शनिवार, 31 जुलाई 2010

कचौड़ी गली सून कइले बलमू : बनारसी कजरी


मिर्ज़ापुर कइलन गुलज़ार हो

सावन में तीज का त्योहार मनाया जाता है। राजस्थान में इसे हरियाली तीज और उत्तर प्रदेश में कजरी तीज या माधुरी तीज कहा जाता है। हरापन समृद्धि का प्रतीक है। स्त्रियाँ हरे परिधान और हरी चूड़ियाँ पहनती हैं। हरे पत्तों और लताओं से झूलों को सजाया जाता है। झूले और कजरी के बिना सावन की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ हर त्योहार के पीछे कोई न कोई सामाजिक या वैज्ञानिक कारण होता है। कुछ लोगों का कहना है कि बरसात में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। झूला झूलने से हमें अधिक ऑक्सीजन मिलती है। 

कजरी लोकगीत गायन की एक शैली है। कहा जाता है कि इसका जन्म मिर्ज़ापुर में हुआ। और बनारस ने इसे लोकप्रिय बनाया। कजरी में प्रेम के दोनों पक्ष यानी संयोग और वियोग दिखाई देते हैं। कजरी में लोक जीवन की कथा और देश प्रेम की यादगार दास्तान भी होती है। सावन आते ही पेड़ों पर झूले पढ़ जाते थे मगर वह पेड़ नहीं रहे जिन पर टंगे विशाल झूलों में एक साथ दस दस औरतें झूलती  थीं।

कजरी में प्रेम के दोनों पक्ष यानी संयोग और वियोग दिखाई देते हैं। कभी-कभी इसके पीछे कोई लोक कथा या यादगार दास्तान होती है। आज़ादी के आंदोलन का दौर था। शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था। एक नौजवान अपनी प्रियतमा से मिलने जा रहा था। एक अँग्रेज़ सिपाही ने गोली चला दी। मारा गया। मगर वह आज भी कजरी में ज़िंदा है - 'यहीं ठइयाँ मोतिया हेराय गइले रामा ...'

मॉरीशस और सूरीनाम से लेकर जावा-सुमात्रा तक जो लोग आज हिंदी का परचम लहरा रहे हैं, कभी उनके पूर्वज एग्रीमेंट (गिरमिट) पर यानी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में वहाँ गए थे। इन लोगों को ले जाने के लिए मिर्ज़ापुर सेंटर बनाया गया था। वहाँ से हवाई जहाज़ के ज़रिए इन्हें रंगून पहुँचाया जाता था। जहाँ पानी के जहाज़ से ये विदेश भेज दिए जाते थे। बनारस की कचौड़ी गली में रहने वाली धनिया का पति जब इस अभियान पर रवाना हुआ तो कजरी बनी। उसकी व्यथा-कथा को सहेजने वाली कजरी आपने ज़रूर सुनी होगी- 
मिर्ज़ापुर कइले गुलज़ार हो ...

कचौड़ी गली सून कइले बलमू...
यही मिर्ज़ापुरवा से उड़ल जहजिया
पिया चलि गइले रंगून हो... 

कचौड़ी गली सून कइले बलमू...
मिर्ज़ापुर कइलन गुलज़ार हो ...

एक बार शास्त्रीय गायिका डॉ.सोमा घोष जब मुम्बई के एक कार्यक्रम में यह कजरी गा रही थीं तो उनके साथ संगत कर रहे थे भारतरत्न स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ। उन्होंने शहनाई पर ऐसा करुण सुर उभारा जैसे कलेजा चीरकर रख दिया हो। भाव भी कुछ वैसे ही कलेजा चाक कर देने वाले थे। प्रिय के वियोग में धनिया पेड़ की शाख़ से भी पतली हो गई है। शरीर ऐसे छीज रहा है जैसे कटोरी में रखी हुई नमक की डली गल जाती है -

डरियो से पातर भइल तोर धनिया
तिरिया गलेल जस नून हो...
कचौड़ी गली सून कइले बलमू... 

