सोमवार, 11 जुलाई 2022

क्या है जो मेरा है : राजेश का काव्य संग्रह


 क्या है जो मेरा है : राजेश का काव्य संग्रह


कवि राजेश ऋतुपर्ण के काव्य संग्रह का नाम है - 'क्या है जो मेरा है'। संग्रह की पहली कविता में ही राजेश ने अपने सृजन सरोकार को अभिव्यक्त कर दिया है- जो अच्छा है, श्रेष्ठ है, उसे किसी के नाम कर दिया जाए और ख़ालीपन को अपने पास रख लिया जाए। 

इंसान का अंतर्मन जब अनुभव, अध्ययन और अवलोकन की पूंजी से आच्छादित होता है तो वह काव्यात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से छलक पड़ता है। रचनात्मकता के इस उत्स को इंसान अपनी दृष्टि से समृद्ध करता है। राजेश ने अपने अनुभव के आकाश को और अपने पैरों तले ज़मीन के एहसास को अपनी रचनात्मकता का आधार बनाया है। उनकी अभिव्यक्ति में वह विकलता मौजूद है जो सृजनात्मकता के लिए ज़रूरी है। 'पोशाक' कविता की कुछ पंक्तियां देखिए- 

काश! बिना टूटे- बिना गांठ पड़े 
ये धागे अपनी तकली पर फिर से चढ़ जाएं 
ताकि फिर से कुछ नया बुनें 
हम और तुम… 

मौजूदा समय के कुछ महत्वपूर्ण यथार्थ होते हैं। एक कवि के लिए यह चुनौती होती है कि वह ऐसे यथार्थ को अपनी रचनात्मकता के दायरे में कैसे लाए। हमारे समय का एक महत्वपूर्ण यथार्थ है 'कटना'। जंगल से लेकर जानवर तक कट रहे हैं। इस यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए कवि अपने समय से ख़ुद को जोड़ता है। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिए - 

इंसान सब कुछ खा पचा जाता है 
फिर काटता है समय …
फिर भी समय नहीं कटता 
हां इस बीच कट चुके होते हैं 
कई पेड़, कई पौधे 
कई फल, कई फूल 
बहुत सारे जानवर 
और थोड़े थोड़े हम

किसी घटना पर तात्कालिक टिप्पणी से बचते हुए अपने समय के किसी ज्वलंत सवाल को काव्यात्मक संवेदना के साथ जोड़कर अभिव्यक्त करना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी और कौशल का काम होता है। राजेश कहीं-कहीं यह जोख़िम उठाते हैं। लॉकडाउन में मज़दूरों की पैदल घर वापसी एक ज्वलंत सवाल था। राजेश की 'लॉकडाउन' कविता में 'एक कवि का शर्मनामा' देखिए-

मैं चुपचाप देखता हूं 
टेलीविज़न पर आ रही पलायन की ख़बरों को
मैं चुपचाप गणना करता हूं कि 
सड़क पर चलता हुआ मज़दूर 
अब तक कितनी दूर चल चुका होगा 
क्या वो अपने घर पहुंचेगा 
सोचते-सोचते 
मैं क़लम का सिपाही 
थक कर सो जाता हूं 
उठता हूं तो मुझे शर्म आती है 
मुझे मज़दूरों पर कविता लिखने में 
शर्म आती है … 

राजेश ऋतुपर्ण के पास सोच और सरोकार है। ज़िंदगी और समाज के प्रति एक स्वस्थ नज़रिया है। इसलिए जब वे अपने आसपास की दुनिया के कथ्य को अपनी संवेदना के साथ पेश करते हैं तो एक सुंदर कविता बन जाती है। राजेश के पास अभिव्यक्ति के लिए जीवंत भाषा है। ख़ूबसूरत अंदाज़ है। इसलिए उनकी कविताएं पाठकों के साथ एक आत्मीय रिश्ता क़ायम कर लेती हैं। 'क्या है जो मेरा है' राजेश का पहला काव्य संकलन है। मुझे उम्मीद है कि रचनाकार जगत में और काव्य प्रेमियों के बीच में इसका भरपूर स्वागत होगा। इस रचनात्मक उपलब्धि के लिए राजेश ऋतुपर्ण को हार्दिक बधाई और अनंत शुभकामनाएं।

