फ़िल्म सर के लेखक जय दीक्षित
हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार जगदंबा प्रसाद दीक्षित उर्फ़ जे.पी दीक्षित का फ़िल्म ‘सर’ (1993) के लेखक के रूप में जय दीक्षित नामकरण उनके शिष्य महेश भट्ट ने किया। दीक्षित जी सेंट ज़ेवियर कॉलेज मुंबई में हिंदी विभागाध्यक्ष थे। महेश भट्ट उनके छात्र रह चुके हैं। फ़िल्म ‘सर’ में निरर्थक और निर्दोष लोगों की हत्याओं के विरुद्ध एक सशक्त प्रतिवाद है। कथावस्तु, पात्रों और घटनाओं में ताज़गी है। यह सम्वेदनशील और हृदयस्पर्शी फ़िल्म काफ़ी पसंद की गई। कुल मिलाकर यह एक ऐसी ख़ूबसूरत और मनोरंजक फ़िल्म है जिसका संपूर्ण प्रभाव बहुत आक्रामक और मर्मस्पर्शी है।
दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का पहला अध्याय
अध्यापन के क्षेत्र में आने से पहले जे.पी.दीक्षित नागपुर के एक पत्र में संपादक थे। उस समय उन्होंने विमल राय और केदार शर्मा के लंबे-लंबे इंटरव्यू किए थे। उसी समय सन् 1959 में वे फ़िल्मकार देवेंद्र गोयल के संपर्क में आए। गोयल जी ने सन् 1964 में अपनी फ़िल्म ‘दूर की आवाज़’ में एक लंबी भूमिका देकर पत्रकार जे.पी.दीक्षित को अभिनेता दीक्षित बना दिया। कुछ समय बाद फ़िल्मों के इस पहले अध्याय पर जे.पी.दीक्षित ने विराम लगा दिया। वे सीपीएमएल के क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए। गिरफ़्तारी से बचने के लिए जे.पी.दीक्षित को कुछ समय महाराष्ट्र की सीमा पर आदिवासियों के बीच रहना पड़ा। सन् 1970 में दीक्षित जी को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर षड्यंत्र, हत्या, राजद्रोह आदि कई अभियोग लगाए गए। आरोप साबित न होने पर डेढ़ साल बाद उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। आपातकाल के समय जे.पी.दीक्षित कनाडा में फंस गए। वहां से किसी तरह नेपाल पहुंचे। नेपाल से उन्होंने पर्चे निकाले। सन् 1972 से 1982 तक उन्होंने पीपुल्स पावर नामक अंग्रेजी पत्र का संपादन किया।
दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का दूसरा अध्याय
आपातकाल के बाद जे.पी.दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का दूसरा अध्याय फ़िल्मकार विनोद पांडेय के साथ शुरू हुआ। विनोद पांडेय भी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में उनके छात्र थे। सन् 1980 में फ़िल्म 'एक बार फिर' बनाने वाले विनोद पांडेय ने फ़िल्म ‘ये नज़दीकियां’ (1982) में जे.पी.दीक्षित से एक गीत लिखवाया-
इक गीत लिखा है जो तुमको सुनाती हूँ
सोए हुए रंगीं ख़्वाबों को सांसों से सजाती हूँ
रघुनाथ सेठ द्वारा संगीतबद्ध दीक्षित जी का यह प्रेम गीत मुझे बहुत पसंद है। इस गीत को शबाना आज़मी और मार्क ज़ुबैर पर फ़िल्माया गया है। इस फ़िल्म में जे.पी.दीक्षित ने एक लघु भूमिका भी अभिनीत की। इसके बाद उन्होंने विनोद पांडेय के साथ सन् 1988 में ‘एक नया रिश्ता’ फ़िल्म लिखी। विनोद पांडेय के सीरियल ‘एयर होस्टेस’ के कुछ एपिसोड भी जे.पी.दीक्षित ने लिखे। वीरेंद्र संथालिया की फ़िल्म ‘कसमकश’ की पटकथा और संवाद दीक्षित जी ने लिखे।
दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का तीसरा अध्याय
जे.पी. दीक्षित के फ़िल्मी कैरियर का तीसरा अध्याय महेश भट्ट के साथ शुरू हुआ। फ़िल्म ‘सारांश’ (1984) बनाने से पहले महेश भट्ट ने जे.पी.दीक्षित को यह कहानी सुनाई। कहानी दीक्षित जी को पसंद आई मगर काम करने की बात नहीं हुई। जुहू के सेंटॉर होटल में फ़िल्म ‘आशिक़ी’ (1990) की शूटिंग थी। महेश भट्ट से वहीं जे.पी.दीक्षित की मुलाक़ात हुई। इस बार महेश भट्ट ने जे.पी.दीक्षित के सामने साथ काम करने का प्रस्ताव रखा। महेश भट्ट ने ‘अधूरे लोग’ नामक एक विषय पर चर्चा की। दीक्षित जी को उसका मुख्य पात्र पसंद नहीं आया तो उन्होंने दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसी दौरान जे.पी.दीक्षित ने अरुण कौल के साथ फ़िल्म ‘दीक्षा’ (1991) लिखी। फ़िल्म ‘दीक्षा’ में जे.पी.दीक्षित ने सर मुड़ाकर अभिनय भी किया।
सन् 1993 में महेश भट्ट ने एक और आइडिया बताया- ‘फिर तेरी कहानी याद आई’। जे.पी.दीक्षित को कहानी पसंद आई तो उन्होंने यह फ़िल्म लिख डाली। इसी दौरान दीक्षित जी ने महेश भट्ट को एक कॉलेज प्रोफ़ेसर और अंडरवर्ल्ड डॉन के आपसी संबंधों पर आधारित फ़िल्म ‘सर’ की कहानी सुनाई। अनपढ़ डॉन की पत्नी मर चुकी है। लड़की बिगड़ी हुई है। बाप को दुश्मन समझती है। अपनी लड़की को सुधारने के लिए डॉन एक प्रोफ़ेसर को बुलाता है। वहां जाने पर प्रोफ़ेसर को पता चलता है कि ख़राबी लड़की में नहीं उसके बाप में है। लड़की और प्रोफ़ेसर निकट आ जाते हैं। बाप और प्रोफ़ेसर में टकराव होता है। महेश भट्ट को यह कहानी जँच गई। उन्होंने फ़िल्मकथा के रूप में इस प्लाट को विकसित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए। दीक्षित जी ने मेहनत से पटकथा तैयार की। इस पर तुरंत काम शुरू हुआ और फ़िल्म ‘सर’ (1993) तैयार हो गई। इसी समय ज़ी टीवी का प्रस्ताव लेकर जानी बख़्शी आ गए तो 'फिर तेरी कहानी याद आई’ फ़िल्म भी बन गई। जे.पी. दीक्षित ने महेश भट्ट के सहायक विक्रम भट्ट की फ़िल्म ‘जानम’ (1992) भी लिखी।
बंगलौर में फ़िल्म ‘सर’ की शूटिंग के दौरान महेश भट्ट ने एक और आइडिया सुनाया। जे.पी.दीक्षित ने इस पर फ़िल्म ‘नाराज़ (1994) लिखी। महेश भट्ट का एक और विषय उन्हें पसंद आया तो उन्होंने फ़िल्म ‘नाजायज़’ (1995) लिखी। जे.पी.दीक्षित का कहना था कि ‘अर्थ’ (1982) और ‘सारांश’ (1984) ने एक निर्देशक के रूप में महेश भट्ट को प्रतिष्ठा ज़रूर दिलाई लेकिन आर्थिक फ़ायदा नहीं हुआ। महेश भट्ट ने बहुत जल्दी यह समझ लिया कि सार्थक और कमर्शियल सिनेमा के कांबीनेशन के बिना मार्केट में टिकना मुश्किल है। इसलिए वे लगातार व्यावसायिक फ़िल्में बनाते रहे। फ़िल्म ‘सर’ (1993) एक ऐसी फ़िल्म है जो ‘सारांश’ (1984) और सड़क’ (1991) की कांबीनेशन है। उसमें गुणवत्ता ‘सारांश’ जैसी है लेकिन ‘सड़क’ की तरह आम आदमी को थिएटर तक खींच लाने की शक्ति है। ‘नाराज़ (1994) और ‘नाजायज़ (1995), भी इसी शैली की फ़िल्में हैं।
