संगीतकार कल्याणजी आनंदजी
संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के स्टेज पर महानायक अमिताभ बच्चन लगातार बारह साल तक ठुमके लगाते रहे। आनंद जी ने बताया कि फ़िल्म ज़ंजीर की कामयाबी के बाद अमिताभ बच्चन उनके म्यूज़िकल ग्रुप के साथ जुड़ गए थे। इंग्लैंड और अमेरिका से लेकर दुनिया के कई देशों में संगीत के आयोजन होते थे। वेस्टइंडीज में बहुत प्रोग्राम होते थे। उस समय पूरी दुनिया में स्टेज प्रोग्राम बहुत लोकप्रिय थे।
अमिताभ बच्चन की स्टेज पर स्पेशल एंट्री होती थी। वे डांस करते थे, गाना गाते थे, अपनी फ़िल्मों के संवाद बोलते थे। श्रोताओं के मनोरंजन के लिए अभिनेत्रियों से चटपटी बातचीत करते थे। हर साल की चर्चित अभिनेत्रियां ग्रुप में शामिल होती थीं। अमिताभ बच्चन उस समय मुकेश और किशोर कुमार के गाने गाते थे। "मेरी प्यारी बहिनिया बनेगी दुल्हनिया" गीत वे अपने हर शो में गाते थे।
"मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है" फ़िल्म 'लावारिस' के इस गीत ने विदेश में बड़़ी धूम मचाई। इसे गाते समय अमिताभ बच्चन श्रोताओं की भीड़ में से गोरी, मोटी, छोटी, औरतों को स्टेज पर बुलाते। उनके साथ डांस करते तो दर्शक हंसते हंसते लोटपोट हो जाते। उस समय संगीत के ऐसे कार्यक्रमों में विदेशों में चालीस पचास हज़ार दर्शकों की भीड़ जुट जाती थी। बड़े बड़े स्क्रीन लगाए जाते थे। अभिनेता अभिनेत्रियों के डांस के समय उनके पीछे क़तार में बीस पच्चीस विदेशी डांसर डांस करते तो समां अद्भुत हो जाता था। उस समय संगीत के चैरिटी कार्यक्रम भी बहुत होते थे। सुरेश वाडेकर, कविता कृष्णमूर्ति, अलका याज्ञिक, साधना सरगम आदि ने स्टेज पर काफ़ी नाम कमाया।
संगीतकार आनंदजी ने पत्नी के पैर छुए
"हर कामयाब इंसान के पीछे एक नारी होती है और हर नाकामयाब इंसान के पीछे कई नारियां होती हैं"... मेरे इस जुमले पर तालियों की गड़गड़ाहट और ठहाकों से सभागार गूंज उठा। संगीतकार आनंदजी शाह और उनकी पत्नी शांता बेन मंच पर मौजूद थे। बतौर संचालक मैंने उनका परिचय कराते हुए यह जुमला जोड़ दिया। मालवा रंगमंच समिति के पुरस्कार की ट्राफी एक हाथ में पकड़कर दूसरे हाथ से आनंदजी ने अपनी पत्नी के पैर छू लिए। दर्जनों कैमरों में यह ख़ूबसूरत दृश्य क़ैद हो गया। अगले दिन हर अख़बार के पहले पेज पर यही तस्वीर छपी थी।
सन् 2006 में संगीतकार आनंदजी शाह को उज्जैन के विक्रमादित्य सभागार में मालवा संगीत सम्मान से सम्मानित किया गया था। सुबह उन्होंने संस्था अध्यक्ष केशव राय से कहा- पांडेय जी को मेरे साथ मेरी कार में बैठाइए। पूरे दिन हम लोग गपशप करते रहे। उज्जैन के धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों का भ्रमण करते रहे। आनंदजी मेरे संचालन से प्रभावित थे। उन्होंने बैंगलोर में हो रहे अपने एक संगीत समारोह के संचालन के लिए मुझे आमंत्रित किया। यह विशाल कार्यक्रम कई हज़ार दर्शकों की मौजूदगी में बैंगलोर से चेन्नई जाने वाले हाईवे पर कृष्ण गिरि आश्रम में हुआ था।
