मुम्बई
के बॉलीवुड में संगीतकार नौशाद
संगीतकार
नौशाद ऐसे ख़ुशनसीब इंसान थे जिन्होंने अपने कारनामों को ख़ुद इतिहास के पन्नों पर
दर्ज होते देखा था। सन् 1940 की फ़िल्म ‘प्रेमनगर’ से लेकर सन् 2005 की 'ताजमहल'
तक उन्होंने सिर्फ़ 66 फ़िल्मों में संगीत दिया। उनकी इन फ़िल्मों में से 4 हीरक
जयंती, 7 स्वर्ण जयंती और 23 रजत जयंती मना चुकी हैं।
सन्
1954 में फ़िल्म फेयर अवार्ड की शुरुआत हुई। पहला फ़िल्म फेयर अवार्ड नौशाद को फ़िल्म
'बैजू
बावरा'
के गीत "तू
गंगा की मौज मैं जमुना का धारा" के लिए मिला। संगीतकार नौशाद की
मुग़ल-ए-आज़म, मदर इंडिया, गंगा जमुना, राम और श्याम जैसी कई सुपर हिट संगीतमय
फ़िल्मों ने लोकप्रियता का कीर्तिमान क़ायम किया। मगर नौशाद को दुबारा कोई फ़िल्म
फेयर अवार्ड नहीं मिला। यह हैरत की बात है। इसकी ख़लिश नौशाद साहब के दिल ने भी
महसूस की थी। मगर विदेश में उन्हें कई अवार्ड और सम्मान मिले।
जनवरी
2001 में मुंबई के 'परिवार काव्य उत्सव' में संगीतकार नौशाद मुख्य अतिथि थे।
उन्हें लेने के लिए मैं कार्टर रोड बांद्रा स्थिति उनके आवास पर गया। उनकी कार में
गपशप करते हुए हम लोग मरीन लाइंस के बिरला मातुश्री सभागार पहुंचे। इस सफ़र के
दौरान संगीतकार नौशाद ने गुज़रे हुए दिनों को याद किया। संगीत के गिरते स्तर पर
लगातार चिंता ज़ाहिर की।
अवधी भाषा का कमाल
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फ़िल्म
'गंगा
जमुना'
(1961) की कहानी के बैकग्राउंड को देखते हुए नौशाद ने तय किया कि गीतों की भाषा
अवध की लोक भाषा पुरबिया रखी जाए। संगीत तैयार करते हुए उन्हें यह महसूस हुआ कि
अगर फ़िल्म के संवाद भी पुरबिया ज़बान में रखे जाएं तो यह प्रयोग फ़िल्म की कामयाबी
में अहम् रोल अदा कर सकता है। निर्देशक नितिन बोस ने उनकी बात मान ली। इस काम की
ज़िम्मेदारी नौशाद के ही कंधों पर डाली गई। नौशाद ने बनारस से अपने एक पंडित दोस्त
को बुलाया। पंडित जी की देखरेख में दिलीप कुमार और वैजयंती माला को पुरबिया ज़बान
बोलने का अभ्यास कराया गया। इस फ़िल्म का गीत संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ। दूसरी तरफ़
पुरबिया ज़बान के संवादों ने भी कामयाबी का अध्याय रच दिया। इस फ़िल्म में बेस्ट
डायलॉग के लिए वजाहत मिर्ज़ा को, बेस्ट एक्ट्रेस के लिए वैजयंती माला को और बेस्ट
सिनेमैटोग्राफी के लिए बाबा साहब को फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला।
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संगीतकार
नौशाद अली ने हिन्दी सिनेमा को अविस्मरणीय संगीत से समृद्ध किया। हिंदुस्तानी सिने
संगीत को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाने वालों में नौशाद का नाम बहुत आदर से लिया
जाता है। अपने सात दशक के कैरियर में संगीत की चार पीढ़ियों के साथ काम करने वाले
नौशाद ने सुर, शब्द और शायरी के मेल से ऐसे गीतों की रचना की जिनकी आभा से
हिंदुस्तानी संगीत का ख़ज़ाना पूरी दुनिया में जगमगा उठा।
नौशाद
