कथाकार
कमलेश्वर का कविता प्रेम
दिल्ली
की एक पत्रिका में एक लेखक ने मुद्दा उठाया कि हिंदी की अतुकांत कविता जिसे
समकालीन कविता कहा जाता है और जो साहित्य के केंद्र में है उस कविता का कोई
सामाजिक आधार नहीं है। जिन कवियों को लखटकिया पुरस्कार मिलते हैं उनके पाठक ही नहीं हैं। जिन कवियों की महानता पर गर्व किया
जाता है उनके काव्य संग्रह की सौ-दो सौ प्रतियां भी नहीं बिकतीं। हक़ीक़त यह है कि
सिर्फ़ कवि ही कवियों को पढ़ते हैं। समकालीन हिंदी कविता के पाठक ही नहीं हैं।
हिंदी
कविता के उदासीन पाठक
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दिसम्बर
1997 की एक सुबह थी। जुहू, मुम्बई के पांचसितारा होटल सन एन सैंड के एक कमरे में
कथाकार कमलेश्वर से मुलाक़ात हुई। साथ में गायत्रीजी भी थीं। उपरोक्त मुद्दे का
ज़िक्र करते हुए मैंने उनसे पूछा- क्या आप हिंदी कविता पढ़ते हैं ! कमलेश्वर जी ने
स्वीकार किया कि वे हिंदी कविता पढ़ते हैं। मंगलेश डबराल और राजेश जोशी उनके प्रिय
कवि हैं। आज की कविताओं में उन्हें प्रतिवाद का स्वर अच्छा लगता है। आज की कविताएं
सांस्कृतिक संक्रमण में हस्तक्षेप कर रही हैं। कमलेश्वर ने सिगरेट जलाकर कहा- मगर
सच यही है कि समकालीन कविता के प्रति पाठक उदासीन हो गए हैं।
कमलेश्वर
ने फ़रमाया- हिंदी कविता में बहुत कुछ ऐसा है जो मुहावरा नहीं बन पाया। कविता
से कवि की पहचान उभर नहीं पा रही है। मुक्तिबोध, केदानाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय,
नागार्जुन आदि को पढ़ते ही मन में एक झनक सी पैदा होती है कि हां ये उन्हीं की
कविताएं हैं।
कवि
के दिमाग़ में अनुगूंज है, उलझन है, जो शब्द खोज रही है। शब्द मिलने में समय लगता
है। शब्द की तलाश जारी है। अंतत: पहुंचना पाठक तक ही है। कविता और अकविता में भेद
करना चाहिए। आज ऐसा न होने का कारण संपादकीय दृष्टि का कमज़ोर होना है। संपादकों
को इस मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए कि वे किसी नए कवि को मौक़ा देकर उसका भला कर
रहें हैं। प्रतिभा अपना रास्ता खुद तलाश कर लेती है। कविता के प्रति
प्रोत्साहनवादी नज़रिया बंद होना चाहिए।
भाषा
को लेकर
बहुत ग़रीब हैं कवि
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निराला
ने छंद तोड़ने के बावजूद हमें जो लय दी थी वह कहां गई ? आज के कवि शब्दों के कोलाज
बनाते हैं जो समझ में नहीं आते। कवि अपनी संवेदनात्मक भाषा को लेकर बहुत ग़रीब
हैं। अपने से ऊपर उठकर अपने समय से बात करने वाला धूमिल जैसा कवि अब नहीं है।
कवियों में साहित्यिक रूप से जीने की प्रवृत्ति है मगर साहसिक रूप से नहीं।
मुंबई
में ही देखिए तो जो बम विस्फोट हुआ उसके खिलाफ़ ज़ोख़िम उठाने की प्रवृत्ति कवि में
नहीं है। यहां तानशाही नज़र आ रही है मगर किसी कवि की कविता तानाशाही के ख़िलाफ़
नहीं है। कविता में व्यक्तित्व की तन्मयता नज़र नहीं आती। बात, विचार और कविता का
