गुरुवार, 20 जुलाई 2023

मुकेश जयंती : जीना इसी का नाम है

 मुकेश जयंती पर मुम्बई में संगीत समारोह

मेरे मित्र गीतकार हरिश्चंद्र के दिल में गायक मुकेश के प्रति दीवानगी है। पिछले कई सालों से वे मुंबई में 22 जुलाई को मुकेश जयंती समारोह का आयोजन करते हैं। गायक मुकेश के साथ देश-विदेश में स्टेज प्रोग्राम कर चुकीं गायिका उषा तिमूथी अपनी मौजूदगी से कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाती हैं। संचालन की ज़िम्मेदारी पूरे अधिकार के साथ हरिश्चंद्र जी मुझे सौंप देते हैं। 

दक्षिण मुंबई में जहां नेपियन सी रोड और भूलाभाई देसाई रोड का मिलन होता है उसका नाम है मुकेश चौक। इसी मोहल्ले की सरकारी कॉलोनी हैदराबाद इस्टेट में मैं तेरह साल तक रहा। थोड़ी ही दूर पर कमला नेहरू पार्क यानी हैंगिंग गार्डन है। फ़िल्म पत्रिका माधुरी के संपादक अरविंद कुमार जी ने बताया था कि इस पार्क में रोज़ सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए गायक मुकेश आते थे। वे सुबह 6 से 8 बजे तक इस पार्क में मौजूद रहते थे। कोई भी उनसे मुलाक़ात कर सकता था। बात कर सकता था।

मगर अब समय बदल गया है। हैदराबाद इस्टेट के सामने प्रियदर्शनी पार्क है। एक दिन शाम को इसी पार्क में घूमते हुए मुकेश जी के पौत्र नील नितिन मुकेश से सामना हो गया। उनके दाएं बाएं दो बॉडीगार्ड थे। एक नौकर तौलिया लेकर पीछे पीछे चल रहा था। यानी उनसे संवाद का कोई रास्ता नहीं था। 

दिल्ली के मुकेशचंद्र माथुर का जन्म 22 जुलाई 1923 को हुआ। उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई करके पीडब्लूडी में नौकरी शुरू की लेकिन क़िस्मत ने उन्हें दिल्ली से मुंबई पहुंचा दिया।इसका श्रेय अभिनेता मोतीलाल को दिया जाता है। 

फ़िल्म 'निर्दोष' (1941) में मुकेश को गाने और अभिनय का काम मिला। बतौर पार्श्व गायक सन्  1945 में फ़िल्म 'पहली नज़र' से पहचान मिली। गीत था - "दिल जलता है तो जलने दे "। मुकेश के आदर्श गायक कुंदनलाल सहगल का प्रभाव इस पर स्पष्ट दिखाई देता है। संगीतकार नौशाद के साथ मुकेश ने अपनी पार्श्व गायन शैली विकसित की। 

चालीस के दशक में दिलीप कुमार के लिए सबसे ज़्यादा गीत गाने वाले मुकेश को पचास के दशक में एक नयी पहचान मिली। उन्हें राज कपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। ख़ुद राज कपूर ने स्वीकार किया - "मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश है।" 

बतौर पार्श्व गायक लोकप्रियता हासिल करने के बाद एक दिन मुकेश फ़िल्म निर्माता बन गये। सन् 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ निर्मित की। दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं। कहा जाता है कि मुकेश को बचपन से ही अभिनय का शौक था। फ़िल्म ‘अनुराग’ और ‘माशूक़ा’ में वे हीरो बनकर आये। लेकिन जनता ने उन्हें पसंद नहीं किया। वे फिर से गायिकी की दुनिया में लौट आये। यहूदी, मधुमती, अनाड़ी और जिस देश में गंगा बहती है जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी। 

गायक मुकेश को अपनी बेमिसाल गायिकी के लिए चार बार फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला।

(1) सन् 1959 में अनाड़ी  फ़िल्म के गीत ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ के लिए। ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'अनाड़ी' में मुकेश के जिगरी दोस्त राज कपूर को भी पहला फ़िल्म फेयर अवॉर्ड मिला। 

(2) सन् 1970 में मनोज कुमार की फ़िल्म 'पहचान' के गीत "सबसे बड़ा नादान" के लिए। 

(3) सन् 1972 में मनोज कुमार की ही फ़िल्म 'बेईमान' के गीत "जय बोलो बेईमान की" के लिए। 

(उपरोक्त तीनों फ़िल्मों के संगीतकार शंकर जयकिशन थे) 

(4) सन् 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म ''कभी कभी  के शीर्षक गीत के लिए मुकेश को चौथा फ़िल्म फेयर अवॉर्ड मिला। (संगीतकार ख़य्याम) 

साल 1974 में फ़िल्म ''रजनीगंधा'' के गाने "कई बार यूं भी देखा है" के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 

सत्तर के दशक में धरम करम, आनन्द, अमर अकबर अ‍ॅन्थनी आदि फिल्मों में मुकेश ने सुपरहिट गाने दिये। मुकेश ने अपने कैरियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फ़िल्म सत्यम शिवम् सुंदरम के लिए गाया- “चंचल शीतल निर्मल कोमल”। लेकिन 1978 में इस फ़िल्म के रिलीज होने से दो साल पहले ही 27 अगस्त 1976 को मुकेश ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 


बेमिसाल गायक मुकेश ने वक़्त के कैनवास पर अपनी आवाज़ के रंगों से कामयाबी की एक ऐसी इबारत लिखी जिसकी चमक आज भी बरकरार है। वे लफ़्ज़ों की रोशनाई में अपने दिल की सम्वेदना घोल देते थे। इसलिए उनके गीतों ने श्रोताओं की धड़कनों के साथ आत्मीय रिश्ता क़ायम करने की एक मिसाल कायम की। 


सिने संगीत के सुनहरे दौर में मुकेश की रूहानी आवाज़ उदासियों के अंधेरों में रोशनी की लकीर खींच देती थी। हालांकि उन्होंने उमंग और उल्लास के भी गीत गाए, लेकिन उनकी इमोशनल आवाज़ दर्द  की जागीर बन गई। उनके ऐसे गीतों ने प्यार करने वालों की कई-कई बेचैन पीढ़ियों को सुकून अता किया है। 