डॉ.सोमा घोष को स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ अपनी पुत्री मानते थे। सोमा जी हर साल उस्तादजी की याद में कार्यक्रम करती हैं। सोमाजी के 'यादें' नामक अलबम में यह लाइव कजरी शामिल है। बचपन मेंअपने गाँव में कजरी उत्सव में मैंने जो झूला देखा था उसकी स्मृतियाँ अभी भी ताज़ा हैं। आँखें बंद करता हूँ तो आज भी झूले पर कजरी गाती हुई स्त्रियाँ दिखाईं पड़ती हैं- अब के सावन मां साँवरिया तोहे नइहरे बोलाइब ना..' गाँव की उन्हीं मधुर स्मृतियों के आधार पर लिखे गए तीन गीत आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं।

(1) महीना सावन का

सजनी आंख मिचौली खेले बांध दुपट्टा झीना
महीना सावन का
बिन सजना क्या जीना महीना सावन का ......

मौसम ने ली है अंगड़ाई
चुनरी उड़ि उड़ि जाए
बैरी बदरा गरजे बरसे
बिजुरी होश उड़ाए

घर-आंगन, गलियां चौबारा आए चैन कहीं ना
महीना सावन का ......

खेतों में फ़सलें लहराईं
बाग़ में पड़ गये झूले
लम्बी पेंग भरी गोरी ने
तन खाए हिचकोले

पुरवा संग मन डोले जैसे लहरों बीच सफ़ीना
महीना सावन का ......

बारिश ने जब मुखड़ा चूमा
महक उठी पुरवाई
मन की चोरी पकड़ी गई तो
धानी चुनर शरमाई

छुई मुई बन गई अचानक चंचंल शोख़ हसीना
महीना सावन का ......

कजरी गाएं सखियां सारी
मन की पीर बढ़ाएं
बूंदें लगती बान के जैसे
गोरा बदन जलाएंअब के जो ना आए संवरिया ज़हर पड़ेगा पीना
महीना सावन का ......

(2) सावन के सुहाने मौसम में


खिलते हैं दिलों में फूल सनम सावन के सुहाने मौसम में
होती है दिलों से भूल सनम सावन के सुहाने मौसम में


यह चाँद पुराना आशिक़ है 
दिखता है कभी छिप जाता है
छेड़े है कभी ये बिजुरी को
बदरी से कभी बतियाता है

यह इश्क़ नहीं है फ़िज़ूल सनम सावन के सुहाने मौसम में

बारिश की सुनी जब सरगोशी
बहके हैं क़दम पुरवाई के
बूंदों ने छुआ जब शाख़ों को
झोंके महके अमराई के

टूटे हैं सभी के उसूल सनम सावन के सुहाने मौसम में

यादों का मिला जब सिरहाना
बोझिल पलकों के साए हैं
मीठी सी हवा ने दस्तक दी
सजनी कॊ लगा वॊ आए हैं

चुभते हैं जिया में शूल सनम सावन के सुहाने मौसम में


(3) बरसे बदरिया (लोक धुन पर आधारित)

बरसे बदरिया सावन की
रुत है सखी मनभावन की

बालों में सज गया फूलों का गजरा
नैनों से झांक रहा प्रीतभरा कजरा
राह तकूं मैं पिया आवन की
बरसे बदरिया सावन की .....

चमके बिजुरिया मोरी निंदिया उड़ाए
याद पिया की मोहे पल पल आए
मैं तो दीवानी हुई साजन की
बरसे बदरिया सावन की .....

महक रहा है सखी मन का अँगनवा
आएंगे घर मोरे आज सजनवा
पूरी होगी आस सुहागन की
बरसे बदरिया सावन की .....


