रविवार, 27 सितंबर 2020

मुंबई के बॉलीवुड में शायर क़तील शिफ़ाई

शायर क़तील शिफ़ाई के साथ पत्रकार धीरेंद्र अस्थाना और शायर देवमणि पांडेय 

दर्द को मुहब्बत की ज़ुबान देने वाला शायर 

बंगले के गेट से मैंने जावेद अख़्तर को निकलते हुए देखा। इस बंगले में शायर क़तील शिफ़ाई ठहरे हुए थे। उन्होंने सुबह दस बजे मुझे गपशप के लिए बुलाया था। क़तील शिफ़ाई ने बताया- जावेद अख़्तर ने उन्हें अपनी किताब 'तरकश' भेंट की और सॉरी कहा। मैंने पूछा- सॉरी किस बात की! वे बोले- तीस साल पहले लखनऊ की एक पत्रिका में मेरी एक नज़्म छपी थी। मुझे इत्तला किए बग़ैर उसी नज़्म से मुतास्सिर होकर उन्होंने एक फ़िल्म में गीत लिखा- एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। मेरी गुज़ारिश पर क़तील शिफ़ाई ने मुझे पूरी नज़्म सुनाई- 


रक़्स करती हुई नर्तकी का बदन .,,
जैसे दीपक की लौ, जैसे नागिन का फन 

जैसे मन में तड़प, जैसे वन में हिरन 
जैसे चटके कली, जैसे लहके चमन 

जैसे उमड़े घटा, जैसे फूटे किरन 
जैसे आंधी उठे, जैसे भड़के अगन 

जैसे पहलू में दिल, जैसे दिल में अगन 
जैसे मुड़ती नदी, जैसे उड़ती पवन 

जैसे तितली का पर, जैसे भंवरे का मन 
जैसे बिरह का दुख, जैसे चोरी का धन 

रक़्स करती हुई नर्तकी का बदन … 

शायर क़तील शिफ़ाई की आंखों में एक ख़्वाब था- बॉलीवुड की हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखना। इस ख़्वाब की ताबीर के लिए वे हर साल पाकिस्तान से हिंदुस्तान आते थे। मुंबई में एक-दो महीना क़याम करते थे। यहां उनका एहतराम होता था। संगीत की दुनिया में उनकी उपलब्धियों से लोग वाक़िफ़ थे। 

ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, 
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा 

क़तील शिफ़ाई की इस नज़्म को मेहंदी हसन की आवाज़ में बेमिसाल लोकप्रियता मिली। जगजीत और चित्रा सिंह ने उनकी ग़ज़ल के ज़रिए मुहब्बत करने वालों को पैग़ाम दिया- 

वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे 
मैं तुझको भूल के जिंदा रहूं ख़ुदा न करे 

पंकज उधास की आवाज़ में क़तील शिफ़ाई के कलाम ने धूम मचाई- "मोहे आई न जग से लाज, मैं इतनी ज़ोर से नाची आज, कि घुंघरू टूट गए।" आज भी क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल संगीत के मंच पर श्रोताओं से दाद वसूल कर कर रही है- 

चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल 
एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल 

फ़िल्म पेंटर बाबू में क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल पसंद की गई- "शाम ए ग़म कैसे ढली याद नहीं, कब तलक शम्मा जली याद नहीं।" कई साल पहले उनका एक नग़्मा किसी फ़िल्म में काफ़ी लोकप्रिय हुआ था- 

तुम्हारी अंजुमन से उठके दीवाने कहां जाते 
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहां जाते 

क़तील शिफ़ाई का जन्म अविभाजित हिंदुस्तान में हुआ। विभाजन के बाद वे पाकिस्तान के हिस्से में पड़ गए। क़तील शिफ़ाई हिंदुस्तान वापस आना चाहते थे मगर उनके पैरों में मुहब्बत की ज़ंजीर पड़ी हुई थी। उदास लहजे में क़तील शिफ़ाई ने बताया- "विभाजन के बाद डेढ़ साल तक साहिर लुधियानवी पाकिस्तान में थे। वे आने लगे तो मैं उनके साथ मुम्बई आना चाहता था। मगर उस वक़्त एक लड़की से मेरा इश्क़ चल रहा था। लड़की अगर हिंदुस्तान आती तो यहाँ उसके लिए काफी़ ख़तरे थे। इश्क़ ने मुझे रोक लिया और मैं वहीं का वहीं रह गया।" 

कैसे न दूँ ‘क़तील’ दुआ उसके हुस्न को 
मैं जिस पे शेर कहके सुख़नवर बना रहा 

सन् 1995 में राजकुमार रिज़वी ने अपनी बेटियों रूना और नेहा के जन्मदिन के मौक़े पर वर्सोवा में संगीत संध्या का आयोजन किया। यहां क़तील शिफ़ाई से मेरी पहली मुलाक़ात हुई। वे इस जलसे के ख़ास मेहमान थे। नाज़िम की हैसियत से मैंने सामयीन से उनका तअर्रुफ़ कराया और उनका शेर कोट किया- 

प्यार करने को जो मांगा और हमने इक जनम 
ज़िंदगी ने मुस्कुराकर हमको मर जाने दिया 

क़तील शिफ़ाई और अभिनेता मनोज कुमार 

मेरे दोस्त गीतकार पं राजदान ने अपने आवास पर गायिका सीमा सहगल के ग़ज़ल गायन का कार्यक्रम रखा था। वहां अचानक क़तील शिफ़ाई से फिर मुलाक़ात हो गई। संगीत के पहले कविता पाठ का दौर चला। भारत कुमार यानी अभिनेता मनोज कुमार ने भी कविता सुनाई। उन दिनों मनोज कुमार को भी कविताई का शौक़ पैदा हो गया था। लता मंगेशकर की आवाज़ में उनके भजनों का एक अल्बम बाज़ार में था। उनका एक भजन रेडियो और टीवी पर काफ़ी बज रहा था- साईं लव्स एव्रीबडी, एव्रीबडी लव्स साईं। 
महफ़िल शुरू होने से पहले हाथों में जाम आ गए थे। क़तील साहब ने सबके सामने मनोज कुमार का नशा उतार दिया। बोले- मनोज कुमार, शायरी तुम्हारे बस की बात नहीं है। तुम अभिनेता हो, अपनी ही दुनिया में रहो तो बेहतर है। क़तील शिफ़ाई साहब की डांट का कुछ ऐसा असर रहा कि उसके बाद मनोज कुमार का कोई और अल्बम नहीं आया। 24 दिसम्बर 1995 को क़तील साहब ने खार के उस बंगले के टेरेस पर धूमधाम से अपना जन्मदिन मनाया जिसके ग्राउंड फ्लोर पर अभिनेत्री साधना रहती थीं। इस अवसर पर आयोजित संगीत संध्या में मुम्बई के एक दर्जन से अधिक गायकों ने क़तील शिफ़ाई की ग़ज़लें गाईं। इनमें राजकुमार रिज़वी, तलत अज़ीज़, अशोक खोसला, सीमा सहगल, विवेक प्रकाश आदि शामिल थे। इसी जलसे में क़तील शिफ़ाई की शागिर्द शायरा रश्मि बादशाह और तैयब बादशाह से मेरी मुलाक़ात हुई। 

गीतकार पं राज दान की महफ़िल में ग़ज़ल पेश करते हुए गायिका सीमा अनिल सहगल। 

क़तील शिफ़ाई और शायरा रश्मि बादशाह 

रश्मि बादशाह ज़हीन शायरा और प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं। कुछ बड़ी फ़िल्मों में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया। मगर उनको वह मुक़ाम हासिल नहीं हुआ जिसकी वे हक़दार थीं। अपने उस्ताद क़तील शिफ़ाई के साथ उनका एक रूहानी रिश्ता रहा है। उनके शौहर तैयब बादशाह भी इस रिश्ते का बहुत एहतराम करते थे। नफ़ीस उर्दू ज़बान बोलने वाली रश्मि बादशाह का मजमूआ पाकिस्तान से प्रकाशित हुआ। बाज़ौक़ लोगों ने उसे बहुत पसंद किया। चंद मुलाक़ातों में क़तील साहब से मेरा ऐसा दोस्ताना रिश्ता जुड़ गया कि वे जब भी मुंबई आते मुझे फ़ोन करते थे। 

एक बार रश्मि बादशाह ने अपने घर पर क़तील साहब का जन्मदिन मनाया। उसमें अभिनेता दिलीप कुमार के छोटे भाई अहसन ख़ान भी मौजूद थे। यह दुखद सूचना है कि इसी महीने यानी सितंबर 2020 के शुरुआती दिनों में कोरोना से उनका इंतक़ाल हो गया। तैयब बादशाह सिने जगत के एक प्रतिष्ठित छायाकार थे। गुजिश्ता सदी के आख़िरी सालों में नई तकनीक के चलते बॉलीवुड में छायाकारों की ज़रूरत ख़त्म होने लगी। सन् 1998 में तैयब बादशाह और रश्मि बादशाह ने पंचगनी में 'पेट पुजारी' नामक एक रेस्टोरेंट शुरू किया। यह सिलसिला लंबा नहीं चला। 25 अक्टूबर 1999 को अचानक तैयब बादशाह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। अगले साल 20 मई 2000 को क़तील साहब पर पैरालसिस (फ़ालिज) का अटैक हुआ। अपने आख़िरी दिनों में वे बड़ी मुश्किल से बोल पाते थे। अगले साल 11 जुलाई 2001 को क़तील साहब ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 

शायर क़तील शिफ़ाई के साथ उनकी शागिर्द शायरा रश्मि बादशाह 

उस्ताद और जीवन साथी के गुज़रने के बाद रश्मि बादशाह एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थीं जिसके सामने कोई रास्ता, कोई मंज़िल नज़र नहीं आ रही थी। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। वहां एक शहर मुस्कुरा रहा था। रश्मि बादशाह मुम्बई छोड़कर अपने इस शहर कानपुर चली आईं। रश्मि जी ने मुझे फ़ोन पर बताया कि वे किस तरह अपने ग़म और तन्हाई से अकेले मुक़ाबला कर रही थीं। एक दिन एक उम्दा शायर और नेक दिल इंसान वेद प्रकाश शुक्ल 'संजर' रश्मि के दुख में शरीक़ हो गए। रश्मि बादशाह को अपना हमसफ़र मिल गया। 

क़तील साहब जब मुंबई आते तो यहाँ के मुशायरों में भी शिरकत करते। उनके आमंत्रण पर मैं नेहरू सेंटर में उनको सुनने गया। उनकी अदायगी क़ाबिले तारीफ़ नहीं थी। उन्होंने जेब से एक काग़ज़ निकाला है और माइक पर खड़े होकर उसे पढ़ना शुरू कर दिया- 

इस धरती के शेषनाग का डंक बड़ा ज़हरीला है 
सदियां गुज़री आसमान का रंग अभी तक नीला है 

दर्द को मुहब्बत की ज़ुबान देने वाला शायर 

क़तील शिफ़ाई ने पाकिस्तान की दो सौ अधिक फ़िल्मों में गीत लिखे। एक दर्जन से अधिक भारतीय फ़िल्मों में भी उनके गीत शामिल हैं। महेश भट्ट की फिर तेरी कहानी याद आई, नाराज़, नाजायज़, तमन्ना आदि फ़िल्मों में उनके गीत हैं। फ़िल्मों में व्यस्तता के बावजूद वे लगातर ग़ज़लें भी लिखते रहे। क़तील साहब की बीस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी किताबों के नाम काफी़ दिलचस्प होते हैं, मसलन- हरियाली, गजर, जलतरंग, झूमर, छतनार, अबाबील, बरगद, घुंघरू, समंदर में सीढ़ी आदि। 

क़तील शिफ़ाई ने दर्द को मुहब्बत की जु़बान देकर ज़िंदगी का सच बयान किया। उन्होंने सीधे सादे लफ़्ज़ों में गहरी बातें कीं। ग़ज़ल के साज़ पर धीमे सुर लगाए। इसलिए उनका नग़मा कभी बेसुरा नहीं हुआ। अपने एहसास के इज़हार के लिए उन्होंने हमेशा हलके रंगों का इस्तेमाल किया। इसलिए उनके नक़्श आँखों में खटकते नहीं। 

शायरी के ज़रिए दुनिया को मुहब्बत का पैग़ाम देने वाले क़तील साहब ने मुझसे कहा था- हमारी सरकार हिंदुस्तान से आलू खरीदती है। मैं हिंदी सिनेमा में गीत लिखता हूँ। दोनों दोस्ती की बात है। मैं प्यार में साथ हूँ, नफ़रत में नहीं। जनता का काम प्रजातंत्र से ही चलेगा, फौ़जी ताक़त से नहीं। किसी भी मुल्क का जम्हूरियत के बिना गुजा़रा नहीं हो सकता। मुझे उम्मीद है कि एक दिन हमारे मुल्क में भी जम्हूरियत आएगी। 

क्या पाकिस्तान में कठमुल्लापन हावी है ? 

