मुम्बई के बॉलीवुड में फ़िल्म लेखक राही मासूम रज़ा
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हिंदुस्तान के घर घर में 'महाभारत' की धूम मची हुई
थी। इस धारावाहिक के पटकथा-संवाद लेखक थे डॉ राही मासूम रज़ा। एक दिन
मैंने उन्हें फ़ोन किया- मेरे दोस्त कथाकार धीरेंद्र अस्थाना आपको अपना कहानी
संग्रह भेंट करना चाहते हैं। वे ख़ुश हो गए। उन्होंने हम दोनों को घर बुलाया। गपशप
हुई और वे धीरेंद्र अस्थाना के कहानी संग्रह 'जो मारे जाएंगे' का लोकार्पण करने के
लिए तैयार हो गए।
लोकार्पण के दिन 12 जनवरी 1991 को 4:00 बजे मैं
उनके घर पहुंचा। वे शेरवानी पहन कर तैयार थे। घर से बाहर निकलते समय वह हमेशा
शेरवानी पहनते थे। उन्होंने चाय पिलाई और चलने के लिए खड़े हो गए। मैंने कहा-
थोड़ी देर बाद चलें नहीं तो समय से पहले पहुंच जाएंगे। वे बोले- समय से पहले पहुंच
जाएंगे तो बेहतर होगा। आप जैसे नौजवानों के साथ बैठकर गुफ़्तगू करेंगे।
बांद्रा बैंड स्टैंड के उनके निवास 'देवदूत' से
उनकी कार जैसे ही आगे बढ़ी उन्होंने पूछा- तुम्हें 'महाभारत' कैसा लग रहा है। मैंने
कहा- मुझे तो अच्छा लग रहा है। कुछ लोगों को शिकायत है कि आपने कुछ पात्रों को
उभरने का अवसर नहीं दिया जैसे कि कर्ण। वे बोले- उसे तो हमने संवार कर और सुधार कर
ही पेश किया है। हम मूल कृति के हिसाब से चलते तो दर्शकों की भारी नाराज़गी मोल लेनी
पड़ती। मूल कृति में उसकी उतनी आदर्श छवि नहीं है जितनी लोगों के दिलों में है।
हमें जन भावनाओं का ख़याल रखना पड़ता है।
साहित्यिक कृतियों पर धारावाहिक
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साहित्यिक कृतियों पर बनने वाले धारावाहिकों पर
मैंने उनकी राय पूछी। रज़ा साहब बोले- कृति और कृतिकार का नाम भुनाना ग़लत बात है। मुझे ऐसे
सीरियल देखकर काफ़ी दुख हुआ। दूसरी भाषाओं के लोगों ने सुन रखा है कि 'मैला आंचल'
हिंदी साहित्य का मास्टर पीस है। उस पर सीरियल देखने के बाद क्या दूसरी भाषाओं के
लोग उसे पढ़ने की ज़रूरत महसूस करेंगे। यह अपने ही साहित्य को दूसरों की नज़रों में
गिराने की हिमाक़त है। गोविंद निहलानी ने 'तमस' को अच्छे तरीक़े से पेश किया।
साहित्य की मशहूर कृतियों को ईमानदारी के साथ फ़िल्माना चाहिए। यह ज़रूरी है कि
सीरियल देखने के बाद दर्शकों में उसे पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न हो और पढ़ने के
बाद उन्हें निराशा न महसूस हो।
चंद फॉर्मूलों पर खड़ीं हिंदी फिल्में
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आप जैसे अच्छे लेखकों के बावजूद हिंदी फ़िल्में चंद
फार्मूलों पर ही क्यों बनती हैं? मेरे इस सवाल पर वे मुस्कुराए- यह सुरक्षित और
आसान रास्ता है। सेंसर भी जल्दी पास कर देता है। पब्लिक को भी शिकायत नहीं होती।
अगर निर्माता को दस बार अदालत जाना पड़े तो उसकी कमर ही टूट जाएगी। इसलिए वह किसी
नए विषय पर फ़िल्म बनाने का ख़तरा नहीं उठाना चाहता। यह डर भी रहता है कि अगर नए
विषय को दर्शकों ने पसंद नहीं किया तो निर्माता डूब जाएगा। मैंने फ़िल्म 'अंधा
क़ानून' में लीक से हटकर कुछ संवाद लिख दिए थे। उस पर लोगों ने चार मुक़दमे ठोक दिए।