 आपका-
देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

जुबां आतिश उगलती है : मंज़र लखनवी

जुबां आतिश उगलती है : मंज़र लखनवी

मंज़र लखनवी की ग़ज़लों में म'आनी है, रवानी है और ज़िन्दगी की कहानी है। मंज़र ने अपने पैरों तले की ज़मीन और सर पर फैले आसमां को अपनी रचनात्मकता का हमसफ़र बनाया है। अपने अनुभव, एहसास और फ़िक्र से अपनी ग़ज़लों को सजाया है। उनकी ग़ज़लों में आज के समाज का माहौल है, मौजूदा वक़्त की आवाज़ है और मुहब्बत की दास्तान है। 


दीवाने को सभी पहचान लेंगे, 

लबों पर है हसीं आँखों में पानी।


किसी को जान से ज़्यादा जो चाहो, 

पड़ेगी जान की क़ीमत चुकानी।


ग़ज़ल कम शब्दों में ज़्यादा बात कहने की एक ख़ूबसूरत काव्य विधा है। मंज़र लखनवी ने अपने अभिव्यक्ति कौशल से इसे साबित कर दिखाया है। उनकी ग़ज़लें अपनी सोच और संवेदना के साथ पाठकों तक पहुंचती हैं और उनसे एक संवाद स्थापित कर लेती हैं। 


सितारे जब भी हों, गर्दिश में मेरे, 

बदल जाते हैं वो, अपने बयाँ से।


मुझे मंज़ूर होगी हर सज़ा अब, 

सुनाएँ गर वो अपनी ही ज़बाँ से।


ग़ज़ल एक नाज़ुक काव्य विधा है। उसे सुकोमल शब्दावली की ज़रूरत पड़ती है। मंज़र लखनवी को इस बात का इल्म है। इसलिए उनकी ग़ज़लों में ऐसे जटिल या भारी-भरकम अल्फ़ाज़ नहीं दिखाई पड़ते हैं जो उनके बयान में अवरोधक का काम करें। उन्होंने सीधी सादी ज़बान और सरल शब्दों में सहजता से अपनी बात को ग़ज़लों में ढाल दिया है। 


बेतहाशा है कमाई आसमाँ छूते मक़ान, 

हो गए हैं क़द मक़ीनों के ही बौने आजकल।


गोद में पिल्ला लिए हैं नस्ल है पामेरियन

क्रेच में पलते हैं नन्हे मुन्ने छौने आजकल।


मंज़र लखनवी को आसान लफ़्जों में दिल को छू लेने वाली बात करने का हुनर आता है। इसलिए उन्हें काव्य मंचों पर भी बहुत मुहब्बत से सुना जाता है। पसंद किया जाता है। मंज़र की ग़ज़लें एहसास की कश्ती पर सवार होकर दिलों की झील तक बड़ी आसानी से पहुंच जाती हैं और पाठकों से अपना एक आत्मीय रिश्ता क़ायम कर लेती हैं। 


कोई जीते कोई हारे हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है, 

हमारा दिन निकल जाता है दो रोटी कमाने में।


जो हमसे कर रहे वादे पे वादा छह महीनों से, 

उन्हें दो दिन लगेंगे जीत कर वादा भुलाने से


नए ग़ज़ल संकलन 'जुबां आतिश उगलती है' के लिए मंज़र लखनवी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। मुझे पूरी उम्मीद है उनकी ग़ज़लें अदब की दुनिया में अपनी ख़ास पहचान बनाएंगी। 


देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126 


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हम हैं सूरजमुखी रात के : ग़ज़ल संग्रह