सन् 1995 में एक बातचीत में क़तील साहब ने स्वीकार किया कि पकिस्तान में कठमुल्लापन हावी है। वहाँ इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करके ज़िया उल हक़ साहब मुल्लाओं को अवाम के सिर पर तलवार की तरह लटका गए। जब वह दौर ख़त्म होगा, कट्टरपन और तानाशाही ख़त्म होगी, तो वहाँ इंसानियत वाला इस्लाम आएगा। जहाँ जम्हूरियत होगी, वहीं इस्लाम होगा। पाकिस्तान में मुल्लाओं वाला इस्लाम चल रहा है। मगर अंदर ही अंदर एक लावा भी खौल रहा है। इन्हें किसी दिन वह शिकस्त देगा। ज़िया साहब अपने फा़यदे के लिए मुल्लाओं को बहुत ताक़त दे गए हैं। मुल्लाओं में कुछ अच्छे लोग भी हैं, मगर उनकी संख्या आटे में नमक जितनी है। उनकी कोई सुनता नहीं। 

अवाम में क़तील साहब की ज़बरदस्त लोकप्रियता को देखते हुए सन् 1994 में उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा अदबी अवार्ड ‘प्राइड ऑफ परफार्मेंस’ दिया गया। इसके तहत पचास हजा़र रूपए की धनराशि और गोल्डमेडल दिया जाता है। हिंदुस्तान में उन्हें अमीर ख़ुसरो अवार्ड से नवाज़ा गया। 

सूबा सरहद पर एक गाँव है जिसे शहीद हरीसिंह नलवा ने आबाद किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम हरीपुर हजारा पड़ा। इस गाँव में 24 दिसंबर 1919 को क़तील शिफ़ाई का जन्म हुआ। हरिपुर अब शहर बन गया है। इसके एक मुहल्ले का नाम है मुहल्ला क़तील शिफ़ाई। लाहौर में 11 जुलाई 2001 को उनका इंतक़ाल हुआ। लाहौर की जिस गली में वे रहते थे उस गली का नाम रखा गया है- क़तील शिफ़ाई स्ट्रीट। फ़ज़ाओं में और हवाओं में अपनी शायरी के ज़रिए मुहब्बत की ख़ुशबू घोलने वाले क़तील शिफ़ाई की आख़िरी हसरत यही थी- 

फैला है इतना हुस्न कि इस कायनात में 
इंसां को बार-बार जनम लेना चाहिए 


आपका- 
देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126 devmanipandey.blogspot.com

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

मैं दीवाना बादल हूं : ग़ज़ल संग्रह

मैं दीवाना बादल हूं : ग़ज़ल संग्रह

युवा ग़ज़लकार विवेक बादल बाज़पुरी के ग़ज़ल संग्रह का नाम है- 'मैं दीवाना बादल हूं'। यह बादल फ़िक्र की वादियों से उठता है और एहसास की घटा बनकर दिल की बस्तियों पर बरसता है- 

भले हम जी रहे हैं तनहा भले हम हैं जुदाई में 
बुलाऊँगा मगर फिर भी तुझे अपनी सगाई में

किसी का तोड़ दूं मैं दिल मेरी हिम्मत नहीं होती 
कई ऐसे भी होते हैं मुझे हैरत नहीं होती

उत्तराखंड के जिला ऊधमसिंह नगर के क़स्बा बाज़पुर के निवासी हैं विवेक बादल। उनकी ग़ज़लें अपने आसपास के मंज़र में डोलती और रस घोलती दिखाई देती हैं। इन ग़ज़लों में दिल की नाज़ुक दुनिया है, रिश्ते नाते हैं और समाज की आंखों से झांकते सवाल हैं-

कहां से कब चले आते हैं ग़म आहट नहीं होती 
अगर मां साथ होती है तो घबराहट नहीं होती

नए नोटों के चेहरे भी वहम में डाल देते हैं 
यक़ीं होता नहीं ये नोट असली है कि जाली है

इसके साथ ही विवेक ने अपनी ग़ज़लों में उत्तराखंड की ख़ूबसूरत वादियों और दिलकश नजारों को भी पेश करने की क़ाबिले तारीफ़ कोशिश की है। उन्होंने नैनीताल पर कई ग़ज़लें कहकर अपने माहौल की ख़ुशबू को हम तक पहुंचाने का नेक काम भी किया है-

तितलियां फूल के घर का पता ख़ुशबू से पढ़ती हैं 
सभी सरगोशियां दिल की खुली तहरीर जैसी हैं

सुबह उठकर परिंदों की इबादत देख लेता हूं 
दरे मंदिर पे झुकता हूं तो जन्नत देख लेता हूं

दिल चुरा लेती है सबका झील नैनीताल की 
ख़ूबसूरत हैं फ़ज़ाएं यार मल्लीताल की

विवेक के पास जीवंत भाषा है। अच्छी विषयवस्तु है। अपनी बात को अपने अंदाज़ में पेश करने का सलीक़ा भी है। ग़ज़ल के रचना संसार में उन्होंने कुछ नया जोड़ने की कोशिश की है। कुछ शिल्पगत ख़ामियों के बावजूद विवेक की ग़ज़लें उम्मीद जगाती हैं। ग़ज़ल की दुनिया में उनका स्वागत है। उनका यह सुहाना सफ़र जारी रहे। इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएं।

मांडवी प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद से प्रकाशित इस किताब का मूल्य है 225 रूपए।
संपर्क : mandvi.prakashan@gmail.com
विवेक बादल बाज़पुरी : 75000-42420


आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063, 98210-82126
devmanipandey.blogspot.com

सोमवार, 21 सितंबर 2020

बॉलीवुड में संगीतकार कल्याणजी आनंदजी




संगीतकार कल्याणजी आनंदजी 

संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के स्टेज पर महानायक अमिताभ बच्चन लगातार बारह साल तक ठुमके लगाते रहे। आनंद जी ने बताया कि फ़िल्म ज़ंजीर की कामयाबी के बाद अमिताभ बच्चन उनके म्यूज़िकल ग्रुप के साथ जुड़ गए थे। इंग्लैंड और अमेरिका से लेकर दुनिया के कई देशों में संगीत के आयोजन होते थे। वेस्टइंडीज में बहुत प्रोग्राम होते थे। उस समय पूरी दुनिया में स्टेज प्रोग्राम बहुत लोकप्रिय थे। 

अमिताभ बच्चन की स्टेज पर स्पेशल एंट्री होती थी। वे डांस करते थे, गाना गाते थे, अपनी फ़िल्मों के संवाद बोलते थे। श्रोताओं के मनोरंजन के लिए अभिनेत्रियों से चटपटी बातचीत करते थे। हर साल की चर्चित अभिनेत्रियां ग्रुप में शामिल होती थीं। अमिताभ बच्चन उस समय मुकेश और किशोर कुमार के गाने गाते थे। "मेरी प्यारी बहिनिया बनेगी दुल्हनिया" गीत वे अपने हर शो में गाते थे। 

"मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है" फ़िल्म 'लावारिस' के इस गीत ने विदेश में बड़़ी धूम मचाई। इसे गाते समय अमिताभ बच्चन श्रोताओं की भीड़ में से गोरी, मोटी, छोटी, औरतों को स्टेज पर बुलाते। उनके साथ डांस करते तो दर्शक हंसते हंसते लोटपोट हो जाते। उस समय संगीत के ऐसे कार्यक्रमों में विदेशों में चालीस पचास हज़ार दर्शकों की भीड़ जुट जाती थी। बड़े बड़े स्क्रीन लगाए जाते थे। अभिनेता अभिनेत्रियों के डांस के समय उनके पीछे क़तार में बीस पच्चीस विदेशी डांसर डांस करते तो समां अद्भुत हो जाता था। उस समय संगीत के चैरिटी कार्यक्रम भी बहुत होते थे। सुरेश वाडेकर, कविता कृष्णमूर्ति, अलका याज्ञिक, साधना सरगम आदि ने स्टेज पर काफ़ी नाम कमाया। 

संगीतकार आनंदजी ने पत्नी के पैर छुए 

"हर कामयाब इंसान के पीछे एक नारी होती है और हर नाकामयाब इंसान के पीछे कई नारियां होती हैं"... मेरे इस जुमले पर तालियों की गड़गड़ाहट और ठहाकों से सभागार गूंज उठा। संगीतकार आनंदजी शाह और उनकी पत्नी शांता बेन मंच पर मौजूद थे। बतौर संचालक मैंने उनका परिचय कराते हुए यह जुमला जोड़ दिया। मालवा रंगमंच समिति के पुरस्कार की ट्राफी एक हाथ में पकड़कर दूसरे हाथ से आनंदजी ने अपनी पत्नी के पैर छू लिए। दर्जनों कैमरों में यह ख़ूबसूरत दृश्य क़ैद हो गया। अगले दिन हर अख़बार के पहले पेज पर यही तस्वीर छपी थी। 

सन् 2006 में संगीतकार आनंदजी शाह को उज्जैन के विक्रमादित्य सभागार में मालवा संगीत सम्मान से सम्मानित किया गया था। सुबह उन्होंने संस्था अध्यक्ष केशव राय से कहा- पांडेय जी को मेरे साथ मेरी कार में बैठाइए। पूरे दिन हम लोग गपशप करते रहे। उज्जैन के धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों का भ्रमण करते रहे। आनंदजी मेरे संचालन से प्रभावित थे। उन्होंने बैंगलोर में हो रहे अपने एक संगीत समारोह के संचालन के लिए मुझे आमंत्रित किया। यह विशाल कार्यक्रम कई हज़ार दर्शकों की मौजूदगी में बैंगलोर से चेन्नई जाने वाले हाईवे पर कृष्ण गिरि आश्रम में हुआ था। 

