ज़रूरी तो नहीं
गृहलक्ष्मी का उर्वशी होना
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वरिष्ठ ग़ज़लकार प्रो.नंदलाल पाठक ने हिंदी ग़ज़ल
को जीवंत भाषा और धारदार अभिव्यक्ति के साथ ऐसे संस्कार दिए हैं जो धार्मिकता के
आवरण से मुक्त हैं और हिंदुस्तानी समाज की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं। उनकी
सृजनात्मकता के दायरे में राम भी हैं और राधेश्याम भी हैं, मगर ये लोकप्रिय चरित्र
अपनी सांस्कृतिक मर्यादा में भारतीय जन-मानस को उन मूल्यों की दीक्षा देते नज़र
आते हैं जिन मूल्यों पर हमारा भारतीय समाज टिका हुआ है। वस्तुत: ये सरोकार हिंदी
ग़ज़ल के स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए ज़रूरी हैं।
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हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा पर अगर निगाह डालें
तो यह भारतेंदु हरिश्चंद्र, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, शमशेर बहादुर सिंह और
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि से होती हुई दुष्यंत कुमार तक पहुँची। यह एक ऐसा मुकाम
था जहाँ हिंदी ग़ज़ल को असीम लोकप्रियता हासिल हुई। ग़ज़ल की लोकप्रियता को देखते
हुए इसके रचनाकारों और पाठकों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा हुआ।
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दुष्यंत कुमार के पास राजनीतिक समझ, प्रतिरोध का
स्वर और अपनी बात को असरदार तरीक़े से कहने का सलीक़ा था। उनके इस हुनर ने काफ़ी
ग़ज़लकारों को आकर्षित किया और उन्होंने दुष्यंत कुमार की ही ग़ज़ल परम्परा को आगे
बढ़ाने की कोशिश की। मगर दुष्यंत कुमार जिस मुकाम तक ग़ज़ल को ले गए थे वहां ये
ज़रूरी था कि हिंदी ग़ज़ल को हिंदी काव्य परम्परा से जोड़कर इस काव्य परम्परा को
आगे बढ़ाया जाय। जिन लोगों ने ऐसा किया उन्हें पहचान और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
ज़िंदगी कर दी निछावर तब कहीं पाई ग़ज़ल
कुछ मिलन की देन है तो कुछ है तनहाई ग़ज़ल
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प्रो.नंदलाल पाठक इसी काव्य परम्परा के एक समर्थ
वाहक हैं। वे हिंदी ग़ज़ल को समकालीन हिंदी कविता का अंग मानते हैं। उन्होंने अपने
समय के उन सवालों औऱ समस्याओं को ग़ज़ल की विधा में बख़ूबी ढालकर प्रस्तुत किया जो
समकालीन हिंदी कविता में अभिव्यक्त होते हैं। इस फ़न और हुनर के चलते उनकी
रचनात्मक में ग़ज़ब का आत्मविश्वास दिखाई देता है-
एक यह भी कमाल कर देखें
ख़ुद को जलती मशाल कर देखें
लोग कैसे न घर से निकलेंगे
अपनी अर्थी निकालकर देखें
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पाठक जी के पास एक अर्जित काव्य भाषा है जो
हिंदी समाज के दुख-दर्द, संघर्ष जिजीविषा और सपनों को अभिव्यक्त करने में सक्षम
है। उनकी अभिव्यक्ति में कहीं भी फ़ारसी व्याकरण या फ़ारसी तरक़ीब की बैशाख़ी नज़र
नहीं आती। उनके पास एक संचित काव्य परम्परा है जो उन्हें हिंदी साहित्य के अध्ययन,
मनन और विश्लेषण से प्राप्त हुई हैं। यही कारण है कि पाठक जी की ग़ज़लों में कबीर
का फ़क्कड़पन, तुलसी की प्रतिबद्धता, सूर का समर्पण, मीरा का माधुर्य और दिनकर का
ओज सहजभाव से अभिव्यक्त होते हैं। उनके पास विचार और चिंतन की पूंजी है। इसी लिए
वे हिंदी काव्य परम्परा में अपनी ग़ज़लों के ज़रिए एक मज़बूत कड़ी जोड़ने में
कामयाब हुए हैं।
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ग़ज़ल की लोकप्रियता की सबसे बड़ी कसौटी है उसकी
लयात्मकता। इसी लयात्मक के चलते ग़ज़ल के शेर जनमानस की स्मृति का हिस्सा बन जाते हैं।
उद्धरणीयता छंदबद्द कविता की एक अनिवार्य शर्त है। इसी के ज़रिए कविता लोक जीवन
में यात्रा करती है। मुझे भी पाठक जी के कई शेर ज़बानी याद हैं जिन्हें मैं
सार्वजनिक मंचों से अक्सर उद्धरित करता हूँ। मिसाल के लिए उनके चंद शेर देखिए-
कल तितलियां दिखीं तो मेरे हाथ बढ़ गए
मुझको गुमान था मेरा बचपन गुज़र गया
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ज़रूरत आपको कुछ भी नहीं सजने-सँवरने की
किसी हिरणी की आँखों में कभी काजल नहीं होता
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भरोसा नाव से ज़्यादा मुझे दो बाज़ुओं पर है
कहो तो नाव से मैं बीच धारा में उतर जाऊँ
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क़दम-क़दम पर है फूलमाला, जगह-जगह है प्रचार पहले
मरेगा फ़ुर्सत से मरने वाला, बना दिया है मज़ार
पहले
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एक अच्छा कवि अपनी अभिव्याक्ति में हमेशा
