शायर क़तील शिफ़ाई के साथ पत्रकार धीरेंद्र अस्थाना और शायर देवमणि पांडेय
दर्द को मुहब्बत की ज़ुबान देने वाला शायर
बंगले के गेट से मैंने जावेद अख़्तर को निकलते हुए देखा। इस बंगले में शायर क़तील शिफ़ाई ठहरे हुए थे। उन्होंने सुबह दस बजे मुझे गपशप के लिए बुलाया था। क़तील शिफ़ाई ने बताया- जावेद अख़्तर ने उन्हें अपनी किताब 'तरकश' भेंट की और सॉरी कहा। मैंने पूछा- सॉरी किस बात की! वे बोले- तीस साल पहले लखनऊ की एक पत्रिका में मेरी एक नज़्म छपी थी। मुझे इत्तला किए बग़ैर उसी नज़्म से मुतास्सिर होकर उन्होंने एक फ़िल्म में गीत लिखा- एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। मेरी गुज़ारिश पर क़तील शिफ़ाई ने मुझे पूरी नज़्म सुनाई-
रक़्स करती हुई नर्तकी का बदन .,,
जैसे दीपक की लौ, जैसे नागिन का फन
जैसे मन में तड़प, जैसे वन में हिरन
जैसे चटके कली, जैसे लहके चमन
जैसे उमड़े घटा, जैसे फूटे किरन
जैसे आंधी उठे, जैसे भड़के अगन
जैसे पहलू में दिल, जैसे दिल में अगन
जैसे मुड़ती नदी, जैसे उड़ती पवन
जैसे तितली का पर, जैसे भंवरे का मन
जैसे बिरह का दुख, जैसे चोरी का धन
रक़्स करती हुई नर्तकी का बदन …
शायर क़तील शिफ़ाई की आंखों में एक ख़्वाब था- बॉलीवुड की हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखना। इस ख़्वाब की ताबीर के लिए वे हर साल पाकिस्तान से हिंदुस्तान आते थे। मुंबई में एक-दो महीना क़याम करते थे। यहां उनका एहतराम होता था। संगीत की दुनिया में उनकी उपलब्धियों से लोग वाक़िफ़ थे।
ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं,
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा
क़तील शिफ़ाई की इस नज़्म को मेहंदी हसन की आवाज़ में बेमिसाल लोकप्रियता मिली। जगजीत और चित्रा सिंह ने उनकी ग़ज़ल के ज़रिए मुहब्बत करने वालों को पैग़ाम दिया-
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के जिंदा रहूं ख़ुदा न करे
पंकज उधास की आवाज़ में क़तील शिफ़ाई के कलाम ने धूम मचाई- "मोहे आई न जग से लाज, मैं इतनी ज़ोर से नाची आज, कि घुंघरू टूट गए।" आज भी क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल संगीत के मंच पर श्रोताओं से दाद वसूल कर कर रही है-
चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल
एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल
फ़िल्म पेंटर बाबू में क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल पसंद की गई- "शाम ए ग़म कैसे ढली याद नहीं, कब तलक शम्मा जली याद नहीं।" कई साल पहले उनका एक नग़्मा किसी फ़िल्म में काफ़ी लोकप्रिय हुआ था-
तुम्हारी अंजुमन से उठके दीवाने कहां जाते
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहां जाते
