गुरुवार, 4 जून 2020

कमलेश भट्ट कमल : परिंदों को नहीं तालीम दी जाती


शिखरों के सोपान : पुस्तक समीक्षा

विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी से हिंदी के प्रतिष्ठित ग़ज़लकार कमलेश भट्ट कमल का चौथा ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है - शिखरों के सोपान। हिंदी ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार को मील का पत्थर माना जाता है। दुष्यंत कुमार के बाद जिन ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल को आगे ले जाने की सराहनीय कोशिश की है उनमें कमलेश भट्ट कमल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। कमलेशजी के पास एक आधुनिक दृष्टि है। चीज़ों के आर पार देखने का हुनर है। इसलिए वह अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए ऐसे ऐसे नए कथ्य तलाश लेते हैं जिन पर अक्सर दूसरों की नज़र नहीं जाती। बयान की यही नवीनता उन्हें अलग पहचान देती है।


परिंदों को नहीं तालीम दी जाती उड़ानों की
वो खु़द ही जान लेते हैं बुलंदी आसमानों की


नएपन को अपनी अभिव्यक्त में शामिल करने वाले कई ग़ज़लकारों के शेर प्रायः पत्रकारिता में ढल जाते हैं मगर कमलेशजी अपने बाकमाल हुनर से ऐसे मौजू को जब शेर की शक्ल देते हैं तो उसमें शेरियत का सलीक़ा भी शामिल होता है - 

जंगल से बाहर आए तो अरसा बीत गया 
इंसानों में फिर भी बाक़ी कितना जंगल है 
जाने कैसे उग आते हैं कांटे उस दिल में 
जो दिल अपनी संरचना में बेहद कोमल है 

कमलेशजी के नए ग़ज़ल संग्रह में 108 ग़ज़लें शामिल हैं। ये ग़ज़लें कथ्य की नवीनता, अभिव्यक्त की ताज़गी, हिंदी की नई शब्दावली, लहजे की सादगी और बयान की शालीनता से समृद्ध हैं। उनकी सामाजिक पक्षधरता हमेशा उनके साथ चलती है। उनके तीखे सवाल पाठकों को विचलित कर देने का सामर्थ्य भी रखते हैं - 

चले रुक रुक के कोई तो भी मंजिल पास आती है 
मगर यह मुल्क कुछ चलता दिखाई क्यों नहीं देता 
ये क्यों होता है डालर रोज़ आकर रौंद जाता है 
कभी तनकर खड़ा रुपया दिखाई क्यों नहीं देता 

हिंदी ग़ज़ल आज ऐसे मुकाम पर पहुंच गई है कि उसके झरोखे से वक़्त के सारे सवाल, ज़िंदगी के सारे ख़्वाब और समाज के सारे मसाईल झांकते नज़र आते हैं। ऐसे चुनौतीपूर्ण माहौल में भी कमलेशजी अभिव्यक्ति के नए पहलू तलाश कर लेते हैं - 

वो जो फुटपाथ है उसको हिकारत से नहीं देखो 
वो अपने साथ ही बेबस कई बेघर समेटे है 
कभी कुछ देर बैठो पास तो ख़ुद जान जाओगे 
स्वयं में कितनी बेचैनी कोई सागर समेटे है 

हमारे आसपास के माहौल से बाहर निकलकर कमलेश जी कभी-कभी आध्यात्मिकता के आसमान में भी ऊंची उड़ान भरते हैं - 

हजा़रों कर्मफल प्रारब्ध सारे इसमें सिंचित हैं 
हमारी देह ख़ुद में जन्म - जन्मांतर समेटे है 
अमर है आत्मा और देह नश्वर है ये कहते हैं 
मगर उस आत्मा को देह यह नश्वर समेटे है 

दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को व्यवस्था विरोध और सामाजिक पक्ष धरता का एक नया तेवर दिया। इस रिवायत को आगे बढ़ाने का काम कमलेशजी जैसे सजग रचनाकार बख़ूबी कर रहे हैं। ख़ास बात यह है कि ऐसे सरोकारों को सामने लाते हुए वे कभी बड़बोलेपन का शिकार नहीं होते बल्कि अपनी शालीनता और साफ़गोई बरकरार रखते हैं - 

कहीं मज़हब कहीं पर जाति की पाबंदियां लिख दीं
ये किसने बंदिशें इतनी दिलों के दरमियां लिख दीं
दलित है कौन पंडित कौन यादव कौन ठाकुर है
सियासत ने सभी चेहरों पर उनकी जातियां लिख दीं 

मुझे लगता है कि दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को जिस मुकाम तक पहुंचाया था कमलेश भट्ट कमल ने उस मुकाम से आगे ले जाने की कामयाब कोशिश की है। इधर हिंदी ग़ज़ल में एक ठहराव और जड़ता दिखाई देती है। लक्षणा और व्यंजना की बजाय अभिधा से ज़्यादा काम लिया जा रहा है। सपाट बयानी का भी फ़ैशन बढ़ा है। कमलेशजी इन ख़ामियों से ख़ुद को बचाते हुए उस ग़ज़ल के हमराही बने हैं जो मीरो- ग़ालिब की सुदीर्घ परंपरा से हमको प्राप्त हुई है। वे अपनी फ़िक्र को अपनी अभिव्यक्ति के आईने में इस तरह उतारते हैं कि उसमें दौरे-हाज़िर का मुकम्मल चेहरा नज़र आता है। अपनी रचनात्मकता से उन्होंने हिंदी ग़ज़ल को लगातार समृद्ध करने का सराहनीय कार्य किया है। मेरी दिली ख़्वाहिश है कि वे इसी तरह ग़ज़ल रचते रहें और सृजनात्मकता के आसमान पर कामयाबी का परचम लहराते रहें। 

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई - 400 063, 9821082126 

 जनवरी 2019

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