शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

स्त्री के प्रेम से वंचित ग़ज़ल के अभागे शायर


हिंदी ग़ज़ल में प्रेम पर पीएचडी

दिल्ली के एक शायर मिर्ज़ा साहब ने मशहूर शायर दाग़ देहलवी से पूछा- आप मुहब्बत की शायरी करते हैं। मैं भी मुहब्बत की शायरी करता हूं। आपको ज़बरदस्त दाद मिलती है। मुझे नहीं मिलती। इसका क्या कारण है ? जवाब में दाग़ देहलवी ने उनसे तीन सवाल किए। 

पहला : क्या आपने किसी की याद में अपनी रातों की नींद हराम की है ? मिर्ज़ा साहब बोले- कभी नहीं। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। 

दूसरा : क्या आपने उन कोठों पर जाकर घुंघरुओं की झंकार सुनी है जहां शराफ़तें जाने से घबराती हैं ? मिर्ज़ा साहब ने कान पकड़ लिए- लाहौल विला कूवत, मैं शादीशुदा इज़्ज़तदार आदमी हूं। 

तीसरा : क्या आप रोज़ अपनी शाम को जाम से आबाद करते हैं ? मिर्ज़ा साहब बोले- मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाता। 

दाग़ देहलवी बोले- मिर्ज़ा साहब, आप बीवी को देखकर शायरी करेंगे तो यही हाल होगा। 

इस लोक कथा से आप समझ गए होंगे कि अच्छे शायर की संरचना में किन महत्वपूर्ण चीज़ों का योगदान होता है। मुहब्बत के इलाक़े में दाग़ साहब ने कैसे कैसे कारनामे किए थे, बस ये दो शेर पढ़कर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं-

दिल को थामा उनका दामन थाम के 
हाथ निकले अपने दोनों काम के 

गश खाकर दाग़ यार के क़दमों में गिर पड़ा 
बेहोश ने भी काम किया होशियार का


हिंदी ग़ज़ल में प्रेम पर पीएचडी 

बलरामपुर (उत्तर प्रदेश) में हमारे एक दोस्त हैं डॉ प्रकाश चंद्र गिरि। वे एक कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष हैं। अपने एक विद्यार्थी को शोध के लिए उन्होंने विषय दिया- हिंदी ग़ज़ल में प्रेम। एक दिन प्रकाश जी का फ़ोन आया। बोले- पांडेय जी, 'हिंदी ग़ज़ल में प्रेम' विषय पर पीएचडी करवाने के लिए मैंने 40 हिंदी ग़ज़लकारों की किताबें ख़रीदीं। हैरत की बात यह है कि कई शायरों के यहां प्यार मुहब्बत पर दो शेर भी नहीं मिले। अचानक मुझे आपकी किताब मिल गई- 'अपना तो मिले कोई'। यह देख कर मैं बहुत खुश हूं कि आपके यहां तो 50% से भी अधिक ग़ज़लें प्यार मुहब्बत की हैं। 

मैंने कहा प्रकाश जी मैंने मुहब्बत की है। इसलिए मैं मुहब्बत पर लिखता हूं। जिस परम्परा से हमें ग़ज़ल हासिल हुई है उसमें कहा जाता है कि बिना मुहब्बत के शायरी कैसी। मीर ओ ग़ालिब से लेकर फ़ैज़ और फ़िराक़ जैसे बड़े बड़े शायरों ने मुहब्बत पर शायरी करके हमारे सामने एक मिसाल क़ायम की। 


फ़िराक़ गोरखपुरी की मुहब्बत

फ़िराक़ साहब इलाहाबाद के सिविल अस्पताल में रोग शय्या पर पड़े हुए थे। एक दिन मुस्कुराहटों का कारवां लिए हुए कोई आया और उसने उनका मिज़ाज पूछा। फ़िराक़ साहब को ज़िंदगी मिल गई। उन्होंने उसी दिन बिस्तर पर लेटे लेटे 'शाम ए अयादत' नज़्म कही- 

यह कौन आंख पड़ रही है मुझ पर इतने प्यार से
वह भूल सी, वह याद सी कहानियां लिए हुए

यह किसकी महकी-महकी सांसें ताज़ा कर गईं दिमाग़
शबों से राज़ शबनमों की नरमियां लिए हुए

यह किन निगाहों ने मेरे गले में बाहें डाल दी
जहान भर के दु:ख से, दर्द से अमां लिए हुए