उन दिनों मैं नेपियन सी रोड के हैदराबाद स्टेट में रहता था। आनंदजी ने मुझे पेडर रोड स्थित अपने घर बुलाया। उनके विशाल ड्राइंग रूम के एक कोने में एक डाइनिंग टेबल है। उस पर आठ दस लोग एक साथ बैठ सकते हैं। उन्होंने बताया कि इसी टेबल पर बैठकर गीतकार इंदीवर, आनंद बख़्शी, अनजान, गुलशन बावरा आदि चाय नाश्ता करते थे। उस समय दस से छ: बजे एक ही शिफ्ट में रिकॉर्डिंग होती थी। लोग काम खत्म करके छ: बजे तक घर आ जाते थे। उस समय सबके पास फ़ोन नहीं था। इसलिए कई गीतकार फ़ोन किए बिना अचानक आ जाते थे। कल्याणजी आनंदजी ने सब को सम्मान दिया। उन्होंने सौ से अधिक गीतकारों के गीत रिकॉर्ड किए। 

किराना स्टोर के मालिक के संगीतकार बेटे 

गुरुवार 17 सितंबर 2020 को संगीतकार आनंदजी शाह से फ़ोन पर मेरी लंबी बातचीत हुई। मैंन आनंद जी से पूछा- क्या यह सच है कि एक संगीत गुरु ने आपके पिताजी का उधार न चुका पाने के बदले में आप दोनों भाइयों को संगीत सिखाया। आनंद जी ने कहा- यह क़िस्सा सच नहीं है। लोग मज़ा ले कर सुनाते हैं तो हम भी मना नहीं करते। हुआ यह कि एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार ने पूछा- आपके पिताजी दाल चावल बेचते थे। आपकी संगीत में कैसे दिलचस्पी पैदा हो गई। बड़े भाई कल्याणजी ने मज़ाकिया लहजे में जवाब दिया- हमारे मोहल्ले के संगीत गुरु पिताजी के दाल चावल की उधारी नहीं चुका पाए। बदले में पिताजी जी ने हम दोनों को उनके पास संगीत सीखने भेज दिया। यह क़िस्सा कई अख़बारों में छप गया। 

कच्छ से मुंबई आकर पिता वीरजी शाह ने गिरगांव में किराना स्टोर खोला। उन्होंने अपने बेटों को कभी किसी के पास संगीत सीखने के लिए नहीं भेजा। बेटों ने अपने माहौल से संगीत सीखा। मोहल्ले की हर गली में कलाकार थे। पिताजी ने कहा- अच्छा हो या बुरा हर संगीत ध्यान से सुनो और सीखो। कल्याणजी आनंदजी ने हिंदी, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि सभी तरह का संगीत सुना और सीखा। ये भाषाएं वे बोल भी लेते हैं। वे गांव जाते थे तो लोक संगीत सुनते थे। उस समय मुम्बई में गणपति के पंडालों में दस दिन तक बहुत अच्छे संगीत के कार्यक्रम होते थे। गरबा के दिनों में गुजराती संगीत की धूम मच जाती थी। 

संगीत के माहौल में बेटे बड़े हो रहे थे। ग्यारह साल की उम्र में आनंदजी ने अपने मोहल्ले के एक संगीत गुरु के बारे में सुना कि वे तबला बहुत अच्छा सिखाते हैं। वे ख़ुद ही उनके पास चले गए। गुरुजी ने आनंदजी के सामने थाल में आटा गूंथने के लिए रख दिया। वे बोले- आटा गूंथने से उंगलियां मज़बूत होती हैं। तबला वादन के लिए उंगुलियों का मज़बूत होना ज़रूरी है। आनंदजी को उनका सिखाना अच्छा लगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा- अच्छे तबला वादन के लिए गायन भी आना चाहिए। आनंदजी ने गाने का अभ्यास शुरू कर दिया। इस तरह पांच भाइयों में से तीन भाइयों कल्याणजी, आनंदजी और बाबला ने अपने मोहल्ले में अपने प्रयास से संगीत सीख लिया। 

सगाई किसी से और शादी किसी से 

आनंदजी के अनुसार अच्छे गीत हमेशा अच्छे थॉट पर रचे जाते हैं। फ़िल्म डॉन के निर्देशक चंद्रा साहब (चंद्र बरोट) एक महीने के लिए अमेरिका जा रहे थे। उनकी मंगनी हो गई थी। उन्होंने आनंदजी को बताया कि अमेरिका से लौटकर शादी करेंगे। एक महीने बाद वे लौटकर आए। पता चला कि जिस लड़की की उंगली में उन्होंने अंगूठी पहनाई थी उसने किसी और के नाम की मेंहदी हथेलियों में रचाई थी। वे बोले- आनंदजी, क़समें-वादे, प्यार-वफ़ा ये सिर्फ़ बातें हैं। इन बातों का कोई मतलब नहीं होता। यह थॉट आनंदजी को अपील कर गया। उन्होंने इंदीवर को फ़ोन किया। इस थॉट पर इंदीवर ने एक गीत रच दिया-

क़समे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या 
कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या 

मनोज कुमार की फ़िल्म 'उपकार' (1967) में इस गीत को बेहद पसंद किया गया। मनोज कुमार की फ़िल्म 'पूरब पश्चिम' (1970) में भी कल्याणजी आनंदजी का संगीत सुपर हिट हुआ।
 
संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के साथ इंदीवर के अच्छे रिश्ते थे। राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फ़िल्म 'सरस्वती चंद्र' (1968) के लिए वे लिखकर लाए थे- "चांदी सा बदन चंचल चितवन, धीरे से तेरा वो मुस्काना।" आनंदजी ने कहा- चांदी और सोना नहीं चलेगा। कुछ और चाहिए। इंदीवर ने 'चांदी' हटाकर "चंदन सा बदन" कर दिया। 'खइके पान बनारस वाला' फेम गीतकार अनजान (लालजी पांडेय) के सुपुत्र समीर से मैंने पूछा- संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के साथ आपके पिता अनजान के कैसे संबंध थे! समीर ने झट से कहा- वे मेरे पिता के अन्नदाता हैं। संगीतकार कल्याणजी आनंदजी की फ़िल्मों- दो अनजाने (1976), ख़ून पसीना (1977), गंगा की सौगंध (1978), डॉन (1978), मुक़द्दर का सिकंदर (1978) और लावारिस (1981) आदि में अनजान के गीतों को बेहद लोकप्रियता हासिल हुई। 

मेरा जीवन कोरा काग़ज़ : एमजी हश्मत 

संगीतकार कल्याणजी आनंदजी की टीम में एक ऐसा म्यूज़िशियन था जो झगड़ा लड़ाने में माहिर था। उसने एक दिन इंदीवर से कहा- गुलशन बावरा बस के टिकट पर गीत लिखकर लाता है और उसको दस हज़ार दिया जाता है। आप इतना अच्छा गीत लिखते हैं मगर आपको पांच हज़ार दिया जाता है। इंदीवर ने फ़ोन किया- आनंद जी, मैं गीत तभी लिखूंगा जब आप मुझे एक गीत का दस हज़ार भुगतान करेंगे। इससे कम पेमेंट हो तो आप मुझे मत बुलाइएगा। 

इंदीवर ने संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के यहां आना बंद कर दिया और कई सालों से संघर्षरत गीतकार एमजी हश्मत ने आना शुरू कर दिया। फ़िल्म "कोरा काग़ज़" (1974) की बैठक चल रही थी। निर्देशक अनिल गांगुली ने पूछा- आप गीत किससे लिखवाएंगे। आनंदजी बोले- ये गीतकार एमजी हश्मत हैं। यही लिखेंगे।

फ़िल्म कोरा काग़ज़ का शीर्षक गीत "मेरा जीवन कोरा काग़ज़ कोरा ही रह गया" दुख भरा गीत है। इस गीत में एक ऐसे अंतरे की ज़रूरत थी जो दुख में भी रहे और फ़िल्म के अंत में सुख का संकेत भी बन जाए। एमजी हश्मत काफ़ी देर से बैठे सोच रहे थे। कोई रास्ता नहीं निकल रहा था। अचानक आनंदजी को एक गुजराती सुविचार याद आया। वे उछल पड़े- मिल गया। एमजी हश्मत ने आश्चर्य से उनकी तरफ़ देखा। आनंद जी बोले- 'दुख के अंदर सुख की ज्योति'। बस इसी लाइन पर एमजी हश्मत ने वो अंतरा लिख दिया जो दुख में भी काम आया और सुख में भी काम आया- 

दुख के अन्दर सुख की ज्योती 
दुख ही सुख का ज्ञान 
दर्द सहके जन्म लेता 
हर कोई इंसान 
वो सुखी है जो ख़ुशी से दर्द सह गया 
मेरा जीवन कोरा कागज़...

फ़िल्म "कोरा काग़ज़" की लोकप्रियता ने गीतकार एमजी हश्मत को कामयाबी और पहचान दे दी। इसके साथ ही एमजी हश्मत की क़िस्मत के बंद दरवाज़े खुल गए। बतौर गीतकार उन्हें 'कोरा काग़ज़' के लिए फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। फ़िल्म तपस्या, भीगी पलकें, आदि में भी उनके गीत काफ़ी पसंद किए गए। उन्होंने कई फिल्मों के संवाद लिखे और फ़िल्म 'इंसाफ़ की जंग' का निर्देशन भी किया। 

गीतकार एमजी हश्मत को अभिनेता सुनील दत्त काफ़ी पसंद करते थे। उनके संघर्ष को देखते हुए सुनील दत्त ने उन्हें दस हज़ार रूपये प्रतिमाह वेतन पर अपने ऑफिस में सहायक रख लिया। एमजी हश्मत का काम बस इतना ही था कि सुनील दत्त के प्रशंसकों के चुनिंदा पत्रों का जवाब देना। उस समय की फ़िल्म पत्रिकाओं में सितारों के पते छपते थे। पूरे देश से हर महीने प्रशंसकों के बहुत सारे पत्र आ जाते थे। 

आप जैसा कोई मेरी ज़िंदगी में आए 

फ़िल्म 'ज़ंजीर' (1973) के समय एक रोचक घटना हुई। सरकार ने निश्चित समय सीमा वाली फ़िल्मों के लिए सब्सिडी घोषित कर दी। प्रकाश मेहरा ने यह सब्सिडी पाने के लिए अपनी फ़िल्म में काट छांट करने का फ़ैसला किया। इसके लिए कई फ़िल्मी पंडितों और समीक्षकों के साथ चर्चा हुई मगर रास्ता नहीं निकला। अंततः प्रकाश मेहरा ने यार दोस्तों के लिए फ़िल्म 'ज़ंजीर' का एक विशेष शो किया। इसमें संगीतकार कल्याणजी आनंदजी भी मौजूद थे। 

फ़िल्म के शो के बाद एडिटिंग के लिए राय पूछी गई। आनंदजी ने झट से कहा- शुरू की दो रीलें हटा दीजिए। यह सुनकर प्रकाश मेहरा उछल पड़े। शुरू की दो रीलों में नायक विजय (अमिताभ बच्चन) का बचपन दिखाया गया था। इसे हटा देने से फ़िल्म पर कोई असर नहीं पड़ा। संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के साथ निर्देशक प्रकाश मेहरा का आत्मीय रिश्ता बन गया। प्रकाश मेहरा की सुपरहिट फ़िल्मों- 'हाथ की सफाई' (1974), 'हेरा फेरी' (1976) 'मुक़द्दर का सिकंदर' (1978) 'लावारिस' (1981) आदि में कल्याणजी आनंदजी ने यादगार संगीत दिया। 

