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रविवार, 14 जून 2020

सिने गीतकार समीर अंजान के समीराना गीत


समीराना गीत 

तुमने कभी सुना है अल्फ़ाज़ बोलते हैं 
ख़ामोश रहके भी तो कुछ साज़ बोलते हैं

सिने गीतकार समीर अंजान के काव्य संग्रह का नाम है- "समीराना गीत"। क़रीब चार दशकों के सिनेमाई सफ़र में समीर अंजान ने अनेक ऐसे लोकप्रिय गीत दिए जो लोगों की ज़बान पर आज भी हैं। उन्हें अपने इस योगदान के लिए तीन बार फ़िल्म फेयर अवार्ड से नवाज़ा गया।

जैसे शास्त्रीय संगीत तक पहुंचने के लिए अर्ध शास्त्रीय संगीत से गुज़रना अच्छा लगता है उसी तरह समीरजी की यह किताब अपनी सादा बयानी के कारण एक आम पाठक के दिल में साहित्य के प्रति लगाव पैदा करने में एक सेतु का काम करती है।

जिसे दस्ते-क़ुदरत ने पल-पल संवारा  
तुम्हें उस मुहब्बत की मूरत कहूं मैं  
माना कि तुम हो बहुत ख़ूबसूरत  
तुम्हें और भी ख़ूबसूरत कहूं मैं  

जो सहजता और सरलता समीर के सिने गीतों में है वही इन संग्रह की कविताओं में भी है। वे बेहद आत्मीय शैली में ऐसी विनम्रता से अपनी सोच का इज़हार करते हैं कि उनकी बात झट से दिलों तक पहुंच जाती है -

सबके दुखते दिल की राम कहानी होना 
सबसे मुश्किल है दुनिया में पानी होना 

रिश्तों के शुरू फिर से कारोबार हो गए 
शोहरत मिली तो सारे मेरे यार हो गए 

बेसबब बेवजह मुस्कुराने लगे 
तुम भी मुझसे हक़ीक़त छुपाने लगे

संग्रह की इन कविताओं में उन्होंने प्यार, मुहब्बत और इश्क़ का इज़हार किया है मगर कुछ ऐसे अहम् सवालों के जवाब भी ढूंढ़ने की कोशिश की है जो हमारे वक़्त के लिए ज़रूरी हैं। 'प्रदूषण' पर उनकी एक कविता है -

यह ज़मीं बिक चुकी आसमां बिक चुका 
अब हवा, धूप, पानी खरीदेंगे हम

चांद झुलसेगा, बेनूर होगी सुबह 
ना अंधेरे उजाले में होगी सुलह
अब ज़हर में सनी होंगी फसलें नयीं
बद्दुआएं हमें देंगी नस्लें नयीं

इनसे ज़ख्मी कहानी खरीदेंगे हम
अब हवा, धूप, पानी खरीदेंगे हम

दिल की अपनी एक दुनिया है। इस दुनिया में ख़्वाब हैं, इश्क़ है, मिलन है, जुदाई है, तन्हाई है। सुख-दुख के तराने हैं। मुहब्बत के अफ़साने हैं। समीर जी इनका बख़ूबी चित्रण करते हैं। साथ-साथ अपने समय से संवाद भी करते हैं। 'जन्नत' शीर्षक से उनकी एक कविता है जिसमें कश्मीर का अक्स नज़र आता है-

अब चिनारों से भी चीख़ों की सदा आती है 
जिस्म तो जिस्म है, अब रूह कांप जाती है 
कैसे इंसान ने इंसान को मारा देखो 
आओ जन्नत में जहन्नुम का नज़ारा देखो

समीर जिन रास्तों से गुज़रे हैं उसके उतार-चढ़ाव को, उसकी धूप छांव और मुश्किलों को अपने शब्दों में अभिव्यक्त किया है। समीर के यहां जीवन है और जीवन का दर्शन भी है-

जहां से बंद होते हैं सारे रास्ते 
वहीं से नया रास्ता निकलता है 
हम सारी उम्र जिनको समझते हैं अजनबी
उन्हीं से कोई वास्ता निकलता है

एक कवि के रूप में समीर का यह सफ़र लगातार जारी है। उनकी कविताओं की दूसरी किताब  प्रकाशनाधीन है। एक सिने गीतकार, फ़िल्म निर्माता की फ़रमाइश पर, संगीतकार की बनाई धुन पर गीत लिखता है। मगर इससे आगे उसके सोच की एक दुनिया होती है। इस  दुनिया को सामने लाना भी एक ज़रूरी काम है। समीर ने मुक्त मन से यह काम किया है। इसके लिए उन्हें  बहुत-बहुत बधाई। 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, मूल्य ₹225 रूपये

देवमणि पांडेय :
बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063, 98210-82126
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मंगलवार, 2 जून 2020