प्रगतिशील होता। वक़्त के साथ क़दम बढ़ाते हुए वह ऐसे तथ्यों को रेखांकित करता है
जिसमें समाज का अक्स ख़ुद-बख़ुद उभर आता है। ये ख़ूबियां पाठक जी की ग़ज़लों में
शामिल हैं। मिसाल के तौर पर उनके कुछ शेर देखिए
आंगन में तब सारा नभ था
अब छोटी सी बालकनी है
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हम निवासी महानगर के हैं
उम्र सारी क़तार में बीती
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सारी दुनिया है दौड़ में,सबको
सबसे आगे यहाँ निकलना है
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ठहाके हैं, हँसी है एक परदा
कोई तूफ़ान भीतर चल रहा है
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चीथड़ों में भी ग़ज़ब के लोग थे
जब कभी मिलना हुआ खुलकर मिले
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खेत की ओर ले चलो दिल्ली
गाँव वालों को राजधानी दो
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ज़माने भर से ख़बरें आ रही हैं तेज़ बारिश की
मैं प्यासा रह गया, बादल नहीं कोई इधर आया
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घर में जिनकी ज़िंदगी ख़तरे में थी
उनको जेलों में सुरक्षित घर मिले
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कल करिश्मा था जो अब है खेल बाएं हाथ का
सीढ़ियों पर मैं खड़ा था सीढ़ियाँ चलती रहीं
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आज जो हिंदी ग़ज़ल लिखी जा रही है उसमें
राजनीतिक मुद्दों और व्यवस्था विरोध पर बेशक़ ज़ोर है मगर जीवन के कई ऐसे पहलू भी
हैं जिन्हें रेखांकित करने की आवश्यकता है। इसमें एक पहलू है दाम्पत्य जीवन। प्रो.
नंदलाल पाठक के पास एक ऐसी समृद्ध दृष्टि है जो ऐसे नाज़ुक और ज़रूरी मुद्दों को भी
अपनी अभिव्यक्ति में पर्याप्त महत्व देती है-
वो पति की प्रेरणा, सुख दुख की साथी हो, सुभाषी हो
ज़रूरी तो नहीं गृहलक्ष्मी का उर्वशी होना
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जनम संतान को देकर भी जो मां बन नहीं पाती
बहुत सी औरतों के भाग्य में है देवकी होना
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हिंदी ग़ज़लकारों के सामने आज भी एक अहम सवाल है
कि ग़ज़ल का चेहरा कैसा होना चाहिए, उसका रूप-रंग कैसा होना चाहिए। ‘जहां पतझर
नहीं होता’’ ‘फिर हरी होगी धरा’ और ग़ज़लों ने लिखा मुझको’ में शामिल ग़ज़लों के
ज़रिए प्रो.पाठक ने इस सवाल का जवाब पेश कर दिया है। हिंदी ग़ज़ल का कथ्य क्या
होना चाहिए और हिंदी ग़ज़ल की भाषा कैसी होनी चाहिए इसका साफ़-सुथरा आईना हैं
पाठकजी की ग़ज़लें-
अब अच्छे बुरे की सही पहचान नहीं है
इंसान बने रहना अब आसान नहीं है
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दुनिया को लूटकर लहू दुखियों का चूसकर
जो दान दिया जाता है, वह दान नहीं है
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कथ्य की मर्यादा को क़ायम रखने के लिए फ़िराक़
गोरखपुरी साहब ने बहर में कई जगह आज़ादी भी ली थी। ग़ज़ल के समालोचकों ने इन
ख़ामियों को उजागर भी किया है। इस तरह की ख़ामियां पाठक जी में भी मिल सकती हैं
क्योंकि उन्होंने भी अपनी अभिव्यक्ति में कथ्य की गरिमा का विशेष ध्यान रखा है।
फ़ारसी छंद की परम्परा में पाठक जी की ग़ज़लों की ‘तक्तीअ’ करने वालों को मायूसी
ही हाथ लगेगी।
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कथ्य, अभिव्यक्ति और भाषा के मानदंडों पर खरी
उतरने वाली पाठक जी की हिंदी ग़ज़लें अपने वक़्त का अहम दस्तावेज़ हैं। इनके
माध्यम से हिंदुस्तानी समाज का एक मुकम्मल चेहरा सामने आता है और साबित करता है कि
फ़ारसी व्याकरण, तरक़ीब, उपमान और प्रतीकों से मुक्त होने के बाद हिंदी ग़ज़ल का
व्यक्तित्व कितना ख़ूबसूरत और असरदार लगता है, उसकी ये ग़ज़लें जीवंत मिसाल हैं।
पाठक जी की ये ग़ज़लें पठनीयता, गेयता और उद्धरणीयता से समृद्ध हैं। इसलिए ये
ग़ज़ल प्रेमियों को बहुत आत्मीय लगती हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि ये ग़ज़लें नई
पीढ़ी के लिए एक पथ-प्रदर्शक का काम करेंगी।
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ग़ज़लों ने लिखा मुझको
ग़ज़लकार प्रो नंदलाल पाठक
वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य ₹250 रूपए
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देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम,
फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063,
98210-82126
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