फ़िल्मी पंडितों के अनुसार मुकेश ने अपने 35 साल के कैरियर में 525 हिन्दी फ़िल्मों में 900 गीत ही गाये मगर मुकेश के गीतों की लोकप्रियता बेमिसाल रही। उनके गीत आज भी हमारी तनहाइयों के साथी हैं।

मुकेश का परिवार : 

घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अपने जन्मदिन 22 जुलाई 1946 को गुजराती लड़की सरल त्रिवेदी से मुकेश ने प्रेम विवाह किया था। वे तीन बच्चों के पिता बने। बेटे का नाम नितिन मुकेश और बेटियों का रीटा और नलिनी है। 

मुकेश के बेटे गायक नितिन मुकेश ने भी कई फ़िल्मों में अपनी आवाज़ दी है। नितिन मुकेश के बेटे यानी मुकेश के पौत्र नील नितिन मुकेश बॉलीवुड के चर्चित अभिनेता हैं।

 


हिंदी सिनेमा के महान गायक मुकेश की जयंती पर उनकी स्मृतियों को सादर नमन ! आइए हम भी मुकेश की आवाज में गुनगुनाएं .... 

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार 

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार 

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार 

जीना इसी का नाम है ... 


रिश्ता दिल से दिल के ऐतबार का 

ज़िन्दा है हमीं से नाम प्यार का

कि मर के भी किसी को याद आयेंगे 

किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे 

कहेगा फूल हर कली से बार बार 

जीना इसी का नाम है... 


* * *

आपका-

देवमणि पांडेय : 98210 82126

सोमवार, 17 जुलाई 2023

बाबूजी कहते थे : शेखर अस्तित्व का काव्य संग्रह

 

बाबूजी कहते थे : शेखर अस्तित्व का काव्य संग्रह

शेखर अस्तित्व के प्रथम काव्य संग्रह का नाम है 'बाबूजी कहते थे'। शेखर एक संवेदनशील कवि होने के साथ-साथ भावप्रवण गीतकार हैं। गीत उनके लिए भावनाओं का सहज उदगार है। इस लिए उनकी अभिव्यक्ति में कहीं भी बौद्धिकता का अवरोध नहीं दिखता। सहजता हर जगह मौजूद है। जीवन को जानने समझने की रचनात्मक दृष्टि उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली है। इसलिए वे बड़ी से बड़ी बात को भी बिना किसी जटिलता के बड़ी सरलता से अभिव्यक्त कर देते हैं-

मानव मन गहरा सागर है

या कोई पगला निर्झर है 

या मदमस्त भोर का पंछी 

प्रतिपल उड़ने को तत्पर है 

शेखर अस्तित्व के पास गहन जीवन बोध के साथ समसामयिक युगबोध भी है। वे भावनाओं के ज्वार को सोच के किनारों से नियंत्रित रखते हैं। सहज भाषा में सुगम अभिव्यक्ति उनकी विशेषता है। अपनी सकारात्मकता को साथ लेकर चलते हुए उनके गीत पाठक और श्रोता को बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं। 

यह आवश्यक नहीं कि, दुख

सहने वाला हरदम रोता है 

दुख उसको ही मिलता जिसमें

सहने का साहस होता है 

शेखर के मन के अंदर गांव से बिछड़ने की कसक है। जीवन मूल्यों से जुड़े रहने की ललक है। धर्म और अध्यात्म की महक है। उनके अंदर एक मस्त मौला, फक्कड़ कवि है जो जीवन की चुनौतियों का सामना हर हाल में करता है-

बीच सड़क डुगडुगी बजाओ

बंदर तभी नचा पाओगे 

उतने सफल रहोगे तुम 

जितना शोर मचा पाओगे

शेखर अस्तित्व के गीत पाठक के अंतस् को आलोकित करते हैं। निराशा में भी आशा का दीप जलाते हैं। ज़िंदगी की राहों में आगे बढ़ने का हौसला जगाते हैं-

अहंकार के उच्च शिखर से 

नीचे स्वयं उतर के आना

मुझसे मिलने का मन हो तो

ख़ुद को ख़ाली करके आना

गेयता गीत का मूल स्वभाव है। शेखर अस्तित्व के गीतों में गेयता झरने की तरह प्रभावित होती है। शेखर हिंदी काव्य मंच के लोकप्रिय और संजीदा कवि हैं। मुझे उम्मीद है कि उनके गीत जनमानस में अपनी जगह बनाने में कामयाब होंगें। मैं उन्हें इस नई किताब के लिए बधाई देता हूं। 

अद्विक प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित इस काव्य संग्रह का मूल्य 230 रूपये है। 


आपका-

देवमणि पांडेय : 98210 82126

शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

तुम क्यों उदास हो : कुलबीर बडेसरों का कहानी संग्रह

 

तुम क्यों उदास हो : कुलबीर बडेसरों का कहानी संग्रह 

पंजाबी कथाकार कुलबीर बडेसरों के हिंदी कहानी संग्रह का नाम है- तुम क्यों उदास हो। सुखों के प्रवाह, दुखों के ज्वार और झरने की तरह झरते मानवीय आवेग को कुलबीर जिस तन्मयता के साथ चित्रित करती हैं वह अद्भुत है। सूक्ष्म से सूक्ष्म ब्यौरों को भी अपनी अभिव्यक्ति में शामिल करके वे उसे मानवीय अनुभवों की अमूल्य धरोहर की तरह सहेज लेती हैं। उनके एहसास जिस तरह हमारी सोच और संवेदना में घुल मिल जाते हैं वह एक विरल संरचना है। 

कुलबीर की कहानियों के संजीदा पात्र माहौल में ऐसी नमी घोल देते हैं कि पाठक का मन तरबतर हो जाता है। भावनाओं के आवेग के साथ आगे बढ़ती हुई कहानियां एक ऐसे मुकाम पर जाकर ठहरती हैं कि पढ़ने वाला स्तब्ध रह जाता है। फिर काफ़ी देर तक सिर्फ़ ख़ामोशी की आवाज़ सुनाई पड़ती है। कुलबीर की कहानियों में एक सुनियोजित क्लाइमैक्स है। यह क्लाइमेक्स इतने स्वाभाविक ढंग से अचानक उपस्थित होता है कि हमेशा के लिए पाठकों की स्मृति का हिस्सा बन जाता है। 

