मिर्ज़ापुर कइलन गुलज़ार हो
सावन में तीज का त्योहार मनाया जाता है। राजस्थान में इसे हरियाली तीज और उत्तर प्रदेश में कजरी तीज या माधुरी तीज कहा जाता है। हरापन समृद्धि का प्रतीक है। स्त्रियाँ हरे परिधान और हरी चूड़ियाँ पहनती हैं। हरे पत्तों और लताओं से झूलों को सजाया जाता है। झूले और कजरी के बिना सावन की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ हर त्योहार के पीछे कोई न कोई सामाजिक या वैज्ञानिक कारण होता है। कुछ लोगों का कहना है कि बरसात में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। झूला झूलने से हमें अधिक ऑक्सीजन मिलती है।
कजरी लोकगीत गायन की एक शैली है। कहा जाता है कि इसका जन्म मिर्ज़ापुर में हुआ। और बनारस ने इसे लोकप्रिय बनाया। कजरी में प्रेम के दोनों पक्ष यानी संयोग और वियोग दिखाई देते हैं। कजरी में लोक जीवन की कथा और देश प्रेम की यादगार दास्तान भी होती है। सावन आते ही पेड़ों पर झूले पढ़ जाते थे मगर वह पेड़ नहीं रहे जिन पर टंगे विशाल झूलों में एक साथ दस दस औरतें झूलती थीं।
कजरी में प्रेम के दोनों पक्ष यानी संयोग और वियोग दिखाई देते हैं। कभी-कभी इसके पीछे कोई लोक कथा या यादगार दास्तान होती है। आज़ादी के आंदोलन का दौर था। शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था। एक नौजवान अपनी प्रियतमा से मिलने जा रहा था। एक अँग्रेज़ सिपाही ने गोली चला दी। मारा गया। मगर वह आज भी कजरी में ज़िंदा है - 'यहीं ठइयाँ मोतिया हेराय गइले रामा ...'
मॉरीशस और सूरीनाम से लेकर जावा-सुमात्रा तक जो लोग आज हिंदी का परचम लहरा रहे हैं, कभी उनके पूर्वज एग्रीमेंट (गिरमिट) पर यानी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में वहाँ गए थे। इन लोगों को ले जाने के लिए मिर्ज़ापुर सेंटर बनाया गया था। वहाँ से हवाई जहाज़ के ज़रिए इन्हें रंगून पहुँचाया जाता था। जहाँ पानी के जहाज़ से ये विदेश भेज दिए जाते थे। बनारस की कचौड़ी गली में रहने वाली धनिया का पति जब इस अभियान पर रवाना हुआ तो कजरी बनी। उसकी व्यथा-कथा को सहेजने वाली कजरी आपने ज़रूर सुनी होगी-
मिर्ज़ापुर कइले गुलज़ार हो ...
कचौड़ी गली सून कइले बलमू...
यही मिर्ज़ापुरवा से उड़ल जहजिया
पिया चलि गइले रंगून हो...
कचौड़ी गली सून कइले बलमू...
मिर्ज़ापुर कइलन गुलज़ार हो ...
एक बार शास्त्रीय गायिका डॉ.सोमा घोष जब मुम्बई के एक कार्यक्रम में यह कजरी गा रही थीं तो उनके साथ संगत कर रहे थे भारतरत्न स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ। उन्होंने शहनाई पर ऐसा करुण सुर उभारा जैसे कलेजा चीरकर रख दिया हो। भाव भी कुछ वैसे ही कलेजा चाक कर देने वाले थे। प्रिय के वियोग में धनिया पेड़ की शाख़ से भी पतली हो गई है। शरीर ऐसे छीज रहा है जैसे कटोरी में रखी हुई नमक की डली गल जाती है -
डरियो से पातर भइल तोर धनिया
तिरिया गलेल जस नून हो...
कचौड़ी गली सून कइले बलमू...
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डॉ.सोमा घोष को स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ अपनी पुत्री मानते थे। सोमा जी हर साल उस्तादजी की याद में कार्यक्रम करती हैं। सोमाजी के 'यादें' नामक अलबम में यह लाइव कजरी शामिल है। बचपन मेंअपने गाँव में कजरी उत्सव में मैंने जो झूला देखा था उसकी स्मृतियाँ अभी भी ताज़ा हैं। आँखें बंद करता हूँ तो आज भी झूले पर कजरी गाती हुई स्त्रियाँ दिखाईं पड़ती हैं- अब के सावन मां साँवरिया तोहे नइहरे बोलाइब ना..' गाँव की उन्हीं मधुर स्मृतियों के आधार पर लिखे गए तीन गीत आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं।
(1) महीना सावन का
सजनी आंख मिचौली खेले बांध दुपट्टा झीना
महीना सावन का
बिन सजना क्या जीना महीना सावन का ......
