गुरुवार, 12 जुलाई 2012

ताशकंद में हिंदी कविता का विराट उत्सव

ताशकंद में हिंदी कविता के विराट उत्सव में देवमणि पांडेय, डॉ.धनंजय सिंह, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, मीठेश निर्मोही, एकांत श्रीवास्तव, संतोष श्रीवास्तव तथा डॉ.मुक्ता
सृजन सम्मान (छत्तीसगढ़)की ओर से उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में आयोजित पांचवे अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (24 से 30 जून 2012) का मुख्य आकर्षण था कविता पाठ। इस विराट काव्य संध्या की अध्यक्षता की वरिष्ठ कवि डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने और विशिष्ट अथिति थे- वागर्थ के संपादक एकांत श्रीवास्तव तथा प्रगतिशील लेखक संघ राजस्थान के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ कवि मीठेश निर्मोही। काव्य संध्या में नई कविता, गीत और ग़ज़ल का शानदार संतुलन दिखाई दिया। गीत-नवगीत के सशक्त क़लमकार डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र ने प्रेम की पारम्परिक भावनाओं को अपने गीत के माध्यम से नए क्षितिज प्रदान किए-

तुम इतने समीप आओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था !
तुम जो आए पास तो जैसे उतरे शशि जल भरे थाल में
या फिर तीतर पाखी बादल बरसे धरती पर अकाल में
तुम घन बनकर छा जाओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था !

वरिष्ठ गीतकार डॉ.धनंजय सिंह ने विदेश की धरती पर घर की याद इस तरह दिलाई-

घर की देहरी पर छूट गए, सम्वाद याद आएंगे
यात्राएं छोड़ बीच में ही, 
घर लौटना पड़ेगा, फिर फिर घर 
ताशकंद में हिंदी कविता के विराट उत्सव में देवमणि पांडेय 
कवि मीठेश निर्मोही, एकांत श्रीवास्तव, लालित्य ललित, अशोक सिंह और डॉ.सविता मोहन ने समकालीन कविता का प्रतिनिधित्व किया। शायर मुमताज़, देवमणि पांडेय, रेखा अग्रवाल, सुमन अग्रवाल और राजन मल्होत्रा ने ग़ज़ल की ख़ुशबू से समूचे महौल को तरबतर कर दिया। शायर मुमताज़ का अंदाज़े-बयां देखिए-

पहले इंसान मुकम्मल बने इंसा कोई
फिर उसके बाद बने हिंदू मुसलमां कोई
किसी के घर को जलाना तो बहुत आसां है
जला के देखे भला अपना आशियां कोई

मुम्बई से पधारे शायर देवमणि पांडेय की ग़ज़ल का रंग देखिए-

जिनके फ़न को दुनिया अक्सर अनदेखा कर देती है
वो ही इस दुनिया को रोशन कर जाते हैं कभी-कभी
अगर किसी पर दिल आ जाए इसमें दिल का दोष नहीं
अच्छा चेहरा देखके हम भी मर जाते हैं कभी-कभी 

ताशकंद में हिंदी कविता के विराट उत्सव में देवमणि पांडेय, डॉ.धनंजय सिंह, डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, मीठेश निर्मोही
प्रतिष्ठित गीतकार अनिल खम्परिया ने अपने असरदार तरन्नुम से नदी की व्यथा-कथा को बड़ा मार्मिक स्वर प्रदान किया-

सिर्फ़ चलती, उछलती, मचलती हूँ मैं
लोग कहते हैं मग़रूर हो जाऊँगी
मैं नदी हूँ मुक़द्दर है मेरा यही
एक दिन मैं समंदर में खो जाऊँगी 

ताशकंद में हिंदी कविता  के विराट उत्सव में श्रोतागण 7 जुलाइ 2012
चेन्नई से पधारी शायरा रेखा अग्रवाल ने अपनी भावनाओं का इज़हार इस तरह किया-

कमी कुछ भी नहीं फिर भी कमी महसूस करती हूँ
मैं अक्सर अपनी आँखों में नमी महसूस करती हूँ
कभी रक्खे थे जो हमने किताबों में दबा करके
मैं उन फूलों में अब भी ताज़गी महसूस करती हूँ

चेन्नई से ही तअल्लुक़ रखने वाले ग़ज़लगो सुमन अग्रवाल ने ख़ूबसूरत लहजे में ग़ज़ल पेश की-

मेहरबां यूँ ही नही हैं हम पे सारी महफ़िलें
हम बहुत दिन तक जिए हैं अपनी तनहाई के साथ
मुझको ले जाती हैं घर काँटों भरी पगडंडियाँ
मैं भी ख़ुश हूँ दोस्त अपनी आबलपाई के साथ 