मुझे कई बार अदालतों के चक्कर लगाने पड़े। मैं मुंबई में हूं लेकिन मुक़दमा लखनऊ और
देवरिया में दाख़िल कर दिया गया। निर्माता की फ़िल्म के साथ ऐसा हो जाए तो वह बेचारा
ज़िंदा कैसे रहेगा। यही कारण है कि जोख़िम उठाने के बजाय वे उसी बंधी
बंधाई लीक पर चलना ज़्यादा पसंद करते हैं।
रज़ा साहब ने बताया- फ़िल्म जगत में आज भी लेखक की स्थिति अच्छी नहीं है।
वह अपनी मर्ज़ी से मनचाहा काम नहीं कर सकता। दूसरों का दख़ल बहुत ज़्यादा है। एक
लेखक ने जो स्क्रिप्ट लिखी है उसे निर्माता की बीवी, उसका नौकर या उसका ड्राइवर
कोई भी बदलने का सुझाव दे सकता है और उसे उनकी बात माननी पड़ती है।
गालियों वाला उपन्यास 'आधा गांव'
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रज़ा साहब ने कहा- मुझे रूढ़ियों के बजाय नया रास्ता अख़्तियार करना ज़्यादा अच्छा
लगता है। मैंने 'आधा गांव' लिखा तो कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था। वे कहते
इसमें तो गाली है। फिर एक रास्ता निकाला गया। पुस्तक के आवरण पर एक पट्टी लगाई गई-
"जो लोग गालियों को अश्लील नहीं मानते वही इसे पढ़ें"। 'टोपी शुक्ला' पर
भी विवाद हुआ मगर रज़ा साहब रूढ़िवादियों से कभी नहीं डरे। समाज की कुरीतियों और संकीर्ण
मानसिकता का पर्दाफ़ाश करने में उन्हें कभी हिचक नहीं महसूस हुई।
जब देश के बड़े बड़े साहित्यकार अयोध्या मसले पर
अपनी राय व्यक्त करने से क़तरा रहे थे तब रज़ा साहब ने बयान दिया-
"उस जगह को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया जाए"। राही मासूम रज़ा ग़लतियों के
लिए कबीर की तरह हिंदुओं को भी डांटते थे और मुसलमानों को भी। उर्दू और हिंदी को
उन्होंने कभी अलग करके नहीं देखा। अपने भारतीय होने पर उन्हें गर्व था। इसलिए
विभाजन की तकलीफ़ झेलकर भी उन्होंने पलायन नहीं किया। इसी ज़मीन पर
उन्होंने अपना बसेरा बनाया और आखिरी सांस भी यहीं की हवा में ली।
एक स्कूल मास्टर की दुर्भाग्य कथा
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रज़ा साहब की कार में जब हम लोग चर्चगेट पहुंचने वाले थे तो मैंने पूछा-
इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं? उन्होंने बताया- एक स्कूल मास्टर पर उपन्यास लिखना
तय किया है। एक स्कूल मास्टर बच्चों को कितने साल पढ़ाता है। सिखाता है। किशोर
होते ही यही बच्चे राजनीति के मुहरे बन जाते हैं। देश को जोड़ने के बजाय तोड़ने का
कार्य शुरू कर देते हैं। ऐसी स्थितियों के चित्रण के साथ मेरी यह किताब एक स्कूल
मास्टर की दुर्भाग्य कथा होगी।
रज़ा साहब को जैसे कुछ याद आ गया हो, वे बोले- मैं कुछ दिन पहले दिल्ली
गया था। आडवाणी जी से मुलाक़ात हुई। गपशप हुई। मैंने कहा- आडवाणी जी, जब से देश आज़ाद हुआ तब से
हमारे मुल्क में कितने सांप्रदायिक दंगे हुए? वे सोच में पड़ गए। मैंने कहा- अंदाज़ से ही
बताइए। वे बोले- यही कोई तक़रीबन तीन हज़ार। मैंने कहा- आडवाणी जी,
सिंध में एक दंगा हुआ और आप वतन छोड़कर चले आए। मैं तो तीन हज़ार दंगे
झेलने के बाद भी यहीं टिका हुआ हूँ। अब आप लोगों को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ा रहे