हम हैं सूरजमुखी रात के : ग़ज़ल संग्रह 

रत्नदीप खरे के ग़ज़ल संग्रह का नाम है- हम हैं सूरजमुखी रात के। रत्नदीप की ग़ज़लों में गांव का मौसम है, गांव की मिट्टी, पानी, हवा है। ऐसे देशज माहौल में उनके एहसास फूलों की तरह खिलते हैं और महकते हैं। रत्नदीप के पास हिंदी के तत्सम शब्दों की समृद्ध संपदा है। वे इस पूंजी से ग़ज़लों का गुलदस्ता सजाते हैं। इन ग़ज़लों में एक तरफ़ वक़्त की परवाज़ है और दूसरी तरफ़ रिश्तो के टूटने, बिखरने और जुड़ने की आवाज़ है- 


अभी भी माँ हिचकती ही नहीं है काम करने से 

भले ही हाथ से गिरकर कटोरा टूट जाता है


मेरी मां हो गई बूढ़ी, बना पाती न ख़ुद खाना

मगर कितना कहां लगता मसाला याद रहता है 


जिस दिन से जायदाद में हिस्सा नहीं रहा 

बेटा भी अपने बाप का बेटा नहीं रहा 


घर के बर्तन चुका रहे हैं कर्ज़ महाजन का कुछ ऐसे 

पहले लोटा निकला घर से, पीछे पीछे थाली निकली 


रत्नदीप का अपने माहौल से गहरा रिश्ता है। आसपास जो कुछ घटित हो रहा है उस पर उनकी निगाह है। ऐसे दृश्य, ऐसी घटनाएं बड़ी सहजता से उनकी रचनात्मकता के दायरे में आ जाती हैं- 


कोई जब पेड़ मरता है अकेले ही नहीं मरता

बहुत सारे परिंदों का बसेरा टूट जाता है


रियासत और मज़हब वो किराने की दुकानें हैं

जहां का माल भी महंगा, वज़न भी कम निकलता है

 

नहीं फ़ितरत बदलती है सियासत हो कि जंगल हो 

जो आदमख़ोर होता है वो आदमख़ोर होता है


रत्नदीप के यहां बाहर की दुनिया ज़्यादा है और दिल की दुनिया कम है। मगर जब भी वे दिल की गलियों में नज़र आते हैं और मुहब्बत पर कुछ कहने की पहल करते हैं तो वहां भी नया अंदाज़, नया तेवर दिखाई देता है-


महज इस बात पर दुनिया ने मुझको छोड़ रक्खा है 

कि मैंने छोड़ दी दुनिया तुम्हारे प्यार के आगे


दिशा निश्चित नहीं होती कभी फूलों की ख़ुशबू की 

ये चर्चा है मुहब्बत का ये चारों ओर होता है


रत्नदीप खरे की रचनात्मकता का कैनवास व्यापक है। उनकी ग़ज़लों में मज़हब और सियासत है तो देश और समाज के सवालात भी हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नाते हैं तो खेत, खलिहान, प्रकृति और परिंदे भी हैं। अपनी जीवंत भाषा के दम पर वे अपनी सोच को नया लिबास पहनाने में कामयाब होते हैं। नए रंग-रूप में ढली उनकी ग़ज़लें नयापन और ताज़गी के साथ सामने आती हैं। वस्तुतः यही उनकी उपलब्धि है। इस नए ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं रत्नदीप खरे को बधाई देता हूं। मुझे उम्मीद है कि रत्नदीप की ये किताब ग़ज़ल प्रेमियों तक पहुंचेगी और पसंद की जाएगी। 


बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह का मूल्य ₹250 है। बोधि प्रकाशन का सम्पर्क नंबर 98290 18087 है। इंदौर के मूल निवासी रत्नदीप खरे से आप 98260 43425 नम्बर पर संपर्क कर सकते हैं। 


आपका-

देवमणि पांडेय 


सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126