ताशकंद में हिंदी कविता का विराट उत्सव

कवितापाठ के इस सत्र में डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, आशा पांडेय ओझा, उमा बंसल, मनोज कुमार मनोज, तिलकराज मलिक, वंदना दुबे, डॉ. अर्जुन सिसौदिया, मीना कौल, शरद जायसवाल, संजीव ठाकुर, सुनील जाधव, अरविंद मिश्रा, राजश्री झा, देवी प्रसाद चौरसिया, रामकुमार वर्मा, रवीन्द्र उपाध्याय, डॉ. जे. आर. सोनी, तुलसी दास चोपड़ा, श्रीमती चोपड़ा, सरोज गुप्ता, रामकुमार वर्मा, सुषमा शुक्ला, डॉ. अमरेन्द्र नाथ चौधरी, प्रवीण गोधेजा, सेवाशंकर अग्रवाल, विमला भाटिया, आदि ने भिन्न शिल्प, छंद और सरोकारों की कवितायें सुनायीं। अंत में राष्ट्रीय समन्वयक जयप्रकाश मानस ने हिंदी कविता के शिखर स्व.केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता सुनाकर आयोजन को पूर्णता प्रदान की। कई घंटो तक चले इस सत्र का संचालन कवि देवमणि पांडेय और शायर मुमताज़ ने बहुत रोचक अंदाज़ में किया। उक्त अवसर पर भारत के 127 साहित्यकार, लेखक, शिक्षक, पत्रकार, ब्लागर्स सहित ताशकंद शहर से बड़ी संख्या में साहित्यिक श्रोता उपस्थित थे । 

और अंत में- 

वो तस्वीर खींचती लड़की

(ताशकंद में आशा पांडेय ओझा पर लिखी हुई प्रवीण भाई की एक कविता)

कभी मस्जिद तो कभी मंदिर 
कभी झील तो कभी उसकी गहराई
कभी रोना तो कभी हँसना 
जाने क्या क्या 

छोटे छोटे बच्चो में अपना बचपन 
लोगो में स्नेहभरा आशीर्वाद 
शहतूत भरे पेंड़ों में अपनी शरारतें 
जाने किन रिश्तों को खोज रही थी 

शायद पिछले जनम का 
कोई क़र्ज़ अदा कर रही थी 
वो तस्वीर खींचती लड़की .... 

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, 
गोकुल धाम, फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगगांव पूर्व, मुम्बई-400063 
M : 98210-82126
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बुधवार, 30 मई 2012

ग़ज़ल : दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती : कमेंट्स


ग़ज़ल : दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती : कमेंट्स

पहली किश्त पढ़कर लंदन से शायर प्राण शर्मा ने रोचक जानकारी दी। फ़िल्म उमराव जान में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर शहरयार की ग़ज़ल का मतला है -दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये / बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये। इस मतला के दोनो मिसरे बिहार के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की ग़ज़ल से उठाये गए थे। उनकी उस ग़ज़ल के दो शेर देखिए-

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये 
खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये 

बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात 
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये 

इस लेख पर बहुत अच्छे-अच्छे कमेंट आए और एक महत्वपूर्ण चर्चा के लिए रास्ता खुला।नीरज गोस्वामी के अनुसार हर शेर चाहे वो किसी और के कहे जैसा क्यूँ न लगे अपनी महक अलग ही रखता है...ये बात ही शायरी को आज तक जिंदा रखे हुए है और जिंदा रखेगी। तिलक राज कपूर ने कहा- पूर्ण मौलिकता मिलना शायद कठिन हो लेकिन अगर शेर में कुछ भी नया है तो उसे समग्र मूल्‍यांकन में मौलिक माना जाना चाहिये। सतपाल ख़याल ने फ़रमाया- ग़ज़ल में बहुत दोहराव है। आप चराग और हवा पर अगर शेर खोजेंगे तो हैरान रह जायेंगे कि हर शायर चरागों को जलाता बुझाता रहता है। कोई शाम होते ही बुझा देता है तो कोई सुबह होते ही जला लेता है। नीलम अंशु का कहना है- पहली बार पता चला कि ग़ज़ल में भी ज़मीन झगड़े की वजह बनती है। ऐसे कमेंट्स के आधार पर दूसरे किश्त तैयार हुई है। तो आइए इसका भी लुत्फ़ उठाइए और चर्चा को आगे बढ़ाइए…
 
नीरज गोस्वामी : (रायगढ़, महाराष्ट्र)

सदियों से वही इंसान हैं और वही उनकी खुशियाँ दुःख समस्याएं... कुछ भी तो नहीं बदला सिवा समय के...न इंसानी फितरत न सोच...तो फिर नया ख़याल आएगा कहाँ से...बड़े बड़े शायर जो पहले कह गए उन्होंने कोई बात नयों के लिए छोड़ी ही नहीं...लेकिन मजे की बात है शायरी अब भी वो ही बात करती है जो पहले करती थी लेकिन उसके बदलते अंदाज़ ने उसे अब तक दिलचस्प बनाये रखा है...हर शायर उन्हीं घिसी पिटी बातों को अपने दिलचस्प अंदाज़े बयां से सुनने लायक बना देता है....यादगार बना देता है...लगता था ग़ालिब के बाद कोई क्या लिखेगा लेकिन साहब उनके बाद भी शायरी परवान चढ़ी और क्या खूब चढ़ी...ये सिलसिला कहीं थमने वाला नहीं...जैसे हर इंसान दो हाथ दो पैर वाला है लेकिन अपने आप में अनूठा है वैसे ही हर शेर चाहे वो किसी और के कहे जैसा क्यूँ न लगे अपनी महक अलग ही रखता है...ये बात ही शायरी को आज तक जिंदा रखे हुए है और जिंदा रखेगी...कुमार पाशी साहब ने इसी बात को क्या खूब कहा है:-

