मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

उज़्बेकिस्तान : मज़हबी पाबंदियों से मुक्त इस्लामिक देश

 
मज़हबी पाबंदियों से मुक्त इस्लामिक देश उज़्बेकिस्तान

इस्लामिक देशों के बारे हमारे मन में एक अलग ही इमेज़ होती है। मगर सन् 2012 में उज़्बेकिस्तान पहुँचकर पांच दिन ताशकंद में और एक दिन समरकंद में घूमते हुए जो सामाजिक, सांस्कृतिक और मज़हबी मंज़र नज़र आया वह हमें हैरत में डाल देने वाला था। उज़्बेकिस्तान एक जनतांत्रिक इस्लामिक देश है। मगर यहाँ का जीवन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और सऊदी अरब के इस्लामपरस्त लोगों से बिल्कुल अलग है। हमें यहाँ सड़क, मैदान या किसी मुहल्ले में कहीं भी कोई मस्जिद, मक़तब या मदरसा नज़र नहीं आया। कहीं कोई अज़ान नहीं सुनाई दी। यहाँ तक कि कोई चर्च या मंदिर भी दिखाई नहीं पड़ा। कोई महिला मज़हबी लिबास (बुर्क़ा) नहीं पहनती।

हमारे गाइड रुस्तम ने बताया कि समरकंद में अमीर तिमूर (तैमूर लंग) के मक़बरे के अंदर एक मस्जिद है और ताशकंद में हज़रत इमाम के मकबरे के अंदर एक मस्जिद है। मगर ये इबादत के बजाय पर्यटन के प्रमुख केंद्र हैं। कुछ लोग अपने घरों के अंदर नमाज़ अदा करते हैं मगर उसके लिए कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं है। यहाँ मुस्लिम, ईसाई और ईश्वर को न मानने वाले वामपंथियों के बीच ज़ब़ान और मज़हब को लेकर कोई संघर्ष भी नहीं है। उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद की जनसंख्या 30 लाख है। इनमें 90% मुसलमान हैं और 8% क्रिचियन हैं और 2% में बाकी दुनिया शामिल है। सन् 1991 में सोवियत यूनियन से अलग होकर एक आज़ाद देश बनने के बावजूद उज़्बेकिस्तान ने मज़हबी मरकज़ बनाने के बजाय मूलभूत सुविधाओं- शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के विकास पर ज़ोर दिया। यहाँ बी.ए. तक सभी के लिए शिक्षा मुफ्त़ है।
आज़ादी का स्मारक : इंडिपेंडेंस स्क्वायर

उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद का सबसे प्रमुख स्थल माना जाता है - इंडिपेंडेंस स्क्वायर। पहले इसका नाम था लेनिन स्क्वायर। सन् 1955 में जब यह बना था तो एक ऊँचे स्तम्भ पर लेनिन की आदमकद विशाल प्रतिमा स्थापित की गई थी। सन् 1991 में सोवियत यूनियन से आज़ाद होकर उज़्बेकिस्तान एक जनतांत्रिक इस्लामिक देश बन गया। लेनिन की प्रतिमा ध्वस्त कर दी गई और उसकी जगह एक ग्लोब स्थापित किया गया। इस ग्लोब पर उज़्बेकिस्तान का मानचित्र अंकित किया गया है। ग्लोब के नीचे अपनी गोद में शिशु लिए एक जवान माँ बैठी है। उसके चेहरे पर आत्मीय मुस्कान है। माँ बच्चे से कह रही है- 'बेटा तू बहुत ख़ुशक़िस्मत है जो आज़ाद मुल्क में पैदा हुआ'।

इंडिपेंडेंस स्क्वायर के दूसरे कोने पर एक बूढ़ी माँ की उदासी में डूबी हुई प्रतिमा है। यह शोकमग्न माँ अपने उन बेटों का इंतज़ार कर रही है जो कभी नहीं लौटेंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध में उज़्बेकिस्तान के छ: लाख लोग मारे गए थे। उनकी याद में यहाँ एक अमर ज्योति अनवरत जल रही है। नज़दीक के बरामदे में ताम्रपत्रों पर इन शहीदों के नाम अंकित हैं। नाम के साथ उनके जन्म और मृत्यु का साल भी दर्ज किया गया है।
चौदह हज़ार शहीदों का स्मारक : शहीद पार्क

ताशकन्द शहर के मध्य में टीवी टावर के पास हरियाली और फूलों से समृद्ध एक पार्क में शहीदों का भव्य स्मारक आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। यह किसी युद्ध में शहीद हुए सैनिकों का स्मारक नहीं है। हमारे गाइड ने बताया कि यह उन 14000 बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखकों और कलाकारों की यादों का मरक़ज़ है, जिन्हें किसी समय उज़्बेकिस्तान को सोवियत रिपब्लिक का हिस्सा बनाने के लिए एक साथ, एक जगह इकट्ठा करके क़त्ल करने के बाद यहीं दफ़ना दिया गया था। उस वक़्त यह एक निर्जन स्थान था। आज़ाद देश बनने पर इसे शहीद पार्क बनाया गया। पास से गुज़रती एक नदी की धारा को मोड़ कर इसके बीचों-बीच से गुज़ारा गया । पक्के किनारों वाली इस नदी, हरियाली और फूलों ने शहीद पार्क को बेहद ख़ूबसूरत बना दिया है। आज यह पार्क कला और साहित्य का पावन तीर्थ बना हुआ है और दूर-दूर से लोग शहीदों की स्मृति को सलाम करने के लिए आते हैं।
ताशकन्द, समरकन्द और बुखारा

उज़्बेकिस्तान एक छोटा-सा, हरा-भरा और बहुत प्यारा देश है। यहाँ के तीन प्रमुख शहर- ताशकन्द, समरकन्द और बुखारा मशहूर हैं। ताश माने पत्थर और कंद माने शहर। ताशकन्द यानी पत्थरों का शहर। इसके चारों तरफ़ छोटे-छोटे पहाड़ हैं। वास्तुकला के नायाब नमूने हैं। यहाँ गगनचुम्बी इमारतें नहीं हैं क्यों कि यहाँ कभी-कभी तेज़ भूकम्प आते हैं। ताशकंद से चारवाक लेक जाते हुए रास्ते में एक छोटा-सा क़स्बा नज़र आता है ग़ज़लकन्द। ग़ज़लकन्द यानी ग़ज़लों का शहर। यहाँ के लोग कहते हैं कि ग़ज़ल यहीं पैदा हुई और बाद में मक़बूल होकर पूरी दुनिया पर छा गई।

समर कहते हैं फल को। फलों ने समरकन्द को इतनी दौलत दी है कि इसे अमीर लोगों का शहर कहा जाता है। जगह-जगह अंगूर, सेब, चेरी, खुबानी, खरबूज़ और तरबूज़ दिखाई पड़ते हैं। यहाँ तक कि इस शहर की गलियों में भी लोहे के पाइप पर अँगूर की बेलें झूलती रहती हैं और राहगीरों को धूप से बचाती हैं। ड्राई फ्रूट का विशाल मार्केट भी यहीं है। सन् 1398 में जब अमीर तिमूर (तैमूर लंग) दिल्ली आया था तो वह समरकंद का बादशाह था। यहाँ तैमूर लंग का बनवाया हुआ एक शानदार मक़बरा है। इसके गुम्बद की नक़्क़ाशी में सोने का भरपूर उपयोग किया गया है। कहा जाता है कि उसने यह मक़बरा अपने बेटे के लिए बनवाया था। एक दुर्घटना में अपनी जान गँवाने पर ख़ुद तैमूर लंग को इसी में दफ़न होना पड़ा। चंगेज़ ख़ाँ, नादिर शाह और बाबर का भी समरक़ंद और बुखारा से ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। वैसे बुखारा को सूफ़ियों का शहर माना जाता है। हमें बताया गया कि यह निज़ामुद्दीन औलिया की मुहब्बत तथा मुइनुद्दीन चिश्ती की इबादत का शहर है।

परदे से मुक्त महिलाओं का समाज

ताशकंद के प्रमुख बाज़ारों, चिमगान हिल, चारवाक लेन और समरकंद के विशाल ड्राई फ्रूट मार्केट में घूमते हुए हमने देखा कि यहाँ की महिलाएं परदा नहीं करतीं। बाज़ार में, रेस्तराँ में, शापिंग माल में वे मर्दों से अधिक संख्या में चुस्ती-फुर्ती से काम करती हुई नज़र आती हैं। वे देर रात तक आज़ादी से घूमती- फिरती हैं। हमारे गाइड ने बताया कि यहाँ लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या दो गुनी है। काफ़ी महिलाएं ऊपरी दाँतों में सोना मढ़वाती हैं। वे जब हँसती या बोलती हैं तो यह स्वर्णिम दंतपंक्ति बड़ी सुंदर लगती है। यहाँ की अधिकांश लड़कियाँ हाई हील पहनती हैं। होटल और रेस्तराँ में हाई हील पहनकर लड़कियाँ बैली डांस करती हैं। जब वे बिजली की गति से नाचती हैं तो हाई हील पर उनका बैलेंस देखने लायक होता है। 

आर्थिक आत्मनिर्भरता

उज़्बेकिस्तान में खेती-बारी ज़बरदस्त है। गेहूँ, सब्ज़ियां, फल बहुतायत से पैदा होते हैं। कपास निर्यात करने में उज़्बेकिस्तान दुनिया में तीसरे नम्बर पर है। तेल और गैस भी भरपूर है। भारतीय मुद्रा में पेट्रोल 25 रूपए लीटर है। सात रूपए का टिकट लेकर मेट्रो ट्रेन या लो फ्लोर वातानुकूलित बस में पूरे दिन कहीं भी आ-जा सकते हैं। यहाँ मोटर सायकिल, बाइक या स्कूटर नहीं हैं। महज कारें, बसें और टैक्सियाँ ही नज़र आती हैं। इक्का-दुक्का अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश कारें और टैक्सियाँ सफ़ेद रंग की ही हैं। यहाँ के लोगों में ख़ुद इतना अनुशासन है कि छ: दिन में हमें कहीं हार्न की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। हमारी बस के ड्राइवरों ने भी कभी हार्न नहीं बजाया।
अपराध मुक्त देश उज़्बेकिस्तान