महेश भट्ट की आत्मकथा पर आधारित फ़िल्में
जीवन के आख़िरी दिनों में अभिनेत्री परवीन बॉबी की विक्षिप्तावस्था के चर्चे अख़बारों में प्रकाशित हुए। फ़िल्म 'तेरी कहानी याद आई' की नायिका (पूजा भट्ट) को भी फ़िल्म में पागलपन के दौरे पड़ते हैं। बांद्रा के रंग शारदा परिसर में 'फ़िल्म तेरी कहानी याद आई' की शूटिंग चल रही थी। जे.पी. दीक्षित ने मुझे गपशप के लिए बुलाया। वहां महेश भट्ट से मुलाक़ात हुई। मैंने पूछा- क्या यह फ़िल्म आपकी आत्मकथा पर आधारित है? महेश भट्ट ने जवाब दिया- "इस फ़िल्म में मेरे जीवन के और परवीन बॉबी के जीवन के कुछ अंश शामिल हैं मगर यह मेरी आत्मकथा नहीं है। बाक़ी दीक्षित जी आपको बताएंगे।
जे.पी.दीक्षित ने कहा- ‘सिर्फ़ आत्मकथा पर कोई फ़िल्म नहीं बनाई जा सकती क्योंकि उसमें कई चरित्रों और उनके इर्द-गिर्द घटनाओं का ताना बाना बहुत ज़रूरी हो जाता है। इससे उसका पूरा स्वरूप ही बदल जाता है। हां, आवश्यकता अनुसार फ़िल्म में निजी जीवन के कुछ प्रसंग डाले जा सकते हैं। फ़िल्म ‘सर’ में मेरे भी जीवन से जुड़े कुछ ख़ास प्रसंग हैं लेकिन यह मेरी आत्मकथा नहीं है। इसी तरह फिर ‘तेरी कहानी याद आई’ में महेश भट्ट के जीवन से जुड़े कुछ प्रसंग हैं लेकिन यह उनकी आत्मकथा नहीं है। महेश भट्ट के पिता नाना भट्ट की दो पत्नियां थी। महेश भट्ट और मुकेश भट्ट उनकी दूसरी पत्नी के पुत्र हैं। एक अंग्रेजी पत्रिका से बातचीत में महेश भट्ट ने ख़ुद को नाजायज़ औलाद कह दिया था। इसी के चलते उनकी ‘जनम’ से लेकर ‘नाजायज़’ तक को आत्मकथात्मक फ़िल्म के रूप में प्रचारित किया गया।
मीना कुमारी ने दीक्षित को अभिनेता बनाया
जे.पी.दीक्षित के अनुसार अगर फ़िल्म में अभिनेता के रूप में पहचान मिल जाय तो लेखक निर्देशक कुछ भी बनना आसान होता है। लम्बे क़द के जे.पी.दीक्षित को अभिनय का प्रस्ताव अचानक मिला। फ़िल्मकार देवेंद्र गोयल से अभिनेत्री मीना कुमारी ने जे.पी.दीक्षित के लिए सिफ़ारिश की थी। एक दिन वे देवेंद्र गोयल के साथ मीना कुमारी की फ़िल्म ‘चिराग कहां रोशनी कहां’ (1959) के सेट पर गए थे। तब मीना कुमारी ने देवेंद्र गोयल से कहा- इनसे अभिनय करवाइए। जे.पी.दीक्षित के अनुसार मीना कुमारी ने ही धर्मेंद्र, मनोज कुमार, गुलज़ार आदि कई लोगों को प्रमोट किया था। इस मामले में वे महान कलाकार थीं। उस समय देवेंद्र गोयल ‘विधाता’ फ़िल्म बना रहे थे। बाद में इसका नाम ‘प्यार का सागर’ (1961) हो गया। इस फ़िल्म के ज़रिए वे जे.पी. दीक्षित को अभिनेता की पहचान दिलाना चाहते थे। इसके विज्ञापनों में जे.पी. दीक्षित का नाम प्रमुखता से प्रकाशित हुआ। लेकिन अभिनेता राजेंद्र कुमार ने इसकी कहानी बदलवा दी तो यह फ़िल्म देवेंद्र गोयल की पहली फ़िल्म ‘आंखें’ की रीमेक हो गई। इस बदलाव से बतौर अभिनेता जे.पी.दीक्षित का रोल ख़त्म हो गया। इसके बाद देवेंद्र गोयल ने फ़िल्म ‘दूर की आवाज़’ (1964) में जॉय मुखर्जी और सायरा बानो के साथ जे.पी.दीक्षित को एक लंबी भूमिका दी। फ़िल्म अच्छी थी मगर इसे व्यावसायिक सफलता नहीं मिली। देवेंद्र गोयल ने जब ‘दस लाख’ (1966) और ‘एक फूल दो माली’ (1969) आदि फ़िल्में बनाईं तो उस समय जे.पी. दीक्षित सीपीएमएल के क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय हो गए थे। देवेंद्र गोयल से उनका संपर्क टूट गया था।