जो शे'र भी कहा वो पुराना लगा मुझे 
जिस लफ्ज़ को छुआ वही बरता हुआ लगा 


शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.)

मुझे याद आ रहे हैं मरहूम मोहसिन रतलामी जिन्‍होंने मुझे यह बात कुछ अलग तरह से कही थी। हुआ यह कि 'दिल के अरमॉं ऑंसुओं में बह गये' के हर शेर पर मैंने उलटी बात कही, मसलन: 'शायद उनका आखिरी हो ये सितम / हर सितम ये सोच कर हम सह गये'। इस पर मैनें कहा- 'सह लिया पहला सितम तुमने अगर / तो सितम सारी उमर ढायेंगे'। मोहसिन साहब बोले कि ये तो आपने ज़मीन उठा ली। मैनें आसमॉं उठाते तो सुना था मगर मेरे लिये ये नयी बात थी। बहरहाल बात समझ में आई तो मैनें कहा- हुजूर ज़मीन छोडि़ये, तेवर तो देखिये। 

मुझे लगता है कि हमें पूर्ण मौलिकता और समग्र मौलिकता में भेद करने की जरूरत है। आपकी प्रस्‍तुति के नज़रिये से देखें तो पूर्ण मौलिकता मिलना शायद कठिन हो लेकिन अगर शेर में कुछ भी नया है तो उसे समग्र मूल्‍यांकन में मौलिक माना जाना चाहिये। पूर्ण मौलिकता तो शायद अन्‍य काव्‍य में भी नहीं मिलेगी। एक और स्थिति हो सकती है मात्र संयोग की। एक ही ज़मीन पर कई-कई शेर कहने वाले कई शायर मिल जायेंगे। मुझे इसमें कुछ अजूबा नहीं लगता। हॉं, शब्‍दश: उठाये हुए शेर अलग दिख जाते हैं। तरही ग़ज़ल में तो एक पूरा मिसरा उठाना ही पड़ता है, मेरा मानना है कि ऐसे गिरह के शेर शायर को अपनी ग़ज़ल से खुद-ब-खुद खारिज कर देने चाहिये। 

आलोक श्रीवास्तव और मुनव्वर राना साहब के अशआर की स्थिति जरूर थोड़ा विचलित करती हैं। किसने पहले कहा ये तो मैं नहीं जानता लेकिन यहॉं जो समानता है वह आपत्तिजनक है। मीर और ग़ालिब के अशआर में तो अंतर की बहुत गुँजाइश है। 'चल अकेला' पर मुझे नहीं लगता कि किसी ओर से आपत्ति उठाई गयी हो। अभी आपने काव्‍य से काव्‍य का संदर्भ उठाया है ज़मीन की दृष्टि से। बहुत सा काव्‍य ऐसा मिल जायेगा जो किसी कहानी, उपन्‍यास या यहॉं तक कि यात्रा-वृतान्‍त से उठाया गया है। अगर तुलना में कहीं भेद की गुँजाईश है तो उसे महत्‍व दिया जाना चाहिये। यह भेद, शब्‍द, भाव, काल या अन्‍य किसी भी स्‍वरूप का हो सकता है। शायर के साथ यह समस्‍या अक्‍सर रहती होगी लेकिन कुछ तो होता ही है जो उसके कहे शेर को अलग पहचान देता है। नीरज भाई की टिप्‍पणी में कुमार पाशी साहब के शेर पर कहता हूँ कि:

अहसास, लफ़्ज़, बह्र, नया कुछ न जब मिला 
सोचा बहुत… कहूँ, न कहूँ, फिर भी कह गया


कवि वीनस केशरी : (इलाहाबाद, उ.प्र.)

देवमणि जी, अच्छी जानकारी दी है। शायर के साथ यह समस्‍या अक्‍सर रहती होगी लेकिन कुछ तो होता ही है जो उसके कहे शेर को अलग पहचान देता है। 

जनाब रामपाल अर्शी का शे'र -

कफ़न कांधे पे लेकर घूमता हूं इसलिये अर्शी
न जाने किस गली में जिंदगी का शाम हो जाये
 
शायर तिलक राज कपूर (भोपाल, म.प्र.)