उज़्बेकिस्तान एक अपराध मुक्त देश है। हमको यहाँ कहीं भी पुलिस के दर्शन नहीं हुए। गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र के साथ सुबह 6 बजे मार्निंग वाक करते हुए हम संसद भवन के गेट पर चले गए। संसद भवन पर भी पुलिस का पहरा नहीं है। गाइड ने बताया कि यहाँ अपराध ज़ीरो है। न चोरी, न डकैती, न मार पीट, न भ्रष्टाचार। आम जनता को अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती। बस चंद लोगों को काम चलाऊ अंग्रेज़ी ही आती है। किसी दुकानदार से कुछ ख़रीदिए और अंग्रेज़ी में दाम पूछिए तो वह कुछ बोलता नहीं, झट से कलकुलेटर या मोबाइल स्क्रीन पर टाइप करके दाम दिखा देता है। कहीं अंग्रेज़ी का अख़बार भी नज़र नहीं आता। यहाँ तक कि हमारे चार सितारा होटल पार्क ट्यूरान की लॉबी में भी कोई अख़बार नहीं दिखाई पड़ा- चैन हो जाए अगर मुल्क में अख़बार न हो। उज़्बेकी ज़बान में कुछ अख़बार निकलते ज़रूर हैं मगर प्रसार बहुत कम है।

ताशकंद में सुख, सुविधा और शांति

उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में हर तरफ़ हरियाली है, रंग-बिरंगे फूल हैं। न तो कोई घास पर बैठता है और न ही कोई घास पर चलता है । कोई फूल भी नहीं तोड़ता। ऐसे अलिखित नियमों का पालन हर इंसान करता है क्यों कि वे स्व-अनुशासित हैं। यूएस डॉलर की तुलना में स्थानीय मुद्रा सोम की क़ीमत बहुत कम है। सौ डॉलर में अढ़ाई लाख सोम मिलते हैं। चाय एक हज़ार, कॉफी दो हज़ार और टैक्सी का न्यूनतम किराया तीन हज़ार सोम है। ताशकंद में कई भारतीय होटल-रेस्तराँ हैं जहाँ भारतीय वेज़ और नानवेज़ भोजन मिल जाता है। पिछले 21 साल से राष्ट्रपति इस्लाम करीमोव अपने पद पर बने हुए हैं। पाँच राजनीतिक पार्टियाँ हैं मगर राजनीतिक उठापटक नहीं है। इस लिए यहाँ सुख, सुविधा और शांति है।
हमारे देश भारत के लिए उज़्बेकिस्तान के लोगों में बहुत प्यार है। शास्त्री स्ट्रीट में हमारे स्व. प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमा को उन्होंने बहुत आदर से साफ़-सुथरा और सँभालकर रखा है। बच्चों से लेकर लड़कियाँ, मर्द और औरतें जब हमें देखते हैं तो बड़े प्यार से सिर झुकाकर या अदब से हाथ जोड़कर कहते हैं- नमस्ते। वे नमस्ते इतनी विनम्रता और म्यूज़िकल ढंग से बोलते हैं कि तबियत ख़ुश हो जाती है।

सृजन सम्मान (छत्तीस गढ़) की ओर से पांचवा अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, ताशकंद, उज्बेकिस्तान में आयोजित किया गया था। उन्हीं के सौजन्य से 24 से 30 जून 2012 तक उज़्बेकिस्तान की यह साहित्यिक यात्रा सम्पन्न हुई थी। इसमें देश-विदेश से 135 हिंदी रचनाकारों को आंत्रित किया गया था।


आपका- 
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्यापाड़ा, 
गोकुलधाम, फ़िलमसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई - 400 063,
फोन : 98210-82126

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

मर्यादा क़ानूनों की : डॉ क्षमा पांडेय का काव्यसंग्रह

मर्यादा क़ानूनों की : डॉ क्षमा पांडेय का काव्यसंग्रह

मनुष्य के सोच और सरोकार की अभिव्यक्ति के लिए कविता एक असरदार माध्यम है। भोपाल की कवयित्री डॉ क्षमा पांडेय ने अपनी कविताओं के ज़रिए यह साबित किया है कि वैचारिक संवाद के लिए काव्य सृजन का इस्तेमाल कितनी ख़ूबसूरती से किया जा सकता है। उनके नए काव्य संग्रह का नाम है-  मर्यादा क़ानूनों की। कथ्य की नवीनता और  प्रस्तुतीकरण के धारदार तेवर के कारण यह काव्य संग्रह पाठकों के मन मस्तिष्क पर एक गहरी छाप छोड़ने में सक्षम है। 

डॉ क्षमा पांडेय की कविताओं का फलक बहुत व्यापक है। उनकी कविताएं देश, समाज, और मनुष्यता के पक्ष में खड़ी हैं। ये कविताएं विषय वैविध्य का अद्भुत नमूना हैं। क्षमा जी ने स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, पर्यावरण, मां, बेटी, पिता, दीदी, फूल, प्रेम, वर्षा, मनुष्य, विश्व शांति आदि विषयों पर कविताएं लिखकर नई पीढ़ी के सामने देश प्रेम, समाज प्रेम और प्रकृति प्रेम का आदर्श प्रस्तुत किया है। अपनी संवेदना के ज़रिए ये कविताएं पाठकों के साथ अपना एक आत्मीय रिश्ता जोड़ लेती हैं।

डॉ क्षमा पांडेय का जन्म एक साहित्यिक परिवार में हुआ। वे "लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती" जैसी प्रेरक कविता लिखने वाले पद्मश्री राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की सुपौत्री हैं। उनके पिता डॉ शिव शरण द्विवेदी संस्कृत साहित्य के  प्रकांड विद्वान और कवि थे। मां मनोरमा देवी का संगीत से गहरा लगाव था। ऐसे साहित्यिक माहौल में डॉ क्षमा पांडेय की रचनात्मकता को आगे बढ़ने का हौसला मिला। अपनी सशक्त लेखनी से उन्होंने साबित किया कि वे एक समर्थ कवयित्री हैं।

'मर्यादा क़ानूनों की' काव्य संकलन के लिए मैं डॉ क्षमा पांडेय को हार्दिक बधाई देता हूं। मेरी शुभकामना है कि उनकी कविताओं को जनमानस में लोकप्रियता हासिल हो और वे इसी तरह कामयाबी की मंज़िलें तय करती रहें।

नमन प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली से प्रकाशित किस काव्य संग्रह का मूल्य ₹250 है। डॉ क्षमा पांडेय का सम्पर्क नंबर है 9826 99 1191.

आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, 
फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, 
मुंबई- 400063, 98210-82126

रविवार, 20 दिसंबर 2020

सच ही तो कहा है : प्रदीप गुप्ता का काव्य संग्रह

हर समय बस आप बोलें और मैं सुनता रहूं

लॉकडाउन के दौरान वक़्त की झोली से लम्हों की जो सौग़ात हासिल हुई उसका लोगों ने अपने मन मुताबिक सदुपयोग किया। देश के एक प्रतिष्ठित बैंकिंग संस्थान से सेवानिवृत्त कवि, लेखक, पत्रकार और छायाकार प्रदीप गुप्ता ने अपनी रचनात्मकता का सबूत देने के लिए गुज़रे दिनों की खिड़किया़ं खोलीं और जमकर कविताएं लिखीं। ईशा प्रकाशन मुंबई से प्रकाशित उनके काव्य संग्रह का नाम है- 'सच ही तो कहा है'। लॉकडाउन के दौरान घरों में क़ैद लोग किस मानसिकता से गुज़र रहे थे इसे कवि प्रदीप गुप्ता की दो लाइनों से समझा जा सकता है-

इन दिनों घर पर ही हूं कब किधर जाता हूं मैं
जब कभी सांकल बजे फिर तो डर जाता हूं मैं

कवि प्रदीप गुप्ता ने अपना यह काव्य संकलन यारों के यार सिने पत्रकार मनोहर ठाकुर की स्मृति को समर्पित किया है। मनोहर ठाकुर के आवास पर अंधेरी में अक्सर कविता पाठ और संगीत की महफ़िलें जमती थीं। लोग झूम कर सुनते और बाद में वहां से झूमते हुए अपने घर जाते। मनोहर ठाकुर के निधन के बाद अब वहां सिर्फ़ तनहाइयां झूमती हैं।

प्रदीप गुप्ता की कविताओं से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान ख़ुद को उदासी और अवसाद की गिरफ़्त में आने नहीं दिया। उनकी कविताओं में महकती हुई तन्हाई है, चाहत है, मुहब्बत है और दिल के अफ़साने हैं। उन्होंने इन कविताओं में किशोरावस्था के रंगीन जज़्बातों और हसीन अरमानों का गुलदस्ता पेश किया है।

दिलकश ज़बान में लिखी गई ये कविताएं सीधा दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती हैं। प्रदीप गुप्ता ने तस्लीम किया है कि आज भी उनके भीतर एक किशोर ज़िंदा है। इसी वजह से इस उम्र में भी वे रोमानी कविताएं लिख रहे हैं। ख़ास बात यह है कि उनके इज़हार के लहजे में भी किशोरावस्था का जोश, उमंग और तरंग है। उन्होंने लिखा है-

इश्क़ बैंक बैलेंस नहीं है, ना ही बिजनेस खाता है
इसमें पाने से भी ज़्यादा, खोकर बड़ा मज़ा आता है

अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में प्रदीप गुप्ता आम आदमी से भी अपना रिश्ता जोड़ लेते हैं। वस्तुत: यह उनकी सृजनात्मक उपलब्धि है-