के संगीत में शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत का अदभुत संगम है। वे अपनी तरह के
अकेले ऐसे संगीतकार हैं जिनके नाम से फ़िल्में बिकती थीं। 'मुग़ल
ए आज़म'
हो या 'मदर
इंडिया'
नौशाद की हर फ़िल्म के पोस्टर पर बतौर संगीतकार उनका नाम नज़र आता था। फ़िल्म की
कहानी सुनने के बाद ही नौशाद साहब संगीत देने का फ़ैसला करते थे। उन्होंने ख़ुद कई
कहानियां भी लिखीं। फ़िल्म 'दीदार' नौशाद की कहानी पर बनी थीं।
नौशाद
साहब ख़ुद शायर भी थे। अपने इसी हुनर के चलते उन्होंने अपनी फ़िल्मों में कभी दोयम
दर्जे की रचनाएं नहीं लीं। उन्होंने अपनी फ़िल्मों में शकील बदायूंनी और मजरुह
सुल्तानपुरी जैसे अच्छे शायरों से ही गीत लिखवाए। संगीतकार नौशाद के
साहबज़ादे रहमान नौशाद ने बताया कि नौशाद साहब अपने गीतकार को कभी भी
रेडीमेड ट्यून नहीं देते थे क्योंकि वे गीतकार को किसी बंदिश में क़ैद करना नहीं
चाहते थे। "मेरे
महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम" नज़्म को लिखने के लिए उन्होंने शकील
बदायूंनी को कई दिन का समय दिया। इसे एक शायर की तरह ख़ूबसूरती से पेश करने के लिए
मो.रफ़ी को कई दिन रिहर्सल कराया।
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फ़िल्म
‘गंगा जमुना’ (1961) में संगीतकार नौशाद ने पहली बार अवधी भाषा में गीत लिखवाने का
जोख़िम उठाया। इस फ़िल्म का गीत ‘नैन लड़ि जइहैं तो मनवा मा कसक हुइबे करी’
बेहद लोकप्रिय हुआ। हिन्दी फ़िल्मों में बैकग्राउंड संगीत का जादू जगाने का श्रेय
नौशाद को जाता है। इसके लिए उनकी ‘राम और श्याम’, ‘पाकीज़ा’, ‘मुगले आज़म’ आदि
फ़िल्में देखी जा सकती हैं। सन् 1968 में ग़ुलाम मुहम्मद के इंतक़ाल के बाद कमाल
अमरोही की गुज़ारिश पर फ़िल्म 'पाकीज़ा' का बैकग्राउंड म्यूजिक नौशाद ने तैयार किया
था।
‘पाकीज़ा’ (1972)
में कई जगह बैकग्राउंड में एक ख़ास धुन के साथ रेल की सीटी की आवाज़ उभरती है। इसका
नायिका के दिमाग़ पर गहरा असर दिखाई देता है। बैकग्राउंड संगीत के ज़रिये लखनऊ का
असरदार माहौल भी उभारा गया। फ़िल्म ‘मुगले आज़म’ (1960) का वह सीन याद कीजिए जिसमें दिलीप
कुमार और मधुबाला एक-दूसरे में खोये हुए हैं। अचानक पृथ्वीराज कपूर की इंट्री होती
है। नायक-नायिका दोनों दो दिशाओं में भागते हैं। इस सीन में जो बैकग्राउंड म्यूज़िक
बजता है वह बेमिसाल है। फ़िल्म ‘राम और श्याम’ (1967) में जहां कहीं भी खलनायक प्राण की
‘एंट्री’ होती है वहीं बैकग्राउंड में सिहरन पैदा करने वाला संगीत उभरता है।
अपने
संगीत में नया प्रयोग करने में नौशाद कभी नहीं हिचकिचाए। राजकपूर हमेशा मुकेश की
आवाज़ को अपनी आवाज़ कहते रहे। संगीतकार नौशाद ने इसके उलट उनके लिए मो.रफी की आवाज़
का उपयोग किया। फ़िल्म ‘अंदाज़’ (1949) में दिलीप कुमार के लिए सारे गाने
मुकेश ने गाए। मगर राजकपूर का इकलौता गीत मो.रफी की आवाज़ में रिकार्ड किया गया।
गीत को पसंद किया गया। फ़िल्म ‘आन’ (1952) में सौ वादकों के आर्केस्ट्रा का
पहली बार नौशाद ने ही प्रयोग किया। मगर 'मेरे महबूब तुझे…'