फ़िल्म पिंजर का गीत चरखा चलाती मां


फ़िल्म पिंजर का गीत चरखा चलाती मां


अमृता प्रीतम के उपन्यास 'पिंजर' में एक दृश्य इस तरह है। नायिका 'पूरो' (उर्मिला मातोंडकर) का विवाह होने वाला है। वह ससुराल चली जाएगी तो घर सूना हो जाएगा। यह सोचकर उसकी मां (लिलेट दुबे) की आंखों में आंसू आ गए। वह दुखी मन से एक लोकगीत गुनगुगाने लगी। अमृता जी ने अपने उपन्यास 'पिंजर' में इसके लिए एक पंजाबी लोकगीत की चंद लाइनें कोट की हैं। 

पंजाबी लोकगीत की इन लाइनों को फ़िल्म 'पिंजर' के संगीतकार उत्तम सिंह ने संंगीतबद्ध किया और म्यूज़िक ट्रैक बना दिया। फ़िल्म के निर्देशक डॉ चंद्रप्रकाश ने यह तय किया कि पंजाबी लोकगीत की लाइनों को हिंदी में रूपांतरित करके रिकॉर्ड किया जाए। इस फ़िल्म में गीतकार गुलज़ार के पांच गीत रिकॉर्ड हो चुके थे। इस लोकगीत के लिए मुझे आमंत्रित किया गया।

पंजाबी लोकगीत के छंद में हिंदी गीत
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जनवरी 2002 के पहले सप्ताह में लकी स्टार एंटरटेनमेंट के कार्यालय में चंद्रप्रकाश जी के साथ मेरी मुलाक़ात हुई। सहनिर्देशक मंदिरा जी और कला निर्देशक मुनीष सपल भी वहां मौजूद थे। चंद्रप्रकाश जी ने बताया कि पंजाबी पंक्तियों का म्यूज़िक ट्रैक बन गया है। अगर आप उसी छंद में हिंदी में लिखेगें तो नई धुन और नया ट्रैक नहीं बनाना पड़ेगा। घर आकर जब मैंने इस गीत के बारे में सोचने लगा तो महसूस हुआ कि हर भाषा की अपनी ख़ूबसूरती होती है। उसके शब्दों का एक नाद सौंदर्य होता है। इन प्रभाव को दूसरी भाषा के शब्दों के ज़रिए पैदा करना बहुत मुश्किल काम होता है। पंजाबी लोकगीत की शुरुआत इस तरह होती है-

चरखा जू डाहनीयां, छोपे जो पानीयां
पिड़ियां ते वाले मेरे खेस नी

इन पंक्तियों का सीधा मतलब यही होता है- "चरखा चलाती हूं, धागा बनाती हूं, मेरे खेस (ओढ़ने की चादर) बेलबूटों वाले हैं। यानी हिंदी में सीधा अनुवाद करने से मां-बेटी का रिश्ता नहीं जुड़  पाता। ये गीत मां अपनी बेटी के लिए गा रही थी। हो सकता है कि उसने यह गीत अपनी मां से सुना हो। इस तरह इसमें तीन पीढ़ियां शामिल हो जाती हैं। मुझे लगा कि पंजाबी का यह छंद लोरी की तरह है। इसकी धुन सीधे दिलों को स्पर्श करेगी। इसलिए इस छंद को छोड़ना ठीक नहीं रहेगा।

मैंने उपरोक्त पंक्तियों का भावानुवाद इस तरह कर दिया- "चरखा चलाती मां, धागा बनाती मां, बुनती है सपनों की ख़ेस री। सपनों की चादर में बच्चों से बूटे हैं, जीवन का उजला संदेस री"।

भावानुवाद में कुछ नई पंक्तियां लिखनी पड़ी और इस गीत की लम्बाई बढ़ गई। अगले दिन संगीतकार उत्तम सिंह ने मेरे लिखे गीत को अपनी धुन पर गाकर देखा तो ख़ुश हो गए। वे बोले- पंजाबी और हिंदी गीत दोनों का मीटर एक है। इसलिए नई धुन बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

म्यूज़िक ट्रैक पर डेढ़ मिनट का हिंदी गीत
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उत्तम सिंह का बनाया हुआ म्यूज़िक ट्रैक डेढ़ मिनट का था। चर्चा के बाद तय हुआ कि चूंकि यह गीत फ़िल्म में तीन बार बजेगा इसलिए इसकी लंबाई डेढ़ मिनट ही रखी जाए। मां के प्रति बेटी के और बेटी के प्रति मां के इमोशन को ध्यान में रखते हुए उत्तम सिंह ने मेरे गीत को संपादित किया। चार पंक्तियाँ हटाने के बाद गीत का स्वरूप इस तरह हो गया-

चरखा चलाती मां, धागा बनाती मां,
बुनती है सपनों की खेस री.
समझ न पाऊं मैं, किसको बताऊं मैं
मैया छुडाती क्यूँ देस री.