हर समय बस आप बोलें और मैं सुनता रहूं
अब तो पानी चढ़ गया है सर से ऊपर ऐ हुज़ूर

किस क़दर हालात बिगड़े हैं ज़माने के प्रदीप
आदमी बेबस है लेकिन ख़ून खौले है ज़रूर

किशोरावस्था में समाज की बंदिशों और मानदंडों की परवाह किए बिना सपने उड़ान भरते हैं। कवि प्रदीप गुप्ता ने भी बंदिशों की क़ैद से आज़ाद होकर मुक्त मन से ये कविताएं लिखी हैं। मधुर भावनाओं से सजी हुईं ये कविताएं काव्याकाश पर उन्मुक्त उड़ान भरती हैं।

कहा जाता है कि हर आदमी के भीतर एक बच्चा होता है। उसी तरह कह सकते हैं कि हर आदमी के भीतर एक किशोर होता है जो मुहब्बत की ज़बान बोलता है। प्रदीप गुप्ता की कविताओं में छलकते हुए मीठे जज़्बात हैं। मधुर भावनाओं का उमड़ता हुआ समंदर है। मुहब्बत का बहता हुआ दरिया है। आप अपना बौद्धिक जामा उतार कर अगर इन कविताओं के पास जाएंगे तो ये कविताएं आपको पसंद आएंगी। इनसे गुज़रते हुए आप भी एहसास की ख़ुशबू से तरबतर हो जाएंगे।
कुल मिलाकर प्रदीप गुप्ता का यह काव्य संग्रह युवा दिल के तारों में झंकार पैदा करने की सामर्थ्य रखता है। मैं उन्हें बधाई और शुभकामनाएं देता हूं कि वे इसी तरह महकते ख़्वाबों के गुलदस्ते सजाते रहें और दिल की दुनिया को महकाते रहें।

आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063, 98210-82126

दर्द का अहसास : विवेक का ग़ज़ल संग्रह

दर्द का अहसास : विवेक का ग़ज़ल संग्रह

ग़ज़ल एक ऐसा राजमार्ग है जिस पर लाखों मुसाफ़िर सफ़र तय कर रहे हैं। इस कारवां में दूसरों से अलग नज़र आना लाज़िमी है। इसके लिए अपना कथ्य, अपनी ज़बान और अपना अंदाज़ ए बयां चाहिए। यह अच्छी बात है कि ग़ज़लकार ओंकार सिंह 'विवेक' के पास रचनात्मकता की यह पूंजी है।

मेरा अंदाज़ ए बयां मेरा मिज़ाज
ख़ुद समझ लीजे मेरे अशआर से

अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह 'दर्द का अहसास' में ओंकार सिंह 'विवेक' ने यह साबित करने कि सराहनीय कोशिश की है कि क्या कहना है और कैसे कहना है।

जब घिरा छल फ़रेबों के तूफ़ान में
मैंने रक्खा यकीं अपने ईमान में
दूसरों को नसीहत से पहले ज़रा
झांकिए आप अपने गरीबान में

ग़ज़ल एक लंबा फासला तय कर चुकी है। आज की ग़ज़ल वक़्त के बदलते हुए मिज़ाज की साक्षी है। आज का युग जज़्बात का नहीं व्यावहारिकता का युग है। इस तल्ख़ हक़ीक़त को विवेक अपनी ग़ज़लों में रेखांकित करते हैं।

जिस किसी को देखिए है तल्ख़ उसका ही मिज़ाज
अब कहां है नम्रता और सादगी व्यवहार में
तुझको मैं आगाह कर दूं अक़्ल का यह दौर है
काम लेने की ज़रूरत अब नहीं जज़्बात से
किसी को फ़र्ज़ की अपने यहां कोई नहीं चिंता
मगर हक़ मांगने को हर कोई तैयार बैठा है

अपने अहसास को अल्फ़ाज़ में पिरोकर विवेक ने ग़ज़ल का दामन सजाया है। उन्होंने आसान ज़बान, बोलचाल की शैली और छोटी बहर में कई ऐसी ग़ज़लें कही हैं जो पाठकों को पसंद आएंगी-

कर रहे हैं मंज़िलों की जुस्तजू
लोग अपना हौसला खोते हुए
ख़्वाब से कैसे हो आंखें आशना
जागते रहते हैं हम सोते हुए

विवेक को उर्दू लफ़्ज़ों से कुछ ज़्यादा ही मुहब्बत है। उन्होंने कई ऐसे उर्दू शब्दों का इस्तेमाल अपनी ग़ज़लों में किया है जो आम प्रचलन में नहीं हैं। उन्हें इस बंदिश से आज़ाद होने की ज़रूरत है। जब वे आम बोलचाल की ज़बान में अपनी बात कहते हैं तो उसका असर ज़्यादा दिखाई देता है।

किसी के ग़म को हमें अपना ग़म बनाने में
बड़ा सुकून मिला नेकियाँ कमाने में

ओंकार सिंह 'विवेक' ने अपने प्रथम ग़ज़ल संग्रह में बेहतर संभावनाओं का संकेत दिया है। अपने आसपास की दुनिया, अपने समाज की हक़ीक़त और अपने वक़्त के सवालों को उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति कौशल से ग़ज़लों में ढालने की कोशिश की है। मुझे उम्मीद है कि अपनी सीमाओं को पहचान कर वे निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहेंगे। 'दर्द का अहसास' ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं उन्हें हार्दिक बधाई देता हूं और अंत में उन्हीं का एक शेर उनको भेंट करता हूं।

मश्क करना बहुत ज़रूरी है
शायरी में निखार लाने को

आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा,
गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुंबई- 400063, 98210-82126

 

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

हिंदुस्तान के लोक कवि अब्दुर्रहीम खानखाना

 

हिंदुस्तान के लोक कवि खानखाना रहीम

हिंदी में शोध ग्रंथों की दशा और दिशा से आप सुपरिचित हैं। कंकड़ के इस ढेर में कभी-कभी हीरे भी नज़र आते हैं। डॉ दीपा गुप्ता की प्रकाशित शोध पुस्तक 'खानखाना रहीम' से गुज़रते हुए महसूस हुआ कि यह पुस्तक सृजनात्मकता का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। सौ से अधिक किताबों के अध्ययन, मनन और अनुशीलन से डॉ दीपा गुप्ता ने लोक कवि खानखाना रहीम का जो व्यक्तित्व निर्मित किया है वह बेमिसाल और विलक्षण है। उल्लेखनीय है कि रहीम के कवि रूप के साथ साथ दीपा जी ने उनके शौर्य और पराक्रम वाले रूप को भी प्रमुखता से सामने रखा है।
अब्दुर्रहीम खानखाना अपनी काव्यात्मक उपलब्धियों के ज़रिए आज भी भारतीय जनमानस में रचे बसे हैं। दीपा गुप्ता अपने शोध में इस तथ्य को सामने लाती हैं कि खानखाना रहीम ने अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत, ब्रज, अवधी आदि कई भाषाओं में काव्य रचना की। नीति, भक्ति, श्रृंगार और जीवन दर्शन से समृद्ध अपने दोहों के लिए रहीम आज भी लोक स्मृति का हिस्सा बने हुए हैं। लोक भाषा में लोक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले उनके दोहे आज भी बात बात में उद्धृत किए जाते हैं-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय
टूटे तो फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ि जाय
रहीम जिस तरह हमारी परंपरा और संस्कृति से जुड़े लोक नायकों को दोहे का कथ्य बनाते हैं वह अद्भुत है- थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घट जाहिं गिरिधर-मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं दूध में मिश्री की तरह रहीम भारतीय समाज में घुल मिल गए थे। कृष्ण भक्त रहीम ने आम आदमी की सोच से अपना रिश्ता जोड़ लिया था। उन्होंने कई ऐसे दोहे रचे जो आज भी भारतीय समाज में आचरण और व्यवहार की कसौटी माने जाते हैं-

रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राख्यो गोय सुनि इठलइहैं लोग सब, बांट न लेइहैं कोय टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ताहार
डॉ दीपा गुप्ता ने अपनी इस शोध पुस्तक के ज़रिए रेखांकित किया है कि जीवन के अंतिम दिनों तक रहीम को बार-बार युद्ध में शामिल होना पड़ा। वे बार-बार शाही खानदान के सदस्यों के छल कपट का शिकार हुए। कई बार उन्हें गंभीर मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा। जहांगीर के शासनकाल में रहीम को उपेक्षा और अनादर के दिन देखने पड़े। ऐसी विषम परिस्थितियों में रहते हुए रहीम ने किस तरह लगातार काव्य सृजन किया यह हैरत की बात है। रहीम अपने संगीत प्रेम के लिए भी विख्यात हुए।

खानखाना रहीम ने परंपरा से प्राप्त विविध काव्य विधाओं में काव्य रचना के अलावा बरवै छंद में 'बरवै नायिका भेद' लिखा। उनकी यह कृति काफ़ी पसन्द की गई। रहीम क़लम और तलवार दोनों के धनी थे। वे हुमायूं के विश्वासपात्र और अकबर के संरक्षक बैरम खां के सुपुत्र थे। सोलह साल की उम्र में सम्राट अकबर के सेनापति के रूप में रहीम रण क्षेत्र में सक्रिय हो गए थे। युवावस्था में ही गुजरात युद्ध में अदभुत शौर्य का परिचय देने के बाद उनको खानखाना की उपाधि प्रदान की गई थी।
जीवन के आख़िरी दिनों में खानखाना रहीम लाहौर में थे। वे आख़िरी सांस दिल्ली में लेना चाहते थे। लाहौर से दिल्ली पहुंचने पर सन् 1627 में लगभग 72 वर्ष की उम्र में रहीम का प्राणांत हो गया। दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के पास खानखाना रहीम की कब्र मौजूद है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में आगा खां ट्रस्ट फॉर कल्चर ने इसके पुनरुद्धार की ज़िम्मेदारी ली है। ट्रस्ट के प्रयास से रहीम के मकबरे को नया स्वरूप प्राप्त हुआ है।
डॉ दीपा गुप्ता संभल (उप्र) की मूल निवासी हैं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा के एक कॉलेज में विगत सोलह साल से हिंदी पढ़ाती हैं। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनके शोध, लेख, कहानी और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता है। खानखाना रहीम पर यह शोध कार्य उन्होंने 23 वर्ष की उम्र में किया था। किताब कुछ समय पहले प्रकाशित हुई। दीपाजी के अनुसार रहीम का जीवन जैसा गरिमामय, आदर्श और विराट था उनका काव्य भी उतना ही उदात्त एवं मंगलमय है। उसमें अनुभूति, सरसता और अभिव्यंजना तीनों का ही उदात्त रूप प्राप्त होता है।