बोलचाल की जीवंत भाषा, रिश्ते नातों की ऊर्जा से समृद्ध कथ्य और सहज सरल अभिव्यक्ति वाली कहानियों का यह संग्रह बेहद पठनीय है। कुलबीर बडेसरों एक अच्छी अभिनेत्री भी हैं। उन्होंने कई फ़िल्मों और धारावाहिकों में अपने अभिनय का जादू दिखाया है। उन्हें पता है कि मनुष्य के अंतस में छुपी भावनाओं को असरदार तरीके से कैसे पेश किया जा सकता है। फ़नकारी का यह कमाल उनकी कहानियों को यादगार बना देता है। पंजाबी से इन कहानियों का हिंदी में ख़ूबसूरत अनुवाद प्रतिष्ठित कवि कथाकार सुभाष नीरव ने किया है। इस सुंदर कहानी संग्रह के लिए कुलबीर बडेसरों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं। 

आपका - 

देवमणि पांडेय : 98210 82126

महाभारत यथार्थ कथा : बोधिसत्व की किताब


महाभारत यथार्थ कथा : बोधिसत्व की किताब


कवि लेखक डॉ बोधिसत्व मेरे घर पधारे और उन्होंने मुझे और मेरी पत्नी रमा को अपनी नई किताब महाभारत यथार्थ कथा भेंट की। पौराणिक विषय पर यह उनकी पहली किताब है। महाभारत यथार्थ कथा में वैचारिक स्तर पर सत्य और अर्धसत्य का गहन विश्लेषण और वैचारिक गंभीरता हर अध्याय में दिखाई पड़ती है। यह पहला भाग आया है। अभी महाभारत यथार्थ कथा के तीन और भाग आएंगे। डॉ बोधिसत्व की यह किताब पौराणिक आख्यानों को एक नए नज़रिये से देखने की मांग करती है।

डॉ बोधिसत्व का मूल नाम अखिलेश कुमार मिश्र है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए. और वहीं से तार सप्तक के कवियों के काव्य सिद्धान्त पर डिलिट् की उपाधि लेने वाले डॉ बोधिसत्व के चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं। उन्होंने 'शिखर' और 'धर्म' जैसी फ़िल्मों और दर्जनों टीवी धारावाहिकों का लेखन किया है। वे 'देवों के देव महादेव' और 'जोधा अकबर' जैसे कई बड़े धारावाहिकों के शोधकर्ता और सलाहकार रहे। इन दिनों वे अनेक ओटीटी प्लेटफॉर्म के पौराणिक धारावाहिकों के मुख्य शोधकर्ता और सलाहकार हैं।

कई सम्मानों से विभूषित डॉ बोधिसत्व की कुछ कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के स्नातक के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। दो कविताएँ गोवा विश्व विद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल थीं। पिछले 21 सालों से मुंबई में उनका बसेरा है। सिनेमा, टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखाई का काम करते हैं। महाभारत यथार्थ कथा के लिए डॉ बोधिसत्व को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

आपका - देवमणि पांडेय, मुम्बई
सम्पर्क : 98210 82126




शुक्रवार, 16 जून 2023

फ़िल्म आदि पुरुष : अहंकार की छाती पर विजय का भगवा ध्वज


फ़िल्म आदि पुरुष : अहंकार की छाती पर विजय का भगवा ध्वज

फ़िल्म 'आदि पुरुष' के राम यानी राघव ने लंका पर आक्रमण करने से पहले अपने सैनिकों से कहा- "आज मेरे लिए नहीं लड़ना। आज अपने लिए लड़ना, अपनी मर्यादा के लिए लड़ना। गाड़ दो अहंकार की छाती पर विजय का भगवा ध्वज। हर हर महादेव।" इसके साथ ही निर्देशक ओम राउत और संवाद लेखक मनोज मुंतशिर शुक्ला दर्शकों तक अपना मंतव्य पहुंचा देते हैं। फ़िल्म के कई संवाद बाल सुलभ लगते हैं। यानी प्रौढ़ दर्शकों को सहज नहीं लगते। मसलन-

(1) "कपड़ा तेरे बाप का! तेल तेरे बाप का! जलेगी भी तेरे बाप की।"

(2) "तेरी बुआ का बगीचा है क्या जो हवा खाने चला आया।"

(3) "जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे उनकी लंका लगा देंगे।"

(4) "आप अपने काल के लिए कालीन बिछा रहे हैं।"

(5) "मेरे एक सपोले ने तुम्हारे शेषनाग को लंबा कर दिया अभी तो पूरा पिटारा भरा पड़ा है।"

फ़िल्म का कोई दृश्य परिपक्व दर्शकों के न तो इमोशन को छू पाता है और न ही उनमें आस्था का कोई भाव पैदा करने में समर्थ होता है। पिछले साल मनोज बताया था- "आदि पुरुष ख़ासतौर से उस पीढ़ी के लिए बनाई गई है जो स्पाइडर-मैन जैसी एक्शन फ़िल्मों को पसंद करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा की नई तकनीक को पसंद करते हैं।" मनोज मुंतशिर के प्रशंसकों को यह फ़िल्म देखकर हैरत हो सकती है कि उन्होंने कैसे कैसे अटपटे संवाद लिख दिए हैं। मगर क्या इसके लिए सिर्फ़ मनोज मुंतशिर को दोष देना उचित है।

गीतकार पं. प्रदीप ने कहा था- निर्माता-निर्देशक के लिए लेखक, गीतकार मज़दूर की तरह होते हैं। उनकी डिमांड पर उसे ऐसा फर्नीचर बनाना पड़ता है जो उनके ड्राइंग रूम में फिट हो जाए। मनोज मुंतशिर ने भी ऑन डिमांड कारीगरी का अद्भुत नमूना पेश किया है। पांच-दस-पंद्रह साल वाली पीढ़ी, जिसने न तो रामानंद सागर की रामायण देखी है और न ही तुलसीदास रचित रामचरितमानस पढ़ा है उसके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम नहीं मूंछ दाढ़ी वाले आदि पुरुष राघव और मूंछ दाढ़ी वाले शेष (लक्ष्मण) और चमगादड़ पर सवारी करने वाले क्रूर दशानन की नई छवि को साकार किया गया है। दशानन के पांच सिर ऊपर और पांच सिर नीचे यानी दो क़तार में हैं। सभी सिर एक दूसरे से बात करते हैं। बारी बारी डायलॉग बोलते हैं। दशानन गिटार की तरह वीणा बजाता है और अजगरों से बॉडी मसाज कराता है। हनुमानजी का नाम बजरंग है। उनकी छवि भी दर्शकों की अपेक्षा के अनुकूल नहीं है।

