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शनिवार, 20 जून 2020

गायक राजेंद्र-नीना मेहता : जब आंचल रात का लहराए


ग़ज़ल गायक राजेंद्र-नीना मेहता

जब आंचल रात का लहराए 
और सारा आलम सो जाए
तुम मुझसे मिलने शमा जलाकर 
ताजमहल में आ जाना

मौसम बारिश का था मगर चारों तरफ़ आग बरस रही थी। सन् 1947 के अगस्त माह के आख़िरी दिन थे। देश को आज़ादी मिली। आज़ादी की ख़ुशियां बंटवारे की कोख़ से जन्मे दंगों की त्रासदी में तब्दील हो गईं। जलते मकानों, उजड़ी दुकानों और सड़क पर पानी की तरह बहते इंसानी ख़ून के ख़ौफ़नाक मंज़र! माहौल में रुह को थर्रा देने वाली दहशत थी। सन्नाटे को चीरता हुआ फ़ौज का एक ट्रक लाहौर में एक मकान के सामने रुका। धडधड़ाकर दस-बारह जवान नीचे कूदे। सामने एक ख़ौफ़ज़दा औरत और नौ साल का सहमा हुआ बच्चा खड़ा था। बच्चे का बाप कारोबार के सिलसिले में बाहर गया था। उन्हें हुक्म मिला- कोई भी एक संदूक उठा लो । जवाब का इंतज़ार किए बिना झट से एक फ़ौजी ने कोने में रखा संदूक उठाया। पलक-झपकते मां-बेटे को ट्रक में चढ़ाया और डीएवी कालेज के मुहाजिर कैम्प में लाकर डाल दिया। बालक और उसकी माँ को अमृतसर में  चाचा के यहां पनाह मिली। चालीस दिनों के बाद बिछड़ा हुआ बाप आकर अपने बेटे से मिला। मुसीबतों का दरिया पार करने के बाद ये परिवार हिंदुस्तान की सरहद में दाख़िल हुआ। लखनऊ पहुंच कर संदूक खोला गया। उस संदूक में एक हारमोनियम था। कई शहरों की ख़ाक छानने के बाद आख़िरकार वो बच्चा उस हारमोनियम के साथ कला और संगीत की नगरी मुंबई पहुंचा। मुंबई ने उसे और उसने मुंबई को अपना लिया। लोगों ने उस बच्चे को ग़ज़ल गायक राजेंद्र मेहता के नाम से जाना।


राजेंद्र और नीना की 
प्रेम कथा
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साल था 1963 और तारीख थी 5 अगस्त। आकाशवाणी मुंबई में जमालसेन के म्यूज़िकल ड्रामा ‘मीरा’ की रिकार्डिंग थी। कक्षा 12वीं की छात्रा नीना शाह ने जब स्टूडियो में कदम रखा तो सामने एक सुदर्शन युवक राजेन्द्र मेहता को अपने इंतज़ार में बैठा हुआ पाया। उसके व्यक्तित्व की सादगी  नीना जी के मन में कहीं गहरे उतर गई। राजेंद्र ने राणा के लिए और नीना ने मीरा के लिए अपना स्वर दिया। राजेंद्र का असरदार गायन सुनकर नीना के दिल के तार झंकृत हो उठे। 

पहली मुलाक़ात में ही राजेंद्र की पलकों पर भी ख़्वाब रोशन हुए। रिकॉर्डिंग के बाद दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए। दोनों को एक दूसरे का पता नहीं मालूम था। दोनों को यह उम्मीद भी नहीं थी कि आगे कभी मुलाक़ात होगी। मगर ऊपर वाले ने दोनों को फिर मिलाया। एक सप्ताह बाद 14 अगस्त को संगीत की एक महफ़िल में दोनों का फिर आमना-सामना हुआ। इस बार राजेन्द्र ने हिम्मत की। एक काग़ज़ पर लिखकर चुपके से नीना को अपना फ़ोन नंबर पकड़ा दिया। एक दिन नीना ने भी हिम्मत की। राजेंद्र को फ़ोन कर दिया। दोनों छुपकर मिले। इस दूसरी मुलाक़ात में ही राजेन्द्र मेहता ने एक अनूठा संवाद बोल दिया- अगर आपका शादी का इरादा है तभी अगली मुलाक़ात होगी।

