हिंदुस्तानी शायरी में दांपत्य प्रेम
मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक में ग़ालिब (नसीर) ने अपनी बेगम (तन्वी आज़मी) की तरफ़ देखकर अर्ज़ किया-
उनको देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
बेगम के चेहरे पर मुहब्बत की लालिमा उभरती है। उनकी आंखों की चमक बढ़ जाती है। यह चाहे जिस मौक़े का शेर हो मगर मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक में गुलज़ार ने इस शेर के ज़रिए दांपत्य प्रेम का अद्भुत दृश्य रच दिया है।
हिंदुस्तानी शायरी की दूसरी औरत
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हिंदुस्तानी शायरी को शायरी की परंपरा से जो औरत प्राप्त हुई वह परस्त्री है यानी दूसरी औरत। यह स्त्री हसीन होती है, बेवफ़ा होती है। क़त्ल करती है। दिल तोड़ती है, पत्थर दिल होती है। इस स्त्री की मुहब्बत में गिरफ़्तार शायर दर्द भरे अशआर लिखता है। रोता है, तड़पता है, आंसू बहाता है।
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है - (मीर)
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
- (अकबर इलाहाबादी)
यह हसीन औरत पता नहीं किस घर में रहती है। कभी-कभी बाम पर यानी छत पर दिखाई पड़ जाती है। इस औरत की ज़ुल्फ़ों के बारे में कहा गया है-
व़ो काली-काली ज़ुल्फ़ जो दोश पर लहराई
सिमटी तो बनी नागिन, फैली तो घटा छाई
आरज़ू लखनवी कह गए हैं-
उसने भीगे हुए बालों से जो झटका पानी
झूमकर आई घटा टूट के बरसा पानी
मीर के आंसुओं का ये सफ़र एक दिन साहिर लुधियानवी तक पहुंचता है। हालांकि साहिर ने भी तन्हाइयों में और अकेली रातों में काफ़ी आंसू बहाए थे लेकिन उन्होंने जो औरत "इससे पहले सितारों में बस रही थी कहीं" उसे ज़मीन पर लाने की कोशिश की-
तू मेरी जान मुझे हैरत ओ हसरत से न देख
हम में कोई भी जहांनूर ओ जहांगीर नहीं
तू मुझे छोड़के ठुकराके भी जा सकती है
तेरे हाथों में मेरे हाथ हैं ज़ंजीर नहीं
साहिर ने हिम्मत दिखाई और यहां तक लिख दिया-
तुम में हिम्मत है तो दुनिया से बग़ावत कर दो
वर्ना माँ बाप जहां कहते हैं शादी कर लो
फ़िराक़ साहब की हिंदुस्तानी औरत
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फ़िराक़ साहब ने परंपरा से प्राप्त उर्दू शायरी की इस दूसरी औरत को हिंदुस्तानी औरत में ढाल दिया। इसे रूप की देवी और घर की लक्ष्मी बना दिया-
किस दर्जा सुकूंनुमा हैं अबरू के हिलाल
ख़ैर ओ बरकत के धन लुटाती हुई चाल
जीवन-साथी के आगे देवी बन कर
आती है सुहागनी सजाए हुए थाल
सुख दुख में पति का साथ देने वाली फ़िराक़ की यह सुहागन औरत घर आंगन को आनंद से समृद्ध करती है-
तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है
दुख दर्द ज़माने के मिटा देती है
संसार के तपते हुए वीराने में
सुख शांति की गोया तू हरी खेती है
इस घरेलू औरत के सौंदर्य की जो तस्वीर फ़िराक़ साहब ने बनाई है वह हिंदुस्तानी साहित्य की उपलब्धि है-
कोमल पद गामिनी की आहट तो सुनो
गाते क़दमों की गुनगुनाहट तो सुनो
सावन लहरा है मद में डूबा हुआ रूप
रस की बूँदों की झमझमाहट तो सुनो
दूसरी औरत की हसीन ज़ुल्फ़ों को फ़िराक़ साहब ने हिंदुस्तानी लट बना दिया। गृहिणी के माथे पर बिखर कर ये लटें ऐसा आभास देती हैं जैसे काले नाग सुकून से सो रहे हैं। इस ख़ूबसूरत घरेलू औरत की गोद में बच्चा भी है-
आँखें हैं कि पैग़ाम मुहब्बत वाले
बिखरी हैं लटें कि नींद में हैं काले
पहलू से लगा हुआ हिरन का बच्चा
किस प्यार से है बग़ल में गर्दन डाले
कुल मिलाकर फ़िराक़ साहब ने हिंदुस्तानी शायरी को परंपरा से प्राप्त दूसरी औरत को संस्कारों से समृद्ध करके घर की लक्ष्मी बना दिया। यह घरेलू औरत पति से प्रेम करती है। पूरे घर की देखभाल करती है। सब का ख़याल रखती है। यहां तक कि गाय बैलों के भी सानी पानी का इंतज़ाम करती है। हिंदुस्तानी साहित्य में फ़िराक़ साहब की यह घरेलू औरत एक नई रोशनी की तरह मौजूद है।