==== देवमणि पांडेय ====



Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti,
Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063
M : 98210-82126
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रविवार, 18 जुलाई 2010

कौन बसंती धो गई नदी में अपने गाल : ज़फ़र गोराखपुरी


दोहे पर विचार-विमर्श


हिंदी में ‘ग़ज़ल’ और उर्दू में ‘दोहा’ कभी-कभी विवाद का विषय बन जाते हैं। इस मुद्दे पर बहस, तकरार और झड़पें हो चुकी हैं। मुझे लगा कि क्यों न इस मुद्दे पर बुज़ुर्गों की राय ले ली जाए। मुंबई में ज़फ़र गोरखपुरी और नक़्श लायलपुरी का शुमार सबसे वरिष्ठ शायरों में किया जाता हैं। दोहे पर इनकी राय पेश करते हुए मैं सभी पाठकों, कवियों और शायरों से अनुरोध करता हूं कि कृपया मिलजुल कर इस चर्चा को आगे बढ़ाएं। मगर इसके लिए अपनी उत्तेजना पर क़ाबू रखते हुए सह्रदयता, विनम्रता और धीरज से काम लें ताकि रचनात्मकता का भला हो सके।

दोहे में दोहे का अनुशासन ज़रुरी है -ज़फ़र गोराखपुरी


हिंदुस्तान में कबीर, रहीम, मीरां, तुलसी आदि के दोहों की एक समृद्ध परंपरा है । अमीर खुसरो ने भी दोहे लिखे हैं मसलन-

गोरी सोवे सेज पर ,मुख पर डारे केस ।
चल खुसरो घर आपने रैन हुई चहुं देस ।।



दोहे का छंद तेरह और ग्यारह मात्राओं में बंटा हुआ है। अगर इसमें एक भी मात्रा कम या ज़्यादा होती है तो वह दोहा नहीं रह जाता। पाकिस्तान में शायरों ने दोहा लिखने के लिए अलग बहर ( छंद) का इस्तेमाल किया। उसमें तेरह और ग्यारह मात्राओं का अनुशासन नहीं है हिंदुस्तान में भी कई शायरों ने उनका अनुकरण किया। मगर वैसी रचनाओं को ‘दोहा’ घोषित कर देने से उन्हें ‘दोहा’ नहीं माना जा सकता। उन्हें दोहा घोषित करने के बजाय मतला, मुखड़ा, मिनीकविता या मुक्तक जैसा ही कोई नाम देना ठीक होगा।

दोहा बहुत ख़ूबसूरत विधा है। हमें इसकी शुद्धता बरकरार रखनी चाहिए। दोहे में छंद के अनुशासन के साथ ही प्रभावशाली कथ्य और आम फहम भाषा का भी होना ज़रुरी है। अरबी, फ़ारसी या संस्कृत के कठिन शब्दों में दोहा लिखना दोहे के साथ अन्याय करना है। सहजता, सरलता और तर्क संगत बात दोहे में ज़रुरी है और यह बात तेरह- ग्यारह मात्राओं की बंदिश के साथ होनी चाहिए ।