बेटों को देती है महल-अटरिया
बेटी को देती परदेस री.
जग में जनम क्यों लेती है बेटी
आये क्यूँ विदाई वाली रात री.

शनिवार 12 जनवरी 2002 को डॉ चंद्रप्रकाश का फ़ोन आया कि कल रिकॉर्डिंग है। आप सुबह दस बजे इम्पायर स्टूडियो अंधेरी आ जाइए। उन्होंने यह भी कहा कि गीत डेढ़ मिनट का है। आधे घंटे में रिकॉर्ड हो जाएगा। रविवार 13 जनवरी की सुबह दस बजे जब मैं स्टूडियो पहुंचा तो डॉ चंद्रप्रकाश जी, मंदिरा जी और उनकी यूनिट के कई लोग मौजूद थे। रिकॉर्डिंग की प्रक्रिया तो तुरंत शुरू हो गई मगर पैकअप शाम को छ: बजे के बाद ही हो पाया। यानी एक डेढ़ मिनट के एक गीत ने पूरे दिन के साथ अपना रिश्ता जोड़ लिया था। 

गीत की रिकार्डिंग में रो पड़ी गायिका
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संगीतकार उत्तम सिंह की सुपुत्री गायिका प्रीति उत्तम ने माइक संभाला। रिकार्डिंग का यह सिलसिला काफ़ी लम्बा चला। प्रीति जी बहुत इमोशनल हो गईं थी। उनकी बेहतर अदायगी से सारे लोग भाव विह्वल थे। मां की कसक और पीड़ा के साथ गीत की शुरुआत होती है। आख़िर तक पहुंचते-पहुंचते मां का चेहरा आंसुओं में भीग जाता जाता है और आवाज़ हिचकी में डूब जाती है। प्रीती उत्तम ने मां की भावनाओं को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कई बार यह गीत गाते हुए वे सचमुच रो पड़ीं।

शाम को छ: बजे के बाद एक दूसरे से विदा लेते हुए हम लोग अवसाद में भीगे हुए मगर ख़ुश थे। एक सपने को साकार करने की दिशा में यह पहला पायदान था। यानी इस गीत की रिकॉर्डिंग के साथ निर्माणाधीन 'पिंजर' ने अपनी मंज़िल की तरफ़ क़दम बढ़ा दिया था। पंजाब और राजस्थान में 'पिंजर' की आउटडोर शूटिंग हुई। उसके बाद मुंबई के फ़िल्मसिटी स्टूडियो में अमृतसर का सेट लगाकर बाक़ी दृश्य फिल्माए गए। चंद्रप्रकाश जी के आमंत्रण पर एक दिन मैं सेट पर भी गया। वहां फ़िल्म के कलाकार उर्मिला मातोंडकर, प्रियांशु, संदली आदि से भी मुलाक़ात हुई।

रिकॉर्डिंग स्टूडियो में उद्योगपति ओसवाल
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मेरे गीत की रिकॉर्डिंग के एक साल बाद 5 जनवरी 2003 को चंद्रप्रकाश जी का फ़ोन आया। वे बोले कल दोपहर बारह बजे इस्पेक्टरल हारमोनी स्टूडियो पहुंच जाइए। निर्माता को आपका गीत बहुत पसंद आ गया है। वे इस गीत की लम्बाई बढ़ाना चाहते हैं। आप एक और अंतरा लिख लीजिए। इस अंतरे के साथ कैसेट और सीडी जारी किए जाएंगे।

अब मुझे दोबारा मां-बेटी की भावनाओं से रिश्ता जोड़ना था। मन में मां-बेटी की छवि को साकार करने में थोड़ा वक्त़ ज़रूर लगा मगर भावनाओं ने बहुत जल्दी शब्दों के साथ रिश्ता जोड़ लिया। दूसरे दिन 6 जनवरी 2003 को मैंने प्रीति उत्तम को गाते हुए सुना-

साँसों की डोरी से, आँखों की गलियों से,
क्यों देती सपनों का देस री.
ममता की बाहों में, लम्हों के धागों में
मन को लगे काहे ठेस री …

इस गीत में प्रीति जी का साथ देने के लिए यानी कोरस गान के लिए चार और गायिएं आमंत्रित की गई़ं थी। इनमें मेरे दोस्त गायक घनश्याम वासवानी की बीवी मीनाक्षी वासवानी भी थीं। उन्होंने इस सुंदर गीत के लिए मुझे बधाई दी। उस दिन स्टूडियो में फ़िल्म 'पिंजर' के निर्माता उद्योगपति ओसवाल सपरिवार मौजूद थे। उनके सामने "चरखा चलाती मां" गीत बजाया गया। उन्होंने बड़ी आत्मीयता से मुझे बधाई दी और कहा- उत्तम सिंह का संगीत और आपका यह गीत पचास साल बाद भी पुराना नहीं होगा।