चांद की बाहों में नरगिस के फूल
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दांपत्य प्रेम पर डॉ बशीर बद्र का एक अद्भुत शेर है-
मैं घर से जब चला तो किवाड़ों की ओट में
नरगिस के फूल चांद की बाहों में छुप गए
बात सिर्फ़ इतनी है कि परदेस जाते हुए पति को विदा करते हुए किवाड़ों की ओट में खड़ी पत्नी ने अपने छलकते हुए आंसुओं को अपनी हथेलियों में समेट लिया।
यह शेर शायद नई पीढ़ी की समझ में नहीं आएगा। क्योंकि यह पचास साल पहले का मंज़र है। उस वक़्त परदेस जाते हुए पति को विदा करने के लिए पत्नियां घर की दहलीज़ पर आकर रुक जाती थीं और डबडबाई आंखों से उन्हें जाते हुए देखती थीं।
पति-पत्नी के प्यार भरे रिश्ते पर शायर जांनिसार अख़्तर ने बड़ी ख़ूबसूरत रुबाइयां लिखी हैं। उनका एक चित्र देखिए-
आहट मेरे क़दमों की जो सुन पाई है
इक बिजली सी तनबदन में लहराई है
दौड़ी है हरेक बात की सुध बिसराके
रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है
शायर जां निसार अख़्तर के लिए उनकी बीवी ही उनके लेखन की प्रेरणा थी-
जज़्बों की गिरह खोल रही हो जैसे
अल्फ़ाज़ में रस घोल रही हो जैसे
अब शेर जो लिखता हूं तो लगता है
तुम पास खड़ी बोल रही हो जैसे
बदलते वक़्त में दाम्पत्य प्रेम
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बदलते वक़्त के साथ इस हिंदुस्तानी औरत का रंग रूप बदलता रहा। स्वभाव और व्यवहार में दाम्पत्य प्रेम छलकता रहा। शायर वसीम बरेलवी का एक शेर है-
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ामंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
यह शेर हमारे उस दांपत्य प्रेम का प्रतिनिधित्व करता है जो मध्यवर्गीय पारिवारिक रिश्तों में एक मजबूत धागे की तरह मौजूद है। पहली नज़र में इस शेर का जो अर्थ दिखाई देता है वह भी क़ाबिले तारीफ़ है। लेकिन इससे जो अर्थ ध्वनित हो रहा है वह यह है कि दिन भर काम धंधा करके थकन से चूर होकर जब पति घर की दहलीज़ पर पहुंचता है तो पत्नी मुस्कुरा कर उसका स्वागत करती है। इस मुस्कुराहट में मुहब्बत की वो ख़ुशबू छुपी रहती है जिससे पति की सारी थकावट पल भर में ग़ायब हो जाती है और चेहरे से सुकून छलकने लगता है।
जब मोबाइल का ज़माना नहीं था और बिना बताए पति देरी से घर पहुंचता था तो उस आलम को शायर ज़फ़र गोरखपुरी अपने एक शेर में कितनी ख़ूबी के साथ पेश करते हैं -
घर को पहुंचे थे ज़फ़र साहब कि ज़ख़्मी हो गए
मुंतज़िर आंखों ने ऐसा खींचकर मारा सवाल
ऐसे मंज़र को देखकर ही शायद डॉ बशीर बद्र ने यह कहा था-
घर बसाने में ये ख़तरा है कि घर का मालिक
रात में देर से आने का सबब पूछेगा
बशीर बद्र का यह शेर भी दाम्पत्य प्रेम को बड़ी ख़ूबसूरती से दर्शाता है-
यूँ ही बेसबब न फिरा करो,
किसी शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है,
उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
महिला लेखन में दांपत्य प्रेम
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हिंदुस्तानी शायरी में दांपत्य प्रेम के इस चित्रण में औरतों का भी योगदान है। लखनऊ की शायरा डॉ नसीम निकहत की मुहब्बत की इंतिहा देखिए-
जिस घर पे मेरे नाम की तख़्ती भी नहीं है
इक उम्र उसी घर को सजाने में गुज़र जाए
पति के ग़ुरूर को पत्नियां कैसे बर्दाश्त करती हैं इस पर भोपाल की शायरा डॉ नुसरत मेहंदी ने लिखा है-
कतरा के ज़िंदगी से गुज़र जाऊं, क्या करूं
रुस्वाइयों के ख़ौफ़ से मर जाऊं, क्या करूं
मैं क्या करूं कि तेरी अना को सुकूं मिले
गिर जाऊं, टूट जाऊं, बिखर जाऊं, क्या करूं