वीनस के उदाहरण के संदर्भ में: 

कफ़न कांधे पे लेकर घूमता हूं इसलिये अर्शी
न जाने किस गली में जिंदगी का शाम हो जाये 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये…

दो खूबसूरत शेर सामने हैं लेकिन बात है नज़रिये की। समालोचक की दृष्टि से देखूँ तो सब ठीक ठाक है लेकिन कुछ देर को आलोचक होने का दुस्‍साहस करूँ तो बहुत से दिलों को चोट पहुँचेगी फिर भी एक बात देखने की है कि शाम वृद्धावस्‍था की स्थिति है मृत्‍यु-काल की नहीं। और यहीं दोनों अशआर में मिसरों का परस्‍पर संबंध समाप्‍त हो जाता है। पहले शेर में जो बात कही गयी है वह सर पर कफ़न बॉंधे घूमने के अधिक करीब है और इसमें शाम होना न होना महत्‍व नहीं रखता। दूसरे शेर में जो उजाले की बात आई है वह अंधकार से तो संबंध रख सकती है लेकिन शाम के धुँधलके के लिये उपयुक्‍त नहीं कही जा सकती है। अगर मेरे कथन से किसी की भावनायें आहत हों तो पूर्ण विनम्रता से मेरी क्षमा प्रार्थना पूर्व से ही प्रस्‍तुत मानें। 

शायर सतपाल ख़याल : (सोलन, हि.प्र.)

लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। ग़ज़ल में भी ज़मीनों का झगड़ा है और यह सही है कि न सिर्फ़ नये बल्कि सफ़ल गज़लकार भी पुराने शायरों के मिसरों को किसी भी तरह इस्तेमाल करते हैं। ग़ज़ल में एक दोष ये है कि बहुत शे'र कहे जा चुके हैं और मसाईल एक जैसे हैं और ग़ज़ल में तो दुहराव बहुत है। आप चराग और हवा पर अगर शे'र खोजेंगे तो हैरान रह जायेंगे कि हर शायर चरागों को जलाता बुझाता रहता है। कोई शाम होते ही बुझा देता है तो कोई सुबह होते ही जला लेता है। ग़ज़ल में बहुत दोहराव है लेकिन ताज़गी भी बहुत है जिसका उदाहरण मुनव्वर राणा साहब हैं। कितने नये और सफ़ल प्रयोग किये हैं। मेरे ख़याल से महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप क्या कहते हैं लेकिन ग़ज़ल में महत्वपूर्ण यह है कि आप कितनी नज़ाकत और कैसे अंदाज़ में कहते है, यही हुनर है शायरी का जिसका उदाहरण है-

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता

नीलम अंशु : (कोलकाता, प.बंगाल)

बेहद महत्वपूर्ण जानकारी है। सचमुच पहली बार पता चला कि ग़ज़ल में भी ज़मीन झगड़े की वजह बनती है। ऐसा भी तो हो सकता है कि जिसने बाद में लिखा, उसने संयोगवश कभी पहले वाले शायर को पढ़ा ही न हो क्योंकि हरेक रचनाकार की हर रचना हर किसी ने पढ़ ही रखी हो ये भी तो ज़रूरी नहीं।

Yuvraj Shrimal (Sr. Correspondent, DNA Newspaper, Jaipur, Raj.)

Pandey Ji, I read your article, Ghazal Yani Dusron Ki Zameen Par Apni Kheti, uploaded on Bhadas4media. Your analysis is really truth revealing and bringing forth a concept that nothing is original. But, i would like to say that i have read and listen the creations by these Shayars. All these creations might be using same words, but their spirits are variant. They are masterpieces that sooth the minds. If they are copies up to some extent then what's wrong in this as 'copies are copies of the copies'.

कथाकार सुधा अरोड़ा : (मुम्बई) 

देवमणि ! कथायात्रा 1978 में एक गज़लकार दिनेशकुमार शुक्ल ने अपनी पूरी ग़ज़ल के बीच यह एक शेर लिखा था- 

मेरी कुटिया के मुकाबिल आठ मंजि़ल का मकां,
तुम मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाओगे !

पच्चीस साल बाद जावेद अख्तर की किताब 'तरकश'में यह एक पृष्ठ पर था-!

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गये !

शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.) 