निर्माता-निर्देशक फ़िरोज़ ख़ान की धर्मात्मा, क़ुर्बानी आदि फ़िल्मों के संगीत में कल्याणजी आनंदजी ने नए प्रयोग किए। फ़िल्म 'क़ुर्बानी' का गीत "आप जैसा कोई मेरी ज़िंदगी में आए" पाकिस्तानी गायिका नाज़िया हसन की आवाज़ में रिकॉर्ड किया। पूरी दुनिया में इस गीत ने धूम मचा दी। कुछ समय बाद कैंसर से नाज़िया हसन का इंतक़ाल हो गया। इस गीत के लिए नाज़िया हसन को आज भी याद किया जाता है। 

मेरे देश की धरती सोना उगले 

फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन की बैठकों में गुलशन बावरा से मेरी कई बार मुलाक़ात हुई। दुबले पतले गुलशन बावरा मज़ाक़िया स्वभाव के हँसमुख इंसान थे। अपने इसी गुण के कारण उन्हें कई फ़िल्मों में अभिनय का भी काम मिला। कैरियर की शुरुआत में ही संगीतकार कल्याणजी आनंदजी की फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार' (1957) में गुलशन बावरा का गीत लोकप्रिय हो गया- 'तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे'। 

संगीतकार आनंद जी शाह के अनुसार गुलशन बावरा बहुत क़िस्मत वाले गीतकार थे। हर फ़िल्म में उनका कोई न कोई गीत लोकप्रिय हो जाता था। फ़िल्म 'ज़ंजीर' (1973) में "दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए" उनका लिखा गीत उन्हीं पर फ़िल्माया गया और ख़ूब लोकप्रिय हुआ। इसी फ़िल्म में उनका गीत "यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी" सुपर हिट हुआ। इस गीत के लिए उन्हें फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। 

बनी बनाई धुन पर फ़िल्म 'उपकार' के लिए गुलशन बावरा गीत लिखकर लाए- मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती। यह सुनकर कल्याण जी भड़क गए। बोले- यह उगले उगले क्या है? इससे उल्टी की बू आती है। गुलशन बावरा ने काफ़ी कोशिश की। मगर 'उगले' को बदलने के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिला। 

आनंदजी ने अपने बड़े भाई कल्याणजी से कहा- भाई साहब, इस गीत की धुन बहुत अच्छी है, इस गीत की चाल बहुत अच्छी है, इस गीत का संगीत संयोजन कमाल का है। इस गीत को सुनते हुए किसी का भी ध्यान 'उगले की तरफ़ नहीं जाएगा। कल्याणजी मान गए। फ़िल्म 'उपकार' (1967) में गुलशन बावरा का यह गीत "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती" आज भी बेहद लोकप्रिय है। इसे सर्वश्रेष्ठ गीत का 'फ़िल्मफेयर अवार्ड' मिला। 

आनंद जी का कहना है कि ये लोग चुपचाप काम करने वाले इंसान थे। इंदीवर हों या अनजान सबने अच्छा काम किया। ये लोग पब्लिसिटी के पीछे नहीं भागे। आज किसी गीतकार या सिंगर का एक गीत हिट हो जाता है तो वे पब्लिसिटी के लिए न जाने कहां-कहां दौड़ते हैं। हमने जो कुछ किया ईमानदारी से किया। उसे दर्शकों ने पसंद किया। यही हमारे लिए पुरस्कार है।
 

चित्र : मुंबई की सांस्कृतिक निर्देशिका संस्कृति संगम के लोकार्पण समारोह में (बाएं से) - नवभारत टाइम्स मुंबई के तत्कालीन संपादक शचींद्रनाथ त्रिपाठी, उद्योगपति रानी पोद्दार, गायक पंकज उधास, संगीतकार आनंदजी शाह (कल्याणजी आनंदजी फेम) संपादक देवमणि पांडेय, समाजसेवी सुरेंद्र गाड़िया और नवभारत टाइम्स मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार भुवेंद्र त्यागी। (2009)

मुशायरे में मुकर्रर और इरशाद 

आनंदजी के बड़े भाई कल्याणजी बड़े मज़ाकिया स्वभाव के थे। उनके बारे में कई रोचक क़िस्से प्रचलित हैं। एक बार कल्याणजी के पास नेहरू सेंटर में होने वाले मुशायरे का आमंत्रण आया। उनको कुछ ज़रूरी काम आ गया। वे नहीं जा सके। उन्होंने अपनी जगह अपनी पत्नी को भेज दिया। पत्नी वापस आई तो कल्याणजी ने मुशायरे का हालचाल पूछा। पत्नी ने जवाब दिया- मुशायरा बहुत अच्छा था। मगर दो शायर नहीं आए थे। लोग बार-बार उन्हीं का नाम लेकर चिल्ला रहे थे। शोर मचा रहे थे। कल्याण जी ने पूछा कौन से शायर? पत्नी ने भोलेपन से कहा- मुकर्रर और इशाद। 

संगीतकार आनंदजी सीधे सरल इंसान हैं। कोई चीज़ पसंद आ जाए तो दिल खोलकर तारीफ़ करते हैं। एक दिन मैं उनसे मिलने उनके घर गया। वे बोले- मैं "तारक नाथ का उल्टा चश्मा" सीरियल देख रहा था। ये जो नौजवान है मेहता, इसने अपने देश के बारे में बहुत बढ़िया बातें कहीं। मैंने उन्हें बताया कि शैलेश लोढ़ा मेरे दोस्त हैं। मैंने तुरंत शैलेश को फ़ोन किया और आनंदजी से बात कराई। शैलेश ने सीरियल के एक विशेष एपिसोड में आनंदजी को बतौर मुख्य अतिथि बुलाया। आनंदजी फ़िल्म सिटी में इस सीरियल के सेट पर गए और पूरी टीम को आशीर्वाद देकर आए। 

2 मार्च 1933 को जन्मे 87 साल के आनंदजी शाह अपने घर परिवार के साथ स्वस्थ और सुखी जीवन बिता रहे हैं। प्रसन्नता की बात यह है कि दक्षिण मुम्बई के जिस इलाक़े में आनंदजी रहते हैं उसी इलाक़े में उनके बेटे दीपक आनंद और बेटी भी रहते हैं। कोरोना के मौसम में भी बेटा और बेटी अपने बच्चों के साथ उनसे मिलने के लिए आते रहते हैं। उनका परिवार उनकी ऊर्जा है। उनकी पत्नी शांता बेन हंसमुख स्वभाव की, सीधी सरल और परिवार का बेहद ध्यान रखने वाली महिला हैं। हमारी हार्दिक कामना है कि आनंद जी हमेशा सेहतयाब रहें और इसी तरह हंसते मुस्कुराते रहें। 


आपका- 
देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210-82126 
devmanipandey.blogspot.com 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

स्त्री के प्रेम से वंचित ग़ज़ल के अभागे शायर


हिंदी ग़ज़ल में प्रेम पर पीएचडी

दिल्ली के एक शायर मिर्ज़ा साहब ने मशहूर शायर दाग़ देहलवी से पूछा- आप मुहब्बत की शायरी करते हैं। मैं भी मुहब्बत की शायरी करता हूं। आपको ज़बरदस्त दाद मिलती है। मुझे नहीं मिलती। इसका क्या कारण है ? जवाब में दाग़ देहलवी ने उनसे तीन सवाल किए। 

पहला : क्या आपने किसी की याद में अपनी रातों की नींद हराम की है ? मिर्ज़ा साहब बोले- कभी नहीं। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। 

दूसरा : क्या आपने उन कोठों पर जाकर घुंघरुओं की झंकार सुनी है जहां शराफ़तें जाने से घबराती हैं ? मिर्ज़ा साहब ने कान पकड़ लिए- लाहौल विला कूवत, मैं शादीशुदा इज़्ज़तदार आदमी हूं। 

तीसरा : क्या आप रोज़ अपनी शाम को जाम से आबाद करते हैं ? मिर्ज़ा साहब बोले- मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाता। 

दाग़ देहलवी बोले- मिर्ज़ा साहब, आप बीवी को देखकर शायरी करेंगे तो यही हाल होगा। 

इस लोक कथा से आप समझ गए होंगे कि अच्छे शायर की संरचना में किन महत्वपूर्ण चीज़ों का योगदान होता है। मुहब्बत के इलाक़े में दाग़ साहब ने कैसे कैसे कारनामे किए थे, बस ये दो शेर पढ़कर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं-

दिल को थामा उनका दामन थाम के 
हाथ निकले अपने दोनों काम के 

गश खाकर दाग़ यार के क़दमों में गिर पड़ा 
बेहोश ने भी काम किया होशियार का


हिंदी ग़ज़ल में प्रेम पर पीएचडी 

बलरामपुर (उत्तर प्रदेश) में हमारे एक दोस्त हैं डॉ प्रकाश चंद्र गिरि। वे एक कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष हैं। अपने एक विद्यार्थी को शोध के लिए उन्होंने विषय दिया- हिंदी ग़ज़ल में प्रेम। एक दिन प्रकाश जी का फ़ोन आया। बोले- पांडेय जी, 'हिंदी ग़ज़ल में प्रेम' विषय पर पीएचडी करवाने के लिए मैंने 40 हिंदी ग़ज़लकारों की किताबें ख़रीदीं। हैरत की बात यह है कि कई शायरों के यहां प्यार मुहब्बत पर दो शेर भी नहीं मिले। अचानक मुझे आपकी किताब मिल गई- 'अपना तो मिले कोई'। यह देख कर मैं बहुत खुश हूं कि आपके यहां तो 50% से भी अधिक ग़ज़लें प्यार मुहब्बत की हैं। 

मैंने कहा प्रकाश जी मैंने मुहब्बत की है। इसलिए मैं मुहब्बत पर लिखता हूं। जिस परम्परा से हमें ग़ज़ल हासिल हुई है उसमें कहा जाता है कि बिना मुहब्बत के शायरी कैसी। मीर ओ ग़ालिब से लेकर फ़ैज़ और फ़िराक़ जैसे बड़े बड़े शायरों ने मुहब्बत पर शायरी करके हमारे सामने एक मिसाल क़ायम की। 


फ़िराक़ गोरखपुरी की मुहब्बत

फ़िराक़ साहब इलाहाबाद के सिविल अस्पताल में रोग शय्या पर पड़े हुए थे। एक दिन मुस्कुराहटों का कारवां लिए हुए कोई आया और उसने उनका मिज़ाज पूछा। फ़िराक़ साहब को ज़िंदगी मिल गई। उन्होंने उसी दिन बिस्तर पर लेटे लेटे 'शाम ए अयादत' नज़्म कही- 

यह कौन आंख पड़ रही है मुझ पर इतने प्यार से
वह भूल सी, वह याद सी कहानियां लिए हुए

यह किसकी महकी-महकी सांसें ताज़ा कर गईं दिमाग़
शबों से राज़ शबनमों की नरमियां लिए हुए

यह किन निगाहों ने मेरे गले में बाहें डाल दी
जहान भर के दु:ख से, दर्द से अमां लिए हुए

निगाह-ए-यार दे गई मुझे सकून-ए-बे-करां
वह बे कही वफ़ाओं की गवाहियां लिए हुए 

फ़िराक़ साहब ने अपनी किताब 'रूह ए कायनात' की भूमिका में लिखा है- सन् 1941 में मेरा जीवन एक नई घटना से परिचित हुआ। यह वह समय है कि जब मेरे जीवन में एक ऐसी विभूति प्रविष्ट हुई जिसके सामीप्य ने सन् 1942 के अंत में एक घनिष्ठ प्रेम का रूप धारण कर लिया। फ़िराक़ साहब ने अपनी यह किताब उसे समर्पित करते हुए एक और नज़्म लिखी- 'महबूब ए शाम ए अयादत'। 

