ताज भोपाली : पीछे बँधे हैं
वो हाथ तो क़िस्मत में मेरी है नहीं शायद
आ बर्गे-हिना तुझको ही आंखों से लगा लूं
यह शेर उस पवित्र प्रेम का एक आदर्श नमूना है जिसे 'आई लव यू' के ज़माने में हम विस्मृत कर चुके हैं। बर्गे-हिना कहते हैं मेहंदी की पत्तियों को। पहले गांव, क़स्बे और शहर के हर मोहल्ले में मेहंदी के पेड़ हुआ करते थे। औरतें इन पेड़ों से हरी पत्तियां तोड़कर, सिलबट्टे पर पीसकर अपने हाथों में लगाती थीं। यह कहावत मशहूर है कि जिसके दिल में जितना अधिक प्रेम होगा, मेहंदी का रंग उतना ही ज़्यादा लाल होगा।
पुराने ज़माने में ऐसे मूक प्रेमी हुआ करते थे जो एक दूसरे से प्रेम की अभिव्यक्ति आंखों ही आंखों में कर दिया करते थे। हमारे इस महबूब शायर ने जिस लड़की से प्रेम किया उसकी शादी कहीं और तय हो गई। शादी के समय लड़कियां हाथों में मेहंदी लगाती हैं। अब आलम यह है कि मेहंदी के जिस पेड़ से वह लड़की हरी पत्ती तोड़ कर लाएगी, उस पेड़ को संबोधित करके शायर ने कहा कि वह हाथ तो मेरी क़िस्मत में नहीं है। लेकिन ऐ मेहंदी के पत्तों! तुम उस हाथ तक पहुंच जाओगे। तो आओ मैं तुम्हें ही अपनी आंखों से लगा लूं।
ज़ाहिर है कि जिन हरे पत्तों को शायर बेइंतिहा मुहब्बत के साथ अपनी आंखों से लगा रहा है, वो उसके महबूब के हाथों को जब हिना बनकर स्पर्श करेंगे तब इस स्पर्श में शायर की मुहब्बत का एहसास भी शामिल हो जाएगा।
ताज भोपाली का असली नाम मुहम्मद अली ताज था। उनका जन्म 1926 में और इंतक़ाल 12 अप्रैल 1978 को हुआ। उनके कई शेर बड़े मशहूर हुए-
ग़म-ए-हयात जिसे आप मौत कहते हैं
हमें ये दर्द न मिलता तो मर गए होते
पीछे बँधे हैं हाथ मगर शर्त है सफ़र
किससे कहें कि पाँव के काँटे निकाल दे
मैं ताज हूँ तू अपने सर पे सजाके देख
या मुझको यूँ गिरा कि ज़माना मिसाल दे
मेरे दोस्त मरहूम शायर ज़फ़र गोरखपुरी ने बताया था कि ताज भोपाली किसी ज़माने में भोपाल के मशहूर होटल ‘अहद’ के मालिक थे। वे दिन में अपने होटल से जो कमाते थे शाम को उसे मयख़ाने में उड़ाते थे। उनके चारों तरफ़ नौजवानों का हुजूम होता था। गपशप के दौरान वे अचानक कोई बेहतरीन शेर कह डालते थे। कहने के बाद भूल जाते थे। कोई नौजवान नोट करके दूसरे दिन उनका शेर उन्हें सुनाता तो वे बड़ी हैरत से पूछते- "क्या सचमुच इतना बढ़िया शेर मैंने कहा है ?’’
बहरहाल ताज साहब की शराबनोशी ने उनका होटल बंद करवा दिया तो मजरूह सुलतानपुरी की सलाह पर वे फ़िल्मों में गीत लिखकर पैसा कमाने के लिए मुम्बई आ गए । मालाड में उन्हें मजरूह साहब के समधी फ़िल्म निर्माता एस.एम.सागर के यहाँ सर छुपाने को छत मिल गई। शायर ज़फ़र गोरखपुरी उनके दोस्त थे। वे ताज साहब को अपने साथ कई मुशायरों में ले गए। मुशायरों में उन्हें काफ़ी पसंद किया जाता था । मगर फ़िल्म नगरी को वे और फ़िल्म नगरी उन्हें रास नहीं आई तो वे भोपाल वापस लौट गए।
ज़फ़र साहब का कहना है कि वे किसी दरवेश की तरह बड़े अच्छे इंसान और उम्दा शायर थे । हिंदी ग़ज़ल के शिखर दुष्यंत कुमार उनसे बहुत प्रभावित थे। वे अपनी ग़ज़लें दिखाने के लिए ताज साहब के पास गए भी थे। ताज साहब ने उन्हें मशविरा दिया कि उनकी ग़ज़लों का तेवर इतना अलग और मौलिक है कि उसे किसी इस्लाह की ज़रूरत ही नहीं है। यही तेवर एक दिन उन्हें अलग पहचान दिलाएगा। और हुआ भी वही ।
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में ताज भोपाली ने फ़िल्म ‘आंसू बन गए फूल’ (1969) के गीत लिखे। मगर उन्हें दी गई धुन पर लिखने में असुविधा महसूस होती थी। उन्होंने ज़फ़र गोरखपुरी को बताया था कि मैं अटक जाता हूं तो मजरूह साहब मुझे पार लगाते हैं। बहरहाल उन्हें मुंबई शहर अपने मोह पाश में बांध नहीं पाया और वह भोपाल की जानी पहचानी गलियों में वापस लौट गए। अंत में उन्हीं का शेर उन्हीं को समर्पित कर रहा हूं-
ये जो कुछ आज है कल तो नहीं है
ये शाम-ए-ग़म मुसलसल तो नहीं है
यक़ीनन तुम में कोई बात होगी
ये दुनिया यूँ ही पागल तो नहीं है
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा,
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063
98210 82126
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