गुलज़ार के मिर्ज़ा
ग़ालिब
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मिर्ज़ा ग़ालिब ने पालकी में बैठे शायर इब्राहिम ज़ौक़
की तरफ़ एक जुमला उछाला- "बना है शाह का
मुसाहिब फिरे है इतराता"। अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर
शाह ज़फ़र के उस्ताद थे ज़ौक़ साहब। ये ख़बर बादशाह तक पहुंच गई कि मिर्ज़ा नौशा उर्फ़
ग़ालिब ने ज़ौक़ साहब का मज़ाक उड़ाया। लाल क़िले में जुम्मे को मुशायरा था। ज़ौक़
साहब के इशारे पर मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) को दावतनामा भेजा गया। मुशायरे के आगाज़ के
समय बादशाह ने ग़ालिब से इस जुमले की वजह पूछी। मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) ने फ़रमाया- ये
तो उनकी ताज़ा ग़ज़ल के मक़्ते का मिसरा ऊला है। बादशाह ने कहा- मक़्ता पेश किया जाए।
ग़ालिब ने पेश कर दिया-
बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
भरपूर दाद मिली। ज़ौक़ साहब ने तंज़िया लहजे में कहा-
मक़्ता इतना ख़ूबसूरत है तो ग़ज़ल क्या होगी? बादशाह की गुज़ारिश पर ग़ालिब ने जेब से
काग़ज़ निकाला और ग़ज़ल का मतला पेश किया-
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्ही कहो कि ये अंदाज़ ए गुफ़्तगू क्या है
मतले पर भी दाद मिली। अगले शेर पर तो शेख़ इब्राहिम
ज़ौक़ ने भी दाद दी-
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जो आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
इस शेर पर दाद के साथ मुक़र्रर की आवाज़ भी बुलंद
हुई। साथ में बैठे शायर ने मिर्ज़ा ग़ालिब के हाथ से वो काग़ज़ लेकर हैरत से देखा। वह
काग़ज़ कोरा था। उस पर कोई ग़ज़ल नहीं थी। मौक़े की नज़ाकत देखकर तत्काल ग़ज़ल कह देने
का कमाल मिर्ज़ा ग़ालिब ही कर सकते थे। कुल मिलाकर कहा जाए तो गालिब ने यह मुशायरा
लूट लिया था। इस कामयाबी के साथ उनकी शोहरत दिल्ली पर छा गई।
मुंबई के फ़िल्मालय में
मिर्ज़ा ग़ालिब
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सन् 1988 म़े अंधेरी मुम्बई के फ़िल्मालय स्टूडियो में
मेरी आंखों के सामने यही दृश्य फ़िल्माया जा रहा था। मुम्बई के फ़िल्मालय स्टूडियो
में नितीश राय द्वारा निर्मित मिर्ज़ा ग़ालिब के विशाल सेट को देखकर लगता था कि जैसे
ग़ालिब की दिल्ली की गली क़ासिम और बल्लीमारान मुहल्ला ही उठकर चला आया हो। मिर्ज़ा
ग़ालिब धारावाहिक के कार्यकारी निर्माता जय सिंह ने मुझे इसी सेट पर लंच के लिए
आमंत्रित किया था।
मई महीना था। दोपहर की तेज़ धूप, भयंकर गर्मी और
जानलेवा उमस थी। पसीने से लथपथ चार कहारों के कंधों पर एक पालकी आ रही थी। उसमें
शायर इब्राहिम ज़ौक़ (शफी इनामदार) थे। नुक्कड़ पर एक जूती की दुकान पर कुछ
दोस्तों के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब (नसीरुद्दीन शाह) बैठे हुए थे। जैसे ही पालकी उनके
पास से गुज़री उन्होंने बुलंद आवाज़ में एक जुमला उछाल दिया- "बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता।" इस पर पहले वाह-वाह हुई फिर ज़ोरदार ठहाका सुनाई पड़ा।