बेस्ट लिरिक आफ दि इयर अवार्ड
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प्रदर्शित होने पर संवेदनशील दर्शकों ने फ़िल्म 'पिंजर' को काफ़ी सराहा मगर इसे व्यवसायिक सफलता नहीं मिली। ज़ी म्यूज़िक की ओर से "चरखा चलाती मां" गीत को वर्ष 2003 के लिए "बेस्ट लिरिक आफ दि इयर" पुरस्कार प्रदान किया गया। मगर बतौर गीतकार इसके लिए अमृता प्रीतम का नाम घोषित किया गया। चंद्रप्रकाश जी के एक मित्र ने मुझे बताया कि अमृता जी के घर से चंद्रप्रकाश जी को फ़ोन आया था और इस बात पर एतराज़ किया गया कि जब अमृता जी ने गीत नहीं लिखा तो उनके नाम की घोषणा कैसे की गई। अमृता जी उस समय काफ़ी बीमार चल रहीं थीं। शायद इसलिए उनकी तरफ से कोई स्पष्टीकरण नहीं आया। पुरस्कार की वह ट्राफी चंद्रप्रकाश जी के घर की शोभा बढ़ा रही है। उन्होंने मुझे दिया नहीं और मैंने भी उनसे मांगा नहीं।

चंद्रप्रकाश जी ने पहली बैठक में मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा था- देवमणि जी, यह गीत आपको लिखना है। इसके लिए हम आपको नाम और दाम दोनों देंगे। उन्होंने दाम तो दिया मगर नाम देने में कोई मजबूरी सामने आ गई। उन्होंने फ़िल्म की रोलिंग टाइटल में मेरा नाम बतौर अनुवादक डाल दिया। कैसेट, सीडी या किसी भी प्रचार सामग्री में मेरा नाम नहीं दिया गया। 

अमृता प्रीतम हिंदी में गीत नहीं लिखतीं
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जब "चरखा चलाती मां" गीत को सर्वोत्तम पुरस्कार घोषित किया गया तो मैंने अपने गीत की स्क्रिप्ट फिल्म राइटर्स एसोसिएशन के महासचिव राजेंद्र सिंह आतिश को दिखाई। उन्होंने मेरे सामने ही चंद्रप्रकाश जी को फोन किया है और कहा- "चंद्रप्रकाश जी, यह गीत अमृता प्रीतम का नहीं है। वास्तव में ये एक लोकगीत की कुछ पंक्तियां हैं। मेरे पास पंजाबी लोकगीतों की किताब है। मैं उसे आपको दिखा सकता हूं। दूसरी बात यह है कि पंजाबी लोकगीत की चंद लाइनों के आधार पर पांडेय जी ने सोलह पंक्तियों का स्वतंत्र गीत लिखा है। इसलिए बतौर गीतकार इनका नाम जाना चाहिए। पांडेय जी ने अनुवाद नहीं किया है क्योंकि उन्हें पंजाबी नहीं आती। और अमृता प्रीतम हिंदी में गीत नहीं लिखतीं।" आतिश जी ने कहा "पांडेय जी मैं अमृता प्रीतम से बात करता हूं क्योंकि इस पुरस्कार के असली हक़दार आप हैं"। मैंने उन्हें मना कर दिया क्योंकि उस समय अमृता प्रीतम जी गम्भीर रूप से बीमार थीं।

फ़िलहाल चंद्रप्रकाश जी पृथ्वीराज चौहान पर एक बड़ी फिल्म निर्देशित कर रहे हैं। मेरी शुभकामना है कि वे अपने इस मिशन में कामयाब हों।

फ़िल्म पिंजर का गीत
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चरखा चलाती मां
धागा बनाती मां
बुनती है सपनों की खेस री

समझ न पाऊं मैं
किसको बताऊं मैं
मैया छुडाती क्यूँ देस री

बेटों को देती है महल अटरिया
बेटी को देती परदेस री
बेटों को देती है महल अटरिया
बेटी को देती परदेस री

जग में जनम क्यों लेती है बेटी
जग में जनम क्यों लेती है बेटी
आये क्यूँ विदाई वाली रात री
आये क्यूँ विदाई वाली रात री
आये क्यूँ विदाई वाली रात री

साँसों की डोरी से
आँखों की गलियों से
क्यों देती सपनों का देस री

साँसों की डोरी से
आँखों की गलियों से
क्यों देती सपनो का देस री

ममता की बाहों में
लम्हों के धागों में
मन को लगे काहे ठेस री

बेटों को देती है महल अटरिया
बेटी को देती परदेस री
बेटों को देती है महल अटरिया
बेटी को देती परदेस री

जग में जनम क्यों लेती है बेटी
जग में जनम क्यों लेती है बेटी
आये क्यूँ विदाई वाली रात री
आये क्यूँ विदाई वाली रात री
आये क्यूँ विदाई वाली रात री