साहित्य से अलग सिनेमा एक दृश्य माध्यम
जे.पी.दीक्षित के अनुसार साहित्य से अलग सिनेमा एक दृश्य माध्यम है। लिखित शब्दों की अपनी सीमाएं हैं लेकिन वे अधिक समय तक ज़िंदा रहते हैं। साहित्य एक समय में सिर्फ़ एक ही या कुछ लोगों को ही संबोधित होता है। फ़िल्म एक साथ बहुत बड़े जनसमुदाय को संबोधित होती है। साधारण आदमी अमूर्त और गूढ़ चीज़ें नहीं समझता। उसके सामने मू्र्त, ठोस और नग्न सत्य आना चाहिए। फ़िल्म बहुत महंगा माध्यम है। इसलिए ऐसे दबावों के साथ लेखक को समझौता करना अनिवार्य हो जाता है। वह हमेशा उच्च स्तरीय और सुरुचिपूर्ण फ़िल्में ही देगा इस कसौटी पर खरे उतरने की उम्मीद एक फ़िल्म लेखक से नहीं की जानी चाहिए। साहित्य के बल पर ज़िंदगी नहीं चल सकती। अब साहित्य लेखन पार्ट टाइम करना पड़ता है। लेखक की इस स्थिति के लिए प्रकाशक और सरकारी व्यवस्था ज़िम्मेदार हैं।
प्रेम के बारे में जे.पी. दीक्षित की अवधारणा
एक बार मैंने जे.पी. दीक्षित से प्रेम के संबंध में उनकी राय पूछी। वे संस्कृत साहित्य की उस प्रेम परंपरा के हिमायती थे जिसमें प्रेम का मतलब काम यानी शारीरिक सुख होता है। जे.पी. दीक्षित की मान्यता है कि बिना सेक्स के प्रेम हो ही नहीं सकता। उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा था- अगर एक स्त्री में और एक पुरुष में प्रेम है और दोनों में शारीरिक संबंध नहीं होता है तो उन्हें ख़ुद को डॉक्टर को दिखाना चाहिए। लीजिए प्रेम पर दीक्षित जी के निजी विचार प्रस्तुत हैं।
छायावादी प्रेम नितांत काल्पनिक और अमूर्त है। छायावादी कवियों में स्त्री पुरुष के प्रेम को लेकर अपराध बोध था। उन्होंने रहस्यवाद का पुट देकर इसे आत्मा परमात्मा का प्रेम बना दिया। वास्तव में प्रेम ऐसा नहीं होता है। स्त्री पुरुष के प्रेम में शारीरिकता को हटाया नहीं जा सकता। जो आध्यात्मिक प्रेम की बात करते हैं वे पाखंड करते हैं। प्रकृति में सिर्फ़ वासना है प्रेम है ही नहीं। वासना वहां प्रजनन का उद्देश्य है। सामाजिक विकास के साथ संस्कृति ने स्त्री पुरुष के ऐसे स्वाभाविक संबंधों को प्रेम का नाम दे दिया। शरीर के स्तर पर प्रेम स्वैराचार नहीं है। वह ज़्यादा सुंदर और सात्विक है। प्रेम करने वाले व्यक्तियों के बीच आग्रह, समझदारी और आत्मीयता ज़रूरी है।