दो बार रिटेक हुआ। गर्मी से परेशान यूनिट के कुछ
लोग चीख़ने चिल्लाने लगे। गुलज़ार का एक सहायक कहारों पर भड़क उठा। रिटेक कहारों की
चाल की वजह से हुआ था। धूप और गर्मी से बेहाल कहार कभी मध्यम तो कभी तेज़ चाल में
आते। टाइमिंग मैच न होने से रिटेक हो जाता था। जब यूनिट के अधिकांश लोग गर्मी और
ग़ुस्से में उबल रहे थे तो मैंने देखा- एक सहायक के छाते के नीचे ख़ामोश खड़े
गुलज़ार मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। उनको देख कर लगता था कि इस इंसान को कभी
ग़ुस्सा ही नहीं आता। आख़िर शाट ओके हुआ और लंच की घोषणा हो गई।
जयसिंह और गुलज़ार की फ़िल्म अंगूर
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गुलज़ार कभी मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िंदगी पर अभिनेता
संजीव कुमार के साथ एक फ़िल्म बनाना चाहते थे। तब इस योजना पर वे अमल नहीं कर पाए।
उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले के व्यवसायी जय सिंह ने जैसे ही ग़ालिब पर धारावाहिक
बनाने का प्रस्ताव रखा गुलज़ार ने सहमति दे दी। पटकथा पहले से तैयार थी। कुछ
तब्दीलियां करके उसे धारावाहिक का रूप दिया गया। मंडी हाउस ने गुलज़ार साहब के इस
प्रस्ताव को मंज़ूर कर लिया।
फ़िल्म निर्माण में पैसा लगाना बहुत बड़े जोख़िम
का काम है। पैसा डूबने का डर हमेशा लगा रहता है। बहुत कम लोग हैं जिन पर भरोसा
किया जा सकता है। निर्माता जय सिंह की नज़र में गुलज़ार बहुत नेक और ईमानदार इंसान
हैं। इसलिए उन्होंने गुलज़ार पर भरोसा किया। कई सालों की मेहनत से कमाई धनराशि
व्यवसायी जयसिंह ने गुलज़ार साहब को सौंपकर कहा कि इन्हीं पैसों से मेरे लिए एक
फ़िल्म बना दीजिए। सन् 1982 में गुलज़ार ने उनके लिए फ़िल्म 'अंगूर' बना दी। जयसिंह फ़िल्म
निर्माता बन गए । उन्होंने जितना पैसा लगाया था उससे ज़्यादा वापस आ गया। दुबारा
गुलज़ार ने उनको मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक के रूप में एक शानदार तोहफ़ा दिया।
मिर्ज़ा ग़ालिब पर बनी थी फ़िल्म
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मिर्ज़ा ग़ालिब की निजी ज़िंदगी के कुछ ख़ास पहलुओं पर
पहले भी एक फ़िल्म बन चुकी है। इस फ़िल्म में भारत भूषण और सुरैया ने काम किया था।
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी इसकी अति नाटकीयता थी। एक तवायफ़ के साथ ग़ालिब के
रिश्तों को इसमें कुछ ज़्यादा ही अहमियत दी गई थी। यह फ़िल्म ग़ालिब की ज़िंदगी, उनके
फ़न, उनकी शख़्सियत और उस दौर के हालात को बख़ूबी साकार नहीं कर पाई जिनसे गुज़र कर
असद उल्लाह खां एक दिन मिर्ज़ा ग़ालिब बन गए थे।
गुलज़ार अपने मिशन में कामयाब हुए । अपने सोलह
किस्तों के धारावाहिक में उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब के फ़न, शख़्सियत और हालात को इस
तरह छोटे पर्दे पर उतारा कि एक महान शायर की दास्तान को ज़िंदगी मिल गई। फ़िल्म 'मीरा' के फ्लॉप होने के बाद