रहीम का जन्म 17 दिसंबर 1556 को हुआ था। पिता बैरम ख़ान की अप्रत्याशित मृत्यु होने पर 4 साल के अबोध बालक रहीम को आगरा बुलाकर अकबर ने उनकी शिक्षा दीक्षा का समुचित प्रबंध किया। रहीम ने अपने गुरुजनों से अरबी, फारसी, तुर्की और संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। रहीम की दानशीलता के अनेक क़िस्से लोक में किवदंती बन गए।
दान देते समय रहीम अपनी आंखें नीची रखते थे क्योंकि उनके मन में कीर्ति की कामना नहीं थी। एक बार गंग कवि ने उनसे पूछा-
सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी दैन
ज्यों ज्यों कर ऊंचा करो, त्यों त्यों नीचे नैन
इस पर रहीम ने उत्तर दिया-
देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन
खानखाना रहीम कवि, सेनानी, संगीत रसिक और कला पारखी होने के साथ साथ दीन दुखियों के मददगार थे। सरल सहज भाषा और आत्मीय शैली में लिखी गई डॉ दीपा गुप्ता की यह कृति रहीम के व्यक्तित्व और कृतित्व को बड़े सलीक़े और सुरुचिपूर्ण तरीके से हमारे सामने उद्घाटित करती है। इस कृति के ज़रिए डॉ दीपा गुप्ता ने यह साबित किया है कि अगर अध्ययन, चिंतन, लगन और समर्पण से शोध किया जाए तो वह साहित्य की एक अमूल्य धरोहर बन सकता है। इस सुंदर कृति के लिए मैं डॉ दीपा गुप्ता को बधाई देता हूं। उम्मीद करता हूं कि वे सृजनात्मकता के इस सिलसिले को आगे भी जारी रखेंगी। इसी नेक ख़्वाहिशात के साथ-
आपका-

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा,
गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुंबई- 400063, 98210-82126

प्रकाशक :

हिंदुस्तानी भाषा अकादमी,
3675 राजा पार्क, रानी बाग दिल्ली-1100 34
फ़ोन : 98735 56781, 99680 97816
मूल्य : 200 रूपए

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

मुंबई के बॉलीवुड में गीतकार माया गोविंद


बॉलीवुड में गीतकार माया गोविंद 

माया गोविंद के सिने गीतों में लखनऊ के महकते लफ़्ज़ों की ख़ुशबू है। ज़बान को बरतने का सलीक़ा है। जज़्बात को नफ़ासत के साथ पेश करने का हुनर है। इसी लिए उनके गीत सुनने वालों को तरबतर कर देते हैं। उनके गीत माहौल में रस घोलते और मुहब्बत की ज़बान बोलते दिखाई पड़ते हैं। उनमें अदब सांस लेता है और कविता की धड़कन सुनाई देती है। अपनी इसी ख़ासियत के कारण माया गोविंद के सिने गीत संगीत रसिकों के साथ बड़ी जल्दी एक आत्मीय रिश्ता क़ायम कर लेते हैं। 

गीतकार माया गोविंद का मुंबई में आगमन 1971 में हुआ। इसी साल फ़िल्म निर्माता ताराचंद बड़जात्या ने कवियों को लेकर एक फ़िल्म 'कवि सम्मेलन' बनाई थी। इसमें माया गोविंद को भी शामिल किया गया। सन् 1973 में भूपेन हज़ारिका के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'आरोप' में उन्हें पहली बार गीत लिखने का मौक़ा मिला। माया गोविंद का लिखा पहला गीत लता और किशोर की आवाज़ में बेहद लोकप्रिय हुआ- 

नैनो में दर्पण है, दर्पण में कोई, 
देखूं जिसे सुबह शाम 
बोलो जी बोलो, ये राज़ खोलो, 
हम भी सुनें दिल को थाम 

निर्माता-निर्देशक रामानंद सागर के आमंत्रण पर फ़िल्म 'जलते बदन' (1973) के लिए माया गोविंद ने गीत लिखे। इस फ़िल्म के संगीतकार थे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। सारे गीत पसंद किए गए। एक गीत सुपरहिट हुआ- 

वादा भूल न जाना, वादा भूल न जाना 
वो जाने वाले लौट के आना 

माया गोविंद के गीतों से सजी हुई फ़िल्म 'क़ैद' (1975) ने रजत जयंती मनाई। इस फ़िल्म में उनके एक गीत को लता मंगेशकर ने अपने बीस श्रेष्ठ गीतों की सूची में शामिल किया। यह गीत है- 

यहां कौन है असली, कौन है नक़ली 
अपने हैं या बेगाने, ये तो राम जाने 

आलोचना के घेरे में गीतकार माया गोविंद 

निर्माता प्रकाश मेहरा की फ़िल्म 'दलाल' (1993) में लिखे एक गीत के लिए माया गोविंद को आलोचना भी झेलनी पड़ी। ख़ुद माया गोविंद का कहना है कि इस तरह के गीत लिखने से लोकप्रियता तो मिलती है लेकिन मन को संतोष नहीं मिलता। कभी-कभी ऐसे गीत इसलिए ज़रूरी हो जाते हैं कि फ़िल्में आम जनता को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। अगर वह बुद्धिजीवियों को भी पसंद आ जाएं तो यह उनकी अतिरिक्त उपलब्धि है। 

हमारे लोकगीतों में तोता, मैना, कबूतर आदि पक्षियों के माध्यम से संकेतों में बात की जाती है। फ़िल्म दलाल के इस 'अटरिया' गीत में भी अश्लीलता से बचते हुए संकेतों में ही सारी बातें कही गई हैं। मगर इस गीत का फिल्मांकन ऐसे भड़कीले तरीक़े से किया गया कि लोगों को उसमें दूसरा अर्थ भी दिखाई पड़ने लगा। फ़िल्म 'दलाल' में माया गोविंद ने एक बढ़िया भजन लिखा। उनका एक और दिलकश गीत भी इस फ़िल्म में शामिल है- 

ठहरे हुए पानी में कंकर न मार सांवरे 
मन में हलचल सी मच जाएगी बावरे 

फ़िल्म 'दलाल' में माया गोविंद के इस सुंदर गीत का ज़िक्र नहीं हुआ मगर 'अटरिया' वाले गीत को लेकर काफ़ी चर्चा हुई। सिनेमा में एक गीतकार को पात्र और कहानी के अनुसार ही गीत लिखने पड़ते हैं। यहां विशुद्ध साहित्य नहीं चलता। अगर गीतकार साहित्यिक गीत लिखने की ज़िद करे तो रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी। कभी-कभी अच्छी सिचुएशन आ जाती है तो गीतकार को अपनी रचनात्मकता दिखाने का अवसर मिल जाता है। फ़िल्म 'त्रिकोण का चौथा कोण' (1986) में माया गोविंद का एक गीत अपनी काव्यात्मकता के लिए काफ़ी सराहा गया- 

प्यार है अमृत कलश अंबर तले 
प्यार बांटा जाए जितना बांट ले 

फ़िल्मों में गीत लिखकर माया गोविंद को दौलत, शोहरत और सम्मान तीनों मिले। फ़िल्म गीत लेखन एक व्यवसाय है। जैसी मांग होती है वैसी पूर्ति करनी पड़ती है। बाज़ार में बिकने लायक़ माल अगर गीतकार के पास नहीं है तो वह बाज़ार से बाहर हो जाएगा। फ़िल्मों में आने से पहले ही माया गोविंद को एक कवयित्री के रूप में काव्य मंचों पर अपार लोकप्रियता हासिल हो चुकी थी। लखनऊ के रवींद्रालय सभागार में आयोजित एक कवि सम्मेलन में उन्हें अभिनेता भारत भूषण और निर्माता आर चंद्रा ने सुना। उनके गीत से प्रभावित होकर भारत भूषण ने अपनी फ़िल्म 'मेघ मल्हार' और आर चंद्रा ने 'मुशायरा' फ़िल्म में गीत लिखने का आमंत्रण दिया। इस आमंत्रण पर वे सन् 1972 में मुंबई आ गईं। 'मेघमल्हार' फ़िल्म कुछ कारणों से शुरू नहीं हो पाई। 'मुशायरा' फ़िल्म के लिए माया गोविंद ने दो गीत लिखे- 

हमें हुक्म था ग़म उठाना पड़ेगा 
इसी ज़िद में हमने जवानी लुटा दे 
सारी रतिया मचाए उत्पात 
सिपहिया सोने न दे 

आर चंद्रा के आकस्मिक निधन से 'मुशायरा' फ़िल्म का निर्माण रुक गया। बाद में उनके बेटे राकेश चंद्रा ने फ़िल्म 'मुट्ठी भर चावल' में दोनों गीतों का इस्तेमाल किया। निर्माता आत्माराम ने माया गोविंद को अपनी पांच फ़िल्मों में गीत लिखने का प्रस्ताव दिया। ये फ़िल्में थीं- आरोप, क़ैद, आफ़त, ख़ंजर और प्यार के राही। फ़िल्म ‘क़ैद’ के सारे गाने चले और इस फ़िल्म ने सिल्वर जुबली मनाई। फ़िल्म 'आरोप' के गीतों के लिए उत्तर प्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ ने माया गोविंद को सन् 1976 में सर्वश्रेष्ठ गीतकार का सम्मान दिया। 

कशमकश, हीरा और पत्थर, अलबेली, बावरी आदि फ़िल्मों के बाद सन् 1979 में राजश्री प्रोडक्शंस की फ़िल्म ‘सावन को आने दो’ के लिए माया गोविंद ने गीत लिखे। इसमें एक गीत के लिए उन्हें ‘फ़िल्म वर्ल्ड’ जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला। गीत के बोल थे- 