क़तील शिफ़ाई का जन्म अविभाजित हिंदुस्तान में हुआ। विभाजन के बाद वे पाकिस्तान के हिस्से में पड़ गए। क़तील शिफ़ाई हिंदुस्तान वापस आना चाहते थे मगर उनके पैरों में मुहब्बत की ज़ंजीर पड़ी हुई थी। उदास लहजे में क़तील शिफ़ाई ने बताया- "विभाजन के बाद डेढ़ साल तक साहिर लुधियानवी पाकिस्तान में थे। वे आने लगे तो मैं उनके साथ मुम्बई आना चाहता था। मगर उस वक़्त एक लड़की से मेरा इश्क़ चल रहा था। लड़की अगर हिंदुस्तान आती तो यहाँ उसके लिए काफी़ ख़तरे थे। इश्क़ ने मुझे रोक लिया और मैं वहीं का वहीं रह गया।"
कैसे न दूँ ‘क़तील’ दुआ उसके हुस्न को
मैं जिस पे शेर कहके सुख़नवर बना रहा
सन् 1995 में राजकुमार रिज़वी ने अपनी बेटियों रूना और नेहा के जन्मदिन के मौक़े पर वर्सोवा में संगीत संध्या का आयोजन किया। यहां क़तील शिफ़ाई से मेरी पहली मुलाक़ात हुई। वे इस जलसे के ख़ास मेहमान थे। नाज़िम की हैसियत से मैंने सामयीन से उनका तअर्रुफ़ कराया और उनका शेर कोट किया-
प्यार करने को जो मांगा और हमने इक जनम
ज़िंदगी ने मुस्कुराकर हमको मर जाने दिया
क़तील शिफ़ाई और अभिनेता मनोज कुमार
मेरे दोस्त गीतकार पं राजदान ने अपने आवास पर गायिका सीमा सहगल के ग़ज़ल गायन का कार्यक्रम रखा था। वहां अचानक क़तील शिफ़ाई से फिर मुलाक़ात हो गई। संगीत के पहले कविता पाठ का दौर चला। भारत कुमार यानी अभिनेता मनोज कुमार ने भी कविता सुनाई। उन दिनों मनोज कुमार को भी कविताई का शौक़ पैदा हो गया था। लता मंगेशकर की आवाज़ में उनके भजनों का एक अल्बम बाज़ार में था। उनका एक भजन रेडियो और टीवी पर काफ़ी बज रहा था- साईं लव्स एव्रीबडी, एव्रीबडी लव्स साईं।
महफ़िल शुरू होने से पहले हाथों में जाम आ गए थे। क़तील साहब ने सबके सामने मनोज कुमार का नशा उतार दिया। बोले- मनोज कुमार, शायरी तुम्हारे बस की बात नहीं है। तुम अभिनेता हो, अपनी ही दुनिया में रहो तो बेहतर है। क़तील शिफ़ाई साहब की डांट का कुछ ऐसा असर रहा कि उसके बाद मनोज कुमार का कोई और अल्बम नहीं आया। 24 दिसम्बर 1995 को क़तील साहब ने खार के उस बंगले के टेरेस पर धूमधाम से अपना जन्मदिन मनाया जिसके ग्राउंड फ्लोर पर अभिनेत्री साधना रहती थीं। इस अवसर पर आयोजित संगीत संध्या में मुम्बई के एक दर्जन से अधिक गायकों ने क़तील शिफ़ाई की ग़ज़लें गाईं। इनमें राजकुमार रिज़वी, तलत अज़ीज़, अशोक खोसला, सीमा सहगल, विवेक प्रकाश आदि शामिल थे। इसी जलसे में क़तील शिफ़ाई की शागिर्द शायरा रश्मि बादशाह और तैयब बादशाह से मेरी मुलाक़ात हुई।
गीतकार पं राज दान की महफ़िल में ग़ज़ल पेश करते हुए गायिका सीमा अनिल सहगल। |
क़तील शिफ़ाई और शायरा रश्मि बादशाह