गुलज़ार की हिम्मत नहीं हो रही थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब पर फ़िल्म बनाएं। उन्होंने जय
सिंह से कहा- लेकिन इस आग को सीने में दबाए मैं मरना भी नहीं चाहता।
गुलज़ार इस मायने में ख़ुशनसीब हैं कि ग़ालिब की
ज़िंदगी और हालात पर सामाग्री जुटाने में उन्हें कैफ़ी आज़मी से काफ़ी मदद मिल गई।
फ़िल्म निर्देशक सुखदेव ने मिर्ज़ा ग़ालिब पर फ़िल्म बनाने की योजना बनाई थी। उनके
निधन के बाद यह योजना धरी की धरी रह गई। उनके लिए मिर्ज़ा ग़ालिब पर सारा शोध कैफ़ी
आज़मी ने किया था। उनके इस शोध को सम्मान देते हुए गुलज़ार ने स्क्रीन पर अपने नाम
के ऊपर कैफ़ी आज़मी का नाम दिया।
ग़ालिब के ज़माने की दास्तान
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एक बेहतरीन शायर होने के साथ ग़ालिब एक अच्छे पत्र
लेखक भी थे। अपने ख़तों में उन्होंने समय-समय पर होने वाली महत्वपूर्ण घटनाओं का को
भी दर्ज किया है। इन ख़तों से न सिर्फ़ ग़ालिब के निजी जीवन की दिलचस्प जानकारियां
मिलती हैं बल्कि ये अपने समय के ऐतिहासिक दस्तावेज भी हैं। अपने धारावाहिक में इन
ख़तों के ज़रिए गुलज़ार ने उस दौर की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की तह में जाने की
सराहनीय कोशिश की। ग़ालिब और बहादुरशाह ज़फ़र का ज़माना एक था। इसी ज़माने में 1857 का
गदर हुआ। इस उथल-पुथल भरे दौर में ग़ालिब की शायरी क्या ख़ास मायने रखती है, इस
खोजबीन में गुलज़ार ने कई साल लगाए थे।
एक असाधारण इंसान पर बना गुलज़ार का यह धारावाहिक
ज्ञानवर्धक भी है और अर्थपूर्ण भी। धारावाहिक में मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमिका एक
चुनौती थी। इस चुनौती के असली हक़दार थे नसीरुद्दीन शाह। ख़ुद उन्होंने ग़ालिब की
भूमिका निभाने का सपना देखा था। टीवी धारावाहिकों में कभी काम न करने का फ़ैसला कर
चुके नसीर के सामने जब गुलज़ार का प्रस्ताव आया तो उनका सपना साकार हुआ।
ग़ालिब की ज़िंदगी में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए। गहरी
निराशा, तंगहाली, पहचान का संघर्ष, आम लोगों से जुड़ने की आकांक्षा, दरबार में
रहने की मजबूरी और दरबार से दूरी भी। हर तरह की आज़ादी के क़ायल ग़ालिब की ज़िंदगी में
आशा और निराशा के बादल लगातार बरसते रहे। 14 साल की उम्र में उनकी शादी दिल्ली के
मिर्ज़ा इलाही बख़्श (इफ्तिख़ार) की बेटी उमराव जान (तन्वी आज़मी) के साथ हुई। वे घर
जमाई बनकर दिल्ली आ गए। शायरी, चौसर और कंचे के दीवाने ग़ालिब अपनी बेगम से
बेइंतहा मुहब्बत करते थे।
तवायफ़ नवाब जान
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दिल्ली में ग़ालिब का दिल रमा नहीं। इसकी सबसे बड़ी
वजह थी उनकी शायरी की उपेक्षा। लोग उन्हें आगरे का शायर मानते थे दिल्ली का नहीं।
उनका दीवान छापने को कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ। अलबत्ता मशहूर तवायफ़ नवाब जान
(नीना गुप्ता) के मुंह से अपना कलाम सुनकर वे ज़रूर ख़ुश हुए। यह भी कहा जाता है कि