कथ्य अलग-अलग है। कवि व्यक्तित्व का विघटन कविता के क्षरण में सहायक हुआ है।
कविता
से कवि की पहचान नहीं हो पा रही मगर साहित्य में बने रहने की कोशिश निरंतर जारी
है। इस कोशिश में जो लिखा जा रहा है वह कविता नहीं है। वह गद्यकाव्य भी नहीं है।
ऐसी स्थिति में पाठक का उदासीन होना स्वाभाविक है। शब्दों को ग़ज़ल ने तराशा।
ग़ज़ल को पाठक अपने अधिक नज़दीक पाता हैं। इस विधा में काफ़ी सम्भावनाएं हैं।
आंदोलन
से साहित्य का अहित ज़्यादा
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कथाकार.कमलेश्वर
ने बताया- पचास साठ के दशक में कविता और कहानी को लेकर जो आंदोलन चले उनसे साहित्य
का अहित ज़्यादा हुआ। वे आंदोलन स्पष्ट रुप से वैचारिक थे। रचनाओं के माध्यम से
विचार तलाशने की कोशिश थी। उसके बाद जो परिदृश्य आया उसमें वैचारिक ऊर्जा समाप्त
हो गई । मगर लिखने की बहुलता सामने आई। पाठक लगातार बढ़े। हमारे साथ ज़बरदस्त पाठक
समुदाय था। उस पाठक को संभालने के लिए संपादन की जो दृष्टि चाहिए उसका अभाव होता
गया।
अंतत:
रचना में निहित विचार से ही रचना जीवित रहती है। सिर्फ़ भाषा के इस्तमाल से कुछ
नहीं होता। यह जानते हुए भी उस दौर के कई लेखक ज़बरदस्ती देशज शब्दों के इसेतमाल
में जुट गए। इससे साहित्य का अहित होना ही था।
मैंने
जो भी लिखा बहुत सोचकर लिखा। एक वह भी दौर था जब रचनाएं झरनों की तरह फूटतीं थीं।
फिर उस पानी को बांध में बांधा। यह तय किया कि कितना पानी इस्तेमाल करें कि पाठक
के मन से इमेज़ न उतरे। कई कहानियां लिखीं और ख़ारिज़ कीं। कई को लिखते-लिखते छोड़
दिया। स्तर कायम रखने का दबाव हमेशा बरकरार रहा।
पापों
पर पर्दा डालने वाले
पुरस्कार
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सन्
1997 में मुंबई में कवि विनोद कुमार शुक्ल को "दयावती मोदी कवि शेखर
सम्मान" दिया गया। मुम्बई के एक लेखक संगठन ने इसके बहिष्कार की अपील की थी।
इसे मोदी प्रतिष्ठान द्वारा मज़दूर विरोधी कृत्यों को छुपाने की कोशिश बताया गया।
इसी तरह ‘केड़िया पुरस्कार’ का भी लेखकों ने विरोध किया। कहा जाता है कि ऐसे
लखटकिया पुरस्कार अपने पापों पर परदा डालने के लिए दिए जाते हैं। क्या लेखक को ऐसे
पुरस्कार लेने चाहिए ?
इस
मुद्दे पर कथाकार कमलेश्वर ने कहा-
इस
संदर्भ में पापों पर परदा डालने वाली बात सच है। इसके पहले इन लोगों का साहित्य
प्रेम क्यों नहीं जागा ? मैंने तो पहली पुस्तक से आज तक एक भी पुरस्कार स्वीकार
नहीं किया। मुझे इनकी निरर्थकता मालूम है। इन्हीं की तरह सरकारी पुरस्कारों में भी
चरित्र और कृत्यों को छुपाने की कोशिश रहती है। इनके पीछे यश की भी लालसा होती है।
केड़िया, मोदी आदि जिन नामों से ये पुरस्कार दिए जाते हैं क्या उनके बेटे-बेटियों
ने पुरस्कार पाने वाले लेखक को पढ़ा है? इन्होंने उस लेखक की पुस्तक प्रसारित करने
में कितनी मदद की। ये प्रतिष्ठान उस लेखक की किताब की पांच हज़ार प्रतियां ख़रीदकर
क्यों नहीं बंटवा देते ?