उस ज़माने में अंतर्जातीय विवाह आसान नहीं था। राजेंद्र ने यह भी कहा था- हम छुपकर या घर से भागकर शादी नहीं करेंगे। हम तुम्हारे मां-बाप की रज़ामंदी से ही शादी करेंगे। नीना जी के मां-बाप का रुख़ इस मामले में काफी सख़्त था। अंतत: नीना के प्रेम के आगे वे झुक गए। तीन साल के इंतज़ार के बाद अक्तूबर 1966 में दोनों की मंगनी हुई और जनवरी 1967 में नीना और राजेंद्र मेहता विवाह सूत्र में बंध गए।



ग़ज़ल गायिकी की पहली जोड़ी
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सन् 1967 में ‘सुरसिंगार संसद’ के समारोह में राजेंद्र और नीना ने एक साथ मिलकर ग़ज़ल गाई। यानी ग़ज़ल के मंच की पहली जोड़ी के रूप में सामने आए। दोनों ने शोहरत के आसमान पर अपनी कामयाबी का परचम लहरा दिया। ग़ज़ल का रिवायती मानी ‘औरत से बातचीत’ लिया जाता है। अगर औरत ग़ज़ल गएगी तो वह किससे बात करेगी ? इस मुद्दे पर अख़बारों में बहस छिड़ गई। बहरहाल मेल और फीमेल को एक साथ ग़ज़ल गाते देखकर संगीत प्रेमी दर्शक हैरत में पड़ गए। ग़ज़ल गायिकी में एक नया ट्रेंड क़ायम हो चुका था। दो साल बाद चित्रा और जगजीत सिंह की जोड़ी मंच पर आई। उन्होंने इस ट्रेंड को बुलंदी पर पहुँचा दिया।
   
म्यूज़िकल मेहता की पृष्ठभूमि
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वक़्त भी क्या दिन दिखाता है। राजेंद्र मेहता के बाबा लाहौर के ज़मींदार थे। पिता की अच्छी-ख़ासी चाय की कंपनी थी। सरकार की तरफ़ से नाना ने पहले विश्व युद्ध में और मामा ने दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था। मगर राजेंद्र मेहता को लखनऊ में ख़ुद को ग़ुरबत से बचाने के लिए एक होटल में पर्ची काटने की नौकरी करनी पड़ी। उस समय वे नवीं जमात में थे। पढ़ाई के साथ नौकरी का यह सिलसिला बारहवीं जमात तक चला। इंटरमीडिएट पास करने पर उन्हें ‘बांबे म्युचुअल इश्योरेंस कंपनी’ में नौकरी मिल गई। सन् 1957 में उन्होंने बीए पास कर लिया। राजेंद्र मेहता की मां को गाने का शौक़ था। बचपन में ही उन्होंने मां से गाना सीखना शुरु कर दिया था। लखनऊ में पुरुषोत्तमदास जलोटा के गुरुभाई भूषण मेहता उनके पड़ोसी थे। उनको सुनकर फिर से गाने के शौक़ ने सिर उठाया। संदूक़ में बंद हारमोनियम बाहर निकल आया। राजेंद्र मेहता ने उर्दू की भी पढ़ाई की। शायर मजाज़ लखनवी और गायिका बेग़म अख़्तर की भी सोहबतें  हासिल हुईं। सन् 1960 में उनका तबादला मुंबई हो गया।

ग़ज़ल : ग़ालिब से गुलज़ार तक
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मुंबई आने से पहले राजेंद्र मेहता आकाशवाणी कलाकार बन चुके थे। लखनऊ यूनीवर्सिटी के संगीत मुक़ाबले का ख़िताब जीत चुके थे। कुंदनलाल सहगल की याद में मुम्बई में हुए संगीत मुक़ाबले में राजेंद्र मेहता ने अव्वल मुक़ाम हासिल किया। मोरारजी देसाई के हाथों वे ‘मिस्टर गोल्डन वायस ऑफ इंडिया’ अवार्ड से नवाज़े गए। मार्च 1962 में ‘सुर सिंगार संसद’ ने सुगम संगीत को पहली बार अपने कार्यक्रम में शामिल किया। उसमें गाने से पहचान और पुख़्ता हुई। मशहूर संगीत कंपनी एचएमवी ने ‘स्टार्स आफ टुमारो’ के तहत 1963 में राजेंद्र मेहता का पहला रिकार्ड जारी किया। 