पहले सुधा जी द्वारा दिये गये उदाहरण की बात ! जब कुटिया के मुकाबिल आठ मंजि़ल का मकां खड़ा हो गया तो शायद कहॉं बचा, फिर भी प्रतीकात्‍मक दृष्टि से देखें तो दिनेश जी ने एक आशंका भर व्‍यक्‍त की थी अपने शेर में। जबकि इस बीच चरित्र इतना गिर गया है कि वह आशंका जावेद साहब के शेर तक आते आते यर्थाथ में तब्‍दील हो गयी। यह उदाहरण बहुत ही रुचिकर है, दोनों काल-संदर्भ में तत्‍समय के चरित्र की बात कर रहे हैं और अपने-अपने काल संदर्भ में दो अलग शेर हैं। युवराज जी की बात पर आऊँ तो मेरा मानना है कि नकल नहीं यहॉं सुदृढ़ता का महत्‍व है। किसी समय विशेष में कहा गया कोई शेर जब किसी शायर को कमज़ोर लगता है तो वह अपने तरह से उसे मज़बूत कर प्रस्‍तुत करने का प्रयास करता है। यह मज़बूती सुनने वालों को पसंद आती है तो शेर चल निकलता है वरना दफ़्न हो जाता है एक नकल के रूप में। बशीर बद्र साहब ने जब '...शाम हो जाये' वाला शेर कहा तो वह लोगों को पसंद आया और इतना आया कि उनके नाम का पर्याय बन गया, बस यही शायरी है। जो शेर चल निकला वो चल निकला नहीं तो दीवान के दीवान दफ़्न हैं जो अदबी दायरे से बाहर ही नहीं निकल पाते। आम श्रोता तक पहुँच ही नहीं पाते। फिर भी- शाम हो जाये' जैसी स्थिति में शायर का कर्तव्‍य तो बनता है कि वह प्रस्‍तुत करते समय लोगों को बताये कि मिसरा कहॉं से उठाया है। मिसरा उठाना गुनाह तो नहीं हॉं यह छुपाना गुनाह है कि कहॉं से उठाया।

शायर प्राण शर्मा : (लंदन, यूके)

प्रिय देवमणि जी! आपका लेख पसंद आया।मैंने यह शेर पहले कहीं पढ़ा था -मेरी कुटिया के मुक़ाबिल आठ मंजिल का मकां / तुम मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाओगे। मुझे शेर के रचयिता के नाम का पता नहीं था। दाद देनी पड़ेगी हिन्दी की प्रसिद्ध कहानीकार और कवयित्री सुधा अरोरा जी को, उन्हें तीन दशक पहले कहा गया गया शेर और शायर का नाम अब भी याद है। उर्दू में एक ख़याल के अनेक मिसरे हैं जिनको इस्तेमाल करने में उस्ताद शायरों ने भी गुरेज़ नहीं किया है। देखिए उनके कहे एक ख़याल के मिसरे और अशआर -

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी 
कुछ हमारी खबर नहीं आती - ग़ालिब 

कुछ तुम्हारा पता नहीं चलता 
कुछ हमारी खबर नहीं आती - अदम

कुछ गम-ए- इश्क भी कर देता है मजनून `अदम`
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं - अदम 

कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनूं के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं - ज़हीर देहलवी 

मुहब्बत का दरिया, जवानी की लहरें 
यहीं डूब जाने को जी चाहता है - अमजद नज्मी 

हसीं तेरी आँखें, हसीं तेरे आंसूं 
यहीं डूब जाने को जी चाहता है - जिगर मुरादाबादी 

उमराव जान में शहरयार की ग़ज़ल का मतला है -

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये 
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये 

इस मतला ने शहरयार को रातों-रात मशहूरियों की बुलंदी पर पहुँचा दिया था। मतला के दोनो मिसरे बिस्मिल अज़ीमाबादी की ग़ज़ल से उठाये गए थे। उनकी चार शेरों की ये ग़ज़ल पढ़ कर देखिए -

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये 
खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये 

बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये 

मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए 
मिटने न देंगे मुल्क, ये ऐलान लीजिये

बिस्मिल` ये दिल हुआ है अभी कौम पर फ़िदा 
अहल-ए-वतन का दर्द भी पहचान लीजिये 

आपके जानकारी भरे लेख की एक बार और तारीफ़ करता हूँ।--- प्राण शर्मा

शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.)

प्राण साहब के उदाहरणों को देखें तो एक बात तो स्‍पष्‍ट है कि पूरा मिसरा ले लेना भी स्‍वीकार किया गया है बशर्ते कि कहन में बदलाव हो। ग़ालिब साहब के शेर में स्‍पष्‍ट बेखुदी है और अदम साहब का शेर मैं अभी समझने का प्रयास ही कर रहा हूँ कि यह भी बेखुदी ही है या उसके आस-पास भटकता कोई और भाव। मुझे ग़ालिब साहब का शेर कुछ यूँ याद था: हम वहॉं हैं जहॉं से खुद हमको / आप अपनी खबर नहीं आती। अदम साहब और ज़हीर देहलवी के शेर में भाव पक्ष एक ही है। मेरे मत में किसी और के पूर्व में कहे मिसरे को पूर्व शेर के भाव में ही बॉंधना तो यह कहता है कि पहले वाला शायर कुछ दमदार शेर नहीं कह सका, मैं अब दमदार शेर दे रहा हूँ। अमजद नज्मी साहब और जिगर मुरादाबादी साहब के शेर एक ही भाव रखते हुए भी अलग-अलग मंज़र पर हैं इसलिये इनमें तो कोई समस्‍या नज़र नहीं आती। राम प्रसाद `बिस्मिल` के नाम से जो अशआर बताये गये हैं उनको लेकर मुझे शंका है, लगता है किसी मूवी में लिये गये शेर हैं ये जो मूल ग़ज़ल से हट के होंगे। मेरी शंका का कारण पहले शेर का भाव है। अब एक प्रश्‍न: शिकवा, शिकायतें, न गिला कीजिये अभी / बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये'। मैं अगर खुलकर स्‍वीकार करूँ कि दूसरी पंक्ति पूरी की पूरी किसी अन्‍य शायर के शेर से ली गई है जिसका नाम मुझे ज्ञात नहीं तो क्‍या यह शेर अपना वज़ूद खो देगा। मुझे तो नहीं लगता।