इस नज़्म में उन्होंने अदभुत क़ाफ़ियों का इस्तेमाल किया। कुछ पंक्तियाँ देखिए-

सरस नर्म संगीत इक इक अदा में
सितारों की पिछले पहर गुनगुनाहट

झलक रूप की शबनमी पैरहन में
हज़ारों चराग़ों की यह जगमगाहट

वो हर आन अंगड़ाई आई हुई सी
वह हर लहज़ कुछ जिस्म में कसमसाहट

पसे ख़्वाब पहलू ए आशिक़ से उठना
धुले सादा जोड़े की वो मलगजाहट

इन अशआर में देख ले अक्स अपना
वो हर मिसरा ए तर में है रसमसाहट

मिर्ज़ा गालिब तो प्रेम में इतने उतावले थे कि अपना राज़ ए मुहब्बत बता कर अपने दोस्त को अपना रक़ीब बना डाला- 

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना 
बन गया रक़ीब आख़िर जो था राज़दां अपना 

कविता और कहानी से ग़ायब होता प्रेम 

एक बार मशहूर जनवादी कवि शील जी मुंबई आए थे। उन्होंने इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर किया कि जनवादी कविता और कहानी से प्रेम ग़ायब हो गया है। कुछ साल पहले उर्दू के मशहूर आलोचक गोपीचंद नारंग ने भी कहा था- ग़ज़ल में पत्रकारिता बहुत आ गई है और प्रेम ग़ायब हो गया है। 

स्त्री तो सृष्टि की अनुपम और जीवंत कलाकृति है। उसके सम्मान में सृजन करना फ़न और हुनर की कसौटी है। हिंदी ग़ज़ल के नाम पर क्रांति करने वालों को यह सोचना चाहिए कि क्या साहित्य में प्रेम को जगह नहीं है। स्त्री के पावन सौंदर्य को उदघाटित करने वाले तीन शायरों की लाजवाब मंज़रकशी देखिए- 

निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़ 
गुलों ने और भी शबनम से ताज़गी पाई - (गुलाम रब्बानी ताबां) 

भरी दोपहर में खिला फूल है 
पसीने में लड़की नहाई हुई - (डॉ बशीर बद्र) 

किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम 
किसी का हाथ उट्ठा है और अलकों तक चला आया - (दुष्यंत कुमार)

पत्नी को बेहद प्रेम करने वाले तुलसीदास ने 'रघुनाथ गाथा' स्वांतः सुखाय लिखी थी। उसे साहित्य में एक महाकाव्य का दर्जा मिला। ज़रूरी यही है कि अपनी ग़ज़ल पहले अपने लिए लिखी जाए। अगर उसमें कशिश होगी तो पूरी दुनिया उसे स्वीकार करेगी। नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया ने ग़ज़ल पर केंद्रित 'प्रेम विशेषांक' निकाला था। उसकी रिकॉर्ड बिक्री हुई थी। इसका मतलब यह हुआ कि साहित्य का पाठक प्रेम को पसंद करता है। प्रेम से दूर भागने की बजाय ग़ज़लकारों को चाहिए कि प्रेम को अपने जीवन में उतारें। 

अंत में आप सबके लिए पेश है कॉलेज की स्मृतियों के आधार पर लिखी गई मेरी यह ग़ज़ल। 

उसने मुझको हँसकर देखा और तनिक शरमाई भी 
लूट लिया दिल शोख़ अदा ने वो मेरे मनभाई भी 

पलक झपकते हुआ करिश्मा ख़ुशबू जागी आंखों में 
साथ हमारे महक उठी है आज बहुत पुरवाई भी 

ये रिश्ता है नाज़ुक रिश्ता इसके हैं आदाब अलग 
ख़्वाब उसी के देख रहा हूँ जिसने नींद उड़ाई भी 

छलनी दिल को जैसे तैसे हमने आख़िर रफ़ू किया 
मगर अभी तक कुछ ज़ख़्मों की बाक़ी है तुरपाई भी 

प्यार-मुहब्बत की राहों पर चलकर ये महसूस हुआ 
परछाईं बनकर चलती है साथ-साथ रुसवाई भी 

उसकी यादों की ख़ुशबू से दिल कुछ यूं आबाद रहा 
मैं भी ख़ुश हूं मेरे घर में और मेरी तनहाई भी 

आपका- 

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126

बुधवार, 16 सितंबर 2020

मुंबई के बॉलीवुड में फ़िल्म लेखक के के सिंह













राम तेरी गंगा मैली के संवाद लेखक के के सिंह 

लखनऊ से आए हुए नौजवान कृष्ण कुमार उर्फ़ के के सिंह को राज कपूर ने फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के संवाद लेखन की ज़िम्मेदारी सौंप दी। के के सिंह के पास किसी फ़िल्म में संवाद लेखन का कोई अनुभव नहीं था। ये हैरत की बात इसलिए थी कि उन दिनों राज कपूर के यहां हिंदी के चर्चित कथाकार और दूरदर्शन के प्रथम धारावाहिक 'हम लोग' के लेखक मनोहर श्याम जोशी का काफ़ी आना-जाना था। 

राज कपूर बेहद पारखी कलाकार थे। जब पत्नी उम्मीद से थी तब आर्थिक मदद के लिए शैलेंद्र उनके पास गए। फ़िल्म 'बरसात' के सारे गीत लिखे जा चुके थे। शैलेंद्र ने किसी फ़िल्म में कभी कोई गीत नहीं लिखा था। मगर राज कपूर को उनकी प्रतिभा पर यक़ीन था। इसलिए हसरत जयपुरी के दो गीत हटाकर राज कपूर ने शैलेंद्र के दो गीत 'बरसात' में शामिल किए। 

बी.ए. पास करके आंखों में फ़िल्म लेखन का सपना सजाए नौजवान के के सिंह जब लखनऊ से मुंबई पहुंचे तो राज कपूर फ़िल्म 'प्रेम रोग' की योजना बना रहे थे। निर्देशक तनुजा चंद्रा की मां कामना चंद्रा की लघु कहानी 'प्रेम रोग' किसी पत्रिका के चंद पृष्ठों पर प्रकाशित थी। राज कपूर के मार्गदर्शन में के के सिंह ने इसे फ़िल्म कथा के रूप में विकसित किया। फ़िल्म लेखक जैनेंद्र जैन ने इसकी पटकथा और संवाद लिखे। 

सन् 1982 में प्रदर्शित 'प्रेम रोग' एक सुपर हिट फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में राज कपूर के सहायक बनकर के के सिंह ने निर्देशन का हुनर भी सीखा। आगे चलकर के के सिंह ने सलमान ख़ान और दिव्या दत्ता अभिनीत फ़िल्म 'वीरगति' (1995) का निर्माण, निर्देशन एवं लेखन ख़ुद किया। 



लखनऊ के पांच सितारा होटल में सम्वाद लेखन 

फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' की पटकथा के के सिंह को सौंपते हुए राज कपूर ने कहा- तुम हिंदुस्तान के किसी भी शहर में, किसी भी हिल स्टेशन पर, किसी भी होटल में जहां तुम्हारी मर्ज़ी हो जाओ और संवाद लिखकर लाओ। के के सिंह ने अपने गृह नगर लखनऊ के पांच सितारा होटल क्लार्क्स अवध में जाने की ख़्वाहिश जताई। राज कपूर ने कमरा बुक करा दिया। होटल क्लार्क्स अवध में के के सिंह दो महीने तक राम तेरी गंगा मैली के संवाद लिखते रहे। काम पूरा करके वे मुंबई लौट आए। 

अगले दिन शाम को आर के स्टूडियो में राज कपूर उनके सामने विराजमान थे। के के सिंह ने संवाद पढ़ना शुरू किया। राज कपूर झूले पर बैठ कर हाथ में जाम लिए चुपचाप सुनते रहे। के के सिंह ने दो ढाई घंटे में सारे संवाद पढ़ डाले। दोनों के दरमियान सन्नाटा पसर गया। पांच मिनट तक राज कपूर कुछ नहीं बोले। के के सिंह उनकी ख़ामोशी से डर गए। अचानक राज कपूर के होठों से एक वाक्य उछल पड़ा- "इसमें पहाड़ों की ख़ुशबू नहीं है।" के के सिंह ने झट से जवाब दिया "पहाड़ों के नाम पर मैंने सिर्फ़ खंडाला देखा है।" राज कपूर झूले से उतरे। बोले- घर जाओ। 

कश्मीर में राज कपूर, के के सिंह, और रवींद्र जैन 

सुबह दरवाज़े की घंटी बजी। एक आदमी ने के के सिंह को लिफाफा थमाया- इसमें एयर टिकट है। आपको दिल्ली होते हुए कश्मीर पहुंचना है। के के सिंह ने पूछा- और राज साहब? आदमी बोला- वे तो रात में ही चले गए। एक साधारण कोट पहनकर के के सिंह श्रीनगर पहुंचे। जब वे होटल की लॉबी में पहुंचे तो हाथ पैर ठंड से जैसे जम गए थे। मुंह से धुआं (वाष्प) निकल रहा था। राज कपूर ने उनके लिए गर्म कपड़ों का इंतज़ाम कराया। 

कई दिन तक राज कपूर के साथ के के सिंह कश्मीर की वादियों में प्रकृति के अनुपम दृश्य देखते रहे। बीस दिन बाद अचानक संगीतकार रवींद्र जैन अवतरित हुए। राज कपूर के बुलावे पर वे यह उम्मीद लेकर आए थे कि कश्मीर में 'राम तेरी गंगा मैली' की म्यूज़िक सिटिंग होगी। तीन दिन तक राज साहब उन्हें घुमाते रहे। गीत संगीत की कोई बात नहीं की। चौथे दिन संगीतकार रवींद्र जैन बेक़ाबू हो गए। बोल पड़े- राज साहब म्यूज़िक सिटिंग कब शुरू करेंगे। 

रवींद्र जैन उन दिनों रामानंद सागर के धारावाहिक 'रामायण' का संगीत तैयार कर रहे थे। राज साहब ने "मंगल भवन अमंगल हारी" गाकर रविंद्र जैन की अद्भुत नकल पेश की। फिर हंसकर बोले- मेरी फ़िल्म के गीत संगीत पर इसकी परछाईं नज़र नहीं आनी चाहिए। मैं चाहता हूं कि तुम रामायण की दुनिया से बाहर निकलो। कश्मीर की वादियों में घूमो और पहाड़ों की ख़ुशबू महसूस करो। 

एक महीने बाद कश्मीर से वापसी हुई। के के सिंह ने खुली आंखों से और रवींद्र जैन ने बंद आंखों से पहाड़ों का हुस्न देखा। इस अनुभव और एहसास का करिश्मा ये था कि 'राम तेरी गंगा मैली' फ़िल्म के संवादों में और गीत संगीत में शामिल पहाड़ों की ख़ुशबू को दर्शकों ने भी महसूस किया। 

हमेशा औरत ही बांझ नहीं होती 

फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' राज कपूर की आख़िरी फ़िल्म थी। फ़िल्म 'हिना' का सपना रणधीर कपूर ने पूरा किया। राज कपूर के साथ के के सिंह ने संवाद लेखन का हुनर सीखने के साथ ही शराब पीना और रातों में जागना सीखा। रात में जागना और दिन में सोना उनकी आदत बन गई। के के सिंह रोज़ शाम को अपनी कार में शाम की सैर के लिए निकलते थे। चेंबूर की गलियों में ड्राइवर धीरे-धीरे चक्कर लगाता रहता। कार की सीट पर बैठे बैठे के के सिंह वोदका का एक क्वार्टर ख़त्म कर लेते और घर लौट आते। इस तरह वे रोज़ अकेले अपनी शाम को आबाद करते थे। 