ज़फ़र गोरखपुरी के दोहे

कौन बसंती धो गई, नदी में अपने गाल ।
तट ख़ुशबू से भर गया, सारा पानी लाल ।।

मेंहदी ऐसी रच सखी, आज हथेली थाम ।
लाल लकीरें जब मिलें, उभरे पी का नाम ।।

पी ने भीगी रैन में, आज छुआ यूं अंग ।
नैनों में खिल खिल गए, धनक के सातों रंग ।।

साजन को जल्दी सखी,मन है कि उमड़ा आय ।
कांटा समय के पांव में, काश कोई चुभ जाय ।।

आंगन चंचल नंद-सा, घर है ससुर समान ।
भीत अंदर दो खिड़कियां, ज्यों देवरान जेठान ।।

जन गणना के काम से, अफ़सर आया गांव ।
लाज आए लूं किस तरह, सखी मैं उनका नांव ।।

रैन सखी बरसात की, निंदिया उड़ उड़ जाय ।
थमें ज़रा जो बूंदिया, चूड़ी शोर मचाय ।।

साजन ने तन यूं हुआ, जैसे कोई चोर ।
सुन पाई न मैं सखी, सांसों का भी शोर ।।

मन में पिय के नेह का, चुभा ये कैसा तीर ।
मैके जाने की घड़ी, और आंखों में नीर ।।

गुज़रा घर के पास से, कौन सजिल सुकुमार ।
बिन होली के दूर तक,रंगों की बौछार ।।


दोहे पर बंदिश परवाज़ को रोकने की कोशिश है -नक्श़ लायल पुरी

दोहा हिंदी की देन है जिसमें तेरह और ग्यारह मात्राएं होती हैं। मैंने जानबूझकर इस रवायत से अलग हटकर नई बहर में दोहे लिखे। ग़ज़ल में भी जो रवायती बहरें हैं लोगों ने उनसे अलग नई बहरें ईजाद करके ग़ज़लें कहीं और उन्हें स्वीकार किया गया। दोहा नई बहर में भी हो सकता है मगर दोहे में मौलिकता का ध्यान रखना ज़रुरी है । उसमें ग़ज़ल की ज़बान और ग़ज़ल का कंटेंट नहीं चलता ।

शायर किसी बंदिश को तस्लीम नहीं करता। क़ाफ़िया-रदीफ़ की बंदिश तो हुनर है। शायर किसी विधा के लिए नई बहरें क्यों नहीं तराश सकता ? दोहे को इस दौर में तेरह-ग्यारह की बंदिश में बांधना शायरी की परवाज़ को रोकने की कोशिश है। ग़ज़ल फ़ारसी से आई मगर हिंदुस्तान में जल्दी लोकप्रिय हुई क्यों कि यहां दोहे में यानी दो मिसरों में बात कहने की ट्रैडीशन मौजूद थी । पुरानी ट्रैडीशन में विकास लाने के लिए बदलाव ज़रुरी है। मैंने फ़िल्मों के पारंपरिक मुखड़े को भी बदलने की कोशिश की और यह कोशिश कामयाब हुई । मसलन मेरे दो गीत के मुखड़े हैं-


न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया 
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन

चांदनी रात में इक बार तुझे देखा है
ख़ुद पे इतराते हुए, खुद से शरमाते हुए 


इन मुखड़ों में पारंपरिक तुकबंदी नहीं है। समय आ गया है कि हम नई बहर में दोहे लिखें और विकास का रास्ता रोशन करें।

नक़्श लायलपुरी के दोहे

अपना तो इक पल न बीते, हाथ पे धर के हाथ
दिन मेहनत मज़दूरी का हैं, सैंयाजी की रात

नैनों में सपनों की छाया, हर सपना अनमोल
साजन के संग सभी बहारें,कहूं बजाकर ढोल

आशा बिन जीवन है सूना, ज्यूं बाती बिन दीप
सीप है जीवन, आशा मोती, क्या मोती बिन सीप

आंखों देखी कान सुनी से, धोका भी हो जाए
सच का शोर मचाने वाला, क्या अपना झूठ छुपाए

पेड़ों से पत्ते झड़ जाएं, पेड़ न खोएं धीर
धूप सहें, सर्दी में सिकुड़े, खड़े रहें गंभीर

आंखों को लगते हैं प्यारे प्रेम के सारे रुप
प्रेम चैत की कभी चांदनी, कभी जेठ की धूप

दर्द न जब तक छेदे,दिल में छेद न होने पाए
छेद न हो तो कैसे मोती, कोई पिरोया जाए

तेरे हाथ में देखी मैंने, अपनी जीवन रेखा
मैंने अपना हर सपना, तेरी आंखों से देखा


किसी की पूजा निष्फल जाए, किसी का पाप फूले
हाथ किसी के चांद को नोचें, कोई हाथ मले

धन दौलत,बरसात,जवानी,चार दिनों का खेल
प्रेम की जोत सदा जलती है,बिन बाती बिन तेल



आपका-

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

हम पंडितों के इश्क़ में बरबाद हो गए : मुनव्वर राना


नए मौसम के फूल के लोकार्पण समारोह में पत्रकार उपेंद्र राय, शायर मुनव्वर राना, सहारा इंडिया परिवार के डिप्टी एम.डी.ओ.पी. श्रीवास्तव, प्रकाशक नीरज अरोड़ा और शायर-संचालक देवमणि पाण्डेय (मुम्बई 21 मार्च 2009)