राघव, शेष, बजरंग और दशानन के किरदार अपनी भूमिका में आक्रामक हैं। अपने ऐक्शन में एक हद तक वे बच्चों को अच्छे भी लग सकते हैं मगर जानकी को देखकर लगता है जैसे रैंप पर वॉक करने वाली कोई सुंदरी डिज़ाइनर कपड़े पहनकर फ़िल्म के परदे पर अवतरित हो गई है। एक प्रेम गीत में जानकी की रंगीन साड़ी कई फुट तक लहराती हुई दिखाई पड़ती है। एक और गीत में हरे बांस को बांधकर बनाई गई चटाई जैसी नौका पर बैठकर जानकी रोमांटिक गीत गाती हैं और राम के हाथ में बांस है यानी वे नाविक की भूमिका में हैं। यहां भी जानकी का परिधान काफ़ी आकर्षक और आधुनिक है। मगर ऐसे दृश्य जानकी के साथ दर्शकों के भावनात्मक जुड़ाव को बाधित करते हैं।

सिनेमा को निर्देशक का माध्यम माना जाता है। इसलिए मनोज मुंतशिर को कठघरे में खड़ा करने के साथ ही निर्देशक ओम राउत से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि रामायण के उदात्त चरित्रों की पारंपरिक छवि को ध्वस्त करके उन्हें नया स्वरूप देने से क्या हासिल हुआ। मुझे नहीं लगता कि ये नए पात्र बच्चों को कोई संस्कार दे पाएंगे।

आदि पुरुष फ़िल्म देख कर ऐसा लगता है जैसे राघव को 40 साल की उम्र में बनवास मिला था। जानकी भी 30 से कम तो नहीं लगतीं। हो सकता है कि सिनेमा हॉल में पांच दस साल के बच्चे आदि पुरुष फ़िल्म का भरपूर लुत्फ़ उठाएं मगर उनके मां-बाप फ़िल्म देखते समय फ़िल्म मेकर द्वारा ली गई आज़ादी से ज़रूर मायूस होंगे। मनोज मुन्तशिर भारतीय संस्कृति के पक्ष में काफ़ी कुछ अच्छा बोलते हैं। यह फ़िल्म उनकी उनकी प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुंचा सकती है। उनके प्रशंसकों को निराश कर सकती है।

विदेशी ऐक्शन फ़िल्मों की तरह फ़िल्म में विजुअल इफेक्ट ज़बरदस्त है। ख़ासतौर से क्लाइमेक्स यानी लंका युद्ध को साकार करने में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल बख़ूबी किया गया है। मगर अधिकांश दृश्य अंधकारमय हैं। बैकग्राउंड साफ़ नहीं दिखता। ऐसा लगता है जैसे लंका युद्ध सूरज डूबने के बाद हुआ था।

फ़िल्म ज़रूरत से ज़्यादा यानी तीन घंटे लम्बी है। क्लाइमेक्स में युद्ध के एक जैसे धुंधले दृश्य देखकर मेरे साथ यह फ़िल्म देखने वाला चौदह साल का बालक बोर होकर सो गया था। कुम्भकर्ण के मरने के बाद वह जागा। कल शुक्रवार को अपराहन 2.40 के शो में जब मैंने गोरेगांव पूर्व के एक थिएटर में यह फ़िल्म देखी तो हाल में 50% भी दर्शक नहीं थे। कुल मिलाकर यह एक संकेत है कि भविष्य में आदि पुरुष फ़िल्म का क्या हश्र होने वाला है।


आपका-
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063
98210 82126

मंगलवार, 13 जून 2023

ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब : विजय 'अरुण' का ग़ज़ल संग्रह

 

ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब : विजय 'अरुण' का ग़ज़ल संग्रह 


वरिष्ठ शायर विजय 'अरुण' के ग़ज़ल संग्रह का नाम है 'ग़ज़ल कमल ग़ज़ल गुलाब।' इस संग्रह में हिंदी और उर्दू की 188 ग़ज़लें शामिल हैं। विजय अरुण में गहरी अंतर्दृष्टि है। सामाजिक मुद्दों की पहचान है। वह साहस और सच्चाई का परचम लहराते हुए आगे बढ़ते हैं। इसलिए उनकी ग़ज़लें मर्म को छूती हैं। 

वर्ण व्यवस्था तो मानक थी कौन से काम के योग्य हो तुम 
पर तुम आज मिश्र और ठाकुर, जाने क्या क्या जात बने 
राम का मंदिर पुनः बनाना बहुत कठिन था मान लिया 
पर तुम राम के पद चिन्हों पर अगर चलो तो बात बने


विजय अरुण राजनीति, धर्म, समाज और संस्कृति पर बेबाक टिप्पणी करते हैं। वे ज़िंदगी की जानी पहचानी तस्वीरों को नई भाव भंगिमा से पेश करते हैं। हिंदी भाषा और उर्दू ज़बान दोनों का समृद्ध कोश उनके पास है। वे अपने फ़िक्र और जज़्बात के इज़हार के लिए शब्द सम्पदा का कारगर इस्तेमाल करते हैं। 

मेरा कोई शत्रु नहीं, कोई मित्र नहीं 
दुनिया वालो क्या यह बात विचित्र नहीं 
चित्रकार! यह चित्र है तो मुंह से बोले
आड़ी सीधी रेखाएं तो चित्र नहीं 

विजय अरुण की विविधरंगी ग़ज़लों में प्रेम, अध्यात्म, धर्म और संस्कृति के साथ देश और समाज के अहम सवाल भी शामिल हैं। 

कलाविद जब किसी सामंत की जागीर हो जाए 
तो उसकी ही कला उसके लिए ज़ंजीर हो जाए 
'अरुण' अस्सी बरस का हो गया इक भी नहीं संग्रह 
कहो उससे कि इस बारे में अब गंभीर हो जाए

संग्रह में कुछ मज़ाहिया ग़ज़लें भी शामिल हैं। उनका सेंस आफ ह्यूमर भी कमाल का है। 

इसे देखिए, यह है नए समय का छैला 
कपड़ा जिसका घिसा पिटा और मैला मैला
वह है पुरुष विवाहित काम से जब घर लौटे
दौड़ा जाए, हाथ में हो भाजी का थैला