हैं। आडवाणी जी एकदम ख़ामोश हो गए। यह कहकर रज़ा साहब ने उन्मुक्त भाव से
एक ठहाका लगाया।
साहित्य हवा में ज़िंदा नहीं रह सकता
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हम लोग एसएनडीटी के कान्फ्रेंस हाल में पहुंचे।
धीरेंद्र अस्थाना के कहानी संग्रह 'जो मारे जाएंगे' के लोकार्पण समारोह में कथाकार
गोविंद मिश्र और कथाकार शैलेश मटियानी की मौजूदगी में रज़ा साहब ने
कहा- "कहानी हो या कविता, साहित्य की हर विधा की जड़ें ज़मीन में होती
हैं। साहित्य हवा में ज़िंदा नहीं रह सकता।" अपने जीवन और अपनी रचना में रज़ा साहब ज़मीन से जुड़े
भारतीय साहित्यकार थे। इसलिए वे हमारी स्मृतियों में हमेशा ज़िंदा रहेंगे।
मेरी इच्छा थी कि किसी दिन उनसे लंबी बातचीत करूंगा। मगर अगले साल 15 मार्च 1992
को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
1 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले के
गंगौली गांव में जन्मे राही मासूम रज़ा ख़ुद को गंगापुत्र कहते
थे। उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय से उर्दू में एम ए और पीएचडी किया। दो साल
अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उर्दू के प्राध्यापक रहे। मगर उन्होंने 'आधा गांव', 'दिल
एक सादा काग़ज़', 'ओस की बूंद' 'टोपी शुक्ला' और 'हिम्मत जौनपुरी' आदि... अपनी सभी
किताबें हिंदी में प्रकाशित कराईं। डॉ राही मासूम रज़ा को बचपन में पोलियो का
शिकार बनना पड़ा। इसलिए वे एक पैर से थोड़ा लंगड़ाकर चलते थे। ग्यारह साल की उम्र
में उन्हें टीबी हो गयी थी। पढ़ाई छोड़ कर उन्हें तीन साल घर में बिताने पड़े। बाद
में उन्होंने पढ़ाई पूरी की।
पद्मभूषण रज़ा को फ़िल्म फेयर अवार्ड
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सन् 1968 में रज़ा साहब मुंबई आ गए थे।
उन्होंने फ़िल्म जगत को और फ़िल्म जगत ने उन्हें अपना लिया। आलाप, लमहे, गोलमाल,
कर्ज़, आईना, मिली, परम्परा और अंधा क़ानून जैसी कई फिल्मों में उन्होंने संवाद
लेखन का जलवा दिखाया। 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' फ़िल्म के लिए सन् 1979 में उन्हें
फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित
किया।
रज़ा साहब शायर पहले थे लेखक बाद में बने। शायर अपना तख़ल्लुस नाम के बाद
में लगाते हैं। मासूम रज़ा ने अपना तख़ल्लुस 'राही' नाम के पहले लगाया। उनका ग़ज़ल संग्रह
'ग़रीब ए शहर' प्रकाशित हुआ। उनकी एक ग़ज़ल चित्रा और जगजीत सिंह की
आवा्ज़ में बेहद लोकप्रिय हुई-
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चांद
क़िस्सा महाभारत के संवाद लेखन का
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'महाभारत' धारावाहिक के संवाद लेखन के लिए जब बीआर
चोपड़ा ने डॉ राही मासूम रज़ा से संपर्क किया तो रज़ा साहब ने मना कर दिया।
पता नहीं कैसे यह ख़बर मीडिया में चली गई। कई अख़बारों में समाचार छप गया कि
'महाभारत' के संवाद डॉ राही मासूम रज़ा लिखेंगे। इसके बाद बीआर
चोपड़ा के पास ढेर सारे पत्र आए। कई पत्रों में यह लिखा था कि क्या सारे हिंदू