नए मौसम के फूल : मुनव्वर राना

बादशाहों को सिखाया है कलंदर होना

आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना

मुनव्वर राना की शायरी में पारिवारिक रिश्तों की एक मोहक ख़ुशबू है। लफ़्ज़ों को बरतने का एक ख़ूबसूरत सलीक़ा है। अपने तजुर्बात को पेश करने का एक लासानी अंदाज है। यही ख़ासियतें उन्हें अलग और पुख़्ता पहचान देती हैं। वे अपनी मिट्टी,पानी और हवा से जुड़े हस्सास शायर हैं। वे तर्के- तआल्लुक़ात के इस दौर में भी संयुक्त परिवार का परचम लहराते हुए दिखाई पड़ते हैं – वो भी मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में-

न कमरा जान पाता है न अँगनाई समझती है
कहां देवर का दिल अटका है भौजाई समझती है

मुनव्वर राणा का ख़ानदान विभाजन के वक़्त पाकिस्तान चला गया था। उनके पिता पं.जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर यहीं रह गए। इस मौज़ू पर उनका एक शेर है-

हिजरत को भूल-भालकर आबाद हो गए
हम पंडितों के इश्क़ में बरबाद हो गए

भारत-पाक विभाजन के दर्द पर मुनव्वर राणा ने एक ग़ज़ल कही है-

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं

इसके ज़रिए उन्होंने एक नया रिकार्ड कायम किया है। इस ग़ज़ल में पाँच सौ शेर हैं। यानी इसे एक लम्बी नज़्म भी कह सकते हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने बताया कि यह तवील ग़ज़ल एक किताब की शक़्ल में ‘मुहाजिरनामा’ नाम से शाया हो गई है। इस आलेख के आख़िर में ‘मुहाजिरनामा’ से चंद अशआर आपके लिए पेश किए गए हैं।

हमारे सीनियर शायर जब हमें किताबें भेंट करते हैं तो अच्छा लगता है। शायर मुनव्वर राना ने मुझे अपनी किताब ‘घर अकेला हो गया’ दिनांक 24-11-04 को भेंट की। किताब के इस नाम के पीछे एक एहसास छुपा हुआ है। भाई राना की पांच बेटियां हैं। इनमें चार की शादी हो चुकी है। चौथी बेटी की शादी पटना (बिहार) में हुई है। एक दिन इस बेटी ने उनको एक एसएमएस भेजा ‘पापा ! आप और मम्मी सोचते होंगे कि हमारी शादी करके आप अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो गए। मगर हम ये सोचते हैं कि अगर कुछ दिन और मम्मी-पापा की सेवा कर लेते तो बेहतर होता।’ इसे पढ़कर राना को देर रात तक नींद नहीं आई। फिर उन्होंने बेटी को एक शेर एसएमएस किया-

ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गईं आंगन से चिड़ियां घर अकेला हो गया

इसी मौज़ू पर लिखा हुआ उनका एक शेर और भी मक़बूल हुआ-

ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन मां को ख़ुश रखना
ये कपड़ो की मदत से अपनी लम्बाई छुपाती है

जनवरी में एक दिन राना साहब से बात हुई। बोले- यार सर्दियों में बीवी से रिश्ते बड़े अच्छे हो जाते हैं क्योंकि ज्य़ादातर समय मैं घर पर ही रहता हूँ। वैसे कभी-कभी मुझे सर्दी में भी गर्मी लगती है। एक बार लालक़िले के मुशायरे में जनवरी में कुर्ता-पायजामा पहनकर चला गया। बाक़ी शायर टाई-शूट में या कम्बल ओढ़कर आए थे। मेरे पीछे फुसफुसाहट शुरु हो गई – ‘देखो साला पीकर आया है, इसलिए इसे ठंड नहीं लग रही है।’

