आनंद बख़्शी के गीतों में ज़िंदगी की दास्तान
अद्विक पब्लिकेशन नई दिल्ली से सिने गीतकार आनंद बक्शी की आत्मकथा प्रकाशित हुई है- "नग़्मे क़िस्से बातें यादें"। इस आत्मकथा का लेखन उनके बेटे राकेश आनंद बक्शी ने अंग्रेजी में किया था जिसका अनुवाद लोकप्रिय उद्घोषक यूनुस ख़ान ने हिंदी में किया। यूनुस ख़ान का अनुवाद इतना सरल, सहज और आत्मीय है कि इस किताब में ज़बरदस्त पठनीयता है। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि फ़िल्म लेखक सलीम ख़ान, शायर जावेद अख़्तर और डॉ इंद्रजीत सिंह के साथ इसमें आनंद बक्शी पर लिखी मेरी भूमिका प्रकाशित हुई है। साथ ही इस कालजयी गीतकार पर जाने-माने नवगीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र की काव्यांजलि प्रकाशित हुई है- "सप्तर्षियों में तुम नए अगस्त हुए"।
गीतकार आनंद बख्शी का जन्म अविभाजित भारत के रावलपिंडी नगर में 21 जुलाई 1930 को हुआ था। 19 साल की उम्र में 2 अक्टूबर 1947 को उनका परिवार एक शरणार्थी के रूप में इस देश में दाख़िल हुआ और इस देश की मिट्टी पानी हवा से आनंद बक्शी ने अपना जो रिश्ता जोड़ा वह किसी से छुपा नहीं है। इस पुस्तक में आनंद बक्शी के बचपन और जवानी के दिनों की कई मार्मिक दास्तानें हैं। सन् 1936 में यानी जब आनंद बक्शी 6 साल के थे उनकी मां का स्वर्गवास हो गया। वे अपने साथ मां की तस्वीर और एक छोटी-सी बोतल में रावलपिंडी की मिट्टी लेकर इस देश में आए थे। आजीवन इस थाती को उन्होंने संभाल कर रखा। आगे चलकर फ़िल्मों में उन्होंने मां के प्यार, दुलार और ममता के नाम कई गाने लिखे- मां तुझे सलाम, मां मुझे अपने आंचल में छुपा ले, तू कितनी अच्छी है, मेरे मैंने मां को देखा है मां का प्यार नहीं देखा, बड़ा नटखट है रे, मां ने कहा था वो बेटा, मेरे राजा मेरे लाल तुझको ढूंढू मैं कहां आदि। कुल मिलाकर हिंदी सिने जगत में वे मां के ऊपर सबसे ज़्यादा गीत लिखने वाले गीतकार हैं। उनका पूरा नाम है आनंद प्रकाश बख़्शी। एक निर्माता ने उनके नाम की स्पेलिंग 'बक्शी' लिख दी तबसे सिने जगत में यही नाम प्रचलित हो गया।
आनंद बख़्शी के गीतों को सुनकर बचपन में ही गीत संगीत के प्रति मेरे मन में लगाव पैदा हो गया था। बचपन में एक शादी समारोह में एक तवायफ के गाए दो गीत आज भी स्मृति में ताज़ा हैं- "ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू/ कोरे काग़ज़ पे लिख दे सलाम बाबू" और "रूठे सैंया हमारे सैंया क्यूं रूठे/ ना तो हम बेवफ़ा ना तो हम झूठे।" इन गीतों के गीतकार आनंद बख़्शी हैं। आनंद बख़्शी की अभिव्यक्ति में लोकगीतों की ख़ुशबू है। इसीलिए साठ सत्तर के दशक में लिखे गए उनके कई सिने गीत लोकगीत बनकर जनमानस में रच बस गए हैं। ग्राम्य जीवन के उत्सवों में आज भी उन्हें गाया जाता है। दूर-दराज के जनजीवन में अपने गीतों के ज़रिए ऐसा अमिट रिश्ता क़ायम कर लेना आनंद बख़्शी की लेखनी का कमाल था।