सन् 1965 में जगजीत सिंह से दोस्ती हुई। 1968 में दोनों ने मिलकर बीस शायरों की ग़ज़लें चुनकर ‘ग़ालिब से गुलज़ार तक’ लाजवाब प्रोग्राम पेश किया। इस मौक़े पर उस्ताद अमीर खां, जयदेव, ख़य्याम और सज्जाद हुसैन जैसे कई नामी कलाकर बतौर मेहमान तशरीफ़ लाए थे। इस नए तजुर्बे ने संगीत जगत में धूम मचा दी। यह कार्यक्रम करने से पहले राजेन्द्र मेहता संगीतकार नौशाद के पास गए। उन्होंने नौशाद साहब से पूछा- ग़ज़ल को कैसे कंपोज़ किया जाए! नौशाद साहब ने जवाब दिया- ग़ज़ल को सही पॉज देकर पहले दस बार तहत में पढ़ो। फिर उसमें पोशीदा लय के साथ गुनगुनाओ। ग़ज़ल गाने की नहीं गुनगुनाने की चीज़ है। राजेन्द्र मेहता और जगजीत सिंह ने ताउम्र नौशाद साहब के इस मशविरे पर अमल करते हुए ग़ज़ल को पेश किया और लोकप्रियता हासिल की।

गायक मेहंदी हसन का टिकट शो
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जब राजेंद्र और नीना मेहता ग़ज़ल की दुनिया में आए, उस समय ग़ज़ल गायिकी में पैसा नहीं था। सन् 1978 में एक करिश्मा हुआ और सारा मंज़र बदल गया। पाकिस्तानी दूतावास की ओर से 1978 में ‘इक़बाल दिवस’ के सिलसिले में गायक मेहंदी हसन मुंबई आए। उनकी प्रेस कांफ्रेंस में लता मंगेशकर, नौशाद और दिलीप कुमार जैसी हस्तियां मौजूद थीं। बिरला मातुश्री सभागार में मेंहदी हसन का पब्लिक शो हुआ। पांच सौ रुपए के टिकट थे मगर सभागार में एक भी सीट ख़ाली नहीं थी। षड़मुखानंद हाल में भी यही आलम रहा। देश के कुछ और शहरों में भी ग़ज़ल के शो हुए और देखते ही देखते मेहंदी हसन ने टिकट ख़रीदकर ग़ज़ल सुनने वाला एक क्लास खड़ा कर दिया। इस बदलते माहौल में ग़ज़ल गायकों को पैसा मिलने लगा। सिर्फ़ गायिकी से रोज़ी-रोटी चलने की उम्मीद बंध गई। लोगों को लगा कि अगर ‘किशोर कुमार नाइट’ हो सकती है तो ‘जगजीत सिंह नाइट’ भी हो सकती है। संगीत कंपनियों ने भी ग़ज़ल कार्यक्रम आयोजित करने शुरु कर दिए।

जब आँचल रात का लहराए ...
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राजेंद्र मेहता को शोहरत और दौलत की भूख कभी नहीं रही। वे हमेशा मध्यम रफ़्तार से चले। उनके चुनिंदा अलबम आए और मंच पर भी उनके चुनिंदा प्रोग्राम हुए। ग़ज़लों को पेश करने के अपने बेमिसाल अंदाज़ से उन्होंने अपना एक ख़ास तबक़ा तैयार किया। उनकी ग़ज़लों में प्रेम की सतरंगी धनक के साथ ही समाज और सियासत के काले धब्बे भी नज़र आते हैं। मरहूम शायर प्रेमबार बर्टनी के मुहब्बत भरे एक नग़मे ‘जब आंचल रात का लहराए' को दिल छू लेने वाले अंदाज़ में पेश करके राजेंद्र और नीना मेहता ने हमेशा के लिए ग़ज़लप्रेमियों के दिलों पर अपना नाम लिख दिया। उनके संगीत अल्बम 'हमसफर' (1980) में यह नग़मा शामिल है। म्यूज़िकल मेहता के रूप में मशहूर संगीत के मंच पर राजेंद्र और नीना मेहता की जोड़ी चार दशक तक सक्रिय रही। 


पाकिस्तान में 
गायक राजेन्द्र मेहता
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राजेन्द्र मेहता ने कभी भी मंच पर किसी दूसरे की कंपोजीशन नहीं गई। एक बार वे पाकिस्तान गए। उनसे ग़ुलाम अली की ग़ज़ल गाने की फ़रमाइश की गई। उन्होंने मना कर दिया। बोले- ग़ुलाम अली ग़ज़ल के ख़ुदा हैं। मैं ख़ुदा की शान में गुस्ताख़ी कैसे कर सकता हूं।