शायर देवमणि पाण्डेय : (मुम्बई)

मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उन पर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-

तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़
थी ख़बर गर्म उनके आने की -मीर तकी मीर

थी ख़बर गर्म उनके आने की 
आज ही घर में बोरिया न हुआ -मिर्ज़ा ग़ालिब

होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा -मीर तकी मीर 

बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे -मिर्ज़ा ग़ालिब

शायर तिलक राज कपूर : (भोपाल, म.प्र.)

मीर का शेर पहली बात तो ग़ालिब के शेर के मुकाबिल उँचे दर्जे का है, और दोनों शेर अलग-अलग स्थिति के हैं। दूसरे दोनों शेर एक ही बात तो कहते हैं मगर अलग-अलग तरह से बॉंधे गये हैं। अभिव्‍यक्ति एक है लेकिन मार्ग अलग।

शायर प्राण शर्मा (लंदन, यूके)

प्रिय देवमणि जी ! आपकी जानकारी बहुत है। इतनी जानकारी तो किसी उर्दू के उस्ताद शायर की भी नहीं होगी। बिस्मिल के दूसरे शेर में रदीफ़ की ग़लती हो गई थी। सही मिसरा यूँ है -` मिटने न देंगे मुल्क ये ऐलान लीजिये'। बिस्मिल अज़ीमाबादी के कुछेक शेरों या मिसरों को काई शायरों ने ज्यों का त्यों उठाया है। जिगर मुरादाबादी का मशहूर शेर है -

ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

बिस्मिल अज़ीमाबादी के मक़्ता पर गौर फरमाईयेगा -

'बिस्मिल` ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

निदा फाज़ली इस शेर से पहचाने जाते हैं -

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
खो जाये तो मिट्टी है मिल जाये तो सोना है 

निदा फाज़ली के शेर पर बिस्मिल अज़ीमाबादी' के इस शेर की पूरी झलक है -

सब वक़्त की बातें हैं सब खेल है किस्मत का 
बिंध जाये तो मोती है रह जाये तो दाना है 

जिन शेरों या मिसरों से 'बिस्मिल' को ख्याति मिलनी चाहिए थी वो अन्य शायर लूट कर ले गए। उनके दो- तीन अशआर सुनियेगा -

आता है याद हमको गुज़रा हुआ ज़माना 
वो झाड़ियाँ चमन की वो मेरा आशियाना 

वो प्यारी-प्यारी सूरत वो मोहनी सी मूरत 
आबाद जिसके दम से था मेरा आशियाना 

आज़ादियाँ कहाँ वो अब मेरे घोंसले की 
अपनी खुशी से आना अपनी खुशी से जाना

शुभ कामनाओं के साथ- प्राण शर्मा 

आपका-
देवमणिपांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, 
गोकुलधाम, निकट महाराजा टावर, फिल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 
98210 82126

मंगलवार, 29 मई 2012

ग़ज़ल यानी दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती


मुनव्वर राना के ग़ज़ल संग्रह 'नए मौसम के फूल' का लोकार्पण समारोह

ग़ज़ल यानी दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती
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ग़ज़ल दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती है। बतौर शायर आप भले ही दावा करें कि आपने नई ज़मीन ईजाद की है मगर सच यही है कि आप दूसरों की ज़मीन पर ही शायरी की फ़सल उगाते हैं। कोई ऐसा क़ाफ़िया, रदीफ़ या बहर बाक़ी नहीं है जिसका इस्तेमाल शायरी में न हुआ हो। कोई-कोई ज़मीन तो ऐसी है जिसका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका है और लगातार होता रहेगा। मसलन शायद ही कोई ऐसा शायर हो जिसने मोमिन साहब की इस ज़मीन पर ग़ज़ल की फ़सल न उगाई हो-

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता.

तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता.

आज़ादी से पहले लखनऊ में एक शायर हुए अर्सी लखनवी। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मक़बूल हुआ था-

कफ़न दाबे बगल में घर से मैं निकला हूँ ऐ अर्सी,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.

डॉ.बशीर बद्र ने फ़न का कमाल दिखाया। ऊपर का मिसरा हटाया और बड़ी ख़ूबसूरती से अपना मिसरा लगाया। आप जानते ही हैं कि यही ख़ूबसूरत शेर आगे चलकर शायर बशीर बद्र का पहचान पत्र बन गया-

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.