पीने से तो नहीं मगर पान पराग ज़्यादा खाने से मुनव्वर राना बीमार पड़ गए। डाक्टर के पास गए। डाक्टर ने कहा-‘अगर जीना चाहते हो तो गुटका (पान पराग) खाना छोड़ दो ।’ राना बोले, डाक्टर साहब ! अभी-अभी एक मतला हुआ है। सुनिए-

ये ज़हर ए जुदाई हमें पीना भी पड़ेगा
क्या सारे नशे छोड़कर जीना भी पड़ेगा

डाक्टर हँसने लगा। यानी दूसरों को हँसाने का हुनर राना साहब को मालूम है। दुष्यंत कुमार ने कहा था - मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ । सचमुच राना के लिए ग़ज़ल अब उनका ओढ़ना बिछौना बन गई है । 21 मार्च 2009 को मुंबई के पांच सितारा होटल सहारा स्टार में उनकी नई किताब ‘नए मौसम के फूल’ का लोकार्पण हुआ। उन्होंने बताया- ‘पहले घर से निकालता था तो देखता था – कौन सा शूट रखना है, कौन सा कुर्ता पायज़ामा रखना है । अब घर से बाहर जाता हूँ तो देखता हूँ कौन सी दवा रखनी है, कौन सी टेबलेट लेनी है।’ ज़िंदगी के इस मुकाम को उन्होंने ग़ज़ल में इस तरह दर्ज किया –

हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
मैं अब तनहा नहीं चलता दवा भी साथ चलती है
अभी ज़िंदा है मां मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकालता हूँ दुआ भी साथ चलती है

मुनव्वर राना इस समय मुशायरों के सुपरहिट शायर हैं। पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक मौजूद हैं। शायद इसलिए कि वे हर उम्र और हर वर्ग के आदमी को अपनी शायरी का किरदार बना लेते हैं। बुज़ुर्गों की शान में उनके फ़न का कमाल देखिए-

हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आए
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आए
तलवार की मियान कभी फेंकना नहीं
मुमकिन है दुश्मनों को डराने के काम आए

एक अच्छा शायर कहीं न कहीं अपने फ़न के ज़रिए अपनी शाख्सियत से भी रुबरु होता है । राना साहब भी कहते हैं-

ख़ुश ख़ुश दिखाई देता हूँ बीमार मैं भी हूँ
दुनिया को क्या पता कि अदाकार मैं भी हूँ
करता रहा हूँ अपने मसाइल से रोज़ जंग
छोटे से इक कबीले का सरदार मैं भी हूँ


उनके कुछ प्रशंसकों का कहना है कि राना साहब तो फ़कीर हैं। वैसे उनकी शायरी मैं फ़कीराना अदा भी दिखाई देती है –


आए हो तो इक मुहरे-गदागर भी लगा दो
इस चांद से माथे पे ये झूमर भी लगा दो
अजदाद की ख़ुशबू मुझे जाने नहीं देगी
इस पेड़ के नीचे मेरा बिस्तर भी लगा दो

सीधे साधे लफ़्ज़ों में गहरी बात कह देना शायरी में बहुत बड़ा हुनर माना जाता है। मुनव्वर राना इस हुनर के बाकमाल शायर हैं –

कलंदर संगमरमर के मकानों में नहीं मिलता
मैं असली घी हूँ बनियों की दुकानों में नहीं मिलता

ग़ज़ल में कैसे कैसे रुख निकाले हैं मुनव्वर ने
किसी भी शेर को पढ़िए तो तहदारी निकलती है


कमाल का ये हुनर हासिल कैसे होता है ? एक जगह मुनव्वर राना ने इज़हारे-ख़याल किया है –

