 5 अगस्त। आकाशवाणी मुंबई में जमालसेन के म्यूज़िकल ड्रामा ‘मीरा’ की रिकार्डिंग थी। राजेंद्र ने राणा के लिए और नीना ने मीरा के लिए अपना स्वर दिया। राजेंद्र का असरदार गायन सुनकर नीना के दिल के तार झंकृत हो उठे। राजेंद्र की पलकों पर भी ख़्वाब रोशन हो गए।उस ज़माने में इंटरकास्ट मैरिज आसान नहीं थी। राजेंद्र ने यह भी कहा था- हम छुपकर या घर से भागकर शादी नहीं करेंगे। हम तुम्हारे मां-बाप की रज़ामंदी से ही शादी करेंगे। नीना जी के मां-बाप का रुख़ इस मामले में काफी सख़्त था। तीन साल के कड़े इम्तहान के बाद अक्तूबर 1966 में दोनों की मंगनी हुई और जनवरी 1967 में नीना और राजेंद्र मेहता विवाह सूत्र में बंध गए। 

सन् 1967 में ‘सुरसिंगार संसद’ के प्रोग्राम में राजेंद्र और नीना ने एक साथ मिलकर ग़ज़ल गाई। यानी ग़ज़ल के मंच की पहली जोड़ी के रूप में सामने आए और दोनों ने और शोहरत के आसमान पर अपनी कामयाबी का परचम लहरा दिया। ग़ज़ल का रवायती मानी ‘औरत से बातचीत’ लिया जाता है। अगर औरत ग़ज़ल गएगी तो वह किससे बात करेगी ? इस मुद्दे पर अख़बारों में बहस छिड़ गई। बहरहाल मेल और फीमेल को एक साथ ग़ज़ल गाते देखकर संगीत प्रेमी सामयीन हैरत में पड़ गए। मगर इस तरह ग़ज़ल गायिकी में एक नया ट्रेंड कायम हो चुका था। दो साल बाद जब चित्रा और जगजीत सिंह साथ-साथ मंच पर आए तो इस ट्रेंड को पसंद करने वालों की तादाद बुलंदी पर पहुँच चुकी थी।

राजेंद्र मेहता के साथ में हैं श्रीधर चारी (तबला), उदघोषक देवमणि पाण्डेय और सुनीलकांत गुप्ता (बाँसुरी)
फेमिली बैक ग्राउंड

वक़्त भी क्या दिन दिखाता है। राजेंद्र मेहता के बाबा लाहौर के बाइज़्ज़त ज़मींदार थे। पिता की अच्छी-ख़ासी चाय की कंपनी थी। सरकार की तरफ़ से नाना ने पहली जंगे-अज़ीम में और मामा ने दूसरी जंगे-अज़ीम में हिस्सा लिया था। मगर राजेंद्र मेहता को लखनऊ में ख़ुद को गुरबत से बचाने के लिए एक होटल में पर्ची काटने की नौकरी करनी पड़ी। उस समय वे नवीं जमात के तालिबे-इल्म थे। पढ़ाई के साथ नौकरी का यह सिलसिला बारहवीं जमात तक चला। इंटरमीडिएट पास करने पर उन्हें ‘बांबे म्युचुअल इश्योरेंस कंपनी’ में नौकरी मिल गई। 1957 में उन्होंने बीए पास कर लिया। राजेंद्र मेहता की मां को गाने का शौक़ था। बचपन में ही उन्होंने मां से गाना सीखना शुरु कर दिया था। लखनऊ में पुरुषोत्तमदास जलोटा के गुरुभाई भूषण मेहता उनके पड़ोसी थे। उनको सुनकर फिर से गाने के शौक़ ने सिर उठाया। बाक्स में रखा हुआ हारमोनियम बाहर निकल आया। राजेंद्र मेहता ने उर्दू की भी पढ़ाई की। शायर मजाज़ लखनवी और गायिका बेग़म अख़्तर की भी सोहबतें मिलीं। 1960 में उनका तबादला मुंबई हो गया।