कजरे की बाती अंसुवन के तेल में 
आली मैं हार गई अंखियन के खेल में 

राजश्री प्रोडक्शंस की फ़िल्म ‘पायल की झंकार’ (1980) में माया गोविंद को अच्छे गीत लिखने के मौक़े मिले। येसुदास की आवाज में एक गीत बहुत पसंद किया गया- ‘देखो कान्हा नहीं मानत बतिया’। राजश्री की फ़िल्म ‘एक बार कहो’ (1980) में भी माया गोविंद का एक गीत काफ़ी पसंद किया गया- 

चार दिन की ज़िंदगी है जा रहे हैं दिन 
दो गए तेरे मिलने से पहले दो गए तेरे बिन 
प्रिये कब मिलन होगा 
माया गोविंद को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का सम्मान 

गीतकार माया गोविंद की कामयाबी का सफ़र लगातार जारी रहा । सन् 1982 में फ़िल्म ‘ये रिश्ता टूटे ना’ में उनका शीर्षक गीत इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि उत्तर प्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ ने दोबारा उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का सम्मान दिया। इसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी जैसे प्रतिष्ठित फ़िल्मकार ने उनसे ‘रंग बिरंगी’ (1983) और ‘झूठी’ (1985) फ़िल्मों के गीत लिखवाए। फ़िल्म ‘झूठी’ में एक बार फिर जनता ने उनका गीत गुनगुनाया- ‘चंदा देखे चंदा तो चंदा शरमाय’। 

फ़िल्म रज़िया सुल्तान (1983) में माया गोविंद ने 'शुभ घड़ी आई' गीत लिखा। संगीतकार ख़य्याम ने ग्यारह श्रेष्ठ गायकों की आवाज़ में यह गीत रिकॉर्ड किया। प्यार के राही, ख़ुशनसीब, तक़दीर, सजाय दे मांग हमार, सदक़ा कमली वाले का, बेटी, हमसे है ज़माना, मैं और मेरा हाथी, जीत हमारी आदि फ़िल्मों में लिखने के बाद माया गोविंद ने फ़िल्म ‘पिघलता आसमान’ (1985) के गीत लिखे। इस फ़िल्म में उनका लिखा एक गीत आज भी युवा दिलों की पसंद बना हुआ है- 

तेरी मेरी प्रेम कहानी 
किताबों में भी न मिलेगी 

कामयाबी के इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए माया गोविंद ने त्रिकोण का चौथा कोण, पत्तों की बाज़ी, कहानी फूलवती की, मां-बेटी, ईमानदार आदि फ़िल्मों के गीत लिखे। मनोज कुमार की फ़िल्म ‘कलियुग और रामायण’ (1987) में उनके एक गीत ने धूम मचाई- 

क्या क्या न सितम हाय ढाती हैं चूड़ियां 
जब भी किसी कलाई में आती हैं चूड़ियां 

सन् 1988 में राम गोविंद के निर्देशन में एक फ़िल्म बनी ‘तोहफ़ा मोहब्बत का’। इस फिल्म में गीतकार माया गोविंद ने अभिनेता गोविंदा की माँ की भूमिका निभाई। इस फ़िल्म के संगीतकार हैं अनूप जलोटा। इस फ़िल्म के एक गीत के लिए माया गोविंद को सुर सिंगार संसद ने सम्मानित किया। इस गीत के बोल हैं- 

प्रेम का ग्रंथ पढ़ाऊँ सजनवा 
जो अक्षर मैंने कभी न बांचे 
उनके अर्थ बताऊँ सजनवा 

माया गोविंद की कामयाबी के इस सिलसिले को मेरे बाद, सजना साथ निभाना, गलियों का बादशाह, मौत की सज़ा, यमुना किनारे, शत्रुता, नया शहर, अनमोल, आग का तूफ़ान, आजा मेरी जान, पुलिसवाला गुंडा, कर्मवीर, रफ़ूचक्कर, बाल ब्रह्मचारी, तांडव, मैदाने जंग, क़ैदी नंबर 36, मृत्युंजय, अमानत, स्मगलर, मिस्टर श्रीमती, रात के गुनाह, ज़ालिम जमाना, प्रेम योग आदि फ़िल्मों ने आगे बढ़ाया। 

मशहूर चित्रकार एम एफ हुसैन की फ़िल्म 'गजगामिनी' (2000) के गीतों को लिखने का काम माया गोविंद को सौंपा गया था। इस फ़िल्म के लिए माया जी ने चार गीत लिखे। सुप्रसिद्ध संगीतकार भूपेन हजारिका ने इन गीतों को संगीतबद्ध किया था। हुसैन साहब के पब्लिसिटी स्टंट के चलते लोगों का ध्यान फ़िल्म के गीतों की ओर कम ही गया। श्याम बेनेगल की फ़िल्म हरी भरी (2000) के मधुर गीतों के लिए भी माया गोविंद की सराहना की गई। राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कल्पना लाज़मी की फ़िल्म 'दमन' (2001) के सातों गीत माया गोविंद की क़लम से निकले हैं। गीतकार माया गोविंद ने 350 फिल्मों में 750 से अधिक गाने लिखे हैं । वैसे तो उनके अनेक गीत पसंद किए गए पर फ़िल्म 'टक्कर' (1980) के गीत को बेहद लोकप्रियता मिली-

आंखों में बसे हो तुम, तुम्हें दिल में छुपा लूंगा 
जब चाहूँ तुम्हे देखूं,आईना बना लूंगा

कुणाल गांजावाल की मधुर आवाज़ में फ़िल्म 'शीशा' (1986) का गीत लोकप्रियता के चार्ट में ऊपर रहा-

यार को मैंने, मुझे यार ने, सोने न दिया 
प्यार ही प्यार किया, प्यार ने, सोने न दिया

संगीत रसिकों का पसंदीदा गीत है फ़िल्म 'गलियों का बादशाह' (1989) का ये गीत-

मुझे ज़िन्दगी की दुआ न दे, मेरी ज़िंदगी से बनी नही 
कोई ज़िन्दगी पे करे यक़ीं, मेरी ज़िंदगी से बनी नहीं


माया गोविंद को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड 

माया गोविंद के ग़ैर फ़िल्मी गीतों के भी कई अलबम जारी हुए। कई धारावाहिकों में भी उन्होंने गीत लिखे। द्रोपदी और श्रीकांत जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों के अलावा माया गोविंद ने रामायण धारावाहिक (पाँच एपिसोड) के गीत लिखे। अभिनेत्री हेमा मालिनी के लिए लिखा गया उनका बैले ‘मीरा’ बहुत पसंद किया गया। वीनस संगीत कंपनी ने माया गोविंद की कविताओं का एक अलबम 'संगीत सुधा' नाम से जारी किया। फ़िल्म संगीत में रचनात्मक योगदान के लिए सन् 1999 में माया गोविंद को फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन ने लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया। 

लखनऊ की मूल निवासी कवयित्री माया गोविंद ने मशहूर कथक गुरु शंभु महाराज से कथक नृत्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। भातखंडे संगीत विद्यालय से उन्होंने गायन सीखा है। कैरियर के शुरुआती दिनों में माया गोविंद आकाशवाणी लखनऊ में स्टाफ आर्टिस्ट और ड्रामा आर्टिस्ट थीं। दर्पण संस्था के ज़रिए उन्होंने दस साल तक रंगमंच पर भी काम किया। 'ख़ामोश अदालत जारी है' नाटक में श्रेष्ठ अभिनय के लिए सन् 1970 में माया गोविंद को संगीत नाटक अकादमी का बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड प्राप्त हुआ। 

फ़िल्मी गीतों में बढ़ती अश्लीलता के सवाल पर माया गोविंद कहती हैं- गीतों से ज़्यादा अश्लीलता तो गीतों के फिल्मांकन में है। ऐसे कई गीत हैं जो सुनने में तो अश्लील नहीं लगते लेकिन पर्दे पर दिखाए जाने में अश्लील लगते हैं। इसके लिए सबसे बड़ा दोषी हमारा सेंसर बोर्ड है। हम जब सिनेमा में गीत लिखते हैं तो हमें दर्शकों के घर परिवार का और अपने बच्चों का भी ख़्याल रहता है। 

माया गोविंद की अब तक एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हुई हैं। मुंबई विश्वविद्यालय और पुणे विश्व विद्यालय में उनके साहित्य पर पीएचडी हो रही है। देश-विदेश में जो उन्हें जो यश और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई वह दुर्लभ है। सर्दियों के आगोश में जैसे धूप और बदली के दामन में जैसे बूँद पनाह लेती है, उसी तरह कवयित्री माया गोविंद के दिल में प्रेम की पीर बसी हुई है। यह पीर उनकी भाग्य रेखा पर लालिमा की तरह उपस्थित है- 

जैसे कोई सर्दियों में धूप को छुपा ले 
जैसे कोई बदली से बूँद को चुरा ले 
वैसे मैंने भी चुरा ली प्यार की ये पीर 
सेंदुर-सेंदुर हो गई मेरे भाग्य की लकीर 


कवयित्री माया गोविंद का 80वां जन्मदिन 17 जनवरी 2020 को जुहू में आयोजित काव्य संध्या में मनाया गया। चित्र में (बाएं से) आपके दोस्त देवमणि पांडेय , संध्या रियाज़, माया गोविंद, रामगोविंद, गुलशन मदान, देवेंद्र काफ़िर और शेखर अस्तित्व।

कवयित्री माया गोविंद के लिए प्रेम भले ही मोक्ष का मार्ग हो लेकिन अपने गीतों में उन्होंने जीवन और समाज के अहम् सवालों के जवाब ढूँढ़ने की कोशिश की। माया गोविंद हिंदी काव्य मंच की सबसे लोकप्रिय कवयित्री हैं। पिछले साठ साल से वे हिंदी काव्य मंच पर सक्रिय हैं। फ़िलहाल वे जीवंती फाउंडेशन के माध्यम से कला और साहित्य की सेवा कर रहीं हैं। 