राजेन्द्र मेहता को पढ़ने का बहुत शौक़ था। उनके दोस्तों में कथाकार कमलेश्वर और मोहन राकेश भी शामिल थे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और कैफ़ी आज़मी से उनका याराना था। उन्होंने कैफ़ी आज़मी का सोलो अलबम रिकार्ड किया था। हर साल राजेंद्र मेहता कुछ नई ग़ज़लें कंपोज़ करते थे। जो ग़ज़लें गायकी के अनुकूल नहीं थी उनके अच्छे शेर वे गाने के दौरान कोट करते थे। अपने ढाई घंटे के कार्यक्रम में वे डेढ़ घंटा गाते थे और एक घंटा बोलते थे। श्रोताओं को उनका बोलना अच्छा लगता था। वे ग़ज़ल के बारे में बहुत अच्छी अच्छी बातें बताते थे। राजेन्द्र मेहता ने मेरी भी कुछ ग़ज़लें कंपोज की। सन् 1997 में मेरे द्वारा सम्पादित मुंबई की सांस्कृतिक निर्देशिका 'संस्कृति संगम' का लोकार्पण समारोह पाटकर हाल में आयोजित किया गया। मेरे अनुरोध पर राजेंद्र और नीना मेहता ने ग़ज़ल गायन का यादगार कार्यक्रम पेश किया। इसके लिए उन्होंने कोई पेमेंट नहीं लिया।

राजेन्द्र मेहता का इंतक़ाल
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पहले बेटी मीरा गई, फिर पत्नी नीना गईं और 13 नवम्बर 2019 की सुबह ख़ुद राजेन्द्र मेहता साहब हमेशा के लिए चले गए। फ़िज़ाओं में उनकी आवाज़ हमेशा गूंजती रहेगी। वे नीना जी के साथ मुंबई शहर पर मेरा एक गीत गाते थे - 

ज़िंदगी के नाम पर क्या कुछ नहीं तूने दिया
शुक्रिया मेरे शहर सौ बार तेरा शुक्रिया !

शनिवार 30 अक्टूबर 2010 को भवंस कल्चर सेंटर अंधेरी (मुम्बई) में राजेंद्र-नीना मेहता को जीवंती फाउंडेशन की ओर से जीवंती कला सम्मान से विभूषित किया गया। वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल, प्रतिष्ठित कथाकार आर.के.पालीवाल, समाजसेवी विनोद टिबड़ेवाला और संस्थाध्यक्ष कवयित्री माया गोविंद ने उन्हें यह सम्मान भेंट किया। कवि देवमणि पाण्डेय ने राजेंद्र मेहता से उनके फ़न और शख़्सियत के बारे में चर्चा की।

राजेन्द्र मेहता का जन्म सन 1938 में लाहौर में हुआ था। उनका कहना था- ऊपरवाले ने हमें इतना कुछ दिया जिसके हम बिलकुल हक़दार नहीं थे। संगीत मेरे लिए सिर्फ़ रोटी का ज़रिया नहीं ज़िंदगी है। सन 1976 में संगीत के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी थी। जहां भी गाता हूं दिल से गाता हूं। मैं चाहता हूं कि लोग दिल से सराहना करें। मैंने हमेशा यही सोचकर गाया कि अगर श्रोताओं में मेरी बेटी बैठी हो तो उसे शर्म ना आए।

राजेन्द्र मेहता को गपशप का बहुत शौक़ था। कभी कभी वे ख़ुद फ़ोन करके मुझे गपशप के लिए घर बुला लेते। अक्सर नीना जी भी इस बातचीत में शामिल हो जातीं। चर्चगेट ऑफिस से पेडर रोड उनके विमला महल पहुंचने में मुझे आधा घंटा भी नहीं लगता था। जवान बेटी की मौत से वे पूरी तरह उबर भी नहीं पाए थे कि पत्नी नीना को ऊपर वाले ने अपने पास बुला लिया। इस सदमे से उनकी एकाग्रता भंग हो गई। बात करते-करते वे कई दिशाओं में चले जाते थे। 

राजेंद्र मेहता अपने हर कार्यक्रम में वो पंक्तियां सुनाते थे जिसे उस्ताद अमीर खां ने उनको सुनाई थीं-