हिंदुस्तान में मियां बीवी का जो हाल है वही हाल पाकिस्तान में भी है। काफ़ी पहले शायरा परवीन शाकिर ने फ़रमाया था-
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात तो अच्छी है मेरे हरजाई की
इस ख़ौफ़ से वो साथ निभाने के हक़ में है
खोकर मुझे ये लड़की कहीं दुख से मर न जाए
पति पत्नी और वो के अफ़साने पर कराची की शायरा रेहाना रूही ने का ये शेर ग़ौरतलब है-
मैं ये भी चाहती हूँ तिरा घर बसा रहे
और ये भी चाहती हूँ कि तू अपने घर न जाए
मज़ाहिया शायरों ने तो मियां बीवी की नोकझोंक पर लिखकर काफ़ी नाम और दाम कमाया। शायर ख़ामख़ाह हैदराबादी का एक क़त्आ है-
हर इक बीवी मुहब्बत में ग़ज़ल का शेर लगती है
ख़फ़ा हो जाय तो बारूद का इक ढेर लगती है
मगर शौहर को जल्दी इसलिए ग़ुस्सा नहीं आता
बड़ा बर्तन गरम होने में थोड़ी देर लगती है
सफ़िया अख़्तर की मुहब्बत
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मशहूर शायर जावेद अख़्तर की वालिदा सफ़िया अख़्तर के प्यार भरे ख़तों की एक किताब हिंदी उर्दू में मंज़र ए आम पर आ चुकी है। अदब का हिस्सा बन चुकी है। मुंबई में सिनेगीतकार के रूप में संघर्ष कर रहे शायर जां निसार अख़्तर और भोपाल में रहने वाली उनकी बेगम सफ़िया अख़्तर की मुहब्बत की दास्तान को संजोए यह किताब दाम्पत्य प्रेम का एक ख़ूबसूरत दस्तावेज़ है। अंत में सफ़िया अख़्तर के लिए लिखी गईं शायर जां निसार अख़्तर की चंद रुबाइयां पेश हैं जो हमारे हिंदुस्तानी समाज में दांपत्य प्रेम की खूबसूरत मिसाल मानी जाती हैं।
1
डाली की तरह चाल लचक उठती है
ख़ुशबू से हर इक सांस छलक उठती है
जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं
अंदर से मेरी रूह महक उठती है'
2
वो शाम को घर लौट के आएंगे तो फिर
चाहेंगे कि सब भूल कर उनमें खो जाऊं
जब उन्हें जागना है मैं भी जागूं
जब नींद उन्हें आये तो मैं भी सो जाऊं
3
नाराज अगर हो तो बिगड़ लो मुझ पर
तुम चुप हो तो चैन कैसे आ सकता है
कहती है ये एहसास न छीनो मुझसे
मुझ पर भी कोई जोर चला सकता है
4
दुनिया की उन्हें लाज न ग़ैरत है सखी
उनका है मज़ाक मेरी आफ़त है सखी
छेड़ेंगे मुझे जान के सब के आगे
सच उनकी बहुत बुरी आदत है सखी
5
वो आएंगे चादर तो बिछा दूं कोरी
पर्दों की जरा और भी कस दूं डोरी
अपने को संवारने की सुधबुध भूले
घर बार सजाने में लगी है गोरी
6
चाल और भी दिल-नशीन हो जाती है
फूलों की तरह ज़मीन हो जाती है
चलती हूं जो साथ-साथ उनके तो सखी
खुद चाल मेरी हसीन हो जाती है
7
सीने पे पड़ा हुआ ये दोहरा आंचल
आंखों में ये लाज का लहकता काजल
तहज़ीब की तस्वीर हया की देवी
पर सेज पर कितनी शोख़ कितनी चंचल
8
कपड़ों को समेटे हुए उट्ठी है मगर
डरती है कहीं उनको न हो जाए ख़बर
थक कर अभी सोए हैं कहीं जाग न जाएं
धीरे से उढ़ा रही है उनको चादर
9
कहती है इतना न करो तुम इसरार
गिर जाऊंगी ख़ुद अपनी नज़र से इक बार
ऐसी तुम्हें ज़िद है तो इस प्याले में
मेरे लिए सिर्फ़ छोड़ देना इक प्यार
10
हर सुबह को गुंचे में बदल जाती है
हर शाम को शमा बन के जल जाती है
और रात को जब बंद हों कमरे के किवाड़
छिटकी हुई चांदनी में ढल जाती है
11
मन था भी तो लगता था पराया है सखी
तन को तो समझाती थी कि छाया है सखी
अब मां जो बनी हूं तो हुआ है महसूस
मैंने कहीं आज खुद को पाया है सखी
12
आहट मेरे क़दमों की जो सुन पाई है
इक बिजली सी तनबदन में लहराई है
दौड़ी है हरेक बात की सुध बिसराके
रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है
★★★
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा,
गोकुलधाम,फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुम्बई-400063, M : 98210-82126
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