नज़्म के लिए उन्होंने सिर्फ़ चार म्यजीशियन का उपयोग किया। फ़िल्म मुग़ल ए आज़म के गीत
'ऐ
मोहब्बत तू ज़िंदाबाद' गीत के लिए नौशाद ने समूह गान यानी कोरस के लिए सौ
आवाज़ों का उपयोग किया। ‘सुहानी रात ढल चुकी’ जैसे कई गीतों में उन्होंने घड़े की सुमधुर
आवाज़ का जैसा ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया वह अपने आप में बेमिसाल है।
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लखनऊ
में उस्ताद हुरमत अली की वाद्य यंत्रों की दुकान थी। दुकान खुलने से पहले नौशाद
यहां साफ़ सफ़ाई का काम करते थे। एक दिन उस्ताद दुकान पर पहुंचे तो उन्हें हारमोनियम
की आवाज़ सुनाई पड़ी। नौजवान नौशाद को हारमोनियम बजाता देखकर वे दंग रह गए। मगर वे
इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने नौशाद को एक हारमोनियम भेंट किया।
वह
मूक फ़िल्मों का ज़माना था। फ़िल्म शुरू होने से पहले और फ़िल्म के सीन के अनुसार
साजिंदों का समूह सिनेमा हॉल के परदे के पीछे संगीत पेश करता था। लखनऊ के एक
सिनेमा हॉल में उस्ताद लड्डन खां के ग्रुप के साथ नौशाद ने हारमोनियम बजाना शुरू
कर दिया। वालिद को पता चला तो बेहद नाराज़ हुए। घर से निकालने की धमकी दी। नौशाद के
अंदर संगीत की ऐसी दीवानगी थी कि सन् 1937 में वे महज 18 साल की उम्र में अकेले
मुंबई चले आए।
दादर में ब्रॉडवे सिनेमा के सामने फुटपाथ पर एक पान की दुकान थी। पानवाला रात में दुकान बंद करके घर चला जाता था। नौशाद वहीं पान वाले के बाकड़े पर अपना बिस्तर लगा लेते। इसी तरह वे कई दिन फुटपाथ पर सोए। एक दिन गीतकार डी एन मधोक उनको कारदार स्टूडियो ले गए। कारदार साहब ने कहा- ये नौजवान तो कमसिन है। संगीत कैसे देगा! अगली फ़िल्म में देखेंगे। डी एन मधोक तैश में आ गए। बोले- आप मेरे गीत, पटकथा और संवाद के पैसे गिरवी रख लीजिए मगर इस नौजवान को काम दीजिए।
नौशाद
को करदार स्टूडियो में काम मिल गया। उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म 'प्रेम
नगर'
(1940) में संगीत दिया। निर्माता जैमिनी की फ़िल्म 'रतन' (1944) में नौशाद ने लोक संगीत और शास्त्रीय
संगीत के मेल से ऐसा सुरीला संगीत तैयार किया कि पूरे हिंदुस्तान में धूम मच गई।
इस फ़िल्म में ज़ोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम
कुमार के गाए गीत बेहद लोकप्रिय हुए। इसके बाद नौशाद ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उन्होंने लगातार कामयाबी का सफ़र तय किया।
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फ़िल्म
'मुग़ल
ए आज़म' (1960)
के निर्देशक के आसिफ़ ने संगीतकार नौशाद से कहा कि दिलीप कुमार और मधुबाला के प्रेम
को दर्शाने के लिए दो गाने रिकॉर्ड करने हैं। इनका फिल्मांकन मियां तानसेन पर किया
जाएगा। कोई ऐसा गायक चाहिए जो गीत के शब्दों में जान डाल दे। नौशाद साहब बोले- आज
के तानसेन तो बड़े ग़ुलाम अली खां हैं मगर वे फ़िल्मों के लिए नहीं गाते। के आसिफ़ ने
कहा- मैं उन्हें मना लूंगा। दोनों बड़े ग़ुलाम अली खां के पास गए। खां साहब ने