आपका-
देवमणि पांडेय

Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti, Kanya Pada, Gokuldham,
Film City Road,Goregaon East, Mumbai-400063, M : 98210-82126
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बुधवार, 13 मई 2020

मजरूह सुल्तानपुरी : रहें ना रहें हम महका करेंगे


बॉलीवुड में गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी 

मजरूह सुलतानपुरी को सन् 1994 मेंदादा साहब फाल्के पुरस्कार’ मिला तो मैंने बधाई दी। वे बोले- पुरस्कार तो अक्सर अपनों को ही दिए जाते हैं। फ़िल्मफ़ेयर से लेकर नोबल तक यही होता है। इसलिए जब मुझे सूचना मिली कि ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ मिलेगा तो एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ। अब तो पुरस्कार ख़रीदे जाते हैं। मैंने एक गीत लिखा था-


हम बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले ग

साग़र को ज़िंदगी में उतारे चले गए

मेरे इस गीत को ‘फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार’ नहीं मिला। शैलेन्द्र के गीत ‘ये मेरा दीवानापन है को मिल गया। काफ़ी लोगों ने मुझसे कहा था कि मजरुह साहब, आपका गीत ज़्य़ादा अच्छा था। युवा जब कॉलेज से निकलता है तो उसे मंज़िल नहीं मालूम होती। इस स्थिति को दर्शाने वाला गीत मैंने लिखा- ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’। भारी लोकप्रियता के बावजूद इसे पुरस्कार नहीं मिला और गुलज़ार के जाने किस गीत को मिल गया। गुलज़ार के गीत ‘यारा सिली सिली’ को भी पुरस्कार मिला। जबकि मेंहदी हसन ने मुझे बताया था कि यह गीत रेशमा का है। पुरस्कारों का सच यही है। मैं हमेशा दो नावों पर सवार रहा- साहित्य और सिनेमा। जगह दोनों में मिली, लेकिन खुल के किसी के सिर पर नहीं बैठ सका। यानी न इधर के रहे न उधर के।

फ़िल्मशाहजहाँके गीतकार मजरूह

सन् 1945 में मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी मुम्बई के एक मुशायरे में अपने शागिर्द मजरूह सुलतानपुरी के साथ पधारे। मुशायरा बहुत बड़ा था। फ़िल्म जगत के तमाम लोग वहाँ उपस्थित थे। मजरूह थे, लेकिन जम गएजाने माने फ़िल्म निर्माता कारदार साहब का बुलावा आ गया। मजरूह सुलतानपुरी का फ़िल्म लाइन में आने का पहले कोई इरादा नहीं था। उस वक्त एक डिप्टी कलेक्टर को ढाई सौ रुपये वेतन मिलता था। मजरूह मुशायरों से तीन-साढ़े तीन सौ कमा लेते थे। इसलिए उन्होंने इंकार कर दिया। जिगर साहब ने समझाया कि अभी तुमने न घर बनाया न शादी की। बीमार पड़ गये तो क्या करोगे ? आफ़र स्वीकार कर लो। पसंद न आए तो बाद में छोड़ देना। उस्ताद के समझाने से मजरूह सुलतानपुरी तैयार हो गए। पाँच सौ रुपये मासिक वेतन निश्चित हुआ

कारदार साहब की फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ के गीत मजरूह सुलतानपुरी ने लिखे। गीत तो सभी पसंद किए गए, लेकिन एक गीत को सहगल साहब ने लीजेंड बना दिया। गीत था – ‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे ?’ फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ 1947  में आई। इसके बाद विभाजन के कारण छह-सात महीने तक फ़िल्म उद्योग बंद रहा। परेल के एक मुशायरे में पं.नेहरू के ख़िलाफ़ गीत पढ़ने के आरोप में मजरूह सुलतानपुरी को डेढ़ साल की ज़ेल हो गई। मजरूह साहब ने महबूब ख़ान की फ़िल्म ‘अंदाज़’ के गीत लिखे थेसन् 1949 मेंअंदाज़’ रिलीज़ हुई। गाने लोकप्रिय हुए तो काम भी मिला। कमाल अमरोही ने फ़िल्म ‘दायरा’ और गुरुदत्त ने ‘बाज़’, ‘जाल’ आदि फ़िल्मों के गीत लिखवाए।

कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र

मजरूह सुलतानपुरी चरित्रों के व्यक्तित्व, व्यवहार और बोलचाल को ध्यान में रखकर गीत लिखने में माहिर थे। ‘कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़रथा ‘छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा’ जैसे गीत लिखकर मजरूह साहब ने रोमांटिक कामेडी गीतों के लिए एक नई राह बनाई। फ़िल्म के गीत का आधार दो चरित्रों की आपसी बातचीत होती है। बातचीत के इस लहजे को मजरूह साहब बहुत अच्छी तरह समझते थे। फ़िल्म ‘आर पार’ का यह गीत उसकी मिसाल है-


ये लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे
काहे का झगड़ा बालम, नई नई प्रीत रे