हमारे प्राचीन साहित्य में प्रेम शारीरिक और मांसल था। इस्लामिक संस्कृति के आगमन के साथ चिलमन देख कर आहें भरने वाला अमूर्त प्रेम आया। 'लैला मजनू' और 'शीरीं फ़रहाद' का प्रेम भारतीय अवधारणा नहीं है। दुष्यंत और शकुंतला का प्रेम भारतीय प्रेम है। शारीरिक और मांसल प्रेम में साथी की आवश्यकता ही विरह काव्य को जन्म देती है। आगे चलकर साहित्य में शारीरिकता को बुरा मानते हुए प्रेम को आध्यात्मिक बना दिया गया। 'उसने कहा था' जैसी कहानियों में प्रेम, त्याग और बलिदान का प्रतीक बन गया। प्रेमचंद की एक कहानी 'फ़ातिहा' में प्रेम का वास्तविक चित्रण हुआ है। शरतचंद्र ने प्रेम को ज्यादा महत्व नहीं दिया मगर नकारा भी नहीं। बचपन के निर्दोष आकर्षण से शुरू होने वाला देवदास का प्रेम वास्तव में प्रेम नहीं आदत है।
संचार माध्यमों और भौतिकतावादी प्रभाव के कारण अब आत्मा परमात्मा का प्रेम हास्यास्पद हो गया है। प्रेम में अब शरीर प्रधान हो गया है। लड़के लड़कियां पहले एक दूसरे के शरीर से ही प्रभावित होते हैं। वे शरीर की कामना भी रखते हैं। शारीरिकता से रहित अमूर्त प्रेम अब संभव नहीं है। साहित्य समाज के समग्र रूप को लेकर चलता है। प्रेम भी इस समग्रता का एक अंग है। स्त्री पुरुष का प्रेम भले ही शरीर पर आधारित है मगर स्वैराचार मुझे स्वीकार नहीं है। प्रेम में रुचिओं, विचारों और भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव ज़रूरी है। एक दूसरे को शेयर करने की आत्मीयता हमें ऊपर उठाती है। वासना अपने आप में कुरूप नहीं सुंदर है। प्रेम में एक विशिष्टता ज़रूरी है। यही वह बिंदु है जहां मनुष्य पशुओं से ऊपर उठ जाता है।
(फ़िल्म दीक्षा में जगदम्बा प्रसाद प्रसाद दीक्षित)
गाँधी, अमेरिका और दीक्षित की मार्क्सवादी सोच
सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से सेवानिवृत्त के कुछ समय बाद जे.पी. दीक्षित मुम्बई के पाक्षिक पत्र 'जन समाचार' के प्रधान सम्पादक बन गए। इस पत्र में नियमित स्तम्भ लिखकर उन्होंने हमेशा अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध किया। महात्मा गांधी से वे पूरी तरह असहमत थे। जे.पी. दीक्षित के अनुसार महात्मा गांधी अंग्रेजों के एजेंट थे। उनका हर क़दम अंग्रेजों यानी अपने मालिकों को ख़ुश करने के लिए होता था। गांधी के ऐसे कार्य और व्यवहार से हमें आज़ादी देरी से हासिल हुई। दीक्षित जी के अनुसार महात्मा गांधी ने सत्य, अहिंसा, धर्म, ईश्वर आदि की बातें कीं। इससे हिंदू और मुसलमानों के बीच दूरियां पैदा हुईं। डॉ नामवर सिंह के पूर्वाग्रही आलोचना कर्म से नाराज़ जे.पी. दीक्षित ने ‘साहित्य और समकाल’ नामक एक किताब लिखी।
मुंबई के जाने-माने कभी समालोचक डॉ विजय कुमार के अनुसार- "दीक्षित जी प्रतिभाशाली लेखक थे। 'कटा हुआ आसमान', 'मुरदाघर' 'इतिवृत' और 'मुहब्बत 'जैसी उनकी रचनाएं मील का पत्थर हैं। लेकिन दीक्षित जी के साथ कुछ समस्याएं भी थीं। वैचारिक स्तर पर उनकी सोच बहुत सपाट और यांत्रिक किस्म की थी। वे चीजों का अति सरलीकरण करते थे। तीस और चालीस के दशक में स्टालिन के ज़माने में रूस में ज़दानोव और प्लाखनोव जैसे लोगों द्वारा जिस तरह के यांत्रिक मार्क्सवादी सोच को रखा गया, उस फार्मूलाबद्ध समझ से दीक्षित जी कभी आगे नहीं बढ़े। इसीलिए हिंदी में मुक्तिबोध आदि के महत्व