बुधवार, 13 मई 2020

मजरूह सुल्तानपुरी : रहें ना रहें हम महका करेंगे


बॉलीवुड में गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी 

मजरूह सुलतानपुरी को सन् 1994 मेंदादा साहब फाल्के पुरस्कार’ मिला तो मैंने बधाई दी। वे बोले- पुरस्कार तो अक्सर अपनों को ही दिए जाते हैं। फ़िल्मफ़ेयर से लेकर नोबल तक यही होता है। इसलिए जब मुझे सूचना मिली कि ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ मिलेगा तो एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ। अब तो पुरस्कार ख़रीदे जाते हैं। मैंने एक गीत लिखा था-


हम बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले ग

साग़र को ज़िंदगी में उतारे चले गए

मेरे इस गीत को ‘फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार’ नहीं मिला। शैलेन्द्र के गीत ‘ये मेरा दीवानापन है को मिल गया। काफ़ी लोगों ने मुझसे कहा था कि मजरुह साहब, आपका गीत ज़्य़ादा अच्छा था। युवा जब कॉलेज से निकलता है तो उसे मंज़िल नहीं मालूम होती। इस स्थिति को दर्शाने वाला गीत मैंने लिखा- ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’। भारी लोकप्रियता के बावजूद इसे पुरस्कार नहीं मिला और गुलज़ार के जाने किस गीत को मिल गया। गुलज़ार के गीत ‘यारा सिली सिली’ को भी पुरस्कार मिला। जबकि मेंहदी हसन ने मुझे बताया था कि यह गीत रेशमा का है। पुरस्कारों का सच यही है। मैं हमेशा दो नावों पर सवार रहा- साहित्य और सिनेमा। जगह दोनों में मिली, लेकिन खुल के किसी के सिर पर नहीं बैठ सका। यानी न इधर के रहे न उधर के।

फ़िल्मशाहजहाँके गीतकार मजरूह

सन् 1945 में मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी मुम्बई के एक मुशायरे में अपने शागिर्द मजरूह सुलतानपुरी के साथ पधारे। मुशायरा बहुत बड़ा था। फ़िल्म जगत के तमाम लोग वहाँ उपस्थित थे। मजरूह थे, लेकिन जम गएजाने माने फ़िल्म निर्माता कारदार साहब का बुलावा आ गया। मजरूह सुलतानपुरी का फ़िल्म लाइन में आने का पहले कोई इरादा नहीं था। उस वक्त एक डिप्टी कलेक्टर को ढाई सौ रुपये वेतन मिलता था। मजरूह मुशायरों से तीन-साढ़े तीन सौ कमा लेते थे। इसलिए उन्होंने इंकार कर दिया। जिगर साहब ने समझाया कि अभी तुमने न घर बनाया न शादी की। बीमार पड़ गये तो क्या करोगे ? आफ़र स्वीकार कर लो। पसंद न आए तो बाद में छोड़ देना। उस्ताद के समझाने से मजरूह सुलतानपुरी तैयार हो गए। पाँच सौ रुपये मासिक वेतन निश्चित हुआ

कारदार साहब की फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ के गीत मजरूह सुलतानपुरी ने लिखे। गीत तो सभी पसंद किए गए, लेकिन एक गीत को सहगल साहब ने लीजेंड बना दिया। गीत था – ‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे ?’ फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ 1947  में आई। इसके बाद विभाजन के कारण छह-सात महीने तक फ़िल्म उद्योग बंद रहा। परेल के एक मुशायरे में पं.नेहरू के ख़िलाफ़ गीत पढ़ने के आरोप में मजरूह सुलतानपुरी को डेढ़ साल की ज़ेल हो गई। मजरूह साहब ने महबूब ख़ान की फ़िल्म ‘अंदाज़’ के गीत लिखे थेसन् 1949 मेंअंदाज़’ रिलीज़ हुई। गाने लोकप्रिय हुए तो काम भी मिला। कमाल अमरोही ने फ़िल्म ‘दायरा’ और गुरुदत्त ने ‘बाज़’, ‘जाल’ आदि फ़िल्मों के गीत लिखवाए।

कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र

मजरूह सुलतानपुरी चरित्रों के व्यक्तित्व, व्यवहार और बोलचाल को ध्यान में रखकर गीत लिखने में माहिर थे। ‘कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़रथा ‘छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा’ जैसे गीत लिखकर मजरूह साहब ने रोमांटिक कामेडी गीतों के लिए एक नई राह बनाई। फ़िल्म के गीत का आधार दो चरित्रों की आपसी बातचीत होती है। बातचीत के इस लहजे को मजरूह साहब बहुत अच्छी तरह समझते थे। फ़िल्म ‘आर पार’ का यह गीत उसकी मिसाल है-


ये लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे
काहे का झगड़ा बालम, नई नई प्रीत रे


सन् 1983 में मजरूह साहब एक मुशायरे में अमेरिका गए। लोग उन्हें सुनना चाहते थे। मजरूह साहब को साढ़े चार महीना रुकना पड़ गया। लौटकर आ तो देखा उनकी जगह कोई और बैठ गया था। फ़िल्म ‘क़यामत से क़यामत तक’ के ज़रिए उनकी वापसी हुई।

मुझे सहल हो गईं मंजिलें

एक शायर जब ग़ज़ल का मतला कहता है तो वह बहर यानी छंद की बंदिश में बंध जाता है। इस बहर की एक धुन होती है। उसे ग़ज़ल के सारे शेर इसी धुन में लिखने पड़ते हैं। इस तरह शायरों को धुन पर लिखने का अभ्यास हो जाता है। मजरूह साहब भी संगीतकारों की बनी बनाई धुन पर अच्छे गीत लिखने में कामयाब हुए। दरअसल ग़ज़ल की लय और संगीत की लय (बीट्स) दोनों की चाल एक जैसी है-


मुझे सहल/ हो गईं मंजिलें/ कि हवा के रुख़ भी/ बदल गए. 
तेरा हाथ/ हाथ में आ गया/ कि चराग़ राह में/ जल गए.



शेर को पढ़ने में जिस तरह के पॉज दिए जाते हैं उसी तरह के कट संगीत को ट्यून करते समय भी दिए जाते हैं-



रहें ना रहें हम/ महका करेंगे/ बनके कली/
बनके सबा/ बाग़े वफ़ा में. (फिल्म ममता) 



इसलिए ग़ज़ल कहने वाले हुनरमंद शायरों को संगीतकार की दी हुई धुन पर गीत लिखने में सहूलियत हो जाती है और वे कामयाबी की मंजिलें तय कर लेते हैं। मजरूह साहब की एक ग़ज़ल फ़िल्म दस्तक में काफ़ी लोकप्रिय हुई- 


हम हैं मता ए कूचा ओ बाज़ार की तरह 
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह                                                                                                          
मजरूह लिख रहे हैं वो अहले-वफ़ा का नाम 
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह 

मजरूह के गीतों में लोकजीवन

शायर मजरूह सुल्तानपुरी ऐसे प्रतिभाशाली गीतकार थे जिन्हें धुन की गहरी समझ थी और छंद को पकड़ने का बाकमाल हुनर था। इसलिए उन्होंने एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत गीत लिखकर फ़िल्म संगीत को समृद्ध किया। मजरूह साहब जिस दुनिया से आए थे वह गांव-क़स्बों की दुनिया थी। जहां चांद के अंदर बुढ़िया बैठी है, जहां गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह रचाये जाते हैं, बच्चों को लोरी गाकर सुलाया जाता है और भजन गाकर जगाया जाता है। मजरूह साहब ने इस जानी-पहचानी घरेलू दुनिया और लोकजीवन को जहाँ भी मौक़ा मिला अपने गीतों में साकार किया। फ़िल्म 'अंदाज़' के इस गीत के बोल देखिए- 