सन् 1983 में मजरूह साहब एक मुशायरे में अमेरिका गए। लोग उन्हें सुनना चाहते थे। मजरूह साहब को साढ़े चार महीना रुकना पड़ गया। लौटकर आ तो देखा उनकी जगह कोई और बैठ गया था। फ़िल्म ‘क़यामत से क़यामत तक’ के ज़रिए उनकी वापसी हुई।

मुझे सहल हो गईं मंजिलें

एक शायर जब ग़ज़ल का मतला कहता है तो वह बहर यानी छंद की बंदिश में बंध जाता है। इस बहर की एक धुन होती है। उसे ग़ज़ल के सारे शेर इसी धुन में लिखने पड़ते हैं। इस तरह शायरों को धुन पर लिखने का अभ्यास हो जाता है। मजरूह साहब भी संगीतकारों की बनी बनाई धुन पर अच्छे गीत लिखने में कामयाब हुए। दरअसल ग़ज़ल की लय और संगीत की लय (बीट्स) दोनों की चाल एक जैसी है-


मुझे सहल/ हो गईं मंजिलें/ कि हवा के रुख़ भी/ बदल गए. 
तेरा हाथ/ हाथ में आ गया/ कि चराग़ राह में/ जल गए.



शेर को पढ़ने में जिस तरह के पॉज दिए जाते हैं उसी तरह के कट संगीत को ट्यून करते समय भी दिए जाते हैं-



रहें ना रहें हम/ महका करेंगे/ बनके कली/
बनके सबा/ बाग़े वफ़ा में. (फिल्म ममता) 



इसलिए ग़ज़ल कहने वाले हुनरमंद शायरों को संगीतकार की दी हुई धुन पर गीत लिखने में सहूलियत हो जाती है और वे कामयाबी की मंजिलें तय कर लेते हैं। मजरूह साहब की एक ग़ज़ल फ़िल्म दस्तक में काफ़ी लोकप्रिय हुई- 


हम हैं मता ए कूचा ओ बाज़ार की तरह 
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह                                                                                                          
मजरूह लिख रहे हैं वो अहले-वफ़ा का नाम 
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह 

मजरूह के गीतों में लोकजीवन

शायर मजरूह सुल्तानपुरी ऐसे प्रतिभाशाली गीतकार थे जिन्हें धुन की गहरी समझ थी और छंद को पकड़ने का बाकमाल हुनर था। इसलिए उन्होंने एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत गीत लिखकर फ़िल्म संगीत को समृद्ध किया। मजरूह साहब जिस दुनिया से आए थे वह गांव-क़स्बों की दुनिया थी। जहां चांद के अंदर बुढ़िया बैठी है, जहां गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह रचाये जाते हैं, बच्चों को लोरी गाकर सुलाया जाता है और भजन गाकर जगाया जाता है। मजरूह साहब ने इस जानी-पहचानी घरेलू दुनिया और लोकजीवन को जहाँ भी मौक़ा मिला अपने गीतों में साकार किया। फ़िल्म 'अंदाज़' के इस गीत के बोल देखिए- 


नील गगन पर बादल डोले, डोले हर इक तारा 
चांद के अंदर बुढ़िया डोले, ठुमक ठुमक दिलदारा 
कमला गाए, विमला गाए, गाए कुनबा सारा 
घूंघट काढ़ के गुड़िया गाए, भूले गुड्डा प्यारा 
मेरी लाडली री! बनी है तारों की तू रानी 

लोक जीवन का एक गुण है सहज हास्य। मजरूह साहब में हास्यबोध कमाल का था। ‘’कहत कबीर सुनो भाई साधो बात कहूँ मैं खरी…’’ इस ह्यूमर में जहां गुंजाइश होती थी वह अपनी प्रगतिशीलता का परचम भी लहरा देते - 


पांचवा नंबर ज़ुल्म का दुश्मन, मैं दुखियों का साथी 
छठा देश के गद्दारों से, छीन लूं घर की बाती



यह 'बाती' दीया बाती वाली है जो घर को रोशन करती है और अंधेरों को दूर भगाती है। फ़िल्म गीतकार के सामने चुनौती यह होती है कि आम फ़हम भाषा में दी गई धुन पर ऐसा सिचुएशनल गीत लिखना होता है कि वह अनपढ़ आदमी की भी समझ में आ जाए। दूसरी चुनौती यह होती है कि जो कुछ लिखा जा चुका है उसमें आप नया क्या जोड़ सकते हैं। मजरूह साहब के गीतों में फ़न और हुनर का यह कमाल बार-बार दिखाई पड़ता है। यह इसलिए भी हो पाता है कि उनके पास गांव की मिट्टी, हवा, पानी, मौसम और लोकजीवन की पूंजी है। विकास के नाम पर आज जंगल कट रहे हैं। धरती से उस की चादर यानी हरियाली छीनी जा रही है। मजरूह साहब बरसों पहले फ़िल्म ‘चांदी सोना’ में इस ख़तरे से आगाह कर चुके हैं-