उन दिनों मैं नेपियन सी रोड के हैदराबाद स्टेट में रहता था। आनंदजी ने मुझे पेडर रोड स्थित अपने घर बुलाया। उनके विशाल ड्राइंग रूम के एक कोने में एक डाइनिंग टेबल है। उस पर आठ दस लोग एक साथ बैठ सकते हैं। उन्होंने बताया कि इसी टेबल पर बैठकर गीतकार इंदीवर, आनंद बख़्शी, अनजान, गुलशन बावरा आदि चाय नाश्ता करते थे। उस समय दस से छ: बजे एक ही शिफ्ट में रिकॉर्डिंग होती थी। लोग काम खत्म करके छ: बजे तक घर आ जाते थे। उस समय सबके पास फ़ोन नहीं था। इसलिए कई गीतकार फ़ोन किए बिना अचानक आ जाते थे। कल्याणजी आनंदजी ने सब को सम्मान दिया। उन्होंने सौ से अधिक गीतकारों के गीत रिकॉर्ड किए।
किराना स्टोर के मालिक के संगीतकार बेटे
गुरुवार 17 सितंबर 2020 को संगीतकार आनंदजी शाह से फ़ोन पर मेरी लंबी बातचीत हुई। मैंन आनंद जी से पूछा- क्या यह सच है कि एक संगीत गुरु ने आपके पिताजी का उधार न चुका पाने के बदले में आप दोनों भाइयों को संगीत सिखाया। आनंद जी ने कहा- यह क़िस्सा सच नहीं है। लोग मज़ा ले कर सुनाते हैं तो हम भी मना नहीं करते। हुआ यह कि एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार ने पूछा- आपके पिताजी दाल चावल बेचते थे। आपकी संगीत में कैसे दिलचस्पी पैदा हो गई। बड़े भाई कल्याणजी ने मज़ाकिया लहजे में जवाब दिया- हमारे मोहल्ले के संगीत गुरु पिताजी के दाल चावल की उधारी नहीं चुका पाए। बदले में पिताजी जी ने हम दोनों को उनके पास संगीत सीखने भेज दिया। यह क़िस्सा कई अख़बारों में छप गया।
कच्छ से मुंबई आकर पिता वीरजी शाह ने गिरगांव में किराना स्टोर खोला। उन्होंने अपने बेटों को कभी किसी के पास संगीत सीखने के लिए नहीं भेजा। बेटों ने अपने माहौल से संगीत सीखा। मोहल्ले की हर गली में कलाकार थे। पिताजी ने कहा- अच्छा हो या बुरा हर संगीत ध्यान से सुनो और सीखो। कल्याणजी आनंदजी ने हिंदी, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि सभी तरह का संगीत सुना और सीखा। ये भाषाएं वे बोल भी लेते हैं। वे गांव जाते थे तो लोक संगीत सुनते थे। उस समय मुम्बई में गणपति के पंडालों में दस दिन तक बहुत अच्छे संगीत के कार्यक्रम होते थे। गरबा के दिनों में गुजराती संगीत की धूम मच जाती थी।
संगीत के माहौल में बेटे बड़े हो रहे थे। ग्यारह साल की उम्र में आनंदजी ने अपने मोहल्ले के एक संगीत गुरु के बारे में सुना कि वे तबला बहुत अच्छा सिखाते हैं। वे ख़ुद ही उनके पास चले गए। गुरुजी ने आनंदजी के सामने थाल में आटा गूंथने के लिए रख दिया। वे बोले- आटा गूंथने से उंगलियां मज़बूत होती हैं। तबला वादन के लिए उंगुलियों का मज़बूत होना ज़रूरी है। आनंदजी को उनका सिखाना अच्छा लगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा- अच्छे तबला वादन के लिए गायन भी आना चाहिए। आनंदजी ने गाने का अभ्यास शुरू कर दिया। इस तरह पांच भाइयों में से तीन भाइयों कल्याणजी, आनंदजी और बाबला ने अपने मोहल्ले में अपने प्रयास से संगीत सीख लिया।
सगाई किसी से और शादी किसी से