विजय अरुण की ग़ज़लें ख़ुद में रचनात्मकता का एक बेहतरीन दस्तावेज़ हैं। उनमें नयापन और ताज़गी है। लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा है। उनके इज़हारे ख़यालात में गहराई है। समसामयिक कथ्य को ग़ज़ल में ढाल देने का हुनर है। कुल मिलाकर विजय अरुण ने साबित कर दिया है कि वे एक ऐसे समर्थ रचनाकार हैं जिनसे नई नस्ल बहुत कुछ सीख सकती हैं। 

आपका : देवमणि पांडेय 
मो : 98210 82126


 प्रकाशक : अद्विक प्रकाशन, 41 हसनपुर आईपी एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली -110092, PH : 011-4351 0732,   +91-95603 97075

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मंगलवार, 28 मार्च 2023

सिने गीतकार पुस्तक समीक्षा: यश मालवीय


फ़िल्मी गीतकारों के सुरीले सफ़र का रेखांकन

बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार होने का मुहावरा संभवतः देवमणि पांडेय जैसे सर्जकों के लिये ही पहले-पहल बना रहा होगा। उन्होंने साहित्य और सिनेमा के रिश्तों को न केवल बहुत क़रीब से देखा है वरन जिया भी है। यह अनायास ही नहीं था जब उनके वर्ष 2003 के 'पिंजर' के लिये लिखे गीत 'चरखा चलाती माँ' को 'बेस्ट लिरिक ऑफ़ दि इयर' के अवॉर्ड से विभूषित किया गया था बल्कि इसके पीछे उनकी एक सुदीर्घ ईमानदार रचना-यात्रा की जययात्रा की अप्रतिम और अनुपम गूँज-अनुगूँज की भी अपनी भूमिका थी। इस गीत की मार्मिकता आज भी मन-प्राण को  छू जाती है। वह यह बात बख़ूबी जानते हैं कि कैसे आमजन का ख़्याल रखते हुए अदब की रूह को ज़िन्दा रखा जाए, तभी तो वह 'सिने गीतकार' जैसी बेहद आत्मीय और नायाब क़िताब लिख सके।

हिन्दी के पाठकों के लिये यह एक अलग क़िस्म की अनूठी और अनोखी सर्जना है, विलक्षण पठनीयता से ओतप्रोत, जिसमें पढ़ने वाले का भी एक लगाव भरा रिश्ता उन प्रतिभासंपन्न सिने गीतकारों से बनता है, जिन्होंने सिने माध्यम की तमाम सीमाओं के होते हुए भी साहित्य की आत्मा के साथ न्याय किया है। श्रेष्ठता बोध से भरे तमाम साहित्यिकों को भी यह क़िताब आइना दिखाती है। सिनेमा एक बड़ा माध्यम है इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती  और अगर इसके माध्यम से साहित्य व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचता है तो यह एक बड़ी बात है। क़िताब में वह सारे सिने गीतकार शामिल हैं, जिनका साहित्य से भी गहरा नाता रहा है, इसीलिए उनके लिखे गीत न केवल ज़बान पर चढ़े वरन आम आदमी का मुहावरा भी बन गए।

इन गीतकारों को इतने भीतर तक वही गीत-कवि समझ भी सकता था, जिसने रचनात्मक स्तर पर भी  जुड़कर सिनेमा को बहुत प्यारे-प्यारे और स्तरीय गीत दिए हों। केवल सिनेमा के लिखे होने के कारण इन सिनेमाई गीतों को ख़ारिज नहीं किया जा सकता बल्कि कई बार तो साहित्यिक गीत भी इनके आगे पानी भरते नज़र आते हैं। क़िताब में सारे गीतकार ऐसे हैं, जिनकी साहित्य और सिनेमा में समान हैसियत है, जिन्होंने साहित्य और सिनेमा के बीच की खाई को पाटने का अभूतपूर्व कार्य किया है और वह विभाजक रेखा ही मेट दी है, जो साहित्य और सिनेमा को अलग-अलग आँखों से देखती है। हालांकि अपवाद इस बात का भी है जहाँ सिनेमा में शब्द की गरिमा गिरी भी है।

आनन्द बख्शी, इंदीवर, कैफ़ी आज़मी, गोपाल सिंह नेपाली,गोपालदास नीरज,ज़फ़र गोरखपुरी, जां निसार अख़्तर, नक्श लायलपुरी, निदा फ़ाज़ली, पं. प्रदीप, मज़रूह सुल्तानपुरी, योगेश, शैलेंद्र, साहिर लुधियानवी, सुदर्शन फ़ाकिर, हसरत जयपुरी, अभिलाष, क़तील शिफ़ाई, राहत इंदौरी, जावेद अख़्तर और मायागोविंद यह सारे गीतकार क़िताब पढ़ने के बाद बहुत अपने से लगने लगते हैं। गीतकारों पर लिखे हर वृत्तांत का शीर्षक भी उन गीतकारों की किसी बहुत छू लेने वाली पंक्ति से दिया गया है।

गीतकारों पर लिखने के अलावा देवमणि जी ने कुछ सिने आलेख भी क़िताब में दिये हैं, 'गीत-लेखन की चुनौतियाँ: फ़िल्म हासिल,'चरखा चलाती माँ: फ़िल्म पिंजर का गीत', 'धुन पर गीत लेखन: फ़िल्म कहाँ हो तुम',' सिने गीतों में देशभक्ति की भावना, ''ऐ मेरे वतन के लोगों": गीत का इतिहास, साहित्य और सिनेमा, यह सारे आलेख भी मनोहारी अंदाज़ में लिखे गए हैं। इन्हें लिखना आसान नहीं था, इन्हें लिखने में पांडेय जी ने बहुत पसीना बहाया है।उनके सहज श्रम को भी लक्षित किया जा सकता है। पढ़ने के लिये एक ज़रूरी यह क़िताब अद्विक पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने बेहतरीन साज-सज्जा के साथ प्रकाशित की है। दो सौ पेज़ की इस किताब का #मूल्य ₹300 है।

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यश मालवीय

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शनिवार, 25 मार्च 2023

भोजपुरी फ़िल्मों का इतिहास

 