नील गगन पर बादल डोले, डोले हर इक तारा 
चांद के अंदर बुढ़िया डोले, ठुमक ठुमक दिलदारा 
कमला गाए, विमला गाए, गाए कुनबा सारा 
घूंघट काढ़ के गुड़िया गाए, भूले गुड्डा प्यारा 
मेरी लाडली री! बनी है तारों की तू रानी 

लोक जीवन का एक गुण है सहज हास्य। मजरूह साहब में हास्यबोध कमाल का था। ‘’कहत कबीर सुनो भाई साधो बात कहूँ मैं खरी…’’ इस ह्यूमर में जहां गुंजाइश होती थी वह अपनी प्रगतिशीलता का परचम भी लहरा देते - 


पांचवा नंबर ज़ुल्म का दुश्मन, मैं दुखियों का साथी 
छठा देश के गद्दारों से, छीन लूं घर की बाती



यह 'बाती' दीया बाती वाली है जो घर को रोशन करती है और अंधेरों को दूर भगाती है। फ़िल्म गीतकार के सामने चुनौती यह होती है कि आम फ़हम भाषा में दी गई धुन पर ऐसा सिचुएशनल गीत लिखना होता है कि वह अनपढ़ आदमी की भी समझ में आ जाए। दूसरी चुनौती यह होती है कि जो कुछ लिखा जा चुका है उसमें आप नया क्या जोड़ सकते हैं। मजरूह साहब के गीतों में फ़न और हुनर का यह कमाल बार-बार दिखाई पड़ता है। यह इसलिए भी हो पाता है कि उनके पास गांव की मिट्टी, हवा, पानी, मौसम और लोकजीवन की पूंजी है। विकास के नाम पर आज जंगल कट रहे हैं। धरती से उस की चादर यानी हरियाली छीनी जा रही है। मजरूह साहब बरसों पहले फ़िल्म ‘चांदी सोना’ में इस ख़तरे से आगाह कर चुके हैं-



तूने जब दुनिया ये बनाई, 

धरती की चादर फैलाई

चंदा सूरज की ज्योत जलाई
पर जिसके लिए जग तूने रचा, 

वो करके इसे वीरान रहा

धरती की चादर छीन चुका, 

अब चांद और सूरज मांग रहा

ये तेरे बंदों के अफ़साने, 

वो तेरी दुनिया कैसी तू जाने 


मजरूह साहब का जन्म एक गांव में हुआ था। उन्होंने लोक जीवन का रंग और लोक संगीत की मस्तियां देखीं थीं। उनके कई गीतों में लोक भाषा और लोक संगीत का तेवर दिखाई पड़ता है। फ़िल्म ‘धरती कहे पुकार के’ गीत में लोक भाषा का कमाल देखिए-


जे हम तुम चोरी से, बंधे इक डोरी से 
जइयो कहां ऐ हुजूर 
अरे ई बंधन है प्यार का… जे हम तुम चोरी से



एक गीतकार में संगीत की ऐसी समझ होनी चाहिए कि वह झट से दी गई धुन के छंद को पकड़ ले और उसमें अपने शब्द संजोकर करके दी गई सिचुएशन के हिसाब से जज़्बात डाल सके। फ़िल्म गीतकार के सामने एक चुनौती यह भी आती है कि उसे बार-बार तुकबंदी करनी पड़ती है। इस तुकबंदी में शायरी पिरोना मुश्किल काम होता है। मगर ‘चाल’ की तुक ‘डाल’ से मिलाकर मजरूह साहब शायरी का जो हुस्न रचते हैं वह कमाल का होता है। देखिए ‘पत्थर के सनम’ का यह गीत- 