शुक्रवार 9 अक्टूबर 2020 को कवयित्री माया गोविंद से मेरी बातचीत हुई। बेटे अजय, बहू शिवाली, पौत्र विशेष और पौत्री सुहानी के साथ माया गोविंद और राम गोविंद अपने घर में स्वस्थ और प्रसन्न हैं। 17 जनवरी 1940 कवयित्री माया गोविंद की जन्म तारीख़ है। उन्होंने अपना 80वां जन्मदिन 17 जनवरी 2020 को जुहू में आयोजित एक काव्य संध्या में मनाया था। कवयित्री माया गोविंद ने बताया कि वे 17 जनवरी 2021 को अपना 81वां जन्मदिन आप सबके साथ मनाना चाहती हैं। आइए उस दिन का इंतज़ार करें जब हम सब मिलकर कहेंगे- "जन्मदिन बहुत-बहुत मुबारक हो माया जी।"


आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा,
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुम्बई-400063, M : 98210 82126
devmanipandey.blogspot.com

शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

फ़िल्म सर के लेखक प्रो जगदंबा प्रसाद दीक्षित

 

फ़िल्म सर के लेखक जय दीक्षित 

हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार जगदंबा प्रसाद दीक्षित उर्फ़ जे.पी दीक्षित का फ़िल्म ‘सर’ (1993) के लेखक के रूप में जय दीक्षित नामकरण उनके शिष्य महेश भट्ट ने किया। दीक्षित जी सेंट ज़ेवियर कॉलेज मुंबई में हिंदी विभागाध्यक्ष थे। महेश भट्ट उनके छात्र रह चुके हैं। फ़िल्म ‘सर’ में निरर्थक और निर्दोष लोगों की हत्याओं के विरुद्ध एक सशक्त प्रतिवाद है। कथावस्तु, पात्रों और घटनाओं में ताज़गी है। यह सम्वेदनशील और हृदयस्पर्शी फ़िल्म काफ़ी पसंद की गई। कुल मिलाकर यह एक ऐसी ख़ूबसूरत और मनोरंजक फ़िल्म है जिसका संपूर्ण प्रभाव बहुत आक्रामक और मर्मस्पर्शी है। 

दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का पहला अध्याय 

अध्यापन के क्षेत्र में आने से पहले जे.पी.दीक्षित नागपुर के एक पत्र में संपादक थे। उस समय उन्होंने विमल राय और केदार शर्मा के लंबे-लंबे इंटरव्यू किए थे। उसी समय सन् 1959 में वे फ़िल्मकार देवेंद्र गोयल के संपर्क में आए। गोयल जी ने सन् 1964 में अपनी फ़िल्म ‘दूर की आवाज़’ में एक लंबी भूमिका देकर पत्रकार जे.पी.दीक्षित को अभिनेता दीक्षित बना दिया। कुछ समय बाद फ़िल्मों के इस पहले अध्याय पर जे.पी.दीक्षित ने विराम लगा दिया। वे सीपीएमएल के क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए। गिरफ़्तारी से बचने के लिए जे.पी.दीक्षित को कुछ समय महाराष्ट्र की सीमा पर आदिवासियों के बीच रहना पड़ा। सन् 1970 में दीक्षित जी को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर षड्यंत्र, हत्या, राजद्रोह आदि कई अभियोग लगाए गए। आरोप साबित न होने पर डेढ़ साल बाद उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। आपातकाल के समय जे.पी.दीक्षित कनाडा में फंस गए। वहां से किसी तरह नेपाल पहुंचे। नेपाल से उन्होंने पर्चे निकाले। सन् 1972 से 1982 तक उन्होंने पीपुल्स पावर नामक अंग्रेजी पत्र का संपादन किया। 


दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का दूसरा अध्याय 

आपातकाल के बाद जे.पी.दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का दूसरा अध्याय फ़िल्मकार विनोद पांडेय के साथ शुरू हुआ। विनोद पांडेय भी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में उनके  छात्र थे। सन् 1980 में फ़िल्म 'एक बार फिर' बनाने वाले विनोद पांडेय ने फ़िल्म ‘ये नज़दीकियां’ (1982) में जे.पी.दीक्षित से एक गीत लिखवाया- 

 इक गीत लिखा है जो तुमको सुनाती हूँ 
सोए हुए रंगीं ख़्वाबों को सांसों से सजाती हूँ 

रघुनाथ सेठ द्वारा संगीतबद्ध दीक्षित जी का यह प्रेम गीत मुझे बहुत पसंद है। इस गीत को शबाना आज़मी और मार्क ज़ुबैर पर फ़िल्माया गया है। इस फ़िल्म में जे.पी.दीक्षित ने एक लघु भूमिका भी अभिनीत की। इसके बाद उन्होंने विनोद पांडेय के साथ सन् 1988 में ‘एक नया रिश्ता’ फ़िल्म लिखी। विनोद पांडेय के सीरियल ‘एयर होस्टेस’ के कुछ एपिसोड भी जे.पी.दीक्षित ने लिखे। वीरेंद्र संथालिया की फ़िल्म ‘कसमकश’ की पटकथा और संवाद दीक्षित जी ने लिखे।

दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का तीसरा अध्याय 

जे.पी. दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का तीसरा अध्याय महेश भट्ट के साथ शुरू हुआ। फ़िल्म ‘सारांश’ (1984) बनाने से पहले महेश भट्ट ने जे.पी.दीक्षित को यह कहानी सुनाई। कहानी दीक्षित जी को पसंद आई मगर काम करने की बात नहीं हुई। जुहू के सेंटॉर होटल में फ़िल्म ‘आशिक़ी’ (1990) की शूटिंग थी। महेश भट्ट से वहीं जे.पी.दीक्षित की मुलाक़ात हुई। इस बार महेश भट्ट ने जे.पी.दीक्षित के सामने साथ काम करने का प्रस्ताव रखा। महेश भट्ट ने ‘अधूरे लोग’ नामक एक विषय पर चर्चा की। दीक्षित जी को उसका मुख्य पात्र पसंद नहीं आया तो उन्होंने दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसी दौरान जे.पी.दीक्षित ने अरुण कौल के साथ फ़िल्म ‘दीक्षा’ (1991) लिखी। फ़िल्म ‘दीक्षा’ में जे.पी.दीक्षित ने सर मुड़ाकर अभिनय भी किया।

सन् 1993 में महेश भट्ट ने एक और आइडिया बताया- ‘फिर तेरी कहानी याद आई’। जे.पी.दीक्षित को कहानी पसंद आई तो उन्होंने यह फ़िल्म लिख डाली। इसी दौरान दीक्षित जी ने महेश भट्ट को एक कॉलेज प्रोफ़ेसर और अंडरवर्ल्ड डॉन के आपसी संबंधों पर आधारित फ़िल्म ‘सर’ की कहानी सुनाई। अनपढ़ डॉन की पत्नी मर चुकी है। लड़की बिगड़ी हुई है। बाप को दुश्मन समझती है। अपनी लड़की को सुधारने के लिए डॉन एक प्रोफ़ेसर को बुलाता है। वहां जाने पर प्रोफ़ेसर को पता चलता है कि ख़राबी लड़की में नहीं उसके बाप में है। लड़की और प्रोफ़ेसर निकट आ जाते हैं। बाप और प्रोफ़ेसर में टकराव होता है। महेश भट्ट को यह कहानी जँच गई। उन्होंने फ़िल्मकथा के रूप में इस प्लाट को विकसित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए। दीक्षित जी ने मेहनत से पटकथा तैयार की। इस पर तुरंत काम शुरू हुआ और फ़िल्म ‘सर’ (1993) तैयार हो गई। इसी समय ज़ी टीवी का प्रस्ताव लेकर जानी बख़्शी आ गए तो 'फिर तेरी कहानी याद आई’ फ़िल्म भी बन गई। जे.पी. दीक्षित ने महेश भट्ट के सहायक विक्रम भट्ट की फ़िल्म ‘जानम’ (1992) भी लिखी। 

बंगलौर में फ़िल्म ‘सर’ की शूटिंग के दौरान महेश भट्ट ने एक और आइडिया सुनाया। जे.पी.दीक्षित ने इस पर फ़िल्म ‘नाराज़ (1994) लिखी। महेश भट्ट का एक और विषय उन्हें पसंद आया तो उन्होंने फ़िल्म ‘नाजायज़’ (1995) लिखी। जे.पी.दीक्षित का कहना था कि ‘अर्थ’ (1982) और ‘सारांश’ (1984) ने एक निर्देशक के रूप में महेश भट्ट को प्रतिष्ठा ज़रूर दिलाई लेकिन आर्थिक फ़ायदा नहीं हुआ। महेश भट्ट ने बहुत जल्दी यह समझ लिया कि सार्थक और कमर्शियल सिनेमा के कांबीनेशन के बिना मार्केट में टिकना मुश्किल है। इसलिए वे लगातार व्यावसायिक फ़िल्में बनाते रहे। फ़िल्म ‘सर’ (1993) एक ऐसी फ़िल्म है जो ‘सारांश’ (1984) और सड़क’ (1991) की कांबीनेशन है। उसमें गुणवत्ता ‘सारांश’ जैसी है लेकिन ‘सड़क’ की तरह आम आदमी को थिएटर तक खींच लाने की शक्ति है। ‘नाराज़ (1994) और ‘नाजायज़ (1995), भी इसी शैली की फ़िल्में हैं। 

महेश भट्ट की आत्मकथा पर आधारित फ़िल्में 

जीवन के आख़िरी दिनों में अभिनेत्री परवीन बॉबी की विक्षिप्तावस्था के चर्चे अख़बारों में प्रकाशित हुए। फ़िल्म 'तेरी कहानी याद आई' की नायिका (पूजा भट्ट) को भी फ़िल्म में पागलपन के दौरे पड़ते हैं। बांद्रा के रंग शारदा परिसर में 'फ़िल्म तेरी कहानी याद आई' की शूटिंग चल रही थी। जे.पी. दीक्षित ने मुझे गपशप के लिए बुलाया। वहां महेश भट्ट से मुलाक़ात हुई। मैंने पूछा- क्या यह फ़िल्म आपकी आत्मकथा पर आधारित है? महेश भट्ट ने जवाब दिया- "इस फ़िल्म में मेरे जीवन के और परवीन बॉबी के जीवन के कुछ अंश शामिल हैं मगर यह मेरी आत्मकथा नहीं है। बाक़ी दीक्षित जी आपको बताएंगे। 