राज कपूर के परिवार के साथ के के सिंह के रिश्ते हमेशा अच्छे रहे। एक दिन आर के स्टूडियो में ऋषि कपूर से उनका सामना हो गया। ऋषि कपूर बोले- सिंह साहब, अच्छा हुआ आप मिल गए। मैंने सौ से ज़्यादा लेखकों की कहानियां सुनी। मुझे एक भी कहानी पसंद नहीं आई। आपसे मुझे एक कहानी चाहिए। के के सिंह मुंहफट थे। उन्होंने झट से जवाब दिया- अगर किसी दंपत्ति को बच्चा पैदा नहीं होता तो हमेशा औरत ही बांझ नहीं होती। मर्द भी नपुंसक हो सकता है। ऋषि कपूर बोले- आपकी बात मेरी समझ में नहीं आई। के के सिंह ने जवाब दिया - दो चार दिन सोचो, समझ में आ जाएगी। 


के के सिंह को फ़िल्म फेयर अवार्ड 

के के सिंह ने निर्देशक मेहुल कुमार की फ़िल्म 'तिरंगा' (1993) और 'क्रांतिवीर' (1994) को अपने रोचक संवादों से लोकप्रिय बनाया। 'क्रांतिवीर' के संवाद लेखन के लिए उन्हें फ़िल्म फेयर अवार्ड से नवाज़ा गया। वे दोस्ती और बिजनेस को हमेशा अलग रखते थे एक फ़िल्म के संवाद लेखन के लिए उनका 10 लाख फिक्स रेट था। आधी रकम वे अग्रिम लेते थे। फाइनल स्क्रिप्ट के समय बकाया धनराशि लेकर ही स्क्रिप्ट देते थे। 

निर्देशक मेहुल कुमार ने एक बार भुगतान के लिए टालमटोल किया। के के सिंह ने उनका चेक बैंक में डाल दिया। चेक बाउंस हो गया। के के सिंह ने लीगल नोटिस भेज कर मेहुल कुमार पर केस कर दिया। इस जुर्म में मेहुल कुमार को सज़ा हो गई। एक दिन उन्हें जेल में बिताना पड़ा। यह फ़िल्म जगत में मेहुल कुमार के अंजाम की इब्तदा थी। जहां तक मुझे याद है इसके बाद मेहुल कुमार ने तीन फ़िल्में घोषित की थीं मगर कोई रिलीज़ नहीं हुई। 

फ़िल्म राइटर से फाइटर तक के के सिंह 

के के सिंह बेहद ग़ुस्सैल इंसान थे। बिग बी की तरह उनकी आंखों में झट से लाली उतर आती थी। एक बार उन्होंने अंडरवर्ल्ड से जुड़े एक निर्माता की फ़िल्म लिखी। उसने बकाया राशि का भुगतान नहीं किया और स्क्रिप्ट मांगने लगा। के के सिंह ने फाइनल स्क्रिप्ट देने से से मना कर दिया। कहा- एक हाथ से पैसा दीजिए दूसरे हाथ से स्क्रिप्ट ले जाइए। उसने देख लेने की धमकी दी। 

शाम को चेंबूर में के के सिंह के लेक व्यू बंगले के गेट पर चार पांच गुंडे दिखाई पड़े। के के सिंह बंदूक लेकर छत पर आ गए और गालियां देने लगे। उन्होंने गुंडों को ललकारा- जाकर अपने बाप से पूछो कि के के सिंह कौन है। दोबारा दिखाई पड़े तो उड़ा दूंगा। उनका उग्र रूप देखकर गुंडे डर गए और चले गए। अंडरवर्ल्ड से जुड़े निर्माता ने पता किया तो मालूम पड़ा कि के के सिंह बिहार के बाहुबली सूरजभान सिंह के मौसी के बेटे हैं। निर्माता ने उनसे माफ़ी मांगी। बकाया रकम देकर अपनी पटकथा ले गया। 
मौत के आग़ोश में गीतकार कुलवंत जानी 

सन् 2004 से 2008 तक मैं फ़िल्म राइटर एसोसिएशन की मैनेजिंग कमेटी का सदस्य था। हमारे एक सदस्य गीतकार अभिलाष ने अपने दोस्त गीतकार कुलवंत जानी से ब्याज पर क़र्ज़ लिया था। ब्याज की वसूली के लिए कुलवंत जानी उनके साथ पठानों जैसा सलूक करने लगे। गीतकार अभिलाष ने एसोसिएशन से प्राण रक्षा की लिखित अपील की। यह दो सदस्यों के बीच एक व्यक्तिगत मामला है या नहीं, यह तय करने के लिए डिस्प्यूट सेटेलमेंट कमेटी की बैठक में बतौर अतिथि के के सिंह को आमंत्रित किया गया। के के सिंह ने गीतकार अभिलाष के पक्ष में निर्णय सुनाया। गीतकार कुलवंत जानी के बर्ताव को लेखकीय गरिमा के प्रतिकूल बताते हुए के के सिंह ने उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की। कमेटी ने कुलवंत जानी को एसोसिएशन की सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिया। भारीभरकम काया वाले दबंग गीतकार कुलवंत जानी इस झटके को झेल नहीं सके। हृदयाघात हुआ और वे सीधे मौत के आग़ोश में चले गए। 


निर्देशक महेश मांजरेकर की फ़िल्म पिता 

के के सिंह ने निर्देशक महेश मांजरेकर की फ़िल्म 'पिता' (2002) के संवाद लिखे। संवाद लेखन की बकाया धनराशि देने से मांजरेकर ने मना कर दिया। जैसा कि के के सिंह ने मुझे बताया, अभिनेता संजय दत्त ने महेश मांजरेकर से कहा- "मेरे पास डायलॉग याद करने का टाइम नहीं है। तू मुझे सीन बता, मैं डायलॉग ख़ुद बोल देता हूं।" मांजरेकर का कहना था कि जब डायलॉग का उपयोग नहीं हो रहा है तो मैं भुगतान क्यों करूं। 

के के सिंह ने फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन की डिस्प्यूट सेटेलमेंट कमेटी में मांजरेकर पर केस कर दिया। कमेटी ने के के सिंह के पक्ष में फ़ैसला दिया। मांजरेकर ने एसोसिएशन का फ़ैसला मानने से इंकार कर दिया। एसोसिएशन ने यह केस अपनी पैरंट बॉडी फ़िल्म फेडरेशन के पास भेज दिया। आनंद स्टूडियो में मांजरेकर के फ़िल्म की डबिंग चल रही थी। फेडरेशन के आदेश पर स्टूडियो के कर्मचारी काम छोड़कर बाहर निकल आए। डबिंग रुक गई। अंतत: महेश मांजरेकर ने बकाया धनराशि का भुगतान किया। 

निर्देशक सुनील सुदर्शन की कई फ़िल्मों के संवाद के के सिंह ने लिखें। फ़िल्म 'एक रिश्ता : दि बॉन्ड ऑफ लव' उनकी सुपरहिट फ़िल्म थी। सन् 2004 में फ़िल्म राइटर एसोसिएशन के मुशायरे में मुझे सुनकर के के सिंह ने घर बुलाया। उन्होंने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि मैं सुनील दर्शन की फ़िल्म 'बरसात : ए सब्लाइम लव स्टोरी' में उन्हें असिस्ट करूं। मैंने मैंने उनका प्रस्ताव मान लिया। के के सिंह भगवान शिव के भक्त थे। अपनी इसी भक्ति के चलते उन्होंने नासिक के त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के पास एक फ्लैट ख़रीद रखा था। इसी फ्लैट में दस दिन रह कर हम लोगों ने फ़िल्म 'बरसात' का काम पूरा किया। सुनील दर्शन को जो फाइनल स्क्रिप्ट सौंपी गई वह मेरी हस्तलिपि में है। 
जल्दी ऊपर चले गए के के सिंह 

'दोस्ती' (2005), 'मेरे जीवन साथी' (2006) आदि फ़िल्में लिखने के बाद सन् 2011 में के के सिंह का हृदयाघात से आकस्मिक निधन हो गया। जहां तक मुझे याद है उनकी उम्र सिर्फ़ 57 साल थी। के के सिंह चपाती कभी-कभार खाते थे। चावल रोज़ खाते थे। गरमा गरम चावल में बड़ी चम्मच से चार पांच चम्मच देसी घी डालते थे। सब्ज़ी में भरपूर लाल मिर्च होती थी। वे सुबह 4:00 बजे के बाद सोते थे। रात भर समाचार, जुर्म और अपराध के सीरियल देखते थे। उनकी इस दिनचर्या ने उनका वज़न काफ़ी बढ़ा दिया था। मैंने कई बार खानपान के साइड इफेक्ट की तरफ़ उनका ध्यान दिलाया। वे हर बार हंस कर जवाब देते- यार ज़्यादा जी कर करेंगे क्या! परिवार में उनकी पत्नी और दो बेटे हैं। 

के के सिंह में संवाद लेखन का अद्भुत हुनर था। वे बंद आंखों से पूरी फ़िल्म देख लेते थे। इसके बाद वे धाराप्रवाह सम्वाद बोलना शुरू कर देते थे। पहले दृश्य से लेकर आखिरी दृश्य तक कोई काग़ज़ देखे बिना वे इस अंदाज़ में संवाद बोलते थे जैसे उन्हें अपनी फ़िल्म के सारे संवाद ज़बानी याद हों। 

वे ऐसे स्वाभिमानी राइटर थे जो ज़रूरत पड़ने पर फाइटर की भूमिका में भी आ जाते थे। फ़िल्मी पार्टियों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे अपने घर की दुनिया में हमेशा मस्त रहे। उन्होंने कभी अपनी पब्लिसिटी पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने 25 साल के कैरियर में 25 फ़िल्में लिखकर शानदार पारी खेली। उन्होंने हमेशा अपनी शर्तों पर काम किया। दीपक की लौ अगर ज़्यादा तेज़ हो तो उसके बुझने का ख़तरा भी अधिक होता है। ऐसा ही के के सिंह के साथ हुआ। वे बड़ी जल्दी ऊपर चले गए। 

आपका- 
देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, 
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, 
मुम्बई-400063, M : 98210 82126 
devmanipandey.blogspot.com 

रविवार, 13 सितंबर 2020

कला वसुधा : प्रदर्शनकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका

कला वसुधा :  नाट्यालेख प्रसंग पर केंद्रित


लखनऊ से प्रकाशित होने वाली 'कला वसुधा' त्रैमासिक प्रदर्शनकारी कलाओं की महत्वपूर्ण पत्रिका है। इसका जनवरी-जून 2020 का संयुक्तांक नाट्यालेख प्रसंग पर केंद्रित है। 364 पृष्ठों पर प्रस्तुत इस विपुल सामग्री में साहित्य के कई कालखंड समाहित हैं। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कला वसुधा के इस अंक में देश के 31 नाटककारों की रचनाओं का प्रकाशन किया गया है। इनमें मौलिक, अनूदित और रूपांतरित तीनों तरह के नाटक शामिल हैं। नाट्य प्रेमियों और रंग कर्मियों के लिए एक साथ 31 हिंदी नाटकों का तोहफ़ा बेहद सराहनीय कार्य है। विभिन्न विषयों पर आधारित इन नाटकों में जीवन के सभी पक्ष शामिल हैं। इनमें तीन नाट्यालेख लोक नाट्य शैली का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।