अगर चमत्कारिक रूप से नवाब जान ग़ालिब की ज़िंदगी में न आती तो ग़ालिब दिल्ली छोड़ कर
चले गए होते।
एक दिन ग़ालिब अपने क़ुतुब फ़रोश (पुस्तक विक्रेता)
दोस्त हाज़ी मीर की दुकान पर बैठे थे। उसी समय कोठे से आती हुई सुरीली आवाज़ सुनकर
ग़ालिब दंग रह गए। कोई सुरों की मलिका उन्हीं की ग़ज़ल को आवाज़ दे रही थी। ग़ालिब ने
हाज़ी मीर से कहा- पहली बार दिल्ली में किसी दूसरे के मुंह से अपनी ग़ज़ल सुन रहा
हूं। ग़ालिब के पांव ख़ुद-ब-ख़ुद कोठे की सीढ़ियां चढ़ने लगे। उन्होंने देखा- एक
हसीना उन्हीं की ग़ज़ल गा रही है-
दिल ही तो है न संग ओ ख़िश्त दर्द से भर न आए
क्यूं
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें रुलाए क्यूं
तवायफ़ नवाब जान को वो अधूरी ग़ज़ल चूरन की एक पुड़िया
म़ें मिली थी। उसका मक़्ता ग़ायब था। ग़ालिब ने ग़ज़ल पूरा करवा दी। उन्होंने ख़ुद को
ग़ालिब का दोस्त बताया। ग़ालिब को भरोसा हो गया कि जो ग़ज़ल तवायफ़ के कोठे तक पहुंच गई
वह एक दिन अवाम तक ज़रूर पहुंचेगी। नवाब जान एक उम्दा कलाकार थी। वह ग़ालिब की शायरी
की प्रशंसक और प्रेरणा थी। अभिनेत्री नीना गुप्ता ने नवाब जान की भूमिका को असरदार
तरीके से निभाया। नवाब जान (नीना गुप्ता) का हुस्न, अदा और मोहक अंदाज़ देखने लायक़
है जब वह ग़ालिब की ग़ज़ल पेश करती है-
दिल ए नाद़ां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
नवाब जान को दिया
ग़ालिब ने दुशाला
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नवाब जान ग़ालिब को दीवानगी की हद तक प्यार करती थी।
ग़ालिब को अपनी बीवी से मुहब्बत थी। उन्होंने हमेशा उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार
किया। अपनी बेगम के ज़ोर देने पर बच्चे की सलामती की दुआ मांगने ग़ालिब पहली बार पीर
की मज़ार पर गए। वहां नक़ाबपोश नवाब जान ने उन्हें पहचान लिया। नवाब जान ने कहा-
मेरे औलिया मेरी हर दुआ क़बूल करते हैं। मैंने उनसे दुआ मांगी है कि मेरे शायर को
दिल्ली का सरताज बना दें। ग़ालिब ने कहा- ऐसा हुआ तो मैं तुम्हारे घर आकर एक दुशाला
भेंट करूंगा। नवाब जान ने ग़ालिब को अपनी हथेलियां दिखाकर कहा- आपके इंतज़ार में
हथेलियों की मेहंदी का रंग फ़ीका पड़ गया।
लाल क़िले के मुशायरे में जब दिल्ली ने ग़ालिब को
अपना शायर मान लिया तो उन्होंने स्वीकार किया- ये शायद नवाब जान की दुआओं का असर
है। ग़ालिब जब उसके घर गए तो मालूम हुआ कि शहर कोतवाल की धमकियों से तंग आकर नवाब
जान शहर छोड़कर चली गई। ग़ालिब जब अपनी पेंशन के मामले में कलकत्ता जा रहे थे तो
बनारस में अचानक नवाब जान की मां से मुलाक़ात हुई। मालूम हुआ कि ग़ालिब की मुहब्बत
में नवाब जान ने अपनी जान क़ुर्बान कर दी। वे ग़ालिब को नवाब जान की क़ब्र पर ले गईं।
ग़ालिब ने अपने कंधे पर से दुशाला उतारा और क़ब्र में लेटी नवाब जान को ओढ़ा दिया।
दर्द के साए में
ग़ालिब की ज़िंदगी
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गुलज़ार के धारावाहिक मिर्ज़ा ग़ालिब में एक शायर के
