II उससे कह दो किसी का हो जाए II
जो भी होना है आज हो जाए
दिल हमारा रहे या खो जाए
वो न मेरा हुआ न अपना ही
उससे कह दो किसी का हो जाए
मुहब्बत को इस अंदाज़ मैं पेश करने वाली कवयित्री का
नाम है शैलजा नरहरि। हिंदी काव्य मंचों की प्रतिष्ठित गीतकार शैलजा नरहरि का
हाल ही में "बुझा चिराग हूं" ग़ज़ल संग्रह मंज़रे आम पर आया है। संग्रह
की पहली गजल है-
मीर ओ ग़ालिब ज़बान वाले थे
फ़र्श पर आसमान वाले थे
क्या तसव्वुर में रोशनाई थी
हर्फ़ सारे बयान वाले थे
कवयित्री शैलजा नरहरि अपनी काव्य यात्रा में उसी
रिवायत की हमसफ़र हैं जो हमें मीर ओ ग़ालिब से हासिल हुई है। उनके पास गीत विधा से
प्राप्त कोमल शब्दावली है। बिंब और प्रतीक हैं। ज़िन्दगी से गुफ्त़गू करने का अपना
एक नज़रिया है। शैलजा नरहरि अपनी ग़ज़लगोई में इन सारी अमानतों का ख़ूबसूरत इस्तेमाल
करती हैं-
कह सकें तो बात दिल की अब नहीं मिलते वो लोग
जो ज़रूरत ही न समझे दोस्ती को क्या कहें
हम समझते थे हमेशा ये सफ़र आसान है
रास्ते के पेचो-ख़म को, बेरुख़ी को क्या कहें
शैलजा जी के यहां ग़ज़ल के कैनवास पर आसान लफ़्ज़ों और
सादा रंगों में ज़िंदगी की जो तस्वीर नुमाया होती है वह बहुत असरदार है-
आदमी का मिज़ाज क्या रखना
दिन हैं दो-चार ताज क्या रखना
जब मुसलसल सफ़र पे चलना है
सोच में कल औ आज क्या रखना
शैलजा नरहरि की इन ग़ज़लों में ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव
हैं, दौरे-हाज़िर के सवाल हैं और मुहब्बत की दास्तान भी है। मुहब्बत की दास्तान को
वे एक नए ज़ाविए से पेश करती हैं-
उम्र से गुज़ारिश है कुछ दिनों तो जीने दे
बहते आबशारों से घूंट भर तो पीने दे
जिसकी हम तमन्ना थे वो न जाने किसका है
ज़ख्म़ सारे ढक लेंगे पैरहन तो सीने दे
अपनी सोच को अभिव्यक्त करने के लिए शैलजा जी ने
अधिकतर छोटी बहरों का इस्तेमाल किया है। कहा जाता है कि छोटी बहर में बड़ी बात
कहना मुश्किल काम है। ऐसे लोगों के लिए रहमत अमरोहवी ने कभी कहा था-
ग़ज़ल और तंग दामानी का शिकवा
सलीक़ा हो तो गुंजाइश बड़ी है
शैलजा नरहरि में यह सलीक़ा नज़र आता है। वे छोटी बहर
में भी अपनी बात को इस क़रीने से रखती हैं कि उनके अशआर पढ़ने वालों के दिल के तार
झंकृत कर देते हैं-
ज़िंदगी ने जो दिया है कम नहीं
मुस्कराने के बहाने चाहिए
है ज़रूरी शायरी को फ़िक्रो-फ़न
शे'र लेकिन कम सुनाने चाहिए
इशारों में बात करने की ग़ज़ल की जो रिवायत है उस
हुनर का शैलजा नरहरि ने अपनी तख़लीक़ में बहुत उम्दा इस्तेमाल किया है-
शजर उदास परिंदों की वापसी न हुई
हरी थी शाख़ मगर फिर भी ज़िंदगी न हुई
शैलजा नरहरि के यहां फ़िक्र की आंच भी है और एहसास
की शिद्दत भी। उनकी ग़ज़लों में एक ख़ास किस्म की साफ़गोई है जो कथ्य को भरपूर संवेदना
के साथ पढ़ने वालों तक संप्रेषित कर देती है-
बुझा चराग़ हूं अब मेरी ज़िन्दगी क्या है
कोई न मुझसे ये पूछे कि रोशनी क्या है
शैलजा नरहरि कई ऐसे शेर लिखने में कामयाब हुई हैं
जो पाठकों के ज़हन में महफूज़ रह जाते हैं। आम फहम भाषा में लिखी गईं इन ग़ज़लों में
जज़्बा, तजुर्बा और एहसास का ख़ूबसूरत संगम है। ये ग़ज़लें हमारी ग़ज़ल परंपरा को
समृद्ध करने का क़ाबिले-तारीफ़ काम करती हैं। शैलजा नरहरि की ग़ज़लों में एक कशिश है।
अगर आप इन्हें एक बार पढ़ेंगे तो दोबारा पढ़ने का मन होगा। इन ग़ज़लों के चयन और
संपादन के लिए मशहूर शायर दीक्षित दनकौरी को बहुत-बहुत बधाई।
प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी, भवन संख्या 19, पहली
मंज़िल, 2 अंसारी रोड,
दरियागंज, नई दिल्ली 110002, मूल्य : ₹150
(17 फरवरी 2020)
देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M :
98210 82126
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