निगाह-ए-यार दे गई मुझे सकून-ए-बे-करां
वह बे कही वफ़ाओं की गवाहियां लिए हुए 

फ़िराक़ साहब ने अपनी किताब 'रूह ए कायनात' की भूमिका में लिखा है- सन् 1941 में मेरा जीवन एक नई घटना से परिचित हुआ। यह वह समय है कि जब मेरे जीवन में एक ऐसी विभूति प्रविष्ट हुई जिसके सामीप्य ने सन् 1942 के अंत में एक घनिष्ठ प्रेम का रूप धारण कर लिया। फ़िराक़ साहब ने अपनी यह किताब उसे समर्पित करते हुए एक और नज़्म लिखी- 'महबूब ए शाम ए अयादत'। 

इस नज़्म में उन्होंने अदभुत क़ाफ़ियों का इस्तेमाल किया। कुछ पंक्तियाँ देखिए-

सरस नर्म संगीत इक इक अदा में
सितारों की पिछले पहर गुनगुनाहट

झलक रूप की शबनमी पैरहन में
हज़ारों चराग़ों की यह जगमगाहट

वो हर आन अंगड़ाई आई हुई सी
वह हर लहज़ कुछ जिस्म में कसमसाहट

पसे ख़्वाब पहलू ए आशिक़ से उठना
धुले सादा जोड़े की वो मलगजाहट

इन अशआर में देख ले अक्स अपना
वो हर मिसरा ए तर में है रसमसाहट

मिर्ज़ा गालिब तो प्रेम में इतने उतावले थे कि अपना राज़ ए मुहब्बत बता कर अपने दोस्त को अपना रक़ीब बना डाला- 

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना 
बन गया रक़ीब आख़िर जो था राज़दां अपना 

कविता और कहानी से ग़ायब होता प्रेम 

एक बार मशहूर जनवादी कवि शील जी मुंबई आए थे। उन्होंने इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर किया कि जनवादी कविता और कहानी से प्रेम ग़ायब हो गया है। कुछ साल पहले उर्दू के मशहूर आलोचक गोपीचंद नारंग ने भी कहा था- ग़ज़ल में पत्रकारिता बहुत आ गई है और प्रेम ग़ायब हो गया है। 

स्त्री तो सृष्टि की अनुपम और जीवंत कलाकृति है। उसके सम्मान में सृजन करना फ़न और हुनर की कसौटी है। हिंदी ग़ज़ल के नाम पर क्रांति करने वालों को यह सोचना चाहिए कि क्या साहित्य में प्रेम को जगह नहीं है। स्त्री के पावन सौंदर्य को उदघाटित करने वाले तीन शायरों की लाजवाब मंज़रकशी देखिए- 

निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़ 
गुलों ने और भी शबनम से ताज़गी पाई - (गुलाम रब्बानी ताबां) 

भरी दोपहर में खिला फूल है 
पसीने में लड़की नहाई हुई - (डॉ बशीर बद्र) 

किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम 
किसी का हाथ उट्ठा है और अलकों तक चला आया - (दुष्यंत कुमार)

पत्नी को बेहद प्रेम करने वाले तुलसीदास ने 'रघुनाथ गाथा' स्वांतः सुखाय लिखी थी। उसे साहित्य में एक महाकाव्य का दर्जा मिला। ज़रूरी यही है कि अपनी ग़ज़ल पहले अपने लिए लिखी जाए। अगर उसमें कशिश होगी तो पूरी दुनिया उसे स्वीकार करेगी। नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया ने ग़ज़ल पर केंद्रित 'प्रेम विशेषांक' निकाला था। उसकी रिकॉर्ड बिक्री हुई थी। इसका मतलब यह हुआ कि साहित्य का पाठक प्रेम को पसंद करता है। प्रेम से दूर भागने की बजाय ग़ज़लकारों को चाहिए कि प्रेम को अपने जीवन में उतारें। 

अंत में आप सबके लिए पेश है कॉलेज की स्मृतियों के आधार पर लिखी गई मेरी यह ग़ज़ल। 

उसने मुझको हँसकर देखा और तनिक शरमाई भी 
लूट लिया दिल शोख़ अदा ने वो मेरे मनभाई भी 

पलक झपकते हुआ करिश्मा ख़ुशबू जागी आंखों में 
साथ हमारे महक उठी है आज बहुत पुरवाई भी 

ये रिश्ता है नाज़ुक रिश्ता इसके हैं आदाब अलग 
ख़्वाब उसी के देख रहा हूँ जिसने नींद उड़ाई भी 

छलनी दिल को जैसे तैसे हमने आख़िर रफ़ू किया 
मगर अभी तक कुछ ज़ख़्मों की बाक़ी है तुरपाई भी 

प्यार-मुहब्बत की राहों पर चलकर ये महसूस हुआ 
परछाईं बनकर चलती है साथ-साथ रुसवाई भी 

उसकी यादों की ख़ुशबू से दिल कुछ यूं आबाद रहा 
मैं भी ख़ुश हूं मेरे घर में और मेरी तनहाई भी 

आपका- 

देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, 
कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, 
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126

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