गुंचे ! तेरी क़िस्मत पे दिल हिलता है
सिर्फ़ एक तबस्सुम के लिए खिलता है
गुंचे ने कहा - बाबा ! 
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है

राजेंद्र मेहता अपने हर कार्यक्रम में ये पंक्तियां सुनाते थे। ये पंक्तियां उस्ताद अमीर खां ने उनको सुनाई थीं। राजेंद्र और नीना मेहता को जो तबस्सुम ऊपर वाले ने दिया था उसे वे ताउम्र लुटाते रहे। कहा जाता है कि अच्छा संगीत वक़्त की धड़कनों में ज़िंदा रहता है। राजेंद्र-नीना मेहता भी हमारी यदों में ज़िंदा रहेंगे।

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आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, 
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुम्बई-400063, M: 98210-82126
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रविवार, 18 जुलाई 2010

कौन बसंती धो गई नदी में अपने गाल : ज़फ़र गोराखपुरी


दोहे पर विचार-विमर्श


हिंदी में ‘ग़ज़ल’ और उर्दू में ‘दोहा’ कभी-कभी विवाद का विषय बन जाते हैं। इस मुद्दे पर बहस, तकरार और झड़पें हो चुकी हैं। मुझे लगा कि क्यों न इस मुद्दे पर बुज़ुर्गों की राय ले ली जाए। मुंबई में ज़फ़र गोरखपुरी और नक़्श लायलपुरी का शुमार सबसे वरिष्ठ शायरों में किया जाता हैं। दोहे पर इनकी राय पेश करते हुए मैं सभी पाठकों, कवियों और शायरों से अनुरोध करता हूं कि कृपया मिलजुल कर इस चर्चा को आगे बढ़ाएं। मगर इसके लिए अपनी उत्तेजना पर क़ाबू रखते हुए सह्रदयता, विनम्रता और धीरज से काम लें ताकि रचनात्मकता का भला हो सके।

दोहे में दोहे का अनुशासन ज़रुरी है -ज़फ़र गोराखपुरी


हिंदुस्तान में कबीर, रहीम, मीरां, तुलसी आदि के दोहों की एक समृद्ध परंपरा है । अमीर खुसरो ने भी दोहे लिखे हैं मसलन-

गोरी सोवे सेज पर ,मुख पर डारे केस ।
चल खुसरो घर आपने रैन हुई चहुं देस ।।



दोहे का छंद तेरह और ग्यारह मात्राओं में बंटा हुआ है। अगर इसमें एक भी मात्रा कम या ज़्यादा होती है तो वह दोहा नहीं रह जाता। पाकिस्तान में शायरों ने दोहा लिखने के लिए अलग बहर ( छंद) का इस्तेमाल किया। उसमें तेरह और ग्यारह मात्राओं का अनुशासन नहीं है हिंदुस्तान में भी कई शायरों ने उनका अनुकरण किया। मगर वैसी रचनाओं को ‘दोहा’ घोषित कर देने से उन्हें ‘दोहा’ नहीं माना जा सकता। उन्हें दोहा घोषित करने के बजाय मतला, मुखड़ा, मिनीकविता या मुक्तक जैसा ही कोई नाम देना ठीक होगा।

दोहा बहुत ख़ूबसूरत विधा है। हमें इसकी शुद्धता बरकरार रखनी चाहिए। दोहे में छंद के अनुशासन के साथ ही प्रभावशाली कथ्य और आम फहम भाषा का भी होना ज़रुरी है। अरबी, फ़ारसी या संस्कृत के कठिन शब्दों में दोहा लिखना दोहे के साथ अन्याय करना है। सहजता, सरलता और तर्क संगत बात दोहे में ज़रुरी है और यह बात तेरह- ग्यारह मात्राओं की बंदिश के साथ होनी चाहिए ।