आनंदजी के अनुसार अच्छे गीत हमेशा अच्छे थॉट पर रचे जाते हैं। फ़िल्म डॉन के निर्देशक चंद्रा साहब (चंद्र बरोट) एक महीने के लिए अमेरिका जा रहे थे। उनकी मंगनी हो गई थी। उन्होंने आनंदजी को बताया कि अमेरिका से लौटकर शादी करेंगे। एक महीने बाद वे लौटकर आए। पता चला कि जिस लड़की की उंगली में उन्होंने अंगूठी पहनाई थी उसने किसी और के नाम की मेंहदी हथेलियों में रचाई थी। वे बोले- आनंदजी, क़समें-वादे, प्यार-वफ़ा ये सिर्फ़ बातें हैं। इन बातों का कोई मतलब नहीं होता। यह थॉट आनंदजी को अपील कर गया। उन्होंने इंदीवर को फ़ोन किया। इस थॉट पर इंदीवर ने एक गीत रच दिया-
क़समे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या
मनोज कुमार की फ़िल्म 'उपकार' (1967) में इस गीत को बेहद पसंद किया गया। मनोज कुमार की फ़िल्म 'पूरब पश्चिम' (1970) में भी कल्याणजी आनंदजी का संगीत सुपर हिट हुआ।
संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के साथ इंदीवर के अच्छे रिश्ते थे। राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फ़िल्म 'सरस्वती चंद्र' (1968) के लिए वे लिखकर लाए थे- "चांदी सा बदन चंचल चितवन, धीरे से तेरा वो मुस्काना।" आनंदजी ने कहा- चांदी और सोना नहीं चलेगा। कुछ और चाहिए। इंदीवर ने 'चांदी' हटाकर "चंदन सा बदन" कर दिया। 'खइके पान बनारस वाला' फेम गीतकार अनजान (लालजी पांडेय) के सुपुत्र समीर से मैंने पूछा- संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के साथ आपके पिता अनजान के कैसे संबंध थे! समीर ने झट से कहा- वे मेरे पिता के अन्नदाता हैं। संगीतकार कल्याणजी आनंदजी की फ़िल्मों- दो अनजाने (1976), ख़ून पसीना (1977), गंगा की सौगंध (1978), डॉन (1978), मुक़द्दर का सिकंदर (1978) और लावारिस (1981) आदि में अनजान के गीतों को बेहद लोकप्रियता हासिल हुई।
मेरा जीवन कोरा काग़ज़ : एमजी हश्मत
संगीतकार कल्याणजी आनंदजी की टीम में एक ऐसा म्यूज़िशियन था जो झगड़ा लड़ाने में माहिर था। उसने एक दिन इंदीवर से कहा- गुलशन बावरा बस के टिकट पर गीत लिखकर लाता है और उसको दस हज़ार दिया जाता है। आप इतना अच्छा गीत लिखते हैं मगर आपको पांच हज़ार दिया जाता है। इंदीवर ने फ़ोन किया- आनंद जी, मैं गीत तभी लिखूंगा जब आप मुझे एक गीत का दस हज़ार भुगतान करेंगे। इससे कम पेमेंट हो तो आप मुझे मत बुलाइएगा।
इंदीवर ने संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के यहां आना बंद कर दिया और कई सालों से संघर्षरत गीतकार एमजी हश्मत ने आना शुरू कर दिया। फ़िल्म "कोरा काग़ज़" (1974) की बैठक चल रही थी। निर्देशक अनिल गांगुली ने पूछा- आप गीत किससे लिखवाएंगे। आनंदजी बोले- ये गीतकार एमजी हश्मत हैं। यही लिखेंगे।
फ़िल्म कोरा काग़ज़ का शीर्षक गीत "मेरा जीवन कोरा काग़ज़ कोरा ही रह गया" दुख भरा गीत है। इस गीत में एक ऐसे अंतरे की ज़रूरत थी जो दुख में भी रहे और फ़िल्म के अंत में सुख का संकेत भी बन जाए। एमजी हश्मत काफ़ी देर से बैठे सोच रहे थे। कोई रास्ता नहीं निकल रहा था। अचानक आनंदजी को एक गुजराती सुविचार याद आया। वे उछल पड़े- मिल गया। एमजी हश्मत ने आश्चर्य से उनकी तरफ़ देखा। आनंद जी बोले- 'दुख के अंदर सुख की ज्योति'। बस इसी लाइन पर एमजी हश्मत ने वो अंतरा लिख दिया जो दुख में भी काम आया और सुख में भी काम आया-
दुख के अन्दर सुख की ज्योती
दुख ही सुख का ज्ञान
दर्द सहके जन्म लेता
हर कोई इंसान
वो सुखी है जो ख़ुशी से दर्द सह गया
मेरा जीवन कोरा कागज़...