देश
में इस तरह आज पुरस्कार माफिया बन गया है। कुछ पुरस्कार सही भी हैं। उनसे लेखक को
प्रोत्साहन मिलता है। मगर आज सही ग़लत में भेद करना मुश्किल हो गया है। अच्छे लेखक
को पुरस्कारों से बचना चाहिए। पुरस्कार से लेखक की रचनात्मकता का क्षरण होता है।
मेरे ख़याल से ये पुरस्कार ग्रांट के रूप में होने चाहिए। चालीस हज़ार लीजिए। चार
महीने बाहर रहिए। मनचाहा लिखिए। यानी चार-महीने आपके घर के राशन-पानी का इंतज़ाम
पुरस्कार देने वाला करे। फिर उसे लेखक की पुस्तक बिकवाने की भी कोशिश करनी चाहिए।
उदय
प्रकाश की उत्तर आधुनिकता
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कविता
के बाद कमलेश्वर कहानी पर आ गए। बोले- कहानी का एक प्राणबिंदु होता है। प्रेमचंद
ने कहानी के प्राणबिंदु को खिसकाकर आगे रखा। प्रसाद का प्राणबिंदु उनसे अलग है।
प्रेमचंद मानवतावादी हैं तो प्रसाद परिवर्तन वादी है। आप किसके पक्षधर हैं? कहानी
सांस्कृतिक-आर्थिक माहौल में निरंतर हस्तक्षेप करके भी रचना बनी रहती है। आज की
कहानियों ने स्टाइल और शैली ज़रूर डेवलप की मगर यही कहानी नहीं है। कहानी में कथ्य
की कमी है।
अखिलेश,
शशांक, स्वयंप्रकाश और असग़र वजाहत की कहानियां ज़रूर सोचती हुई लगती हैं। उदय
प्रकाश उत्तर आधुनिकता के चक्कर में पड़ गए। उन्होंने अपनी एक शैली विकसित की। मगर
केवल हस्तक्षेप पर्याप्त नहीं है। हस्तक्षेप तो लाठी भी करती है। हस्तक्षेप के साथ
चेतना भी ज़रूरी है। लाठी थामने वाला भी नज़र आना चाहिए।
हिंदी
पत्रकारिता का भविष्य
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कमलेश्वर
के अनुसार ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं ने सांस्कृतिक
सवालों पर ऐसी सामग्री दी कि आप सोच सकें। इन्होंने अंधविश्वास नहीं पैदा किया।
दैनिक अख़बार के रंगीन परिशिष्टों में अंधविश्वास और देवी-देवताओं को लेकर
चंद्रकांता जैसी स्थिति है। ये फैशनपरस्त पत्रकारिता करते हैं।
साप्ताहिक
पत्रिकाएं बंद इसलिए हुईं कि शिक्षा का प्रसार उतना नहीं हुआ जितना इनके जीवित
रहने के लिए ज़रूरी था। आज तकनीकी शिक्षा का महत्व है। दसवीं पढ़कर जो व्यक्ति दस
साल से बेरोज़गार है वह साप्ताहिक पत्रिका ख़रीदकर कैसे पढ़ेगा।
जहां
तक इलेक्ट्रानिक माध्यमों का सवाल है, उनके सामने मुद्रित शब्द कभी मर नहीं सकता।
क्योंकि उसे बार-बार पढ़ सकते हैं। दृश्य माध्यम तो सोचने का भी समय नहीं देता। वह
तो ट्रेन की खिड़की से दृश्य देखने जैसा है। दृश्य माध्यम में बार-बार एक जैसे
शब्द आते हैं। शिक्षा का उतना विकास नहीं हुआ। लोगों के पास पढ़ने के लिए एक घंटे
का भी समय नहीं है।
एक
ब्रांडनेम है अरुंधती राय
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हिंदी
का अपना एक विशाल क्षेत्र है। मगर पांच संस्करण हाथों हाथ बिक जाने के बावजूद
सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’
की चर्चा उस तरह नहीं होती जिस तरह अरुंधती राय के ‘दि गॉड आफ स्माल थिंग्स’
की होती है। इसका क्या कारण है ?