को वे कभी समझ ही नहीं पाए। वैचारिक स्तर पर कभी कोई खुलापन या जिज्ञासा उनमें नहीं दिखाई देती थी। महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, डॉ राम विलास शर्मा, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई आदि के बारे में दीक्षित जी की लगभग ऊलजलूल सी टिप्पणियों को पढ़कर कई बार सिर शर्म से झुक जाता था। बाद के दिनों में तो वे हिंदुत्ववादी फासिस्ट शक्तियों से भी सहानुभूति रखने लगे थे। उन्होंने हमें कॉलेज में पढ़ाया था लेकिन उनके विद्यार्थी होने के बावजूद धीरे धीरे उनसे एक अलंघ्य दूरी बनती गई। इसके बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि वे एक सीधे, सरल, निष्कपट इंसान थे। हम सभी उनकी तमाम सीमाओं को जानने के बाद भी एक निष्कपट व्यक्ति के रूप में उनका सम्मान करते थे, उनके भीतर के रचनाकार को आदर देते थे। शबाना आज़मी, फ़ारुख़ शेख़ और विनोद मेहरा जैसे सिने जगत के अभिनेता भी कभी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में उनके छात्र थे और उनका बहुत सम्मान करते थे। शबाना आज़मी और फ़ारुख़ शेख़ ने अपने कॉलेज के दिनों में जे.पी. दीक्षित लिखित और निर्देशित नाटक 'काग़ज़ के आदमी' में अभिनय भी किया था। दीक्षित जी के अंतिम दिन बेहद त्रासद थे। घनघोर अकेलेपन के बीच उनका निधन हुआ।"
जुहू चौपाटी पर बी.आर. चोपड़ा के बंगले के सामने एक कॉलोनी थी जिसमें सीमेंट के पतरे वाले कॉटेज थे। यहीं एक कॉटेज में जे.पी. दीक्षित अपनी तनहाई के साथ आबाद थे। उनकी पत्नी को मुंबई रास नहीं आया। इसलिए वे गांव में रह गईं। नौकरी के चलते जे.पी. दीक्षित को आजीवन वनवास काटना पड़ा। बेटी ससुराल में और बेटा जर्मनी में बस गया। प्रोफ़ेसर जगदंबा प्रसाद दीक्षित उम्र की डगर पर हमेशा इकला चलते रहे। वे दोपहर का भोजन कॉलेज की कैंटीन में करते थे। रात में ख़ुद सब्ज़ी बनाते और पड़ोस के बनारसी होटल से चपाती मंगा लेते थे। यह सिलसिला आजीवन जारी रहा। एक रविवार को मैं उनसे मिलने गया तो उन्होंने कड़ाही में चाय चढ़ा दी क्योंकि पतीला गंदा था। उसमें वे पहले ही तीन बार चाय पका चुके थे।
रीडिंग, राइटिंग और ईटिंग के लिए जे.पी. दीक्षित के पास सदियों पुरानी एक टेबल थी। इस पर लगी हरे रंग की रैक्सीन पर मैल कि हमेशा मोटी परत जमी रहती थी। सेवानिवृत्ति के समय उनकी कॉलोनी एक भवन निर्माता को पसंद आ गई। विस्थापित होने के एवज़ में जे.पी. दीक्षित को साठ लाख रूपये प्राप्त हुए। चालीस लाख में उन्होंने चार बंगला अंधेरी में एक फ्लैट खरीदा और बीस लाख रुपए फिक्स डिपॉजिट में डाल दिए।
मुर्दाघर के लेखक जगदंबा प्रसाद दीक्षित