तूने जब दुनिया ये बनाई, 

धरती की चादर फैलाई

चंदा सूरज की ज्योत जलाई
पर जिसके लिए जग तूने रचा, 

वो करके इसे वीरान रहा

धरती की चादर छीन चुका, 

अब चांद और सूरज मांग रहा

ये तेरे बंदों के अफ़साने, 

वो तेरी दुनिया कैसी तू जाने 


मजरूह साहब का जन्म एक गांव में हुआ था। उन्होंने लोक जीवन का रंग और लोक संगीत की मस्तियां देखीं थीं। उनके कई गीतों में लोक भाषा और लोक संगीत का तेवर दिखाई पड़ता है। फ़िल्म ‘धरती कहे पुकार के’ गीत में लोक भाषा का कमाल देखिए-


जे हम तुम चोरी से, बंधे इक डोरी से 
जइयो कहां ऐ हुजूर 
अरे ई बंधन है प्यार का… जे हम तुम चोरी से



एक गीतकार में संगीत की ऐसी समझ होनी चाहिए कि वह झट से दी गई धुन के छंद को पकड़ ले और उसमें अपने शब्द संजोकर करके दी गई सिचुएशन के हिसाब से जज़्बात डाल सके। फ़िल्म गीतकार के सामने एक चुनौती यह भी आती है कि उसे बार-बार तुकबंदी करनी पड़ती है। इस तुकबंदी में शायरी पिरोना मुश्किल काम होता है। मगर ‘चाल’ की तुक ‘डाल’ से मिलाकर मजरूह साहब शायरी का जो हुस्न रचते हैं वह कमाल का होता है। देखिए ‘पत्थर के सनम’ का यह गीत- 


तोबा ये मतवाली चाल, 

झुक जाए फूलों की डाल

चांद और सूरज आकर मांगें, 

तुझसे रंगे जमाल

हसीना तेरी मिसाल कहां… 

ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां

मजरूह साहब ने ज़रूरत पड़ने पर देशज मुहावरों का भी ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया है। ऐसे प्रयोग गांव-जवार को जानने वाला गीतकार ही कर सकता है। फ़िल्म ‘साथी ‘ में उनका यह हुनर देखिए-‘’बबम बबम बम बम लहरी...लहर लहर नदिया गहरी/ जग की बातें दूर के ढोल /कान तेरे कच्चे मत खोल’’… मजरूह साहब एक दृष्टि संपन्न गीतकार थे। इसलिए उनके फ़िल्मी गीतों में भी अपने समय और समाज की धड़कन सुनाई पड़ती है। पांच दशक पहले फ़िल्म ‘सीआईडी’ के गीत में उन्होंने संवेदनहीन हो रहे महानगर के चरित्र को कैसे साकार किया था यह देखने लायक़ है-


ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां 
ज़रा हटके ज़रा बचके, ये है बाम्बे मेरी जां
कहीं बिल्डिंग, कहीं ट्रामें, 

कहीं मोटर, कहीं मिल, 

मिलता है यहां सब कुछ, 

इक मिलता नहीं दिल

इंसान… का नहीं… कहीं नामोनिशां
ज़रा हटके ज़रा बचके, ये है बाम्बे मेरी जां

अगर गीत के कथ्य में जीवन की संवेदना और समाज की वेदना शामिल हो तो वह कालजयी हो जाता है। ऐसे कई गीत मजरूह साहब की क़लम से निकले हैं जो लोगों के दिलों में हमेशा के लिए महफ़ूज़ हैं। ख़ासतौर से श्वेत श्याम फ़िल्म ‘दोस्ती’ के गीत अगर रेडियो पर आज भी बज रहे हों तो बढ़ते क़दम अपने आप थम जाते हैं-


कोई जब राह न पाए, मेरे संग आए
कि पग पग दीप जलाए, मेरी दोस्ती, मेरा प्यार

जाने वालों ज़रा मुड़ के देखो मुझे  
एक इंसान हूं, मैं तुम्हारी तरह

राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है 
दुख तो अपना साथी है
सुख है एक छांव ढलती
आती है जाती है, दुख तो अपना साथी है 

ये ऐसे गीत हैं जिन्हें सुनकर हताश और निराश आदमी के भी हौसलों में नई जान आ जाती है। जैसा कि मैं पहले भी ज़िक्र कर चुका हूं, मजरूह साहब को फोक यानी लोक संगीत और लोकजीवन की गहरी समझ थी। एक दोस्त ने बताया था कि उनको फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ में संगीतकार ने गीत लिखने के लिए सिर्फ़ एक लाइन का मुखड़ा दिया था। मजरूह साहब ने उस पंक्ति पर लोकगीत की शानदार इमारत खड़ी कर दी- 