ख़ुद से चलके नहीं ये तर्ज़े-सुख़न आया है
पांव दाबे हैं बुज़ुर्गो के तो ये फ़न आया है


मानी की गहराई, एहसास की ऊँचाई और अल्फाज़ की नरमाई के चलते मुनव्वर राना अक्सर ऐसे शेर कह जाते हैं जो सुनने-पढ़ने वालों को एक बार में ही याद होकर उनके वजूद का हिस्सा बन जाते हैं,मसलन -
भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है

बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं है
ये आंखों के लिए अच्छा नहीं है

मोहब्बत में तुम्हें आँसू बहाना तक नहीं आया
बनारस में रहे और पान खाना तक नहीं आया


एक अच्छा शायर अगर अच्छा इंसान भी हो तो सोने में सुहागा। राना साहब अच्छे, विनम्र और मिलनसार इंसान हैं। वे हमेशा ख़ुश रहते हैं और दूसरों को भी ख़ुश देखना चाहते हैं।अगर उनके साथ दो-चार दोस्त भी हों तो प्रति मिनट एक ठहाके की गारंटी है। आइए मिलकर दुआ करें कि ऊपर वाला ऐसे नेक इंसान और उम्दा शायर को लम्बी उम्र बख़्शे। राना साहब का ही शेर है-

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊँ
जिस शान से आया हूँ उसी शान से जाऊँ

पेश हैं मुहाजिरनामा से चंद अशआर-

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं
कि हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं

किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं

पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं

वज़ारत भी हमारे वास्ते कम मरतबा होगी
हम अपनी माँ के हथों में निवाला छोड़ आए हैं

अगर लिखने पे आ जाएं तो स्याही ख़त्म हो जाए
कि तेरे पास आए हैं तो क्या क्या छोड़ आए हैं

आपका-

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126 

मौत से आगे सोच के आना : अब्दुल अहद साज़



शायर अब्दुल अहद साज़ 

16 अक्तूबर 1950 को मुम्बई में जन्मे अब्दुल अहद ‘साज़’ इस दौर के नुमाइंदा शायर हैं। वे ख़ूबसूरत ग़ज़लें कहते हैं तो असरदार नज़्में भी। देश- विदेश की उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं में उनकी कविताएं और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। ऑल इंडिया तथा अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों में वे शिरकत कर चुके हैं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की सदारत में पाकिस्तान के मुशायरे में शिरकत करने वाले साज़ ने फ़ैज़ साहब से भी अपने ख़ूबसूरत कलाम के लिए दाद वसूल की। दूरदर्शन तथा अन्य चैनलों और रेडियो कार्यक्रमों में कवि और संचालक के तौर पर शिरकत करने वाले साज़ ने तनक़ीद (आलोचना) के इलाक़े में ऐसे कारनामे अंजाम दिए हैं कि अहले-उर्दू उन्हें अपने अदब की आबरू समझते हैं। उनकी शायरी की दो किताबें मंज़रे-आम पर आ चुके हैं- ख़ामोशी बोल उठी है और सरगोशियां ज़मानों की। उन्हें बिहार उर्दू अकादमी अवार्ड, पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी, जेमिनी अकादमी (हरियाणा) और महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा जा चुका है। साज़ बाल कविताएं लिखने का नेक काम भी करते हैं। महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड की युवा भारती तथा बाल भारती के पाठ्यक्रम में उनकी कविताएं शामिल हैं। 

सम्पर्क : +91-98337-10207/ 022- 2342 7824


अब्दुल अहद साज़ की पाँच ग़ज़लें
(1)

मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
छोटी छोटी बातों में दिलचस्पी लेना

जज़्बों के दो घूँट अक़ीदों के दो लुक़मे
आगे सोच का सेहरा है, कुछ खा-पी लेना

नर्म नज़र से छूना मंज़र की सख़्ती को
तुन्द हवा से चेहरे की शादाबी लेना

आवाज़ों के शहर से बाबा ! क्या मिलना है
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी लेना