भोजपुरी फ़िल्मों का इतिहास


आकाशवाणी मुम्बई के सेवानिवृत्त अधिकारी डॉ राजेंद्र संजय की किताब 'भोजपुरी फ़िल्मों का इतिहास' एक संग्रहणीय दस्तावेज़ है। इससे पहले मैंने भोजपुरी सिनेमा के बारे में छिटपुट आलेख ही पढ़े थे। पहली बार इस किताब के ज़रिए भोजपुरी फ़िल्मों के भूत, वर्तमान और भविष्य को बहुत सुरुचिपूर्ण और व्यवस्थित ढंग से पेश करने की सराहनीय कोशिश हुई है। मूल विषय वस्तु के अलावा इसमें कुछ और भी महत्वपूर्ण चीज़ें शामिल की गई हैं। मसलन- चलचित्र के जन्म, भारत में इसके आगमन और मूक फ़िल्मों के निर्माण से लेकर बोलती फ़िल्मों का एक महत्वपूर्ण ख़ाका इस किताब के ज़रिए प्रस्तुत किया गया है। 


लेखक राजेंद्र संजय ने भोजपुरी फ़िल्मों के जन्म और विकास को तीन दौर में समेटा है। इसमें 1962 से लेकर सन् 2000 और उससे आगे का कालखंड शामिल है। यह एक ग़ौरतलब तथ्य है कि पहली बोलती फ़िल्म 'आलमआरा' (हिंदी) के 31 वर्षों के बाद सन् 1962 में भोजपुरी की पहली फ़िल्म बनी- 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो'। भोजपुरी फ़िल्म का यह सपना साकार करने में अभिनेता नज़ीर हुसैन और निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी का विशिष्ट योगदान रहा। यह फ़िल्म रिकॉर्ड तोड़ सफलता के साथ कई सिनेमा हॉल में हाउसफुल चलती रही। 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' फ़िल्म के गीतकार शैलेंद्र और संगीतकार चित्रगुप्त हैं। कथा, पटकथा और संवाद लेखन चरित्र अभिनेता नज़ीर हुसैन ने किया। 


'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' फ़िल्म एक ऐसी लड़की की कहानी है जो शादी के तुरंत बाद विधवा हो जाती है और लोग उसे कुलक्षणी मान लेते हैं। आगे चलकर सबको झूठा साबित करती हुई वह गांव वालों के दकियानूसी विचारों को बदल देती है। इस फ़िल्म में कई सामाजिक समस्याओं को दर्शाया गया था। लोक धुनों पर आधारित इसके गीतों ने पूरे देश में धूम मचा दी थी। दर्शकों ने इस फ़िल्म के कलाकार असीम कुमार, कुमकुम और पदमा खन्ना को स्टार बना दिया। उषा और लता मंगेशकर की आवाज़ में 'हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' शीर्षक गीत घर घर में गाया जाने लगा। "काहे बंसुरिया बजवले, कि सुध बिसरवले, गईल सुखचैन हमार" गीत में लता की आवाज़ ने कमाल किया। मो. रफ़ी के स्वर में एक दर्दीला गीत था- सोनवा के पिंजरा में बंद भईल हाय राम, चिरई के जियरा उदास…यह गीत लोगों को बहुत पसंद आया। इतने सालों बाद भी ऐसे गीतों की लोकप्रियता क़ायम है। 'बिदेशिया' और 'लागी नहीं छूटे राम' फ़िल्मों ने भोजपुरी फ़िल्मों की कामयाबी के इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। 


इन तीन फ़िल्मों की कामयाबी के बाद भोजपुरी फ़िल्म निर्माण में बहुत लोग टूट पड़े। लेकिन बहुत सारी फ़िल्मों को जनता का प्यार नहीं मिला क्योंकि उनमें भोजपुरी जनजीवन अनुपस्थित था। लेखक राजेंद्र संजय ने सालाना आंकड़े जुटाकर भोजपुरी फ़िल्मों की सूची पेश की है। दूसरे दौर में दंगल, बलम परदेसिया, जागल भाग हमार, रूस गइले सैंया हमार, चनवा को ताके चकोर, धरती मैया, गंगा घाट आदि उल्लेखनीय फ़िल्में रहीं। तीसरे दौर में सईंया हमार, ससुरा बड़ा पइसा वाला, गंगा, कब होई गवनवा हमार, भोले शंकर, जैसी भोजपुरी फ़िल्मों ने दर्शकों का मनोरंजन किया। 


यह भी उल्लेखनीय बात है कि लेखक ने सभी महत्वपूर्ण फ़िल्मों का कथा सार प्रस्तुत किया है। साथ ही उनके गीत संगीत पर बात की है और जनता का इनके साथ क्या प्रतिसाद रहा उसका भी आकलन किया है। बीच-बीच में ऐसी भी भोजपुरी फ़िल्में आईं जिनके द्विअर्थी संवादों और फूहड़ गीतों ने सिने प्रेमियों को निराश किया। लेखक के अनुसार नई सदी की फ़िल्मों से उम्मीद बंधी है कि भविष्य की भोजपुरी फ़िल्मों में भोजपुरिया संस्कृति, कला, रहन-सहन और रीति-रिवाज का सही और मर्यादित चित्रण होगा। सेक्सी दृश्यों के फिल्मांकन में अतिरेक पर अंकुश लगाया जाएगा। गीतों में फूहड़ता और सस्तेपन का निषेध होगा। इस किताब में भोजपुरिया कला संस्कृति और जीवन शैली पर महत्वपूर्ण आलेख हैं साथ ही हिंदी फ़िल्मों में भोजपुरी गीतों के सफ़र को बहुत प्रमाणिक तरीके से पेश किया गया है। 


किताब की साज सज्जा और छपाई आकर्षक है। इसके प्रकाशक हैं- संस्कार साहित्य माला, अंधेरी, मुंबई- 400058, फ़ोन : 98209 46062 / 99699 77079 

पुस्तक का मूल्य है 1800/- रूपए


आपका : देवमणि पांडेय (मुम्बई) मो : 98210 82126

devmanipandey@gmail.com 

तुम्हीं से ज़िया है : ज़िया का ग़ज़ल संग्रह


तुम्हीं से ज़िया है : ज़िया का ग़ज़ल संग्रह


वक़्त के साथ-साथ ग़ज़ल का चेहरा बदला है। सुभाष पाठक ज़िया की ग़ज़लों में भी ये बदलते हुए अक्स नज़र आते हैं। उनके पास कथ्य की विविधता है और उसे ख़ूबसूरती से पेश करने का हुनर भी है। 'दिल धड़कता है' ग़ज़ल संग्रह के बाद शिवपुरी (म. प्र.) के युवा ग़ज़लकार ज़िया का नया ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है- 'तुम्हीं से ज़िया है'। उनकी ये ग़ज़लें नई संभावनाओं का संकेत देती हैं। वे नई शब्द संपदा और नए भाव बोध के साथ ग़ज़ल का गुलदस्ता सजाते हैं। अभिव्यक्ति का नया तेवर उन्हें एक अलग पहचान देता है। 