फ़रमाया- मैं एक गीत गाने के लिए 25 हज़ार मुआवज़ा लेता हूं। के आसिफ़ ने जेब से 25
हज़ार रूपये की गड्डी निकाली। बोले- खां साहब, यह एक गाने का एडवांस है। आपको दो
गीत गाने हैं। खां साहब तैयार हो गए। 'प्रेम जोगन बनके' और
'शुभ दिन आयो'
गीत ने बड़े ग़ुलाम अली खां की आवाज़ में फ़िल्म मुग़ल ए आज़म के इतिहास में एक नया
अध्याय जोड़ दिया। नौशाद साहब के बड़े बेटे रहमान नौशाद ने बताया कि उस समय लता
मंगेशकर और मो.रफ़ी जैसे बड़े-बड़े गायकों को पांच सौ रूपये भी नहीं मिलते
थे।
नौशाद
से जुड़े
कुछ रोचक क़िस्से
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(1)
बारह
साल की उम्र में नौशाद अपने मामू की के साथ बाराबंकी के देवा शरीफ़ के सालाना उर्स
(मेले) में गए थे। मामू ने हिदायत दी थी कि एक पल के लिए भी साथ नहीं छोड़ना।
हजारों की भीड़ है। मेले में खो जाओगे तो मैं तुम्हारे वालिद को क्या जवाब दूंगा।
रात बारह बजे बांसुरी की सुरीली धुन सुनकर नौशाद अपनी सुधबुध खो बैठे। बेख़ुदी में
चलते हुए वे दरगाह के दरवाज़े पर पहुंच गए। वहां एक बुज़ुर्ग बांसुरी बजा रहे थे।
गाल पर मामू का थप्पड़ पड़ा तो उन्हें होश आया। यहीं से संगीत के साथ नौशाद का
रूहानी रिश्ता जुड़ गया।
(2)
नौशाद
के वालिद वाहिद अली साहब को गाना बजाना नापसंद नहीं था। संगीतकार नौशाद ने
फ़िल्मों में काम शुरू किया तो अपनी मां को अपना राज़दार बनाया। एक दिन मां का ख़त
आया कि सूफ़ी ख़ानदान की एक लड़की से नौशाद का रिश्ता जोड़ दिया गया है। वे लोग गाना
बजाना पसंद नहीं करते। इसलिए लड़की के घरवालों को बताया गया है कि लड़के की बम्बई
में दर्ज़ी की दुकान है। बारात के समय जब नौशाद साहब घोड़ी पर बैठे तो बैंडबाजा
वाले फ़िल्म ‘रतन’
का उन्हीं का गीत बजा रहे थे- "अखियां मिला के, जिया भरमा के, चले नहीं
जाना"।
इस गीत पर लड़के लड़कियां नाचने लगे तो नौशाद साहब के वालिद ने ग़ुस्से में कहा-
किस कमबख़्त ने ये गाना बनाया है जो लड़के लड़कियों को बरबाद कर रहा है।
(3)
कुंदनलाल
सहगल बिना शराब पिये नहीं गाते थे। नौशाद ने फ़िल्म ‘शाहजहां’ (1946) के गीत ‘जब
दिल ही टूट गया’
को सहगल से बिना शराब पिए गवाया। सहगल ने गीत सुना तो उनकी आंखों में आंसू गये।
उन्होंने कहा, ‘नौशाद तुम मुझे कुछ साल पहले क्यों नहीं मिले ? अगर तुम पहले मिल
गये होते तो मैं कुछ साल और जी लेता’। सहगल को यह गीत इतना अधिक पसंद था कि
उन्होंने वसीयत कर दी थी कि मेरे जनाज़े के साथ यह गीत ज़रुर बजाया जाए।
(4)
फ़िल्म
'बैजू
बावरा'
(1952) के गाने ‘ओ
दुनिया के रखवाले'
ने पूरे हिंदुस्तान में धूम मचा दी। नौशाद साहब ने इस गाने के लिए मो.रफ़ी से इतनी
मशक्क़त करवाई थी कि उनका गला बैठ गया। इसके बाद मो. रफ़ी ने कई दिनों तक
कोई गीत नहीं गाया।
बदलती फ़िज़ा
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संगीतकार नौशाद कभी भी फ़िल्मों के पीछे नहीं भागे। वह एक साल में एक-दो से ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत नहीं देते थे। इसका फ़ायदा यह हुआ कि उन्हें अपना हुनर दिखाने का पूरा समय मिला। वे फ़िल्म के दृश्य के अनुसार पहले राग चुनते थे बाद में धुन बनाते थे। उन्होंने कभी किसी की नकल नहीं की।