रूप में ग़ालिब के संघर्ष और उनकी त्रासद ज़िंदगी का बेबाक चित्रण किया गया। वास्तव
में ग़ालिब की ज़िंदगी ही इतनी नाटकीय रही कि उनकी कहानी को परदे पर लाने के लिए
कल्पना की ज़रूरत ही नहीं रह जाती। ग़ालिब की ज़िंदगी का सबसे बड़ा हादसा था एक के
बाद एक सात बेटों की मौत। इतनी बड़ी त्रासदी का सामना ग़ालिब और उनकी बेगम
ने कैसे किया होगा। बेटों की मौत ने ग़ालिब को अंदर से तोड़ दिया। वे इतना
टूट गए ख़ुदा पर भी उनका भरोसा नहीं रहा। फिर भी उनकी बेगम के मन में आस्था की एक
लौ टिमटिमाती रही कि ऊपर वाला जो भी करता है अच्छा करता है।
ग़ालिब का पागल भाई युसूफ़ कर्फ़्यू के दौरान
मारा जाता है और वे उसके जनाज़े में शामिल नहीं हो पाते। ग़ालिब की ज़िंदगी की
ये घटनाएं संवेदनशील लोगों की आंखें भिगो देने के लिए काफ़ी हैं। बेख़ौफ़ ग़ालिब ने
ख़ुद को जुए और शराब में डुबो दिया। जुआ खेलने के जुर्म में छ: महीने जेल की हवा
खाई। इस कठिन दौर से गुज़रते हुए भी ग़ालिब की क़लम रुकी नहीं। दिनोंदिन और धारदार
होती गई।
जेल से बाहर निकलते ही ग़ालिब का दीवान प्रकाशित हो
गया और उनकी शायरी की धूम मच गई। एक शायर के रूप में ख़ुद को स्थापित करने के लिए
ग़ालिब ने काफ़ी संघर्ष किया था। लेकिन उनको स्वीकृति और पहचान तब मिली
जब वे अपना सब कुछ हार चुके थे।
एक दिन ग़ालिब ने हाज़ी मीर से दिल्ली छोड़कर लखनऊ
जाने की ख़्वाहिश जताई। हाज़ी मीर ने कहा- लखनऊ वाले दूसरे शहर के शायर को स्वीकार
नहीं करते। ग़ालिब ने कहा- मैं उर्दू का शायर हूँ, किसी शहर का शायर नहीं। दिल्ली,
लखनऊ, इलाहाबाद, आगरा और हैदराबाद की कोख़ से अगर एक हिंदुस्तान पैदा होगा तो उसकी
एक शाख़ पर मेरा भी आशियां होगा। बेगम जान ने ग़ालिब को दिल्ली का सरताज बनाया था।
ग़ालिब के दीवान ने उन्हें हिंदुस्तान का सरताज बना दिया। शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ के
इंतक़ाल के बाद बहादुर शाह ज़फ़र ने ग़ालिब को अपना उस्ताद बनाया। कुछ समय बाद 1857 का
गदर हो गया। ग़ालिब ने दिल्ली की तबाही अपनी आंखों से देखी। बादशाह को क़ैद करके
अंग्रेजों ने रंगून भेज दिया। ग़ालिब फिर अकेले हो गए।
इब्राहिम ज़ौक़ और
मिर्ज़ा ग़ालिब
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मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक के सेट पर शायर इब्राहिम
ज़ौक़ की भूमिका कर रहे अभिनेता शफी इनामदार से गपशप हुई। मैंने ये जानना चाहा कि
ज़ौक़ और ग़ालिब में टकराव की वजह क्या थी? वे बोले- ज़ौक़ साहब और मिर्ज़ा ग़ालिब
कड़े प्रतिद्वंदी थे। अगर मिर्ज़ा ग़ालिब इस धारावाहिक के नायक हैं तो इब्राहिम
ज़ौक़ विलेन हैं। दोनों उस समय के नंबर वन शायर थे और आख़िर तक नंबर वन ही रहे।
हक़ीक़त यह है कि ज़ौक़ साहब दिल ही दिल में मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रतिभा के क़ायल थे।
लेकिन वे विरोध इस वजह से करते थे कि ग़ालिब की संभावनाओं को देखते हुए उन्हें अपना
सिंहासन डोलता नज़र आ रहा था। दोनों ही दिग्गज शायर थे मगर रहन सहन के स्तर पर फ़र्क़