इस संग्रह में शामिल 106 ग़ज़लों में एहसास की शिद्दत है और अपने वक़्त की आहट है। सीधी सरल ज़बान में अपने कथ्य को बड़ी सादगी से वे अभिव्यक्ति का लिबास पहना देते हैं। हमारे आस पास के मंज़र को ज़िया बड़े सलीक़े से ग़ज़ल के पैकर में ढाल देते हैं। एक जानी पहचानी बात को जब वे अपने नज़रिए से पेश करते हैं तो उसमें नयापन और ताज़गी शामिल हो जाती है- 


सूरज जब दिन की बातों से ऊब गया 

परवत से उतरा दरिया में डूब गया 

मख़मल की चादर कांटों सी लगती है 

जाने वाला 'लॉन' से लेकर दूब गया 


ग़ज़ल एक ऐसी चित्रकारी है जिसके कैनवास पर नए रदीफ़ और नए क़ाफ़िए के इस्तेमाल से नए रंग उभारे जा सकते हैं। सुभाष पाठक ज़िया में यह हुनर मौजूद है। उन्होंने अपने रचनात्मक कौशल से अपनी ग़ज़लों में यह कमाल दिखाया है। एक मंज़र देखिए- 


शजर उदास न हो गर उतर गए पत्ते 

हवा उदास थी ख़ुश उसको कर गए पत्ते 

हरे रहे, हुए पीले, फिर एक दिन सूखे 

सफ़र हयात का तय ऐसे कर गए पत्ते 


ज़िया जब ग़ज़ल में रिवायती लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं तो उनमें भी नई मिठास और नई ख़ुशबू घोल देते हैं। उनकी ग़ज़लों में इश्क़ का आगाज़ है, ख़ामुशी की आवाज़ है और दिल धड़कने का अंदाज़ भी है। ग़ज़ल की शाह राह पर मुसाफ़िरों की बहुत भीड़ है मगर जिया की ग़ज़लों का रोशन चेहरा दूर से नज़र आता है। इन ग़ज़लों में फ़िक और एहसास के वे सभी रंग शामिल हैं जो ज़िंदगी की तस्वीर को ख़ुशनुमा बनाते हैं। इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं ज़िया को बधाई देता हूं। मुझे उम्मीद है कि उनकी ग़ज़लों की ख़ुशबू दूर दूर तक पहुंचेगी। अमिता प्रकाशन मुजफ्फरपुर से प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह का मूल्य ₹300 है। 


आपका- 

देवमणि पांडेय :  98210 82126

devmanipandey@gmail.com 

रविवार, 12 फ़रवरी 2023

आनंद बख़्शी के गीतों में ज़िंदगी की दास्तान

 


आनंद बख़्शी के गीतों में ज़िंदगी की दास्तान 


अद्विक पब्लिकेशन नई दिल्ली से सिने गीतकार आनंद बक्शी की आत्मकथा प्रकाशित हुई है- "नग़्मे क़िस्से बातें यादें"। इस आत्मकथा का लेखन उनके बेटे राकेश आनंद बक्शी ने अंग्रेजी में किया था जिसका अनुवाद लोकप्रिय उद्घोषक यूनुस ख़ान ने हिंदी में किया। यूनुस ख़ान का अनुवाद इतना सरल, सहज और आत्मीय है कि इस  किताब में ज़बरदस्त पठनीयता है। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि फ़िल्म लेखक सलीम ख़ान, शायर जावेद अख़्तर और डॉ इंद्रजीत सिंह के साथ इसमें आनंद बक्शी पर लिखी मेरी भूमिका प्रकाशित हुई है। साथ ही इस कालजयी गीतकार पर जाने-माने नवगीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र की काव्यांजलि प्रकाशित हुई है- "सप्तर्षियों में तुम नए अगस्त हुए"।

गीतकार आनंद बख्शी का जन्म अविभाजित भारत के रावलपिंडी नगर में 21 जुलाई 1930 को हुआ था। 19 साल की उम्र में 2 अक्टूबर 1947 को उनका परिवार एक शरणार्थी के रूप में इस देश में दाख़िल हुआ और इस देश की मिट्टी पानी हवा से आनंद बक्शी ने अपना जो रिश्ता जोड़ा वह किसी से छुपा नहीं है। इस पुस्तक में आनंद बक्शी के बचपन और जवानी के दिनों की कई मार्मिक दास्तानें हैं। सन् 1936 में यानी जब आनंद बक्शी 6 साल के थे उनकी मां का स्वर्गवास हो गया। वे अपने साथ मां की तस्वीर और एक छोटी-सी बोतल में रावलपिंडी की मिट्टी लेकर इस देश में आए थे। आजीवन इस थाती को उन्होंने संभाल कर रखा। आगे चलकर फ़िल्मों में उन्होंने मां के प्यार, दुलार और ममता के नाम कई गाने लिखे- मां तुझे सलाम, मां मुझे अपने आंचल में छुपा ले, तू कितनी अच्छी है, मेरे मैंने मां को देखा है मां का प्यार नहीं देखा, बड़ा नटखट है रे, मां ने कहा था वो बेटा, मेरे राजा मेरे लाल तुझको ढूंढू मैं कहां आदि। कुल मिलाकर हिंदी सिने जगत में वे मां के ऊपर सबसे ज़्यादा गीत लिखने वाले गीतकार हैं। उनका पूरा नाम है आनंद प्रकाश बख़्शी। एक निर्माता ने उनके नाम की स्पेलिंग 'बक्शी' लिख दी तबसे सिने जगत में यही नाम प्रचलित हो गया।

आनंद बख़्शी के गीतों को सुनकर बचपन में ही गीत संगीत के प्रति मेरे मन में लगाव पैदा हो गया था। बचपन में एक शादी समारोह में एक तवायफ के गाए दो गीत आज भी स्मृति में ताज़ा हैं- "ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू/ कोरे काग़ज़ पे लिख दे सलाम बाबू" और "रूठे सैंया हमारे सैंया क्यूं रूठे/ ना तो हम बेवफ़ा ना तो हम झूठे।" इन गीतों के गीतकार आनंद बख़्शी हैं। आनंद बख़्शी की अभिव्यक्ति में लोकगीतों की ख़ुशबू है। इसीलिए साठ सत्तर के दशक में लिखे गए उनके कई सिने गीत लोकगीत बनकर जनमानस में रच बस गए हैं। ग्राम्य जीवन के उत्सवों में आज भी उन्हें गाया जाता है। दूर-दराज के जनजीवन में अपने गीतों के ज़रिए ऐसा अमिट रिश्ता क़ायम कर लेना आनंद बख़्शी की लेखनी का कमाल था।