ठाड़े रहियो ओ बांके यार हो

ठहरो लगा आऊं नैनों में कजरा
चोटी में गूंध आऊं फूलों का गजरा 
मैं तो कर आऊं सोलह सिंगार रे 
ठाड़े रहियो ओ बांके यार रे 



जागे न कोई रैना है थोड़ी 
बोले छमा छम पायल निगोड़ी 
अजी धीरे से खोलूंगी द्वार रे 
सैयां हौले से खोलूंगी द्वार रे 
ठाड़े रहियो ओ बांके यार रे


कल औरआज का फ़िल्म संगीत



सन् 1989 में मजरूह सुल्तानपुरी से पहली मुलाक़ात हुई। फिर उनके साथ मिलने जुलने का सिलसिला शुरु हो गया। उनकी सदारत में मुशायरे में कविता पाठ का भी गौरव मिला। मजरूह साहब व्यवहार में बड़े शालीन मगर साफ़ साफ़ बोलने वाले इंसान थे। एक दिन उनसे मिलने गया तो कहने लगे- ‘’पहले लोग सामाजिक ज़िम्मेदारी महसूस करते थे। ऐसी फ़िल्में बनाते थे, जो सपरिवार देखी जा सकें। सन् 1994-95 से प्रोड्यूसरों की जो भीड़ आई है उसे समाज की कोई चिंता नहीं है। पहले तवायफ़ के परिवार से नायिकाएं आती थीं, मगर इनका पहनावा शरीफ़ घरों की औरतों की तरह होता था। आज की अभिनेत्रियां अच्छे घरों से आती हैं मगर इनका पहनावा तवायफ़ों से भी गया-बीता है।‘’

‘’आज गीतों में शायरी ऐब मानी जाती है। जनता की भी पसंद सस्ती होती जा रही है। उन्हें लगता है यही अच्छे गीत हैं। गीत और कविता का फ़र्क़ हर ज़माने में रहा है। गीत, कविता का ज़्यादा बोझ नहीं उठा पाता। कितनी अकेली कितनी तनहा मैं लगी तुझसे मिलने के बादया  ‘वादियां मेरा दामन रास्ते मेरी बांहेअथवा रहे रहें हम, महका करेंगे जैसे काव्यात्मक गहराई वाले गीत अब नई पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ते। ऊँचे स्तर से वे घबरा जाते हैं। गीत में बहुत बड़ी बात कही जा सकती है, लेकिन अब पहले जैसी सादगी और गहराई नहीं रही। अब तो गीतों में बहुतवल्गराइजेशन गया है। ग़लत भाषा में लिखना औरगिमिकप्रस्तुत करना फैशन बन गया है। बहुत दुखी हूं मैं इससे। कभी-कभी तो रोने को जी चाहता है।‘’

कोई निशानी छोड़ फिर दुनिया से डोल

मजरूह साहब को फ़िल्म जगत में बहुत कामयाबी, शोहरत और इज़्ज़त मिली। उन्होंने जब तक काम किया ख़ुद्दारी के साथ काम किया। उन्होंने ऐसा कोई समझौता नहीं किया जिससे बाद में अफ़सोस हो। उनके गीत कल भी फ़ज़ाओं में गूंजते थे आज भी गूंजते हैं और आने वाले वक़्त की धड़कनों के साथ भी उनकी अनुगूँज सुनाई पड़ती रहेगी। उन्होंने जो कुछ रचा है वह एक कालजयी सृजन है। भले ही वह सिनेमा जगत की ज़रूरतों के हिसाब से रचा गया है लेकिन उसमें साहित्य की सृजनशीलता भी शामिल है। एक हस्सास शायर की संवेदना शामिल है। यही कारण है कि उनके गीत सुनने वालों को अपना दोस्त बनाकर साथ साथ चलते हैं। उनके गीत हमेशा हमारे हमसफ़र बने रहेंगे। ज़िंदगी की धूप छांव में हमारे साथी बन कर खड़े रहेंगे। 

मजरूह सुलतानपुरी (1 अक्टूबर 1919-24 मई 2000) तो इस दुनिया ए फ़ानी से विदा हो गए लेकिन अपने पीछे गीतों का एक कारवां छोड़ गए हैं। गीतों के इस कारवां में सुख-दुख, मिलन-जुदाई, तनहाई, सपने, उम्मीद और हौसले सभी तरह की सौग़ात है जिनसे हमारी ज़िंदगी का इंद्रधनुष बनता है। इन्हीं गीतों को गाते, गुनगुनाते हम आगे बढ़ रहे हैं। फ़िल्म ‘धरम करम’ में उन्होंने जो मशविरा दिया था उसे हमें याद रखना है - 


इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल
जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल
दूजे के होठों को देकर अपने गीत 
कोई निशानी छोड़ फिर दुनिया से डोल




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आपका-
देवमणि पांडेय

Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti, 
Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063, M : 98210-82126