ज़फ़र गोरखपुरी के दोहे

कौन बसंती धो गई, नदी में अपने गाल ।
तट ख़ुशबू से भर गया, सारा पानी लाल ।।

मेंहदी ऐसी रच सखी, आज हथेली थाम ।
लाल लकीरें जब मिलें, उभरे पी का नाम ।।

पी ने भीगी रैन में, आज छुआ यूं अंग ।
नैनों में खिल खिल गए, धनक के सातों रंग ।।

साजन को जल्दी सखी,मन है कि उमड़ा आय ।
कांटा समय के पांव में, काश कोई चुभ जाय ।।

आंगन चंचल नंद-सा, घर है ससुर समान ।
भीत अंदर दो खिड़कियां, ज्यों देवरान जेठान ।।

जन गणना के काम से, अफ़सर आया गांव ।
लाज आए लूं किस तरह, सखी मैं उनका नांव ।।

रैन सखी बरसात की, निंदिया उड़ उड़ जाय ।
थमें ज़रा जो बूंदिया, चूड़ी शोर मचाय ।।

साजन ने तन यूं हुआ, जैसे कोई चोर ।
सुन पाई न मैं सखी, सांसों का भी शोर ।।

मन में पिय के नेह का, चुभा ये कैसा तीर ।
मैके जाने की घड़ी, और आंखों में नीर ।।

गुज़रा घर के पास से, कौन सजिल सुकुमार ।
बिन होली के दूर तक,रंगों की बौछार ।।


दोहे पर बंदिश परवाज़ को रोकने की कोशिश है -नक्श़ लायल पुरी

दोहा हिंदी की देन है जिसमें तेरह और ग्यारह मात्राएं होती हैं। मैंने जानबूझकर इस रवायत से अलग हटकर नई बहर में दोहे लिखे। ग़ज़ल में भी जो रवायती बहरें हैं लोगों ने उनसे अलग नई बहरें ईजाद करके ग़ज़लें कहीं और उन्हें स्वीकार किया गया। दोहा नई बहर में भी हो सकता है मगर दोहे में मौलिकता का ध्यान रखना ज़रुरी है । उसमें ग़ज़ल की ज़बान और ग़ज़ल का कंटेंट नहीं चलता ।

शायर किसी बंदिश को तस्लीम नहीं करता। क़ाफ़िया-रदीफ़ की बंदिश तो हुनर है। शायर किसी विधा के लिए नई बहरें क्यों नहीं तराश सकता ? दोहे को इस दौर में तेरह-ग्यारह की बंदिश में बांधना शायरी की परवाज़ को रोकने की कोशिश है। ग़ज़ल फ़ारसी से आई मगर हिंदुस्तान में जल्दी लोकप्रिय हुई क्यों कि यहां दोहे में यानी दो मिसरों में बात कहने की ट्रैडीशन मौजूद थी । पुरानी ट्रैडीशन में विकास लाने के लिए बदलाव ज़रुरी है। मैंने फ़िल्मों के पारंपरिक मुखड़े को भी बदलने की कोशिश की और यह कोशिश कामयाब हुई । मसलन मेरे दो गीत के मुखड़े हैं-


न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया 
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन

चांदनी रात में इक बार तुझे देखा है
ख़ुद पे इतराते हुए, खुद से शरमाते हुए 


इन मुखड़ों में पारंपरिक तुकबंदी नहीं है। समय आ गया है कि हम नई बहर में दोहे लिखें और विकास का रास्ता रोशन करें।

नक़्श लायलपुरी के दोहे

अपना तो इक पल न बीते, हाथ पे धर के हाथ
दिन मेहनत मज़दूरी का हैं, सैंयाजी की रात

नैनों में सपनों की छाया, हर सपना अनमोल
साजन के संग सभी बहारें,कहूं बजाकर ढोल

आशा बिन जीवन है सूना, ज्यूं बाती बिन दीप
सीप है जीवन, आशा मोती, क्या मोती बिन सीप

आंखों देखी कान सुनी से, धोका भी हो जाए
सच का शोर मचाने वाला, क्या अपना झूठ छुपाए

पेड़ों से पत्ते झड़ जाएं, पेड़ न खोएं धीर
धूप सहें, सर्दी में सिकुड़े, खड़े रहें गंभीर

आंखों को लगते हैं प्यारे प्रेम के सारे रुप
प्रेम चैत की कभी चांदनी, कभी जेठ की धूप

दर्द न जब तक छेदे,दिल में छेद न होने पाए
छेद न हो तो कैसे मोती, कोई पिरोया जाए

तेरे हाथ में देखी मैंने, अपनी जीवन रेखा
मैंने अपना हर सपना, तेरी आंखों से देखा


किसी की पूजा निष्फल जाए, किसी का पाप फूले
हाथ किसी के चांद को नोचें, कोई हाथ मले

धन दौलत,बरसात,जवानी,चार दिनों का खेल
प्रेम की जोत सदा जलती है,बिन बाती बिन तेल



आपका-

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126