महंगे सस्ते दाम , हज़ारों नाम थे जीवन
सोच समझ कर चीज़ कोई अच्छी सी लेना

दिल पर सौ राहें खोलीं इनकार ने जिसके
‘साज़’ अब उस का नाम तशक्कुर से ही लेना

अक़ीदों : श्रद्धाओं , लुक़मे : निवाले , सेहरा : रेगिस्तान, शादाबी : ताज़गी , तशक्कुर : शुक्रिया/धन्यावाद

(2)
मैं ने कब चाहा कि मैं उस की तमन्ना हो जाऊँ
ये भी क्या कम है अगर उस को गवारा हो जाऊँ

मुझ को ऊँचाई से गिरना भी है मंज़ूर, अगर
उस की पलकों से जो टूटे, वो सितारा हो जाऊँ

लेकर इक अज़्म उठूं रोज़ नई भीड़ के साथ
फिर वही भीड़ छटे और मैं तनहा हो जाऊँ

जब तलक महवे-नज़र हूँ , मैं तमाशाई हूँ
टुक निगाहें जो हटा लूं तो तमाशा हो जाऊँ

मैं वो बेकार सा पल हूँ, न कोइ शब्द, न सुर
वह अगर मुझ को रचाले तो ‘हमेशा’ हो जाऊँ

आगही मेरा मरज़ भी है, मुदावा भी है ‘साज़’
‘जिस से मरता हूँ, उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ

अज्म़ : पक्का इरादा , महवे-नज़र : देखने में मगन,तमाशाई : दर्शक, आगही : ज्ञान , मरज़ : बीमारी
(3)


ख़ुद को औरों की तवज्जुह का तमाशा न करो
आइना देख लो, अहबाब से पूछा न करो

वह जिलाएंगे तुम्हें शर्त बस इतनी है कि तुम
सिर्फ जीते रहो, जीने की तमन्ना न करो

जाने कब कोई हवा आ के गिरा दे इन को
पंछियो ! टूटती शाख़ों पे बसेरा न करो

आगही बंद नहीं चंद कुतुब-ख़ानों में
राह चलते हुए लोगों से भी याराना करो

चारागर ! छोड़ भी दो अपने मरज़ पर हम को
तुम को अच्छा जो न करना है, तो अच्छा न करो

शेर अच्छे भी कहो, सच भी कहो, कम भी कहो
दर्द की दौलते-नायाब को रुसवा न करो
तवज्जुह : ध्यान देना, अहबाब : दोस्तों, आगही : ज्ञान, कुतुब-ख़ानों : पुस्तकालय , चारागर : चिकित्सक, दौलते-नायाब : अमूल्य दौलत

(4)

दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है

सांस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल चुकाना लगता है

बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है

उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश
ज़हन को इक झटका रोज़ाना लगता है

बे-मक़सद चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है

क्या असलूब चुनें, किस ढब इज़हार करें
टीस नई है, दर्द पुराना लगता है

होंट के ख़म से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है
शहरे-फ़िक्र : ज्ञान का नगर, महसूल: टेक्स,ज़हन : दिमाग़, बे-मक़सद : बिना लक्ष्य के, असलूब : अंदाज़, ख़म : मोड़
(5)
जागती रात अकेली सी लगे
ज़िंदगी एक पहेली सी लगे

रुप का रंग-महल, ये दुनिया
एक दिन सूनी हवेली सी लगे

हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे
शायरी तेरी सहेली सी लगे

मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल
मुझ को हर रात नवेली सी लगे

रातरानी सी वो महके ख़ामोशी
मुस्कुरादे तो चमेली सी लगे

फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची
ये बयाज़ उस की हथेली सी लगे
हम-कलामी : एक दूसरे से बात करना, ख़ुश आना : पंसद आना, फ़न : कला, बयाज़ : कापी / डायरी


आपका-
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126