मौसम ने ली है अंगड़ाई
चुनरी उड़ि उड़ि जाए
बैरी बदरा गरजे बरसे
बिजुरी होश उड़ाए
घर-आंगन, गलियां चौबारा आए चैन कहीं ना
महीना सावन का ......
खेतों में फ़सलें लहराईं
बाग़ में पड़ गये झूले
लम्बी पेंग भरी गोरी ने
तन खाए हिचकोले
पुरवा संग मन डोले जैसे लहरों बीच सफ़ीना
महीना सावन का ......
बारिश ने जब मुखड़ा चूमा
महक उठी पुरवाई
मन की चोरी पकड़ी गई तो
धानी चुनर शरमाई
छुई मुई बन गई अचानक चंचंल शोख़ हसीना
महीना सावन का ......
कजरी गाएं सखियां सारी
मन की पीर बढ़ाएं
बूंदें लगती बान के जैसे
गोरा बदन जलाएंअब के जो ना आए संवरिया ज़हर पड़ेगा पीना
महीना सावन का ......
(2) सावन के सुहाने मौसम में
खिलते हैं दिलों में फूल सनम सावन के सुहाने मौसम में
होती है दिलों से भूल सनम सावन के सुहाने मौसम में
यह चाँद पुराना आशिक़ है
दिखता है कभी छिप जाता है
छेड़े है कभी ये बिजुरी को
बदरी से कभी बतियाता है
यह इश्क़ नहीं है फ़िज़ूल सनम सावन के सुहाने मौसम में
बारिश की सुनी जब सरगोशी
बहके हैं क़दम पुरवाई के
बूंदों ने छुआ जब शाख़ों को
झोंके महके अमराई के
टूटे हैं सभी के उसूल सनम सावन के सुहाने मौसम में
यादों का मिला जब सिरहाना
बोझिल पलकों के साए हैं
मीठी सी हवा ने दस्तक दी
सजनी कॊ लगा वॊ आए हैं
चुभते हैं जिया में शूल सनम सावन के सुहाने मौसम में
(3) बरसे बदरिया (लोक धुन पर आधारित)
बरसे बदरिया सावन की
रुत है सखी मनभावन की
बालों में सज गया फूलों का गजरा
नैनों से झांक रहा प्रीतभरा कजरा
राह तकूं मैं पिया आवन की
बरसे बदरिया सावन की .....
चमके बिजुरिया मोरी निंदिया उड़ाए
याद पिया की मोहे पल पल आए
मैं तो दीवानी हुई साजन की
बरसे बदरिया सावन की .....
महक रहा है सखी मन का अँगनवा
आएंगे घर मोरे आज सजनवा
पूरी होगी आस सुहागन की
बरसे बदरिया सावन की .....
==== देवमणि पांडेय ====
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Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063
M : 98210-82126
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5 टिप्पणियां:
http://www.youtube.com/watch?v=_OHOgnnj7JM
http://www.youtube.com/watch?v=ob-LChPWd4Y&feature=related
यह कजरी यहाँ भी सुन सकते हैं। अच्छी प्रस्तुती के बधाई।
लोक भाषा के गीतों में जो माधुर्य देखा जाता है वह अन्यत्र कठिन होता है; कारण स्पष्ट है कि लोक भाषा में एक स्वाभाविक कोमलता होती है जो साहित्यिक भाषा के शब्दजाल में दब जाती है। इन मधुर गीतों की प्रस्तुति के लिये आप बधाई के पात्र हैं।
आनंद ही नहीं भरपूर आनंद आ गया आज आपके गीत पढ़ कर...लोक गीतों सी मिठास और कहाँ? वाह...
नीरज
लोकगीतो की अपनी महत्ता होती है.. मीठे बोल इन्हें और भी सुन्दर बना देते हैं ...सुन्दर प्रस्तुति!
प्रिय देवमणि,
आपकी कजरी का जवाब नहीं ! यूएसए में बहुत से गिरमिटिया लोगों से मिलने का मौक़ा मिला। वे आज भी हमारी संस्कृति से जुड़े हैं। कुछ मिश्रण तो हो ही गया है, फिर भी दुर्गा सप्तशती, हनुमान चालीसा और रामायण वे पढ़ते हैं। पुरबिया भाषाआ आज भी बोलते हैं। मैंने इस पर एक कविता भी लिखी है- ‘संस्कार कभी नहीं डूबते’। बहुत बधाई ! आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
डॉ.अंजना संधीर(यूएसए)
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