लेखक मर गए हैं जो आप एक मुस्लिम लेखक से महाभारत के संवाद लिखा रहे हैं। बीआर
चोपड़ा ने सारे पत्र डॉ राही मासूम रज़ा के पास भिजवा दिए।
उन्हें पढ़कर रज़ा साहब ने ख़ुद चोपड़ा साहब को फ़ोन करके कहा- मैं गंगापुत्र हूँ। मैं
ही 'महाभारत' के संवाद लिखूंगा। इतना ही नहीं उन्होंने छोटे पर्दे के इस सबसे
लोकप्रिय धारावाहिक की पटकथा भी लिखी।
सशक्त संवादों के ज़रिए चरित्रों को कैसे
जीवंत किया जाता है यह रज़ा साहब ने 'महाभारत' धारावाहिक में साबित कर दिया। उनके बेहतरीन
संवादों के लिए पूरे हिंदुस्तान ने कृतज्ञता महसूस की। हर धर्म, हर मज़हब के लोगों
ने मुक्त कंठ से उनकी तारीफ़ की। 'महाभारत' धारावाहिक के दिवंगत गीतकार पं नरेंद्र
शर्मा की याद में राही मासूम रज़ा ने एक कविता लिखी थी- 'वह पान भरी मुस्कान'।
वह पान भरी मुस्कान
न जाने कहाँ गई ?
जो दफ्तर में,
इक लाल गदेली कुर्सी पर,
धोती बाँधे,
इक सभ्य सिल्क के कुर्ते पर,
मर्यादा की बण्डी पहने,
आराम से बैठा करती थी,
वह पान भरी मुस्कान तो
उठकर चली गई !
पर दफ्तर में,
वो लाल गदेली कुर्सी
अब तक रक्खी है,
जिस पर हर दिन,
अब कोई न कोई
आकर बैठ जाता है
खुद मैं भी अक्सर बैठा हूँ
कुछ मुझसे बड़े भी बैठे हैं,
मुझसे छोटे भी बैठे हैँ
पर मुझको ऐसा लगता है
वह कुरसी लगभग
एक बरस से ख़ाली है !
रज़ा साहब पान और मिठाई के बेहद शौक़ीन थे। डॉ धर्मवीर भारती और कथाकार
कमलेश्वर से उनकी अच्छी दोस्ती थी। 'धर्मयुग' और 'सारिका' में उनकी कई कहानियां
प्रकाशित हुईं। शुरुआती दौर में उन्होंने छद्म नाम से कई जासूसी उपन्यास भी लिखे
थे। मुंबई में बसने के बावजूद उन्होंने अपने गांव से रिश्ता बनाए रखा। कहा जाता है
कि उन्होंने ग्रामीण इलाकों में कई स्कूल खुलवाए। गाँव में छोटे-छोटे कई पुल
बनवाए। ग़रीब परिवार की लड़कियों की शादी में आर्थिक सहयोग दिया।
यह हमारी ख़ुशक़िस्मती है कि कोरोना लॉक डाउन के दौर
में इस गंगापुत्र के संवाद फिर से घर घर में गूंज रहे हैं। सबको सुकून और सम्बल दे
रहे हैं।
राही मासूम रज़ा की एक ग़ज़ल
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अजनबी शहर के अजनबी रास्ते, मेरी तन्हाई पर
मुस्कुराते रहे
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक
याद आते रहे
ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़
जीते रहे
ज़िंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते
रहे
ज़ख़्म जब भी कोई ज़ह्न-ओ-दिल पे लगा, ज़िंदगी की
तरफ़ इक दरीचा खुला
हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं, चोट खाते रहे
गुनगुनाते रहे
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिए सुन के भी
अनसुनी कर गया
इतनी यादों के भटके हुए कारवाँ, दिल के ज़ख़्मों के
दर खटखटाते रहे
सख़्त हालात के तेज़ तूफ़ान में, घिर गया था हमारा
जुनूने-वफ़ा
हम चराग़े-तमन्ना जलाते रहे, वो चराग़े-तमन्ना
बुझाते रहे
🍁
आपका-
देवमणि पांडेय
Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti,
Kanya Pada,
Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063
M : 98210-82126
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