जे.पी.दीक्षित ने कहा- ‘सिर्फ़ आत्मकथा पर कोई फ़िल्म नहीं बनाई जा सकती क्योंकि उसमें कई चरित्रों और उनके इर्द-गिर्द घटनाओं का ताना बाना बहुत ज़रूरी हो जाता है। इससे उसका पूरा स्वरूप ही बदल जाता है। हां, आवश्यकता अनुसार फ़िल्म में निजी जीवन के कुछ प्रसंग डाले जा सकते हैं। फ़िल्म ‘सर’ में मेरे भी जीवन से जुड़े कुछ ख़ास प्रसंग हैं लेकिन यह मेरी आत्मकथा नहीं है। इसी तरह फिर ‘तेरी कहानी याद आई’ में महेश भट्ट के जीवन से जुड़े कुछ प्रसंग हैं लेकिन यह उनकी आत्मकथा नहीं है। महेश भट्ट के पिता नाना भट्ट की दो पत्नियां थी। महेश भट्ट और मुकेश भट्ट उनकी दूसरी पत्नी के पुत्र हैं। एक अंग्रेजी पत्रिका से बातचीत में महेश भट्ट ने ख़ुद को नाजायज़ औलाद कह दिया था। इसी के चलते उनकी ‘जनम’ से लेकर ‘नाजायज़’ तक को आत्मकथात्मक फ़िल्म के रूप में प्रचारित किया गया। 

मीना कुमारी ने दीक्षित को अभिनेता बनाया 

जे.पी.दीक्षित के अनुसार अगर फ़िल्म में अभिनेता के रूप में पहचान मिल जाय तो लेखक निर्देशक कुछ भी बनना आसान होता है। लम्बे क़द के जे.पी.दीक्षित को अभिनय का प्रस्ताव अचानक मिला। फ़िल्मकार देवेंद्र गोयल से अभिनेत्री मीना कुमारी ने जे.पी.दीक्षित के लिए सिफ़ारिश की थी। एक दिन वे देवेंद्र गोयल के साथ मीना कुमारी की फ़िल्म ‘चिराग कहां रोशनी कहां’ (1959) के सेट पर गए थे। तब मीना कुमारी ने देवेंद्र गोयल से कहा- इनसे अभिनय करवाइए। जे.पी.दीक्षित के अनुसार मीना कुमारी ने ही धर्मेंद्र, मनोज कुमार, गुलज़ार आदि कई लोगों को प्रमोट किया था। इस मामले में वे महान कलाकार थीं। उस समय देवेंद्र गोयल ‘विधाता’ फ़िल्म बना रहे थे। बाद में इसका नाम ‘प्यार का सागर’ (1961) हो गया। इस फ़िल्म के ज़रिए वे जे.पी. दीक्षित को अभिनेता की पहचान दिलाना चाहते थे। इसके विज्ञापनों में जे.पी. दीक्षित का नाम प्रमुखता से प्रकाशित हुआ। लेकिन अभिनेता राजेंद्र कुमार ने इसकी कहानी बदलवा दी तो यह फ़िल्म देवेंद्र गोयल की पहली फ़िल्म ‘आंखें’ की रीमेक हो गई। इस बदलाव से बतौर अभिनेता जे.पी.दीक्षित का रोल ख़त्म हो गया। इसके बाद देवेंद्र गोयल ने फ़िल्म ‘दूर की आवाज़’ (1964) में जॉय मुखर्जी और सायरा बानो के साथ जे.पी.दीक्षित को एक लंबी भूमिका दी। फ़िल्म अच्छी थी मगर इसे व्यावसायिक सफलता नहीं मिली। देवेंद्र गोयल ने जब ‘दस लाख’ (1966) और ‘एक फूल दो माली’ (1969) आदि फ़िल्में बनाईं तो उस समय जे.पी. दीक्षित सीपीएमएल के क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय हो गए थे। देवेंद्र गोयल से उनका संपर्क टूट गया था। 

साहित्य से अलग सिनेमा एक दृश्य माध्यम 

जे.पी.दीक्षित के अनुसार साहित्य से अलग सिनेमा एक दृश्य माध्यम है। लिखित शब्दों की अपनी सीमाएं हैं लेकिन वे अधिक समय तक ज़िंदा रहते हैं। साहित्य एक समय में सिर्फ़ एक ही या कुछ लोगों को ही संबोधित होता है। फ़िल्म एक साथ बहुत बड़े जनसमुदाय को संबोधित होती है। साधारण आदमी अमूर्त और गूढ़ चीज़ें नहीं समझता। उसके सामने मू्र्त, ठोस और नग्न सत्य आना चाहिए। फ़िल्म बहुत महंगा माध्यम है। इसलिए ऐसे दबावों के साथ लेखक को समझौता करना अनिवार्य हो जाता है। वह हमेशा उच्च स्तरीय और सुरुचिपूर्ण फ़िल्में ही देगा इस कसौटी पर खरे उतरने की उम्मीद एक फ़िल्म लेखक से नहीं की जानी चाहिए। साहित्य के बल पर ज़िंदगी नहीं चल सकती। अब साहित्य लेखन पार्ट टाइम करना पड़ता है। लेखक की इस स्थिति के लिए प्रकाशक और सरकारी व्यवस्था ज़िम्मेदार हैं। 
प्रेम के बारे में जे.पी. दीक्षित की अवधारणा 

एक बार मैंने जे.पी. दीक्षित से प्रेम के संबंध में उनकी राय पूछी। वे संस्कृत साहित्य की उस प्रेम परंपरा के हिमायती थे जिसमें प्रेम का मतलब काम यानी शारीरिक सुख होता है। जे.पी. दीक्षित की मान्यता है कि बिना सेक्स के प्रेम हो ही नहीं सकता। उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा था- अगर एक स्त्री में और एक पुरुष में प्रेम है और दोनों में शारीरिक संबंध नहीं होता है तो उन्हें ख़ुद को डॉक्टर को दिखाना चाहिए। लीजिए प्रेम पर दीक्षित जी के निजी विचार प्रस्तुत हैं। 

छायावादी प्रेम नितांत काल्पनिक और अमूर्त है। छायावादी कवियों में स्त्री पुरुष के प्रेम को लेकर अपराध बोध था। उन्होंने रहस्यवाद का पुट देकर इसे आत्मा परमात्मा का प्रेम बना दिया। वास्तव में प्रेम ऐसा नहीं होता है। स्त्री पुरुष के प्रेम में शारीरिकता को हटाया नहीं जा सकता। जो आध्यात्मिक प्रेम की बात करते हैं वे पाखंड करते हैं। प्रकृति में सिर्फ़ वासना है प्रेम है ही नहीं। वासना वहां प्रजनन का उद्देश्य है। सामाजिक विकास के साथ संस्कृति ने स्त्री पुरुष के ऐसे स्वाभाविक संबंधों को प्रेम का नाम दे दिया। शरीर के स्तर पर प्रेम स्वैराचार नहीं है। वह ज़्यादा सुंदर और सात्विक है। प्रेम करने वाले व्यक्तियों के बीच आग्रह, समझदारी और आत्मीयता ज़रूरी है। 

हमारे प्राचीन साहित्य में प्रेम शारीरिक और मांसल था। इस्लामिक संस्कृति के आगमन के साथ चिलमन देख कर आहें भरने वाला अमूर्त प्रेम आया। 'लैला मजनू' और 'शीरीं फ़रहाद' का प्रेम भारतीय अवधारणा नहीं है। दुष्यंत और शकुंतला का प्रेम भारतीय प्रेम है। शारीरिक और मांसल प्रेम में साथी की आवश्यकता ही विरह काव्य को जन्म देती है। आगे चलकर साहित्य में शारीरिकता को बुरा मानते हुए प्रेम को आध्यात्मिक बना दिया गया। 'उसने कहा था' जैसी कहानियों में प्रेम, त्याग और बलिदान का प्रतीक बन गया। प्रेमचंद की एक कहानी 'फ़ातिहा' में प्रेम का वास्तविक चित्रण हुआ है। शरतचंद्र ने प्रेम को ज्यादा महत्व नहीं दिया मगर नकारा भी नहीं। बचपन के निर्दोष आकर्षण से शुरू होने वाला देवदास का प्रेम वास्तव में प्रेम नहीं आदत है। 

संचार माध्यमों और भौतिकतावादी प्रभाव के कारण अब आत्मा परमात्मा का प्रेम हास्यास्पद हो गया है। प्रेम में अब शरीर प्रधान हो गया है। लड़के लड़कियां पहले एक दूसरे के शरीर से ही प्रभावित होते हैं। वे शरीर की कामना भी रखते हैं। शारीरिकता से रहित अमूर्त प्रेम अब संभव नहीं है। साहित्य समाज के समग्र रूप को लेकर चलता है। प्रेम भी इस समग्रता का एक अंग है। स्त्री पुरुष का प्रेम भले ही शरीर पर आधारित है मगर स्वैराचार मुझे स्वीकार नहीं है। प्रेम में रुचिओं, विचारों और भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव ज़रूरी है। एक दूसरे को शेयर करने की आत्मीयता हमें ऊपर उठाती है। वासना अपने आप में कुरूप नहीं सुंदर है। प्रेम में एक विशिष्टता ज़रूरी है। यही वह बिंदु है जहां मनुष्य पशुओं से ऊपर उठ जाता है। 
                   
(फ़िल्म दीक्षा में जगदम्बा प्रसाद प्रसाद दीक्षित)