जगदंबा प्रसाद दीक्षित का जन्म म.प्र. के बालाघाट में सन् 1933 में हुआ था। आख़िरी दिनों में वे अपने बेटे से मिलने बर्लिन, जर्मनी गए थे। वहीं 20 मई 2014 को उनका निधन हो गया। कटा हुआ आसमान, मुरदा घर, अकाल और इतिवृत उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उनके कहानी संग्रह का नाम है शुरुआत। दीक्षित जी का उपन्यास ‘मुर्दाघर’ अपनी कथा वस्तु और प्रयोगधर्मी शिल्प के कारण बेहद चर्चित हुआ। हमारे देश में रोज़गार की तलाश में जब गांव से शहरों की तरफ़ पलायन हुआ तो शहरों में झोपड़पट्टियों की तादाद बढ़ने लगी। इन्हीं झोपड़पट्टियों में रहने वाले बेबस लोगों और बूढ़ी लाचार वेश्याओं की मार्मिक दास्तान है ‘मुर्दाघर’। इस उपन्यास में पुलिस और प्रशासन का क्रूर चेहरा भी सामने आता है। इन सबके बीच मुहब्बत भी सांस लेती रहती है।
जनसत्ता की रविवारीय पत्रिका ‘सबरंग’ में जगदंबा प्रसाद दीक्षित का उपन्यास ‘अकाल’ प्रकाशित हुआ और पसंद किया गया। मेरे ऊपर उनका इतना स्नेह था कि उन्होंने ‘अकाल’ में एक जगह लिख दिया- "देवमणि हाथ में बंदूक लिए बारात में सबसे आगे आगे चल रहे थे।" इस उपन्यास में ससुर और बहू के बीच शारीरिक सम्बंध के ज़रिए उन्होंने स्थापित किया कि सेक्स इंसान की मनोवैज्ञानिक और शारीरिक ज़रूरत है। भारतीय राजनीति पर जगदंबा प्रसाद दीक्षित की पुस्तक है- भारत में राष्ट्रीय और दलाल पूंजीपति। नेशनल एंड कांप्रेडोर बुर्जुआजी और बोगस थियरी ऑफ़ फ्यूडलिज्म आदि उनके द्वारा लिखी अंग्रेज़ी पुस्तकें हैं।
महेश भट्ट के पीछे खड़े हैं जगदम्बा प्रसाद दीक्षित और जॉनी बख़्शी
दीक्षा, सर, नाराज़, नाजायज़, फिर तेरी कहानी याद आई, जानम आदि जगदंबा प्रसाद दीक्षित द्वारा लिखी गई फ़िल्में हैं। फ़िल्म जगत में प्रो जगदंबा प्रसाद दीक्षित एक अतृप्त आत्मा की तरह आजीवन भटकते रहे। प्रतिभा के बावजूद उनको वो कामयाबी और शोहरत नहीं मिली जो कथाकार कमलेश्वर और डॉ राही मासूम रज़ा को हासिल हुई। कई साल तक मुम्बई में प्रगतिशील लेखक संघ का ज़बरदस्त बोलबाला रहा। यह भी हैरत की बात है कि ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर कृष्णचंद्र तक किसी से भी जगदंबा प्रसाद दीक्षित की दोस्ती नहीं हुई। वे अपनी डगर पर अपनी मस्ती में अकेले चलते रहे। गुज़रने के चंद साल पहले उन्होंने बताया था कि उन्हें अपनी माँ की बहुत याद आती है। रात में अचानक उनकी नींद उचट जाती थी और वे कई कई घंटों तक माँ की याद में खोए रहते थे। एक दिन उनकी माँ ने उन्हें ऊपर बुला लिया।
जर्मनी के बर्लिन शहर में रहने वाली लेखिका सुशीला शर्मा हक़ ने बताया कि दीक्षित जी सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में उनके भी प्राध्यापक थे। जीवन के अंतिम दिनों में वे सपत्नीक अपने बेटे के पास बर्लिन आ गये थे। यहीं उनका इंतक़ाल हुआ। उनकी अंत्येष्टि में उनके बेटे और बहू के अलावा सिर्फ़ सुशीलाजी थीं और कोई नहीं था। उनकी धर्मपत्नी का निधन भी बर्लिन शहर में ही हुआ। मेरी यही दुआ है कि दीक्षित जी जहाँ भी हों ऊपर वाला उन्हें शांति प्रदान करे। मेरी यही दुआ है कि दीक्षित जी जहाँ भी हों ऊपर वाला उन्हें शांति प्रदान करे।
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063,
M : 98210 82126 devmanipandey.blogspot.com
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