तोबा ये मतवाली चाल, 

झुक जाए फूलों की डाल

चांद और सूरज आकर मांगें, 

तुझसे रंगे जमाल

हसीना तेरी मिसाल कहां… 

ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां

मजरूह साहब ने ज़रूरत पड़ने पर देशज मुहावरों का भी ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया है। ऐसे प्रयोग गांव-जवार को जानने वाला गीतकार ही कर सकता है। फ़िल्म ‘साथी ‘ में उनका यह हुनर देखिए-‘’बबम बबम बम बम लहरी...लहर लहर नदिया गहरी/ जग की बातें दूर के ढोल /कान तेरे कच्चे मत खोल’’… मजरूह साहब एक दृष्टि संपन्न गीतकार थे। इसलिए उनके फ़िल्मी गीतों में भी अपने समय और समाज की धड़कन सुनाई पड़ती है। पांच दशक पहले फ़िल्म ‘सीआईडी’ के गीत में उन्होंने संवेदनहीन हो रहे महानगर के चरित्र को कैसे साकार किया था यह देखने लायक़ है-


ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां 
ज़रा हटके ज़रा बचके, ये है बाम्बे मेरी जां
कहीं बिल्डिंग, कहीं ट्रामें, 

कहीं मोटर, कहीं मिल, 

मिलता है यहां सब कुछ, 

इक मिलता नहीं दिल

इंसान… का नहीं… कहीं नामोनिशां
ज़रा हटके ज़रा बचके, ये है बाम्बे मेरी जां

अगर गीत के कथ्य में जीवन की संवेदना और समाज की वेदना शामिल हो तो वह कालजयी हो जाता है। ऐसे कई गीत मजरूह साहब की क़लम से निकले हैं जो लोगों के दिलों में हमेशा के लिए महफ़ूज़ हैं। ख़ासतौर से श्वेत श्याम फ़िल्म ‘दोस्ती’ के गीत अगर रेडियो पर आज भी बज रहे हों तो बढ़ते क़दम अपने आप थम जाते हैं-


कोई जब राह न पाए, मेरे संग आए
कि पग पग दीप जलाए, मेरी दोस्ती, मेरा प्यार

जाने वालों ज़रा मुड़ के देखो मुझे  
एक इंसान हूं, मैं तुम्हारी तरह

राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है 
दुख तो अपना साथी है
सुख है एक छांव ढलती
आती है जाती है, दुख तो अपना साथी है 

ये ऐसे गीत हैं जिन्हें सुनकर हताश और निराश आदमी के भी हौसलों में नई जान आ जाती है। जैसा कि मैं पहले भी ज़िक्र कर चुका हूं, मजरूह साहब को फोक यानी लोक संगीत और लोकजीवन की गहरी समझ थी। एक दोस्त ने बताया था कि उनको फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ में संगीतकार ने गीत लिखने के लिए सिर्फ़ एक लाइन का मुखड़ा दिया था। मजरूह साहब ने उस पंक्ति पर लोकगीत की शानदार इमारत खड़ी कर दी- 


ठाड़े रहियो ओ बांके यार हो

ठहरो लगा आऊं नैनों में कजरा
चोटी में गूंध आऊं फूलों का गजरा 
मैं तो कर आऊं सोलह सिंगार रे 
ठाड़े रहियो ओ बांके यार रे 



जागे न कोई रैना है थोड़ी 
बोले छमा छम पायल निगोड़ी 
अजी धीरे से खोलूंगी द्वार रे 
सैयां हौले से खोलूंगी द्वार रे 
ठाड़े रहियो ओ बांके यार रे