गाँधी, अमेरिका और दीक्षित की मार्क्सवादी सोच 

सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से सेवानिवृत्त के कुछ समय बाद जे.पी. दीक्षित मुम्बई के पाक्षिक पत्र 'जन समाचार' के प्रधान सम्पादक बन गए। इस पत्र में नियमित स्तम्भ लिखकर उन्होंने हमेशा अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध किया। महात्मा गांधी से वे पूरी तरह असहमत थे। जे.पी. दीक्षित के अनुसार महात्मा गांधी अंग्रेजों के एजेंट थे। उनका हर क़दम अंग्रेजों यानी अपने मालिकों को ख़ुश करने के लिए होता था। गांधी के ऐसे कार्य और व्यवहार से हमें आज़ादी देरी से हासिल हुई। दीक्षित जी के अनुसार महात्मा गांधी ने सत्य, अहिंसा, धर्म, ईश्वर आदि की बातें कीं। इससे हिंदू और मुसलमानों के बीच दूरियां पैदा हुईं। डॉ नामवर सिंह के पूर्वाग्रही आलोचना कर्म से नाराज़ जे.पी. दीक्षित ने ‘साहित्य और समकाल’ नामक एक किताब लिखी। 

मुंबई के जाने-माने कभी समालोचक डॉ विजय कुमार के अनुसार- "दीक्षित जी प्रतिभाशाली लेखक थे। 'कटा हुआ आसमान', 'मुरदाघर' 'इतिवृत' और 'मुहब्बत 'जैसी उनकी रचनाएं मील का पत्थर हैं। लेकिन दीक्षित जी के साथ कुछ समस्याएं भी थीं। वैचारिक स्तर पर उनकी सोच बहुत सपाट और यांत्रिक किस्म की थी। वे चीजों का अति सरलीकरण करते थे। तीस और चालीस के दशक में स्टालिन के ज़माने में रूस में ज़दानोव और प्लाखनोव जैसे लोगों द्वारा जिस तरह के यांत्रिक मार्क्सवादी सोच को रखा गया, उस फार्मूलाबद्ध समझ से दीक्षित जी कभी आगे नहीं बढ़े। इसीलिए हिंदी में मुक्तिबोध आदि के महत्व को वे कभी समझ ही नहीं पाए। वैचारिक स्तर पर कभी कोई खुलापन या जिज्ञासा उनमें नहीं दिखाई देती थी। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, डॉ राम विलास शर्मा, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई आदि के बारे में दीक्षित जी की लगभग ऊलजलूल सी टिप्पणियों को पढ़कर कई बार सिर शर्म से झुक जाता था। बाद के दिनों में तो वे हिंदुत्ववादी फासिस्ट शक्तियों से भी सहानुभूति रखने लगे थे। उन्होंने हमें कॉलेज में पढ़ाया था लेकिन उनके विद्यार्थी होने के बावजूद धीरे धीरे उनसे एक अलंघ्य दूरी बनती गई। इसके बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि वे एक सीधे, सरल, निष्कपट इंसान थे। हम सभी उनकी तमाम सीमाओं को जानने के बाद भी एक निष्कपट व्यक्ति के रूप में उनका सम्मान करते थे, उनके भीतर के रचनाकार को आदर देते थे। शबाना आज़मी, फ़ारुख़ शेख़ और विनोद मेहरा जैसे सिने जगत के अभिनेता भी कभी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में उनके छात्र थे और उनका बहुत सम्मान करते थे। शबाना आज़मी और फ़ारुख़ शेख़ ने अपने कॉलेज के दिनों में जे.पी. दीक्षित लिखित और निर्देशित नाटक 'काग़ज़ के आदमी' में अभिनय भी किया था। दीक्षित जी के अंतिम दिन बेहद त्रासद थे। घनघोर अकेलेपन के बीच उनका निधन हुआ।"

जुहू चौपाटी पर बी.आर. चोपड़ा के बंगले के सामने एक कॉलोनी थी जिसमें सीमेंट के पतरे वाले कॉटेज थे। यहीं एक कॉटेज में जे.पी. दीक्षित अपनी तनहाई के साथ आबाद थे। उनकी पत्नी को मुंबई रास नहीं आया। इसलिए वे गांव में रह गईं। नौकरी के चलते जे.पी. दीक्षित को आजीवन वनवास काटना पड़ा। बेटी ससुराल में और बेटा जर्मनी में बस गया। प्रोफ़ेसर जगदंबा प्रसाद दीक्षित उम्र की डगर पर हमेशा इकला चलते रहे। वे दोपहर का भोजन कॉलेज की कैंटीन में करते थे। रात में ख़ुद सब्ज़ी बनाते और पड़ोस के बनारसी होटल से चपाती मंगा लेते थे। यह सिलसिला आजीवन जारी रहा। एक रविवार को मैं उनसे मिलने गया तो उन्होंने कड़ाही में चाय चढ़ा दी क्योंकि पतीला गंदा था। उसमें वे पहले ही तीन बार चाय पका चुके थे। 

रीडिंग, राइटिंग और ईटिंग के लिए जे.पी. दीक्षित के पास सदियों पुरानी एक टेबल थी। इस पर लगी हरे रंग की रैक्सीन पर मैल कि हमेशा मोटी परत जमी रहती थी। सेवानिवृत्ति के समय उनकी कॉलोनी एक भवन निर्माता को पसंद आ गई। विस्थापित होने के एवज़ में जे.पी. दीक्षित को साठ लाख रूपये प्राप्त हुए। चालीस लाख में उन्होंने चार बंगला अंधेरी में एक फ्लैट खरीदा और बीस लाख रुपए फिक्स डिपॉजिट में डाल दिए। 

मुर्दाघर के लेखक जगदंबा प्रसाद दीक्षित 

जगदंबा प्रसाद दीक्षित का जन्म म.प्र. के बालाघाट में सन् 1933 में हुआ था। आख़िरी दिनों में वे अपने बेटे से मिलने बर्लिन, जर्मनी गए थे। वहीं 20 मई 2014 को उनका निधन हो गया। कटा हुआ आसमान, मुरदा घर, अकाल और इतिवृत उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उनके कहानी संग्रह का नाम है शुरुआत। दीक्षित जी का उपन्यास ‘मुर्दाघर’ अपनी कथा वस्तु और प्रयोगधर्मी शिल्प के कारण बेहद चर्चित हुआ। हमारे देश में रोज़गार की तलाश में जब गांव से शहरों की तरफ़ पलायन हुआ तो शहरों में झोपड़पट्टियों की तादाद बढ़ने लगी। इन्हीं झोपड़पट्टियों में रहने वाले बेबस लोगों और बूढ़ी लाचार वेश्याओं की मार्मिक दास्तान है ‘मुर्दाघर’। इस उपन्यास में पुलिस और प्रशासन का क्रूर चेहरा भी सामने आता है। इन सबके बीच मुहब्बत भी सांस लेती रहती है। 

जनसत्ता की रविवारीय पत्रिका ‘सबरंग’ में जगदंबा प्रसाद दीक्षित का उपन्यास ‘अकाल’ प्रकाशित हुआ और पसंद किया गया। मेरे ऊपर उनका इतना स्नेह था कि उन्होंने ‘अकाल’ में एक जगह लिख दिया- "देवमणि हाथ में बंदूक लिए बारात में सबसे आगे आगे चल रहे थे।" इस उपन्यास में ससुर और बहू के बीच शारीरिक सम्बंध के ज़रिए उन्होंने स्थापित किया कि सेक्स इंसान की मनोवैज्ञानिक और शारीरिक ज़रूरत है। भारतीय राजनीति पर जगदंबा प्रसाद दीक्षित की पुस्तक है- भारत में राष्ट्रीय और दलाल पूंजीपति। नेशनल एंड कांप्रेडोर बुर्जुआजी और बोगस थियरी ऑफ़ फ्यूडलिज्म आदि उनके द्वारा लिखी अंग्रेज़ी पुस्तकें हैं। 

महेश भट्ट के पीछे खड़े हैं जगदम्बा प्रसाद दीक्षित और जॉनी बख़्शी

दीक्षा, सर, नाराज़, नाजायज़, फिर तेरी कहानी याद आई, जानम आदि जगदंबा प्रसाद दीक्षित द्वारा लिखी गई फ़िल्में हैं। फ़िल्म जगत में प्रो जगदंबा प्रसाद दीक्षित एक अतृप्त आत्मा की तरह आजीवन भटकते रहे। प्रतिभा के बावजूद उनको वो कामयाबी और शोहरत नहीं मिली जो कथाकार कमलेश्वर और डॉ राही मासूम रज़ा को हासिल हुई। कई साल तक मुम्बई में प्रगतिशील लेखक संघ का ज़बरदस्त बोलबाला रहा। यह भी हैरत की बात है कि ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर कृष्णचंद्र तक किसी से भी जगदंबा प्रसाद दीक्षित की दोस्ती नहीं हुई। वे अपनी डगर पर अपनी मस्ती में अकेले चलते रहे। गुज़रने के चंद साल पहले उन्होंने बताया था कि उन्हें अपनी माँ की बहुत याद आती है। रात में अचानक उनकी नींद उचट जाती थी और वे कई कई घंटों तक माँ की याद में खोए रहते थे। एक दिन उनकी माँ ने उन्हें ऊपर बुला लिया।

जर्मनी के बर्लिन शहर में रहने वाली लेखिका सुशीला शर्मा हक़ ने बताया कि दीक्षित जी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में उनके भी प्राध्यापक थे। जीवन के अंतिम दिनों में वे सपत्नीक अपने बेटे के पास बर्लिन आ गये थे। यहीं उनका इंतक़ाल हुआ। उनकी अंत्येष्टि में उनके बेटे और बहू के अलावा सिर्फ़ सुशीलाजी थीं और कोई नहीं था। उनकी धर्मपत्नी का निधन भी बर्लिन शहर में ही हुआ। मेरी यही दुआ है कि दीक्षित जी जहाँ भी हों ऊपर वाला उन्हें शांति प्रदान करे। मेरी यही दुआ है कि दीक्षित जी जहाँ भी हों ऊपर वाला उन्हें शांति प्रदान करे।


आपका- 

देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 
M : 98210 82126 devmanipandey.blogspot.com