बचपन से ही रेडियो पर आनंद बख़्शी के गीत सुनते हुए उनके लफ़्ज़ों के साथ मेरा एक आत्मीय रिश्ता जुड़ गया। धीरे-धीरे एहसास हुआ कि आनंद बख़्शी तुकों के जादूगर हैं। फ़िल्म 'दो रास्ते' (1969) में उनका यह कमाल शिखर पर दिखाई देता है- "अमवा की डाली, पे गाए मतवाली, कोयलिया काली,निराली"। एक लाइन में चार तुकों का ऐसा अदभुत इस्तेमाल बस वही कर सकते थे। इसी गीत की एक और लाइन में चार तुकों का यह जादू देखिए- "छोड़ ना बैंया, पड़ूं तेरे पइंया, तारों की छइंया, में सइंयां।
क़ाबिले तारीफ़ बात यह है कि आनंद बख़्शी तुकों का इस्तेमाल इस ख़ूबसूरती के साथ करते हैं कि उनमें अर्थ की बुलंदी नज़र आने लगती है। यह कोई आसान काम नहीं है। इसे फ़िल्म 'दुल्हन' (1974) में उनके एक गीत से समझा जा सकता है- "आएगी ज़रूर चिट्ठी मेरे नाम की, 'सब' देखना/ हाल मेरे दिल का हो लोगो, 'तब' देखना।"
मुखड़े में 'तब' और 'सब' आ गया तो यह जिज्ञासा पैदा होना स्वाभाविक है कि इसके बाद क्या आएगा। मगर ऐसी अप्रचलित तुको में भी कहानी के अनुसार आनंद बख़्शी ने कमाल किया- "छलक पड़ेंगे आंसू 'अब' देखना/ मानेगा रूठा मेरा 'रब' देखना/ कांप उठेंगे मेरे 'लब' देखना।"
आनंद बक्शी के बारे में मशहूर है कि वे फ़िल्म के गीत की सिचुएशन को बहुत ध्यान से सुनते थे। यही कारण है कि उनकी रोचक तुकबंदी फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाने का काम करती है। फ़िल्म 'महबूबा' (1976) में उनका एक गीत है- "मेरे नैना सावन भादों, फिर भी मेरा मन प्यासा।" अगर किसी से 'प्यासा' की तुक पूछी जाए तो वह झट से बोलेगा- 'आशा', 'निराशा'। आनंद बख़्शी का कमाल देखिए कि उन्होंने इन दोनों तुकों का इस्तेमाल एक ही एक लाइन में कर दिया- "मन संग आंख मिचौली खेले आशा और निराशा।" इसके बाद उन्होंने जिन तुकों का इस्तेमाल किया वे कहानी के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं। यानी वे कहानी को आगे बढ़ाते हैं- "रुत आए रुत जाए देकर झूठा एक 'दिलासा'/ तड़प तड़प के इस बिरहन को आया चैन 'ज़रा सा'/ सूने महल में नाच रही है अब तक इक 'रक़्क़ासा'।"
जैसे धनक में सात रंग होते हैं उसी तरह आनंद बख़्शी के गीतों में मौसम के सभी रंग शामिल हैं। बख़्शी साहब दिल जोड़ने के लिए भी लिखते थे और दिल तोड़ने के लिए भी। वे हंसाते थे और रुलाते भी थे। उनके गीतों में ज़िंदगी की जीती जागती दास्तान है। भावनाओं और सम्वेदनाओं का ऐसा समंदर है जो हर उम्र के लोगों से अपना नाता जोड़ लेता है। मां बाप, भाई बहन, प्रेमी प्रेमिका, दुश्मन दोस्त, होली दीवाली... उन्होंने सबके लिए गीत लिखे। आनंद बख़्शी अपने साथ गांव की मिट्टी की ख़ुशबू, जन जीवन की ज़िंदादिली और लोक संगीत की मिठास लेकर आए थे। अपने गीतों में उन्होंने इस पूंजी का बख़ूबी इस्तेमाल किया। हर फ़िल्म उनके लिए एक इम्तहान थी। हर फ़िल्म में उन्होंने साबित किया कि वे एक अच्छे गीतकार हैं। यही कारण है कि आज भी आनंद बख़्शी के गीत महानगरों से लेकर दूरदराज गांवों तक गूंज रहे हैं। इस बात की बेहद ख़ुशी है कि मुझे ऐसे महान गीतकार से मिलने का, गपशप करने का और बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला। वे हमेशा हम सबकी स्मृतियों में ज़िंदा रहेंगे।
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