भोपाल के मशहूर शायर शेरी भोपाली की एक ग़ज़ल मुशायरों में बहुत पसंद की जाती थी। उसका एक शेर है-

अभी जो दिल में हल्की सी ख़लिश महसूस होती है, 
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए.

अब भोपाल के ही शायर डॉ बशीर बद्र का एक मशहूर शेर देखिए-

वो मेरा नाम सुनकर कुछ ज़रा शर्मा से जाते हैं
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए

डॉ बशीर बद्र से सीनियर थे शेरी भोपाली। हो सकता है कि बशीर बद्र ने उनके मिसरे पर तरही ग़ज़ल कही हो। मुझे लगता है कि ख़याल की सरहदें नहीं होतीं। यानी दुनिया में कोई भी दो शायर एक जैसा सोच सकते हैं। जाने-अनजाने दो फ़नकार शायरी की एक ही ज़मीन पर एक जैसी फ़सल उगा सकते हैं। मैंने सन् 1975 में किसी का अशआर सुना था जो अब तक मुझे याद है-

भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में
काँप उठता हूँ कोई जान न ले.
ये भी डरता हूँ मेरी आँखों में
तुझे देख के कोई पहचान न ले.

पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर का भी इसी ख़याल पर एक शेर नज़र आया –

काँप उठती हूँ मैं ये सोचके तनहाई में,
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई.

ख़यालों की ये समानता इशारा करती है कि सोच की सरहदें इंसान द्वारा बनाई गई मुल्क की सरहदों से अलग होती हैं। शायर कैफ़ी आज़मी ने नौजवानी के दिनों में एक ग़ज़ल कही थी। वो इस तरह है-

मैं ढूँढ़ता जिसे हूँ वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता

वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का इस पर निशां नहीं मिलता

निदा फ़ाज़ली साहब जवान हुए तो उन्होंने कैफ़ी साहब के सिलसिले को इस तरह आगे बढ़ाया-

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कभी ज़मी तो कभी आसमां नहीं मिलता

फ़िल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ में शामिल निदा साहब की यह ग़ज़ल भूपिंदर सिंह की आवाज़ में इतनी ज्यादा पसंद की गई कि लोग कैफ़ी साहब की ग़ज़ल भूल गए। मुशायरे के मंच पर भी दिलचस्प प्रयोग मिलते हैं। कभी-कभी दो शायर एक दूसरे की मौजूदगी में एक ही ज़मीन में एक जैसा नज़र आने वाले शेर पढ़ते हैं। श्रोता ऐसी शायरी का बड़ा लुत्फ़ उठाते हैं। शायर मुनव्वर राना का एक शेर इस तरह मुशायरों में सामने आया-

उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं.
क़द में छोटे हैं मगर लोग बड़े रहते हैं.

डॉ.राहत इंदौरी ने अपने निराले अंदाज़ में अपना परचम इस तरह लहराया-

ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं.
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते हैं.

दोनों शायरों को मुबारकबाद दीजिए कि उन्होंने अपने इल्मो-हुनर से लोगों को बड़ा बनाया। मुंबई में मुशायरे के मंच पर सबसे पहले हसन कमाल ने ये कलाम सुनाया-

ग़ुरूर टूट गया है, ग़ुमान बाक़ी है.
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.

इसी ज़मीन पर शुजाउद्दीन शाहिद का एक शेर सामने आया- 

घरों पे छत न रही सायबान बाक़ी है. 
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.

इस पर डॉ.राहत इंदौरी ने फ़ैसला सुनाया-

वो बेवकूफ़ ज़मीं बाँटकर बहुत ख़ुश है,
उसे कहो कि अभी आसमान बाक़ी है.

इसके बाद राजेश रेड्डी के तरन्नुम ने कमाल दिखाया-

जितनी बँटनी थी बँट गई ये ज़मीं,
अब तो बस आसमान बाक़ी है.

राजेश रेड्डी बा-कमाल शायर हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वे बड़ी पुरानी ज़मीन में बड़ा नया शेर कह लेते हैं। मसलन जोश मल्सियानी का शेर है-

बुत को लाए हैं इल्तिजा करके.
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके.

राजेश रेड्डी ने इस पुरानी ज़मीन में नई फ़सल उगाने का ऐसा कमाल दिखाया कि उनके फ़न को जगजीत सिंह जैसे मक़बूल सिंगर ने अपने सुर से सजाया-

घर से निकले थे हौसला करके,
लौट आए ख़ुदा ख़ुदा करके,

आसमान बाक़ी है"... अभी तक ये तय नहीं हो पाया है कि इस ज़मीन का असली मालिक कौन है। मैंने शायर निदा फ़ाज़ली से इसका ज़िक्र किया। वे मुस्कराए- 'अभी तक इन…..को पता ही नहीं है कि आसमान बँट चुका है। इनको एक हवाई जहाज़ में बिठाकर कहो कि बिना परमीशन लिए किसी दूसरे मुल्क में दाख़िल होकर दिखाएं। फ़ौरन पता चल जाएगा कि आसमान बँटा है या नहीं। नौजवान शायर आलोक श्रीवास्तव का ‘माँ’ पर एक शेर है जो उनके काव्य संकलन 'आमीन' में प्रकाशित एक ग़ज़ल में शामिल है-

बाबू जी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.
माँ पर शायर मुनव्वर राना का एक मतला है जिसे असीमित लोकप्रियता हासिल हुई-

किसी घर मिला हिस्से में, या कोई दुकां आई.
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आई.