नौशाद के संगीत निर्देशन में सुरैया, शमशाद बेगम, लता मंगेशकर, आशा भोसले, मो.रफी, मुकेश, महेन्द्र कपूर के.एल. सहगल जैसे कई गायक-गायिकाओं ने अपने कैरियर के बेहतरीन गीत गाये। नौशाद के पांच सहायक थे। कैरियर के सुनहरे मोड़ पर नौशाद अपने प्रमुख सहायक ग़ुलाम मुहम्मद की मौत से कहीं भीतर तक हिल गये। इस हादसे का असर उनके संगीत पर भी हुआ।
उस
दौर में नौशाद की ‘गंवार’, ‘तांगेवाला’, ‘आईना’, ‘धरम कांटा’, ‘लव एंड गॉड’ जैसी
कई फ़िल्में प्रदर्शित हुईं। इन फ़िल्मों का संगीत पहले की तरह लोकप्रिय नहीं हुआ।
टीवी सीरियल ‘दि सोर्ड अॉफ टीपू सुल्तान’ और 'अकबर दि ग्रेट' में उनकी निजी शैली
की छाप ज़रुर दिखायी दी। सन् 2005 में नौशाद ने अकबर ख़ान की फ़िल्म ''ताजमहल
: ए
इटरनल लव स्टोरी'' के लिए संगीत दिया। गीतकार थे नक़्श लायलपुरी। इसमें भी
उनका पहले वाला जादू नहीं दिखाई पड़ा।
धीरे
धीरे फ़िल्म संगीत की फ़िज़ा इतनी बदल गई कि उसमें नौशाद जैसे हुनरमंद संगीतकारों की
ज़रुरत समाप्त होने लगी। यह मंज़र देखते हुए नौशाद साहब ने ख़ुद ही अपने संगीत का जाल
समेट लिया। उनकी सक्रियता समारोहों तक सीमित रह गयी जहां वे अपने भाषणों में संगीत
की गिरावट पर चिंता ज़ाहिर करते रहे और गीतों की फूहड़ शब्दावली की निंदा करते रहे।
संगीतकार नौशाद ने उस दिन के समारोह में कहा था- हर चीज़ का अपना समय होता है।
हमेशा बुरे समय के बाद अच्छा समय भी आता है। मुझे विश्वास है कि अच्छे गीत संगीत
का ज़माना फिर लौटेगा। उन्होंने अपने इन अशआर के साथ अपनी बात पूरी की थी-
अभी
साज़ ए दिल में तराने बहुत हैं
अभी
ज़िंदगी के बहाने बहुत हैं
दर
ए ग़ैर पर भीक मांगो न फ़न की
जब
अपने ही घर में ख़ज़ाने बहुत हैं
नए
गीत पैदा हुए हैं उन्हीं से,
जो
पुरसोज़ नग़मे पुराने बहुत हैं
हैं
दिन बदमज़ाकी के नौशाद लेकिन
अभी
तेरे फ़न के दीवाने बहुत हैं
नौशाद
साहब एक हस्सास शायर भी थे। उनका शेरी मज्मूआ 'आठवां सुर' नाम से प्रकाशित हुआ। कभी कभी वे मुशायरों
में भी शिरकत करते थे। उनकी यह ग़ज़ल मुशायरों में काफ़ी पसंद की गई -
आबादियों
में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे
के इस गली से तो मेरा घर भी आएगा
दादा
साहब फाल्के अवार्ड (1981) से सम्मानित पद्मभूषण संगीतकार नौशाद का जन्म 26 दिसंबर
1919 को लखनऊ में हुआ था। 5 मई 2006 को मुंबई में उनका इंतक़ाल हुआ। अपने पीछे
नौशाद संगीत का ऐसा ख़ज़ाना छोड़ गए हैं जो हमेशा हमारे दिलों को सुकून पहुंचाता
रहेगा। हमारी धड़कनों में धड़कता रहेगा। हमारी सांसों में ज़िंदा रहेगा।
🍁🍁🍁
आपका-
देवमणि
पाण्डेय
सम्पर्क
: बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या
पाड़ा, गोकुलधाम,
फ़िल्मसिटी
रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुम्बई-400063,
M : 98210-82126
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