हिंदी की पहली आधुनिक कहानी के रूप में मशहूर भुवनेश्वर की बहुचर्चित कहानी भेड़िए (1936) का नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया है। पूर्वरंग में कुछ बोध कथाएं और लोक कथाएं जोड़कर उन्होंने इस कहानी को मंचानुकूल और असरदार बना दिया है। अंततः यह प्रस्तुति इस स्थापना तक पहुंचती है कि भेड़िया हम सब के भीतर भी होता है।

कथाकार विभा रानी का एकल नाटक बिंब प्रतिबिंब दो वास्तविक स्त्रियों के जीवन की अविस्मरणीय कथा पर आधारित है। समाज के मौजूदा ताने बाने में यह नाटक स्त्रियों के दुख और यातना की मार्मिक अभिव्यक्ति है।

वरिष्ठ कथाकार डॉ नरेंद्र कोहली के उपन्यास शूर्पणखा का नाट्य रूपांतरण ज़फ़र संजरी ने किया है। इस नाट्यालेख में शूर्पणखा के संवाद काफ़ी रोचक हैं। बहुआयामी संवादों के ज़रिए यह नाटक आधुनिक परिदृश्य से अपना रिश्ता जोड़ लेता है।

मुंबई के हिंदी रंगमंच की दशा और दिशा पर शशांक दुबे का शोधपरक आलेख एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। मुंबई महानगर के प्रमुख रंग समूहों और उनके प्रमुख नाटकों का ज़िक्र करते हुए शशांक नाटकों की वर्तमान स्थिति का आकलन करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जलता हुआ दिया हूं मगर रोशनी नहीं।

हिंदी रंग परिदृश्य और नाट्यालेखन पर हृषिकेश सुलभ का महत्वपूर्ण आलेख मौजूदा रंगकर्म से जुड़े कई अहम् मुद्दे लेकर कर सामने आया है। आज़ादी के बाद जिन रचनाकारों ने नाटक और रंगमंच को अपने सृजन से समृद्ध किया उनके योगदान को उन्होंने रेखांकित किया है। साहित्य की विभिन्न विधाओं के समानांतर नाटक की यात्रा का आकलन भी उन्होंने पेश किया है।

हिंदी साहित्यकार नाट्यालेखन के प्रति उदासीन क्यों हैं? इसकी पड़ताल करते हुए सुलभ जी इस मुद्दे पर पहुंचते हैं कि रंगमंच के क्षेत्र में निर्देशक का दंभ और दख़ल ज़रूरत से ज़्यादा है। लेखक को दूसरे दर्जे की नागरिकता देकर निर्देशक अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। इससे कई साहित्यकारों ने नाट्यालेखन से तोबा कर ली है।

सुलभ जी के अनुसार आज अधिकांश निर्देशक परियोजना आधारित रंगकर्म कर रहे हैं। आनन-फ़ानन में कुछ भी मंचित कर धन सहेज लेने की प्रवृत्ति भी कुछ निर्देशकों को नाटककार बनने के लिए विवश करती है। यह एक गैर रचनात्मक और भयावह स्थिति है। हिंदी रंगमंच को इससे उबरना होगा।

कोरोना वायरस के इस कठिन समय में अपनी सार्थक सामग्री के साथ कला वसुधा हमारे सामने एक उम्मीद रोशन करने में कामयाब हुई है। नाट्यालेख प्रसंग पर ऐसी अद्भुत सामग्री उपलब्ध कराने के लिए प्रधान संपादक शाखा बंद्योपाध्याय, संपादक डॉ उषा बनर्जी, संपादकीय सहयोगी कुमार अनुपम और पूरी टीम को बहुत-बहुत बधाई। कला वसुधा का वेब अंक आप www.notnul पर पढ़ सकते हैं। सम्पर्क का पता है-

संपादक : कला वसुधा त्रैमासिक, सांझी-प्रिया, बी-8, डिफेंस कॉलोनी, तेली बाग़, लखनऊ-226029
+918052557608, +919889835202,  kalavasudha01@gmail.com

इस अंक का मूल्य : 200 रूपए

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आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063, 98210-82126
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शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

हिंदी सिनेमा में हिंदी : वर्तमान और भविष्य

अमिताभ बच्चन

हिंदी सिनेमा : किस हाल में है हिंदी 

अमिताभ बच्चन ने सुबह 9:30 बजे मिलने का समय दिया था। अमित जी समय के बहुत पाबंद हैं। इसलिए हम सुबह 9:00 बजे फ़िल्मसिटी स्टूडियो पहुंच गए। स्टूडियो के हेलीपैड पर एक बंगला बना हुआ था। इस बंगले में फ़िल्म ‘आंखें’ की शूटिंग थी। ठीक 9:15 बजे अमित जी की मिनी बस यानी वैन बंगले के गेट पर पहुंच गई। वैन के आगे सहारा के सुरक्षा रक्षक थे। वैन के पीछे वाली जीप में सरकारी सुरक्षा मुस्तैद थी। अमित जी सफ़ेद रंग का पठानी सूट पहने हुए थे। उन्हें हमारे आने की सूचना दी गई। 

अमित जी ने मुस्कुराकर हाथ मिलाया। उनकी आंखों की चमक अदभुत है। पत्रकार दोस्त उपेंद्र राय और मैं सामने वाले सोफ़े पर बैठ गए। अमित जी ने चाय मंगाई। हमने चाय पी। उन्होंने घर से लाया हुआ पानी पिया। राइटिंग पैड पर बाएं हाथ से सुंदर हस्तलिपि में अमित जी ने हिंदी में लिखा- "मेरी हार्दिक कामना है कि माननीय अटल बिहारी वाजपेई और मुशर्रफ़ साहब की वार्ता सफल हो।" अमित जी का यह हस्तलिखित संदेश दिल्ली के एक दैनिक अख़बार में परवेज़ मुशर्रफ़ के भारत आगमन पर 14 जुलाई 2001 को प्रकाशित होना था। 

  

श्याम बेनेगल : हिंदी लिखना पढ़ना नहीं आता ! 

फ़िल्मसिटी स्टूडियो से निकलकर हम श्याम बेनेगल से मिलने उनके ताड़देव स्थित ऑफिस में गए। सीधे सादे विनम्र बेनेगल जी ने बड़ी मुहब्बत से बातचीत की। उपेंद्र राय ने उनके सामने राइटिंग पैड रखा तो वे बोले- मैं हिंदी बोल लेता हूं, समझ लेता हूं, मगर मैं हिंदी लिख नहीं सकता, पढ़ नहीं सकता। मैंने कहा- मैं हिंदी में एक लाइन लिख देता हूं। आप उसे देख कर लिख दीजिए। वे बोले- मैं देख कर भी नहीं लिख पाऊंगा। फिर उन्होंने मुझसे कहा- पांडेय जी, मेरी तरफ़ से आप लिख दीजिए। मैंने उनकी तरफ़ से हिंदी में शुभकामना संदेश लिख दिया। 

श्याम बेनेगल को हिंदी नहीं आती मगर हिंदी सिने जगत में उनका योगदान बेमिसाल है। उनकी फ़िल्मों के बिना हिंदी सिनेमा का इतिहास नहीं लिखा जा सकता। मुझे लगता है कि इंसान को भाषा की तराजू पर तोलने के बजाय उसकी रचनात्मकता का आकलन होना चाहिए। यह देखना चाहिए कि किसी ख़ास कला माध्यम में उसकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है। 

श्याम बेनेगल की मातृभाषा तेलगू है। अशोक मिश्र उनके प्रिय लेखक हैं। अशोक मिश्र अपनी सभी स्क्रिप्ट हिंदी में लिखते हैं। फाइनल स्क्रिप्ट अंग्रेज़ी में यानी रोमन में टाइप करा कर बेनेगल जी को देते हैं। यह एक तकनीकी ज़रूरत है। अशोक मिश्र ने श्याम बेनेगल के लिए फ़िल्म ‘समर’ की पटकथा बुंदेलखंडी में और ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ की पटकथा बघेलखंडी में लिखी। अशोक मिश्र का कहना है कि श्याम बेनेगल को हिंदी भाषा से काफ़ी लगाव है। वे पूरी स्क्रिप्ट हिंदी में सुनते हैं। देशज शब्दों पर चर्चा करके उसे समझते हैं। श्याम बेनेगल की ‘ज़ुबेदा’ और ‘मम्मो’ फ़िल्में उर्दू में लिखी गईं थी। इस बात की तारीफ़ की जानी चाहिए कि हिंदी न जानने वाले श्याम बेनेगल ने हिंदी सिनेमा में बेमिसाल योगदान किया है। 

फ़िल्म लेखक अशोक मिश्र
विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा का उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व सत्यजीत_रे ने किया। सत्यजीत रे को हिंदी नहीं आती थी मगर उन्होंने हिंदी में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सदगति’ फ़िल्में बनाईं। मेरे दोस्त जावेद सिद्दीक़ी को उन्होंने संवाद लेखन के लिए कोलकाता बुलाया। जावेद जी ने बताया कि सत्यजीत रे ने 'शतरंज के खिलाड़ी' की पटकथा अंग्रेजी में लिखी थी। वे सिर्फ़ अंग्रेज़ी और बांग्ला में ही सारा काम करते थे। यहां तक कि वे हिंदी का एक वाक्य भी नहीं बोल पाते थे। उन्हें हिंदी का बस एक ही शब्द याद था- बढ़िया। सत्यजीत रे ने साबित किया कि बिना हिंदी जाने भी हिंदी सिनेमा में बढ़िया योगदान किया जा सकता है। 

सिने जगत में हिंदी का हाल 

फ़िल्म जगत के कई कलाकार हिंदी लिख पढ़ नहीं पाते। फिर भी हिंदी सिनेमा में उन्होंने अतुलनीय लोकप्रियता अर्जित की। अभिनेत्री रेखा ने ताउम्र अंग्रेज़ी में लिखे हुए हिंदी संवाद बोलकर अच्छी अभिनेत्री होने का सबूत दिया। अभिनेत्री श्रीदेवी को हिंदी सीखने में तीन साल लग गए। तब तक हिंदी की सुपरहिट फ़िल्मों में हमें उनके जो मोहक संवाद सुनाई पड़े वे सलमा नाम की लड़की की आवाज़ में डब किए गए थे। 

सवाल यह है कि अगर हिंदी को देवनागरी के साथ अंग्रेज़ी की रोमन लिपि में भी लिखा जाए तो क्या ग़लत है। फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय का कहना है कि हर भाषा अपनी लिपि के साथ ही अच्छी लगती है। हिंदी को रोमन में और देवनागरी लिपि में लिखकर आप सामने रखिए। फ़र्क़ नज़र आएगा। हमारे दिमाग़ में देवनागरी लिपि में लिखे गए शब्दों की एक छवि होती है। इस छवि में जीवन के विविध रंग और भावनाएं शामिल होती हैं। उन्हीं शब्दों को रोमन लिपि में देखकर दिल में वैसी भावना जागृत नहीं होती। 

पहले कई फ़िल्म लेखक और निर्देशक बांग्ला भाषी थे। वे अंग्रेज़ी में स्क्रीनप्ले लिखते थे मगर संवाद के लिए उर्दू शायर की तलाश करते थे। शायर अख्त़रुल ईमान और अबरार अल्वी से लेकर सलीम जावेद तक हिंदी सिनेमा की बहुत सारी स्क्रिप्ट उर्दू लिपि में लिखी गई। अधिकांश गीतकार भी उर्दू स्क्रिप्ट में गीत लिखते थे। उर्दू स्क्रिप्ट से कभी किसी को तकलीफ़ नहीं हुई क्योंकि फ़िल्मों के कई निर्माता निर्देशक भी उर्दू स्क्रिप्ट पढ़ लेते थे। 