बचपन से ही रेडियो पर आनंद बख़्शी के गीत सुनते हुए उनके लफ़्ज़ों के साथ मेरा एक आत्मीय रिश्ता जुड़ गया। धीरे-धीरे एहसास हुआ कि आनंद बख़्शी तुकों के जादूगर हैं। फ़िल्म 'दो रास्ते' (1969) में उनका यह कमाल शिखर पर दिखाई देता है- "अमवा की डाली, पे गाए मतवाली, कोयलिया काली,निराली"। एक लाइन में चार तुकों का ऐसा अदभुत इस्तेमाल बस वही कर सकते थे। इसी गीत की एक और लाइन में चार तुकों का यह जादू देखिए- "छोड़ ना बैंया, पड़ूं तेरे पइंया, तारों की छइंया, में सइंयां।


क़ाबिले तारीफ़ बात यह है कि आनंद बख़्शी तुकों का इस्तेमाल इस ख़ूबसूरती के साथ करते हैं कि उनमें अर्थ की बुलंदी नज़र आने लगती है। यह कोई आसान काम नहीं है। इसे फ़िल्म 'दुल्हन' (1974) में उनके एक गीत से समझा जा सकता है- "आएगी ज़रूर चिट्ठी मेरे नाम की, 'सब' देखना/ हाल मेरे दिल का हो लोगो, 'तब' देखना।" 


मुखड़े में 'तब' और 'सब' आ गया तो यह जिज्ञासा पैदा होना स्वाभाविक है कि इसके बाद क्या आएगा। मगर ऐसी अप्रचलित तुको में भी कहानी के अनुसार आनंद बख़्शी ने कमाल किया- "छलक पड़ेंगे आंसू 'अब' देखना/ मानेगा रूठा मेरा 'रब' देखना/ कांप उठेंगे मेरे 'लब' देखना।" 


आनंद बक्शी के बारे में मशहूर है कि वे फ़िल्म के गीत की सिचुएशन को बहुत ध्यान से सुनते थे। यही कारण है कि उनकी रोचक तुकबंदी फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाने का काम करती है। फ़िल्म 'महबूबा' (1976)  में उनका एक गीत है- "मेरे नैना सावन भादों, फिर भी मेरा मन प्यासा।" अगर किसी से 'प्यासा' की तुक पूछी जाए तो वह झट से बोलेगा- 'आशा', 'निराशा'। आनंद बख़्शी का कमाल देखिए कि उन्होंने इन दोनों तुकों का इस्तेमाल एक ही एक लाइन में कर दिया- "मन संग आंख मिचौली खेले आशा और निराशा।" इसके बाद उन्होंने जिन तुकों का इस्तेमाल किया वे कहानी के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं। यानी वे कहानी को आगे बढ़ाते हैं- "रुत आए रुत जाए देकर झूठा एक 'दिलासा'/ तड़प तड़प के इस बिरहन को आया चैन 'ज़रा सा'/ सूने महल में नाच रही है अब तक इक 'रक़्क़ासा'।"


जैसे धनक में सात रंग होते हैं उसी तरह आनंद बख़्शी के गीतों में मौसम के सभी रंग शामिल हैं। बख़्शी साहब दिल जोड़ने के लिए भी लिखते थे और दिल तोड़ने के लिए भी। वे हंसाते थे और रुलाते भी थे। उनके गीतों में ज़िंदगी की जीती जागती दास्तान है। भावनाओं और सम्वेदनाओं का ऐसा समंदर है जो हर उम्र के लोगों से अपना नाता जोड़ लेता है। मां बाप, भाई बहन, प्रेमी प्रेमिका, दुश्मन दोस्त, होली दीवाली... उन्होंने सबके लिए गीत लिखे। आनंद बख़्शी अपने साथ गांव की मिट्टी की ख़ुशबू, जन जीवन की ज़िंदादिली और लोक संगीत की मिठास लेकर आए थे। अपने गीतों में उन्होंने इस पूंजी का बख़ूबी इस्तेमाल किया। हर फ़िल्म उनके लिए एक इम्तहान थी। हर फ़िल्म में उन्होंने साबित किया कि वे एक अच्छे गीतकार हैं। यही कारण है कि आज भी आनंद बख़्शी के गीत महानगरों से लेकर दूरदराज गांवों तक गूंज रहे हैं। इस बात की बेहद ख़ुशी है कि मुझे ऐसे महान गीतकार से मिलने का, गपशप करने का और बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला। वे हमेशा हम सबकी स्मृतियों में ज़िंदा रहेंगे।

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देवमणि पांडेय : 98210 82126

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बुधवार, 11 जनवरी 2023

मुंबई के अतीत का आईना : आमची मुम्बई



मुंबई के अतीत का आईना : आमची मुम्बई 


लेखक पत्रकार राजेश विक्रांत की किताब 'आमची मुंबई' ख़ुद में एक जीवंत दस्तावेज़ है। उन्होंने जिस लगन और निष्ठा से मुंबई के रोचक इतिहास को साकार किया है वह बेमिसाल है। जो लोग मुंबई के अद्भुत अतीत को और सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य को जानना समझना चाहते हैं उनके लिए यह बहुत उपयोगी किताब है। इस किताब में सिनेमा का उद्भव है और वास्तुकला का वैभव भी है। मुंबई की पहली ट्रेन की कथा है तो ट्राम, बस और लोकल ट्रेन के विकास की गाथा भी है। मुंबई को संवारने और निखारने में जिन्होंने योगदान किया उनका ज़िक्र भी है। कुल मिलाकर यह किताब मुंबई के गुज़रे हुए कल का एक ख़ूबसूरत आईना है। मुझे आशा है कि यह किताब नई पीढ़ी को भी पसंद आएगी और वे मुंबई की ऐतिहासिक जानकारी से ख़ुश होंगे। इस महत्वपूर्ण रचनात्मक उपलब्धि के लिए राजेश विक्रांत को बधाई हार्दिक शुभकामनाएं।

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