कल औरआज का फ़िल्म संगीत



सन् 1989 में मजरूह सुल्तानपुरी से पहली मुलाक़ात हुई। फिर उनके साथ मिलने जुलने का सिलसिला शुरु हो गया। उनकी सदारत में मुशायरे में कविता पाठ का भी गौरव मिला। मजरूह साहब व्यवहार में बड़े शालीन मगर साफ़ साफ़ बोलने वाले इंसान थे। एक दिन उनसे मिलने गया तो कहने लगे- ‘’पहले लोग सामाजिक ज़िम्मेदारी महसूस करते थे। ऐसी फ़िल्में बनाते थे, जो सपरिवार देखी जा सकें। सन् 1994-95 से प्रोड्यूसरों की जो भीड़ आई है उसे समाज की कोई चिंता नहीं है। पहले तवायफ़ के परिवार से नायिकाएं आती थीं, मगर इनका पहनावा शरीफ़ घरों की औरतों की तरह होता था। आज की अभिनेत्रियां अच्छे घरों से आती हैं मगर इनका पहनावा तवायफ़ों से भी गया-बीता है।‘’

‘’आज गीतों में शायरी ऐब मानी जाती है। जनता की भी पसंद सस्ती होती जा रही है। उन्हें लगता है यही अच्छे गीत हैं। गीत और कविता का फ़र्क़ हर ज़माने में रहा है। गीत, कविता का ज़्यादा बोझ नहीं उठा पाता। कितनी अकेली कितनी तनहा मैं लगी तुझसे मिलने के बादया  ‘वादियां मेरा दामन रास्ते मेरी बांहेअथवा रहे रहें हम, महका करेंगे जैसे काव्यात्मक गहराई वाले गीत अब नई पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ते। ऊँचे स्तर से वे घबरा जाते हैं। गीत में बहुत बड़ी बात कही जा सकती है, लेकिन अब पहले जैसी सादगी और गहराई नहीं रही। अब तो गीतों में बहुतवल्गराइजेशन गया है। ग़लत भाषा में लिखना औरगिमिकप्रस्तुत करना फैशन बन गया है। बहुत दुखी हूं मैं इससे। कभी-कभी तो रोने को जी चाहता है।‘’

कोई निशानी छोड़ फिर दुनिया से डोल

मजरूह साहब को फ़िल्म जगत में बहुत कामयाबी, शोहरत और इज़्ज़त मिली। उन्होंने जब तक काम किया ख़ुद्दारी के साथ काम किया। उन्होंने ऐसा कोई समझौता नहीं किया जिससे बाद में अफ़सोस हो। उनके गीत कल भी फ़ज़ाओं में गूंजते थे आज भी गूंजते हैं और आने वाले वक़्त की धड़कनों के साथ भी उनकी अनुगूँज सुनाई पड़ती रहेगी। उन्होंने जो कुछ रचा है वह एक कालजयी सृजन है। भले ही वह सिनेमा जगत की ज़रूरतों के हिसाब से रचा गया है लेकिन उसमें साहित्य की सृजनशीलता भी शामिल है। एक हस्सास शायर की संवेदना शामिल है। यही कारण है कि उनके गीत सुनने वालों को अपना दोस्त बनाकर साथ साथ चलते हैं। उनके गीत हमेशा हमारे हमसफ़र बने रहेंगे। ज़िंदगी की धूप छांव में हमारे साथी बन कर खड़े रहेंगे। 

मजरूह सुलतानपुरी (1 अक्टूबर 1919-24 मई 2000) तो इस दुनिया ए फ़ानी से विदा हो गए लेकिन अपने पीछे गीतों का एक कारवां छोड़ गए हैं। गीतों के इस कारवां में सुख-दुख, मिलन-जुदाई, तनहाई, सपने, उम्मीद और हौसले सभी तरह की सौग़ात है जिनसे हमारी ज़िंदगी का इंद्रधनुष बनता है। इन्हीं गीतों को गाते, गुनगुनाते हम आगे बढ़ रहे हैं। फ़िल्म ‘धरम करम’ में उन्होंने जो मशविरा दिया था उसे हमें याद रखना है - 


इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल
जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल
दूजे के होठों को देकर अपने गीत 
कोई निशानी छोड़ फिर दुनिया से डोल




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आपका-
देवमणि पांडेय

Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti, 
Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063, M : 98210-82126

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