रश्मि बादशाह ज़हीन शायरा और प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं। कुछ बड़ी फ़िल्मों में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया। मगर उनको वह मुक़ाम हासिल नहीं हुआ जिसकी वे हक़दार थीं। अपने उस्ताद क़तील शिफ़ाई के साथ उनका एक रूहानी रिश्ता रहा है। उनके शौहर तैयब बादशाह भी इस रिश्ते का बहुत एहतराम करते थे। नफ़ीस उर्दू ज़बान बोलने वाली रश्मि बादशाह का मजमूआ पाकिस्तान से प्रकाशित हुआ। बाज़ौक़ लोगों ने उसे बहुत पसंद किया। चंद मुलाक़ातों में क़तील साहब से मेरा ऐसा दोस्ताना रिश्ता जुड़ गया कि वे जब भी मुंबई आते मुझे फ़ोन करते थे।
एक बार रश्मि बादशाह ने अपने घर पर क़तील साहब का जन्मदिन मनाया। उसमें अभिनेता दिलीप कुमार के छोटे भाई अहसन ख़ान भी मौजूद थे। यह दुखद सूचना है कि इसी महीने यानी सितंबर 2020 के शुरुआती दिनों में कोरोना से उनका इंतक़ाल हो गया। तैयब बादशाह सिने जगत के एक प्रतिष्ठित छायाकार थे। गुजिश्ता सदी के आख़िरी सालों में नई तकनीक के चलते बॉलीवुड में छायाकारों की ज़रूरत ख़त्म होने लगी। सन् 1998 में तैयब बादशाह और रश्मि बादशाह ने पंचगनी में 'पेट पुजारी' नामक एक रेस्टोरेंट शुरू किया। यह सिलसिला लंबा नहीं चला। 25 अक्टूबर 1999 को अचानक तैयब बादशाह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। अगले साल 20 मई 2000 को क़तील साहब पर पैरालसिस (फ़ालिज) का अटैक हुआ। अपने आख़िरी दिनों में वे बड़ी मुश्किल से बोल पाते थे। अगले साल 11 जुलाई 2001 को क़तील साहब ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
शायर क़तील शिफ़ाई के साथ उनकी शागिर्द शायरा रश्मि बादशाह
उस्ताद और जीवन साथी के गुज़रने के बाद रश्मि बादशाह एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थीं जिसके सामने कोई रास्ता, कोई मंज़िल नज़र नहीं आ रही थी। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। वहां एक शहर मुस्कुरा रहा था। रश्मि बादशाह मुम्बई छोड़कर अपने इस शहर कानपुर चली आईं। रश्मि जी ने मुझे फ़ोन पर बताया कि वे किस तरह अपने ग़म और तन्हाई से अकेले मुक़ाबला कर रही थीं। एक दिन एक उम्दा शायर और नेक दिल इंसान वेद प्रकाश शुक्ल 'संजर' रश्मि के दुख में शरीक़ हो गए। रश्मि बादशाह को अपना हमसफ़र मिल गया।
क़तील साहब जब मुंबई आते तो यहाँ के मुशायरों में भी शिरकत करते। उनके आमंत्रण पर मैं नेहरू सेंटर में उनको सुनने गया। उनकी अदायगी क़ाबिले तारीफ़ नहीं थी। उन्होंने जेब से एक काग़ज़ निकाला है और माइक पर खड़े होकर उसे पढ़ना शुरू कर दिया-
इस धरती के शेषनाग का डंक बड़ा ज़हरीला है
सदियां गुज़री आसमान का रंग अभी तक नीला है
दर्द को मुहब्बत की ज़ुबान देने वाला शायर
क़तील शिफ़ाई ने पाकिस्तान की दो सौ अधिक फ़िल्मों में गीत लिखे। एक दर्जन से अधिक भारतीय फ़िल्मों में भी उनके गीत शामिल हैं। महेश भट्ट की फिर तेरी कहानी याद आई, नाराज़, नाजायज़, तमन्ना आदि फ़िल्मों में उनके गीत हैं। फ़िल्मों में व्यस्तता के बावजूद वे लगातर ग़ज़लें भी लिखते रहे। क़तील साहब की बीस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी किताबों के नाम काफी़ दिलचस्प होते हैं, मसलन- हरियाली, गजर, जलतरंग, झूमर, छतनार, अबाबील, बरगद, घुंघरू, समंदर में सीढ़ी आदि।