कमलेश्वर
ने जवाब दिया- हिंदी में जागरूक टिप्पणीकारों की कमी है। अंग्रेजी में ऐसे
टिप्पणीकारों को भरपूर पैसा मिलता है। हिंदी में अगर दस टिप्पणीकारों को
हज़ार-डेढ़ हज़ार रूपए दिए जाएं और उन्हें अपने ढंग से लिखने की आज़ादी दी जाए तो
कोई भी कृति चर्चित हो सकती है। अंग्रेजी वाले प्रायोजित प्रचार करते हैं तो
उन्हें बिक्री का लाभ भी मिलता है। यह प्रचार अंग्रेजी संस्कृति में आ गया है मगर
अभी तक हिंदी में नहीं आ पाया।
अंग्रेजी
के मोह में हमारे यहां अमर बेल की तरह एक परजीवी वर्ग तैयार हुआ है। यह अपनी
मातृभाषा से कटा हुआ है। यह वर्ग धनाढ्य है। ख़रीदने के लिए पैसा है। बात करने के
लिए उसके पास समय भी है। अरुंधती राय का ताल्लुक़ ऐसे वर्ग से ही है। विदेशी
प्रकाशकों के लिए सुस्मिता सेन और ऐश्वर्या राय की तरह अरुंधती राय भी एक
ब्रांडनेम है। बाज़ारू संस्कृति को जीवित रखने के लिए ब्रांडनेम की ज़रूरत पड़ती है।
शोभा डे और विक्रम सेठ भी उनके ब्रांडनेम हैं। अरुंधती की किताब पढ़कर मुझे लगा कि
उनमें अनुभव की कमी है। जो अनुभव हैं उनमें सघनता की कमी है। मेरे ख़याल से वह
एक-दो किताबों से ज़्यादा नहीं लिख पाएगी।
कथाकार
कमलेश्वर और चंद्रकांता
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कमलेश्वर
पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने ‘चंद्रकांता’ के साथ इतनी छेड़छाड़ की है कि बाबू
देवकीनंदन खत्री की आत्मा दुखी हो गई होगी। कमलेश्वर ने जवाब दिया-
चंद्रकाता
में परिवर्तन हमने जानबूझकर किया। यह टीवी धारावाहिक देवकीनंदन खत्री के उपन्यास
पर आधारित नहीं था। इसके लिए उपन्यास सिर्फ प्रेरणास्रोत था। कुछ भी जोड़ने घटाने
के लिए हम आज़ाद थे। उपन्यास में 1888 का जो माहौल है वह मुस्लिम विरोधी है। वह आज
दिखाने के उपयुक्त नहीं था। इसलिए हमने बाबू देवकीनंदन की कथा से प्रेरणा लेकर
उसमें फैंटेसी और कल्पनाशीलता के साथ और घटनाएं जोड़ीं । कभी-कभी कमर्शियल ज़रुरतें
भी ऐसा करवाती हैं। झूठी सामंती शान तोड़ने के लिए हमने कुछ नए चरित्र भी गढ़े।
हमारे ऊपर आरोप उन्होंने लगाए जिन्होंने इस उपन्यास का ठीक से अध्ययन नहीं किया
है। किसी भी कथा के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ होगी तो मैं उससे अलग हो जाना पसंद
करूंगा। (पता चला कि कमलेश्वरजी जी ‘युग’ धरावाहिक से अलग अलग हो गए थे)
कमलेश्वर
ने मुंबई क्यों छोड़ा !
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वे
बोले- क्योंकि
फ़िल्में मुझे छोड़ नहीं रही थीं। जो कम्बल मैंने ओढ़ा था वह मखमली था। वह मुझे
छोड़ नहीं रहा था। इस माध्यम से धनोपार्जन तो हो सकता है, शब्दोपार्जन नहीं हो
सकता। यह माध्यम बहुत बड़ा अजगर है जो लेखक को निगल जाता है। मेरी सलाह है कि
फ़िल्म और सीरियल के समंदर में चाहे जितना तैरो मगर इसका पानी नहीं पीना चाहिए।
अंतत: आपकी मुक्ति साहित्य के शब्द में ही है।
आपका-
देवमणि
पांडेय
सम्पर्क
: बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा,
गोकुल
धाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुम्बई-400063,
98210-82126
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