मुझे नहीं पता कि इस पर राना साहब का कमेंट क्या है मगर आलोकजी का दावा है कि उनके शेर के पाँच साल बाद राना जी का मतला नज़र आया। सदियों से ग़ज़ल के क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ रोचक प्रयोग होते रहते हैं । कभी शायरों के ख़याल टकरा जाते हैं तो कभी मिसरे। ख़ुदा-ए-सुख़न मीर ने लिखा था –

बेख़ुदी ले गई कहाँ हमको,
देर से इंतज़ार है अपना.

इसी ख़याल को ग़ालिब साहब ने अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाया-

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
ख़ुद हमारी ख़बर नहीं आती.

मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उनपर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-

तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़,
थी ख़बर गर्म उनके आने की.-मीर तकी मीर

थी ख़बर गर्म उनके आने की,
आज ही घर में बोरिया न हुआ.-मिर्ज़ा ग़ालिब
होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा.
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा.-मीर 

बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे.-मिर्ज़ा ग़ालिब

फ़िल्म उमराव जान में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर शहरयार की ग़ज़ल का मतला है-

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.
इस ग़ज़ल ने शहरयार को रातों-रात लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँचा दिया। इस मतले के दोनों मिसरे बिहार के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की एक ग़ज़ल से वाबस्ता हैं। उनकी उस ग़ज़ल के शेर देखिए-

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
ख़ंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये.

बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात,
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.

मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए,
मिटने न देंगे मुल्क, ये ऐलान लीजिये.

बिस्मिल अज़ीमाबादी का एक और शेर है-

'बिस्मिल' ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

इसी ज़मीन पर जिगर मुरादाबादी का भी मशहूर शेर है-

ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

मुझे नहीं पता कि दोनों शायरों में से किसने पहले ये शेर कहा और किसने तरही ग़ज़ल कही। मशहूर शायर-सिने गीतकार शकील बदायूंनी ने भी दूसरों के मिसरे उठाने में हर्ज़ नहीं समझा। उनका एक मशहूर फ़िल्मी गीत है-

ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजती है शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं...(बाबुल)

अब शायर दाग़ देहलवी का ये शेर देखिए-

ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजते हैं नागाड़े वहाँ मातम भी होते हैं

"ऐ मेरे वतन के लोगो" फेम गीतकार पं. प्रदीप से एक बार मैंने पूछा था कि अगर दो रचनाकारों के ख़याल आपस में टकराते हैं तो क्या ये ग़ल़त बात है ? उन्होंने जवाब दिया कि कभी-कभी एक रचनाकार की रचना में शामिल सोच दूसरे रचनाकार को इतनी ज़्यादा अच्छी लगती है कि वह सोच के इस सिलसिले को आगे बढ़ाना चाहता है। यानी वह अपने पहले के रचनाकार की बेहतर सोच का सम्मान करना चाहता है। चरक दर्शन का सूत्र है- चरैवेति चरैवेति, यानी चलो रे…चलो रे…। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने इस ख़याल को आगे बढ़ाया- 'इकला चलो रे।' लोगों को और मुझे भी अकेले चलने का ख़याल बहुत पसंद आया। मैंने इस ख़याल का सम्मान करते हुए एक गीत लिखा और मेरा गीत भी बहुत पसंद किया गया-

चल अकेला… चल अकेला… चल अकेला,
तेरा मेला पीछे छूटा साथी चल अकेला…
एक कहावत है- 'साहित्य से ही साहित्य उपजता है।' मित्रो ! 'भावों की भिड़न्त' का आरोप तो महाकवि निराला पर भी लग चुका है। मेरे ख़याल से अगर कोई शायर किसी दूसरे शायर का मिसरा उठाता है तो उसे उसका ज़िक्र कर देना चाहिए। मिर्ज़ा गालिब के बाद ऐसा लगता था कि ग़ज़ल में अब कुछ नया लिखने को बाक़ी नहीं रह गया है। लेकिन उनके बाद भी कही गई ज़मीन पर, कही गई बहर में और भी बहुत कुछ नया कहा गया। सब ने अपने-अपने अंदाज़ में अपनी बात कहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती करने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। लोग अपनी मर्ज़ी से अपनी मनचाही ज़मीन पर मनमाफ़िक फ़सल उगाते रहेंगे।
आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 
98210 82126

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