क़तील शिफ़ाई ने दर्द को मुहब्बत की जु़बान देकर ज़िंदगी का सच बयान किया। उन्होंने सीधे सादे लफ़्ज़ों में गहरी बातें कीं। ग़ज़ल के साज़ पर धीमे सुर लगाए। इसलिए उनका नग़मा कभी बेसुरा नहीं हुआ। अपने एहसास के इज़हार के लिए उन्होंने हमेशा हलके रंगों का इस्तेमाल किया। इसलिए उनके नक़्श आँखों में खटकते नहीं।
शायरी के ज़रिए दुनिया को मुहब्बत का पैग़ाम देने वाले क़तील साहब ने मुझसे कहा था- हमारी सरकार हिंदुस्तान से आलू खरीदती है। मैं हिंदी सिनेमा में गीत लिखता हूँ। दोनों दोस्ती की बात है। मैं प्यार में साथ हूँ, नफ़रत में नहीं। जनता का काम प्रजातंत्र से ही चलेगा, फौ़जी ताक़त से नहीं। किसी भी मुल्क का जम्हूरियत के बिना गुजा़रा नहीं हो सकता। मुझे उम्मीद है कि एक दिन हमारे मुल्क में भी जम्हूरियत आएगी।
क्या पाकिस्तान में कठमुल्लापन हावी है ?
सन् 1995 में एक बातचीत में क़तील साहब ने स्वीकार किया कि पकिस्तान में कठमुल्लापन हावी है। वहाँ इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करके ज़िया उल हक़ साहब मुल्लाओं को अवाम के सिर पर तलवार की तरह लटका गए। जब वह दौर ख़त्म होगा, कट्टरपन और तानाशाही ख़त्म होगी, तो वहाँ इंसानियत वाला इस्लाम आएगा। जहाँ जम्हूरियत होगी, वहीं इस्लाम होगा। पाकिस्तान में मुल्लाओं वाला इस्लाम चल रहा है। मगर अंदर ही अंदर एक लावा भी खौल रहा है। इन्हें किसी दिन वह शिकस्त देगा। ज़िया साहब अपने फा़यदे के लिए मुल्लाओं को बहुत ताक़त दे गए हैं। मुल्लाओं में कुछ अच्छे लोग भी हैं, मगर उनकी संख्या आटे में नमक जितनी है। उनकी कोई सुनता नहीं।
अवाम में क़तील साहब की ज़बरदस्त लोकप्रियता को देखते हुए सन् 1994 में उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा अदबी अवार्ड ‘प्राइड ऑफ परफार्मेंस’ दिया गया। इसके तहत पचास हजा़र रूपए की धनराशि और गोल्डमेडल दिया जाता है। हिंदुस्तान में उन्हें अमीर ख़ुसरो अवार्ड से नवाज़ा गया।
सूबा सरहद पर एक गाँव है जिसे शहीद हरीसिंह नलवा ने आबाद किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम हरीपुर हजारा पड़ा। इस गाँव में 24 दिसंबर 1919 को क़तील शिफ़ाई का जन्म हुआ। हरिपुर अब शहर बन गया है। इसके एक मुहल्ले का नाम है मुहल्ला क़तील शिफ़ाई। लाहौर में 11 जुलाई 2001 को उनका इंतक़ाल हुआ। लाहौर की जिस गली में वे रहते थे उस गली का नाम रखा गया है- क़तील शिफ़ाई स्ट्रीट। फ़ज़ाओं में और हवाओं में अपनी शायरी के ज़रिए मुहब्बत की ख़ुशबू घोलने वाले क़तील शिफ़ाई की आख़िरी हसरत यही थी-
फैला है इतना हुस्न कि इस कायनात में
इंसां को बार-बार जनम लेना चाहिए
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126 devmanipandey.blogspot.com