ग़ालिब से गुलज़ार तक 

मुंबई आने से पहले ही राजेंद्र मेहता आकाशवाणी कलाकार बन चुके थे। लखनऊ यूनीवर्सिटी के संगीत मुक़ाबले का ख़िताब जीत चुके थे। कुंदनलाल सहगल की याद में मुम्बई में हुए संगीत मुक़ाबले में राजेंद्र मेहता ने अव्वल मुक़ाम हासिल किया। मरहूम पी.एम.मोरारजी देसाई के हाथों वे ‘मिस्टर गोल्डन वायस ऑफ इंडिया’ अवार्ड से नवाज़े गए। मार्च 1962 में ‘सुर सिंगार संसद’ ने सुगम संगीत को पहली बार अपने प्रोग्राम में शामिल किया। उसमें गाने से पहचान और पुख़्ता हुई। मशहूर संगीत कंपनी एचएमवी ने ‘स्टार्स आफ टुमारो’ के तहत 1963 में राजेंद्र मेहता का पहला रिकार्ड जारी किया। 1965 में जगजीत सिंह से दोस्ती हुई। 1968 में दोनों ने मिलकर करीब बीस शायरों की ग़ज़लें चुनकर ‘ग़ालिब से गुलज़ार तक’ लाजवाब प्रोग्राम पेश किया। इस मौक़े पर उस्ताद अमीर खां, जयदेव, ख़य्याम और सज्जाद हुसैन जैसे कई नामी कलाकर बतौर मेहमान तशरीफ़ लाए थे। इस नए तजुर्बे ने संगीत जगत में धूम मचा दी।

मेंहदी हसन का पब्लिक शो 

जब राजेंद्र और नीना मेहता ग़ज़ल की दुनिया में आए, उस समय ग़ज़ल गायिकी में पैसा नहीं था। मगर 1978 में अचानक एक करिश्मा हुआ और सारा मंज़र बदल गया। पाकिस्तानी दूतावास की ओर से 1978 में ‘इक़बाल दिवस’ के सिलसिले में मेंहदी हसन मुंबई आए। उनकी प्रेस कांफ्रेंस में लता मंगेशकर, नौशाद और दिलीप कुमार जैसी हस्तियां मौजूद थीं। बिरला मातुश्री सभागार में मेंहदी हसन का पब्लिक शो हुआ। पांच सौ रुपए के टिकट थे मगर सभागार में एक भी सीट ख़ाली नहीं थी। षड़मुखानंद हाल में भी यही आलम रहा। देश के कुछ और शहरों में भी ग़ज़ल के शो हुए और देखते ही देखते मेंहदी हसन ने टिकट ख़रीदकर ग़ज़ल सुनने वाला एक क्लास खड़ा कर दिया। इस बदलते माहौल में ग़ज़ल गायकों को पैसा मिलने लगा। सिर्फ़ गायिकी से रोज़ी-रोटी चलने की उम्मीद बंध गई। लोगों को लगा कि अगर ‘किशोर कुमार नाइट’ हो सकती है तो ‘जगजीत सिंह नाइट’ भी हो सकती है। संगीत कंपनियों ने भी ग़ज़ल कार्यक्रम आयोजित करने शुरु कर दिए।

जब आंचल रात का लहराए 

राजेंद्र मेहता को शोहरत और दौलत की भूक कभी नहीं रही। वे हमेशा मध्यम रफ़्तार से चले। उनके चुनिंदा अलबम आए और मंच पर भी उनके चुनिंदा प्रोग्राम हुए। ग़ज़लों को पेश करने के अपने बेमिसाल अंदाज़ से उन्होंने अपना एक ख़ास तबक़ा तैयार किया। उनकी ग़ज़लों में प्रेम की सतरंगी धनक के साथ ही समाज और सियासत के काले धब्बे भी नज़र आते हैं। मरहूम शायर प्रेमबार बर्टनी के मुहब्बत भरे एक नग़मे ‘जब आंचल रात का लहराए' को दिल को छू लेने वाले अंदाज़ में पेश करके राजेंद्र और नीना मेहता ने हमेशा के लिए ग़ज़लप्रेमियों के दिलों पर अपना नाम लिख दिया। संगीत के मंच पर राजेंद्र और नीना मेहता की जोड़ी को 44 साल हो चुके हैं। अपने अब तक के सफ़र से बेहद ख़ुश है। वे कहते हैं-ऊपरवाले ने हमें इतना कुछ दिया जिसके हम बिलकुल हक़दार नहीं थे। अक्सर राजेंद्र मेहता वे पंक्तियां सुनाते हैं जिसे उस्ताद अमीर खां सुनाया करते थे-

गुंचे ! तेरी क़िस्मत पे दिल हिलता है
सिर्फ़ इक तबस्सुम के लिए खिलता है
गुंचे ने कहा - बाबा ! ये इक तबस्सुम भी किसे मिलता है 

आपका
देवमणिपांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210-82126