फ़िल्म "कोरा काग़ज़" की लोकप्रियता ने गीतकार एमजी हश्मत को कामयाबी और पहचान दे दी। इसके साथ ही एमजी हश्मत की क़िस्मत के बंद दरवाज़े खुल गए। बतौर गीतकार उन्हें 'कोरा काग़ज़' के लिए फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। फ़िल्म तपस्या, भीगी पलकें, आदि में भी उनके गीत काफ़ी पसंद किए गए। उन्होंने कई फिल्मों के संवाद लिखे और फ़िल्म 'इंसाफ़ की जंग' का निर्देशन भी किया।
गीतकार एमजी हश्मत को अभिनेता सुनील दत्त काफ़ी पसंद करते थे। उनके संघर्ष को देखते हुए सुनील दत्त ने उन्हें दस हज़ार रूपये प्रतिमाह वेतन पर अपने ऑफिस में सहायक रख लिया। एमजी हश्मत का काम बस इतना ही था कि सुनील दत्त के प्रशंसकों के चुनिंदा पत्रों का जवाब देना। उस समय की फ़िल्म पत्रिकाओं में सितारों के पते छपते थे। पूरे देश से हर महीने प्रशंसकों के बहुत सारे पत्र आ जाते थे।
आप जैसा कोई मेरी ज़िंदगी में आए
फ़िल्म 'ज़ंजीर' (1973) के समय एक रोचक घटना हुई। सरकार ने निश्चित समय सीमा वाली फ़िल्मों के लिए सब्सिडी घोषित कर दी। प्रकाश मेहरा ने यह सब्सिडी पाने के लिए अपनी फ़िल्म में काट छांट करने का फ़ैसला किया। इसके लिए कई फ़िल्मी पंडितों और समीक्षकों के साथ चर्चा हुई मगर रास्ता नहीं निकला। अंततः प्रकाश मेहरा ने यार दोस्तों के लिए फ़िल्म 'ज़ंजीर' का एक विशेष शो किया। इसमें संगीतकार कल्याणजी आनंदजी भी मौजूद थे।
फ़िल्म के शो के बाद एडिटिंग के लिए राय पूछी गई। आनंदजी ने झट से कहा- शुरू की दो रीलें हटा दीजिए। यह सुनकर प्रकाश मेहरा उछल पड़े। शुरू की दो रीलों में नायक विजय (अमिताभ बच्चन) का बचपन दिखाया गया था। इसे हटा देने से फ़िल्म पर कोई असर नहीं पड़ा। संगीतकार कल्याणजी आनंदजी के साथ निर्देशक प्रकाश मेहरा का आत्मीय रिश्ता बन गया। प्रकाश मेहरा की सुपरहिट फ़िल्मों- 'हाथ की सफाई' (1974), 'हेरा फेरी' (1976) 'मुक़द्दर का सिकंदर' (1978) 'लावारिस' (1981) आदि में कल्याणजी आनंदजी ने यादगार संगीत दिया।
निर्माता-निर्देशक फ़िरोज़ ख़ान की धर्मात्मा, क़ुर्बानी आदि फ़िल्मों के संगीत में कल्याणजी आनंदजी ने नए प्रयोग किए। फ़िल्म 'क़ुर्बानी' का गीत "आप जैसा कोई मेरी ज़िंदगी में आए" पाकिस्तानी गायिका नाज़िया हसन की आवाज़ में रिकॉर्ड किया। पूरी दुनिया में इस गीत ने धूम मचा दी। कुछ समय बाद कैंसर से नाज़िया हसन का इंतक़ाल हो गया। इस गीत के लिए नाज़िया हसन को आज भी याद किया जाता है।
मेरे देश की धरती सोना उगले
फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन की बैठकों में गुलशन बावरा से मेरी कई बार मुलाक़ात हुई। दुबले पतले गुलशन बावरा मज़ाक़िया स्वभाव के हँसमुख इंसान थे। अपने इसी गुण के कारण उन्हें कई फ़िल्मों में अभिनय का भी काम मिला। कैरियर की शुरुआत में ही संगीतकार कल्याणजी आनंदजी की फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार' (1957) में गुलशन बावरा का गीत लोकप्रिय हो गया- 'तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे'।
संगीतकार आनंद जी शाह के अनुसार गुलशन बावरा बहुत क़िस्मत वाले गीतकार थे। हर फ़िल्म में उनका कोई न कोई गीत लोकप्रिय हो जाता था। फ़िल्म 'ज़ंजीर' (1973) में "दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए" उनका लिखा गीत उन्हीं पर फ़िल्माया गया और ख़ूब लोकप्रिय हुआ। इसी फ़िल्म में उनका गीत "यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी" सुपर हिट हुआ। इस गीत के लिए उन्हें फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला।