अंग्रेज़ी किताबें पढ़ने वाले गोविंद निहलानी 

हमारे पुस्तक विक्रेता मित्र ने बताया कि गोविंद निहलानी ने उनकी दुकान से एक साल में हिंदी की अस्सी किताबें ख़रीद़ी। वह सन् 2004 का समय था। निहलानी जी अमिताभ बच्चन को लेकर फ़िल्म #देव बना रहे थे। मैं राजकमल स्टूडियो में उनसे मिलने गया। मैंने पूछा कि आप एक साल में हिंदी की कितनी किताबें पढ़ लेते हैं। गोविंद निहलानी ने बड़ी ईमानदारी से जवाब दिया- "मैं हिंदी की किताबें नहीं पढ़ता। मैं सिर्फ़ अंग्रेज़ी किताबें पढ़ता हूँ। मेरे पास आठ लोगों की एक टीम है। मैं हिंदी की किताबें ख़रीद कर उनको बांट देता हूँ। वे पढ़कर मुझे उसका सारांश बता देते हैं। अगर कोई सीन पावरफुल हुआ तो उसे पढ़कर मुझे सुना देते हैं।" 

मैंने सतीश कौशिक की स्क्रिप्ट देखी है। वे अपने हाथ से हिंदी में लिखते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक के समय मैंने गुलज़ार की स्क्रिप्ट देखी। वह उर्दू में टाइप थी। शूटिंग के संकेत अंग्रेज़ी में लिखे हुए थे। फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय कंप्यूटर पर हिंदी में अपनी स्क्रिप्ट टाइप करते हैं। इसके लिए वे फाइनल ड्राफ्ट नामक एक ऐप का इस्तेमाल करते हैं। उसमें देवनागरी लिपि और रोमन लिपि दोनों में लिखने की सुविधा है। दृश्य का वर्णन कमलेश जी रोमन लिपि में लिखते हैं मगर सारे संवाद देवनागरी लिपि में लिखते हैं। 

फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय 

हिंदी सिनेमा के हिंदी प्रेमी सितारे 

फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय ने बताया कि पहले लम्बे क़द के अधिकांश हीरो पंजाब से आते थे। पृथ्वीराज कपूर से लेकर अभिनेता धर्मेंद्र तक की पढ़ाई उर्दू में हुई है। धर्मेंद्र हिंदी में डायलॉग सुनकर अपनी हस्तलिपि में उसे उर्दू में लिख कर याद कर लेते हैं। फ़िल्म सौदागर का ज़िक्र करने पर कमलेश जी ने बताया कि अभिनेता राजकुमार और दिलीप कुमार दोनों को उर्दू लिपि आती है। दिलीप कुमार अपने संवाद सुनकर ख़ुद उसे उर्दू लिपि में काग़ज़ पर लिख लेते थे। अभिनेता राजकुमार की याददाश्त बहुत अच्छी थी। एक बार सुनते ही उन्हें सम्वाद याद हो जाते थे। आवश्यकतानुसार वे भी काग़ज़ पर उर्दू लिपि में अपने संवाद लिख लेते थे। 

हिंदी सिनेमा का एक गोल्डन पीरियड रहा है। इस पीरियड के सितारे थे राज कपूर, दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, राजकुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त, धर्मेंद्र, विनोद खन्ना आदि। सितारों की इस पीढ़ी को हिंदी से गहरा लगाव था। इस पीढ़ी ने हिंदी के प्रचार प्रसार और लोकप्रियता के लिए सराहनीय योगदान दिया। इन्हीं सितारों की हिंदी फ़िल्में देखकर अहिंदी भाषी दर्शकों ने हिंदी सीखी। 

साठ के दशक में राज कपूर ऊटी में ‘मेरा नाम जोकर’ फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे। उस समय दक्षिण में हिंदी विरोधी आंदोलन चल रहा था। एक दिन चार पांच सौ लोगों की भीड़ ने राज कपूर की यूनिट को घेर लिया। वे नारे लगा रहे थे- "वी डोंट वांट हिंदी, वी डोंट वांट हिंदी फ़िल्म"। एक ऊंची जगह पर खड़े होकर राज कपूर ने इस भीड़ को संबोधित किया। उन्होंने पूछा- क्या आप सब को अंग्रेज़ी आती है? लोग ख़ामोश हो गए क्योंकि साउथ में सब को अंग्रेजी नहीं आती। राज कपूर ने कहा- एक विदेशी भाषा में हिंदी का विरोध करना अच्छी बात नहीं है। आप अपनी मातृभाषा में यह मांग कीजिए कि साउथ की किसी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाए तो मैं आपके साथ हूं। आप अपनी मातृभाषा का सम्मान करते हैं तो दूसरों की मातृभाषा का भी सम्मान कीजिए। धीरे धीरे भीड़ खिसक गई। उसके बाद किसी ने राज कपूर का विरोध नहीं किया। 

सिने जगत में नई पीढ़ी और हिंदी 

हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में अमिताभ बच्चन ऐसे कलाकार हैं जिनके सामने हमेशा हिंदी में ही पटकथा पेश की जाती है। नई पीढ़ी की पसंद अंग्रेज़ी है। आज के नौजवान फ़िल्म लेखक लैपटॉप पर अंग्रेजी में हिंदी फ़िल्म की पटकथाएं लिख रहे हैं। बाहुबली-2 के संवाद लेखक मनोज मुंतशिर कॉन्वेंट स्कूल में पढ़े लिखे हैं। उन्हें अंग्रेजी अच्छी आती है। इसका उन्हें कैरियर में भरपूर फ़ायदा मिला। 

मनोज मुंतशिर को संघर्ष के दिनों में सन् 2002 में स्टार प्लस के धारावाहिक ‘यात्रा’ के लेखन का कार्य मिल गया। उन्होंने लैपटॉप ख़रीदा। हिंदी को अंग्रेज़ी लिपि में लिखकर सीडी बनाकर वे स्टार चैनल के ऑफिस में दे देते थे। सीडी को कंप्यूटर में अपलोड करके आवश्यक तब्दीलियां कर ली जाती थीं। उस समय हिंदी यूनिकोड प्रचलन में नहीं था। आगे चलकर घर बैठे अंग्रेज़ी में ईमेल से सारा काम होने लगा। 

कविता बड़जात्या
सन् 2016 में सोनी चैनल पर कविता बड़जात्या का धारावाहिक प्रसारित हुआ- ‘एक रिश्ता साझेदारी का’। इस सीरियल में मैंने छोटे-बड़े बीस गीत लिखे। उन्होंने पहले गीत का ट्रैक मुझे ईमेल से भेजा। मैंने इसे सुनकर हिंदी में गीत लिखा और कविता जी को व्हाट्सएप कर दिया। यह मेहंदी की रस्म का गीत था। इसकी शुरुआत एक दोहे से थी- 

पुरवाई में प्रेम की, ऐसे निखरा रूप 
मुखड़ा लाडो का लगे, ज्यों सर्दी की धूप 

तुरंत कविता जी का फ़ोन आया। उनकी आवाज़ जोश और उमंग से लबालब थी। वे बोलीं- पांडेय जी, मेरे चारों तरफ़ अंग्रेजी ही अंग्रेजी है। बहुत दिनों बाद मैंने आज हिंदी स्क्रिप्ट देखी है। मैं आपको बता नहीं सकती कि हिंदी देखकर आज मेरी आंखों को और दिल को कितना सुकून मिल रहा है। आप कल ऑफिस आइए। चाय पीते हैं। ज़ाहिर है कि कविता बड़जात्या के सीरियल की पटकथा भी लैपटॉप पर अंग्रेज़ी में लिखी जा रही थी। 

आज हिन्दी पटकथा लेखन की कार्यशालाओं में कई लोग अंग्रेज़ी में लेक्चर देते हैं। सिने जगत में जो नए फ़िल्म मेकर आ रहे हैं वे सब अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़े लिखे हैं। आगे वह समय भी आने वाला है जब अंग्रेज़ी ज्ञान के बिना काम मिलना मुश्किल होगा। 

हिंदी सिनेमा में हिंदी का भविष्य 

आज़ादी के बाद हिंदी सिनेमा में कई ऐसे फ़िल्म लेखक आए जिन्होंने साहित्यिक भाषा में संवाद लिखे। उन फ़िल्मों ने हिंदी भाषा की तरक़्क़ी में उल्लेखनीय योगदान किया। आज हिंदी की मौलिकता ग़ायब हो रही है। हिंदी वर्ण संकर भाषा बन गई है। ऐसी भाषा में कुछ फ़िल्में सफल भी हो सकती हैं लेकिन ऐसी भाषा के साथ हिंदी सिनेमा का कारवां दूर तक नहीं जा सकता। हर भाषा का अपना ज़ायका होता है, अंडर करंट होता है। हिंदी में यह स्वाद तभी मिलता है जब हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाए। 

फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय के अनुसार सिने जगत में भाषा लगातार बिगड़ रही है। हिंदी फ़िल्म देखने वाली नई पीढ़ी इससे क्या सीखेगी यह ख़ुद में एक प्रश्न चिन्ह है। सिनेमा के ज़रिए भाषा समाज में उतरती है। फ़िल्म ख़ुद में एक साहित्य है। भाषा के मामले में हम बहुत ग़रीब हैं और लगातार ग़रीब होते जा रहे हैं। आने वाले समय में भाषा के लिए बड़े ख़तरे हैं। कुल मिलाकर हिंदी सिनेमा में हिंदी का भविष्य अंधकारमय है। 

हिंदी के बारे में कहा जाता है कि यह सबकी है और किसी की नहीं है। मगर कुछ लोग ऐसे हैं जो हिंदी से बड़ा इमोशनल रिश्ता रखते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि हिंदी से दौलत और शोहरत हासिल करने वाले लोग अंग्रेज़ी में सारा काम करते हैं तो उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती है। मगर यह सिलसिला आगे भी कभी ख़त्म नहीं होने वाला है। 

जुहू के एक होटल में ज़ी म्यूज़िक अवार्ड का आयोजन किया गया था। अभिनेत्री अचिंत्य कौर उसकी उद्घोषक थीं। उन्होंने पहला वाक्य बोला- इस "काला संध्या" में आपका स्वागत है। दरअसल उनको जो कुछ बोलना था उसकी स्क्रिप्ट कंप्यूटर से एक स्क्रीन पर डिस्प्ले की जा रही थी। कला की स्पेलिंग kala लिखी गई थी। इसलिए उन्होंने कला संध्या के बजाय काला संध्या बोल दिया। रोमन में हिंदी लिखने के ऐसे ख़तरे भी हैं।

एक फ़िल्म बनी थी- 'ख़तरा'। उसका अंग्रेज़ी में पोस्टर KHATRA जारी किया गया। उसे लोग 'खट्रा' पढ़ने लगे। निर्माता ने स्पेलिंग दुरुस्त करके फिर से पोस्टर KHATARA जारी किया। लोग उसे 'खटारा' पढ़ने लगे। अंततः तीसरी बार पोस्टर जारी किया गया और अंग्रेज़ी के ऊपर हिंदी में लिखा गया 'ख़तरा'। सिने जगत में हिंदी के साथ ये ख़तरा बरकरार है। 

आपका- 
देवमणि पांडेय 

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, 
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, 
मुम्बई-400063, M : 98210 82126 
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