था। ज़ौक़ साहब नमाज़ी आदमी थे। सादा जीवन बसर करते थे और इसका उन्हें गर्व था। दूसरी
तरफ़ ग़ालिब मस्तमौला क़िस्म के इंसान थे। शराब पीते थे, जुआ खेलते थे और तवायफ़ के
कोठे पर भी नज़र आ जाते थे। मगर उस समय के लोग प्रतिभा की क़द्र करना जानते थे। यही
कारण है कि ज़ौक़ साहब जहां अबू ज़फ़र के उस्ताद थे वहीं ज़फ़र के बेटे मिर्ज़ा फ़खरू के
उस्ताद मिर्ज़ा ग़ालिब थे।
मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक से ये सच सामने आया कि
ग़ालिब एक असाधारण इंसान और महान शायर थे। वे कभी भी न तो अपनी शायरी में और न
ज़ाती ज़िंदगी में साधारण आदमी की तरह जिए। ग़ालिब की ज़िंदगी के कैनवास पर प्यार का
रंग भी उभरा लेकिन इश्क़ में कभी वे दीवाना नहीं बने।
गुलज़ार के ग़ालिब का करिश्मा
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मिर्ज़ा ग़ालिब को बड़े पर्दे पर उतारने का जो सपना
गुलज़ार ने देखा था उस सपने को उन्होंने छोटे पर्दे पर साकार किया। गुलज़ार ने इतनी
ख़ूबसूरती से इस काम को अंजाम दिया कि लोग कहने लगे- मिर्ज़ा ग़ालिब की दास्तान ए
ज़िंदगी को उनके अलावा कोई दूसरा इतने असरदार तरीके से साकार नहीं कर सकता था।
गुलज़ार ख़ुद भी एक हस्सास शायर हैं। उन्होंने ग़ालिब की ज़िंदगी की त्रासदी और ग़ालिब
की शायरी की संवेदनशीलता को मिलाकर जो तस्वीर बनाई ग़ालिब की वह तस्वीर लोगों को
बहुत भाई। उस तस्वीर में ज़िंदगी के जीते जागते अक्स थे। उस तस्वीर के नक़्श बोल रहे
थे। उस तस्वीर में एक महान शायर की ज़िंदगी सांस ले रही थी। कुल मिलाकर मिर्ज़ा
ग़ालिब धारावाहिक के रूप में गुलज़ार ने हमें एक बेमिसाल तोहफ़ा दिया। इस धारावाहिक
के ज़रिए गुलज़ार ने साबित किया कि इतिहास को दोबारा ज़िंदा किया जा सकता है।
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयां और
मिर्ज़ा ग़ालिब का कालजयी संगीत जगजीत सिंह ने तैयार
किया। जगजीत और चित्रा की आवाज़ में मिर्ज़ा ग़ालिब की उर्दू शायरी हिंदुस्तान के घर
घर तक पहुंच गई। फ़कीर (जावेद ख़ान) के लिए जगजीत ने विनोद सहगल की आवाज़ का
शानदार उपयोग किया। इस धारावाहिक के संगीत का डबल कैसेट जारी किया गया। उसकी भी
ज़बरदस्त बिक्री हुई।
अगर आप पटकथा और संवाद लेखन में दिलचस्पी रखते हैं
तो आपको रूपा एंड कंपनी से प्रकाशित यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए- "Mirza
Ghalib : A Biographical Scenario by Gulzar." मशहूर कवि-लेखक, हम सबके
प्यारे दोस्त यतीन्द्र मिश्र इन दिनों गुलज़ार साहब की आत्मकथा पर काम कर रहे हैं। मेरी
दिली दुआ है कि 'लता सुरगाथा' की तरह उनकी यह किताब भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
लोकप्रियता हासिल करे।
आपका-
देवमणि पांडेय
Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti,
Kanya Pada,
Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai- 400063, M : 98210-82126
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