बनी बनाई धुन पर फ़िल्म 'उपकार' के लिए गुलशन बावरा गीत लिखकर लाए- मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती। यह सुनकर कल्याण जी भड़क गए। बोले- यह उगले उगले क्या है? इससे उल्टी की बू आती है। गुलशन बावरा ने काफ़ी कोशिश की। मगर 'उगले' को बदलने के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिला।
आनंदजी ने अपने बड़े भाई कल्याणजी से कहा- भाई साहब, इस गीत की धुन बहुत अच्छी है, इस गीत की चाल बहुत अच्छी है, इस गीत का संगीत संयोजन कमाल का है। इस गीत को सुनते हुए किसी का भी ध्यान 'उगले की तरफ़ नहीं जाएगा। कल्याणजी मान गए। फ़िल्म 'उपकार' (1967) में गुलशन बावरा का यह गीत "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती" आज भी बेहद लोकप्रिय है। इसे सर्वश्रेष्ठ गीत का 'फ़िल्मफेयर अवार्ड' मिला।
आनंद जी का कहना है कि ये लोग चुपचाप काम करने वाले इंसान थे। इंदीवर हों या अनजान सबने अच्छा काम किया। ये लोग पब्लिसिटी के पीछे नहीं भागे। आज किसी गीतकार या सिंगर का एक गीत हिट हो जाता है तो वे पब्लिसिटी के लिए न जाने कहां-कहां दौड़ते हैं। हमने जो कुछ किया ईमानदारी से किया। उसे दर्शकों ने पसंद किया। यही हमारे लिए पुरस्कार है।
चित्र : मुंबई की सांस्कृतिक निर्देशिका संस्कृति संगम के लोकार्पण समारोह में (बाएं से) - नवभारत टाइम्स मुंबई के तत्कालीन संपादक शचींद्रनाथ त्रिपाठी, उद्योगपति रानी पोद्दार, गायक पंकज उधास, संगीतकार आनंदजी शाह (कल्याणजी आनंदजी फेम) संपादक देवमणि पांडेय, समाजसेवी सुरेंद्र गाड़िया और नवभारत टाइम्स मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार भुवेंद्र त्यागी। (2009)
मुशायरे में मुकर्रर और इरशाद
आनंदजी के बड़े भाई कल्याणजी बड़े मज़ाकिया स्वभाव के थे। उनके बारे में कई रोचक क़िस्से प्रचलित हैं। एक बार कल्याणजी के पास नेहरू सेंटर में होने वाले मुशायरे का आमंत्रण आया। उनको कुछ ज़रूरी काम आ गया। वे नहीं जा सके। उन्होंने अपनी जगह अपनी पत्नी को भेज दिया। पत्नी वापस आई तो कल्याणजी ने मुशायरे का हालचाल पूछा। पत्नी ने जवाब दिया- मुशायरा बहुत अच्छा था। मगर दो शायर नहीं आए थे। लोग बार-बार उन्हीं का नाम लेकर चिल्ला रहे थे। शोर मचा रहे थे। कल्याण जी ने पूछा कौन से शायर? पत्नी ने भोलेपन से कहा- मुकर्रर और इशाद।
संगीतकार आनंदजी सीधे सरल इंसान हैं। कोई चीज़ पसंद आ जाए तो दिल खोलकर तारीफ़ करते हैं। एक दिन मैं उनसे मिलने उनके घर गया। वे बोले- मैं "तारक नाथ का उल्टा चश्मा" सीरियल देख रहा था। ये जो नौजवान है मेहता, इसने अपने देश के बारे में बहुत बढ़िया बातें कहीं। मैंने उन्हें बताया कि शैलेश लोढ़ा मेरे दोस्त हैं। मैंने तुरंत शैलेश को फ़ोन किया और आनंदजी से बात कराई। शैलेश ने सीरियल के एक विशेष एपिसोड में आनंदजी को बतौर मुख्य अतिथि बुलाया। आनंदजी फ़िल्म सिटी में इस सीरियल के सेट पर गए और पूरी टीम को आशीर्वाद देकर आए।
2 मार्च 1933 को जन्मे 87 साल के आनंदजी शाह अपने घर परिवार के साथ स्वस्थ और सुखी जीवन बिता रहे हैं। प्रसन्नता की बात यह है कि दक्षिण मुम्बई के जिस इलाक़े में आनंदजी रहते हैं उसी इलाक़े में उनके बेटे दीपक आनंद और बेटी भी रहते हैं। कोरोना के मौसम में भी बेटा और बेटी अपने बच्चों के साथ उनसे मिलने के लिए आते रहते हैं। उनका परिवार उनकी ऊर्जा है। उनकी पत्नी शांता बेन हंसमुख स्वभाव की, सीधी सरल और परिवार का बेहद ध्यान रखने वाली महिला हैं। हमारी हार्दिक कामना है कि आनंद जी हमेशा सेहतयाब रहें और इसी तरह हंसते मुस्कुराते रहें।
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210-82126
devmanipandey.blogspot.com
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