देवमणि पांडेय की ग़ज़ल
परवाज़ की तलब है अगर आसमान में
ख़्वाबों को साथ लीजिए अपनी उड़ान में
मोबाइलों से खेलते बच्चों को क्या पता
बैठे हैं क्यूँ उदास खिलौने दुकान में
ये धूप चाहती है कि कुछ गुफ़्तगू करे
आने तो दीजिए उसे अपने मकान में
लफ़्ज़ों से आप लीजिए मत पत्थरों का काम
थोड़ी मिठास घोलिए अपनी ज़ुबान में
जो कुछ मुझे मिला है वो मेहनत से ही मिला
मैं ख़ुश बड़ा हूँ दोस्तो छोटे मकान में
हम सबके सामने जिसे अपना तो कह सकें
क्या हमको वो मिलेगा कभी इस जहान में
उससे बिछड़के ऐसा लगा जान ही गई
वो आया जान आ गई है फिर से जान में
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