शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल : ढली शाम फिर आज ढलते हुए





        देवमणि पांडेय की ग़ज़ल  


ढली शाम फिर आज ढलते हुए
बुझे दिल चिराग़ों-से जलते हुए

कहाँ खो गए कुछ पता ही नहीं
मेरी आँख में ख़्वाब पलते हुए

कभी कम न होगी ग़मों की तपिश
ये कहते हैं आँसू उबलते हुए

बदलते हुए मौसमों की तरह
तुम्हें हमने देखा बदलते हुए

हमें ज़िंदगी ने सभी कुछ दिया
मगर हम गए हाथ मलते हुए

मुझे साथ अपने बहा ले गई
थी इक मौज आई मचलते हुए



यात्री रंग समूह के खुला मंच़ कार्यक्रम में वरिष्ठ रंगकर्मी नवीन कुमार,  ओम कटारे,  अशोक शर्मा, निवेदिता बौंथियाल, पारमिता चटर्जी, समाजसेवी के.के.मित्तल, शायर देवमणि पांडेय, कवि पुनीत कुमार पांडेय तथा इप्टा और पूर्वाभ्यास के रंगकर्मी, रचनाकार एवं कलाकार  (मुम्बई 4 अक्टूबर 2014) 



देवमणि पांडेय : 98210-82126
  

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल : साहिल पर जो खड़े हुए थे





         देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

साहिल पर जो खड़े हुए थे डूब गए हैरानी में
मोती उसके हाथ लगे जो उतरा गहरे पानी में 
 
दुख और ग़म के बीच ज़िंदगी कितनी प्यारी लगती है
जैसे कोई फूल खिला हो काँटों की निगरानी में 

दुनिया जिसको दिन कहती है तुम कहते हो रात उसे 
कुछ सच की गुंजाइश रक्खो अपनी साफ़बयानी में

जिसको देखो ढूँढ रहा है काश ज़िंदगी मिल जाए
जाने कैसी कशिश छुपी है इस पगली दीवानी में
   
हुशियारी और चालाकी में डूब गई है ये दुनिया

फिर भी सारा ज्ञान छुपा है बच्चों की नादानी में

चित्र (बाएं से दाएं): यात्री रंग समूह के खुला मंच़ कार्यक्रम में कवि संतोष कुमार झा, फ़िल्म निर्देशक अदीप चंदन, अभिनेत्री दिव्या जगदले, रंगकर्मी पारमिता चटर्जी, रंगकर्मी अशोक शर्मा, संगीतकार कुलदीप सिंह, रंगकर्मी ओम कटारे, शायर देवमणि पांडेय और कवि पुनीत कुमार पांडेय (मुम्बई 6 सितम्बर 2014)



देवमणि पांडेय : 98210-82126



शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

कवयित्री माया गोविंद : गीतों में प्रणय की अभिव्यक्ति


कवि देवमणि पांडेय, फ़िल्मलेखक रामगोविंद और कवयित्री माया गोविंद 

आँसू ही पहचान मेरी मैं आँसू की संतान हूँ 

कवयित्री माया गोविंद 17 जनवरी 2015 को 75 साल की हो गईं। वे पिछले पाँच दशकों से हिंदी काव्यमंचों की सर्वाधिक लोकप्रिय कवयित्री हैं। सन् 1959 में लाल क़िले के कवि सम्मेलन से अपनी काव्य यात्रा की शुरूआत करने वाली इस कवयित्री को देश-विदेश में जो यश और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई वह दुर्लभ है। एक तरफ़ उन्हें रामधारी सिंह दिनकर जैसे राष्ट्रकवि ने सराहा दूसरी तरफ़ उनकी श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें दिल्ली का ठिठोली पुरस्कार, मद्रास का सर्वश्रेष्ठ कवि पुरस्कार और राष्ट्रभाषा परिषद मुंबई का महादेवी वर्मा पुरस्कार प्राप्त हुआ। विश्व हिंदी समिति वाशिंगटन जैसी प्रतिष्ठित संस्था के अंतराष्टीय मंच पर माया गोविंद को सन 1991 में हिंदी दिवस के अवसर पर दशक की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री के रूप में सम्मानित किया गया।

मंचों पर लगातार सक्रियता के बावजूद कवयित्री माया गोविंद हमेशा अपनी रचनाओं के संकलन के प्रति भी सतर्क रहीं। उनके गीतों का संकलन ‘सुरभि के संकेत’ और ग़ज़लों-नज़्मों का संकलन ‘तुम्हें मेरी क़सम’ नाम से प्रकाशित हुआ। ब्रजभाषा पर उनके अधिकार को ‘कृष्णमयी’ संकलन में देखा जा सकता है।‘छंदरस माधुरी’ में भी ब्रजभाषा और अवधी के छंदों की छटा छाई हुई है। उन्होंने अपने निजी अनुभवों को मुक्त छंद में ‘चांदनी की आग’ संकलन के ज़रिए उदघाटित किया। हाल ही में प्रकाशित उनके नए काव्य संकलन का नाम है- 'नीली झील के दरपन में।' इसमें विविधरंगी समकालीन कविताएं हैं।

कवयित्री माया गोविंद के चुनिंदा लोकप्रिय गीतों का संकलन ‘दर्द का अनुवाद’ नाम से सामने आया। प्रतिष्ठित कवि रामेश्वर अशांत के मत से माया गोविंद के गीतों में कबीर का बैराग्य, मीरा की विरह वेदना तथा प्रसाद और महादेवी के छायावाद का संगम है। उनके गीत स्वयं ही उनके इस रचनात्मक लगाव का संकेत देते हैं-

दर्द का पनघट,दर्द का मरघट दर्द का उन्वान हूँ
आँसू ही पहचान मेरी, मैं आँसू की संतान हूँ

कवयित्री माया गोविंद और कवि देवमणि पांडेय
माया गोविंद के गीतों के मूल में प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित होती है- ‘दिल के खाते पे हर दुनियादारी लिखो / एक पन्ना मगर प्यार का भी लिखो।’ श्रृंगार के दोनों पक्षों- संयोग और वियोग की तीव्र अनुभूति ही इन गीतों की शक्ति है। संयोग में जहाँ कवयित्री को समाज में अपनी भूमिका और ज़िम्मेदारियों का एहसास रहता है, वहीं वियोग में वह कई छायावादी कवियों की तरह आँसुओं के समुद्र में डुबकर निस्पंद नहीं हो जाती। उस स्थिति में भी उसे अपने अलावा औरों के भी दर्द का एहसास रहता है। यही कारण है कि खु़द काँटों से ज़ख़्मी होकर भी वह औरों के लिए खु़शबू बांटने वाला गुलाब बन जाती है-

हमने डाले बीज प्यार के उसने कांटे बोए
उन काँटों से लिपट-लिपट हम रात-रात भर रोए
दुनिया भर के दर्दों का जवाब हो गए 
काँटे सहते-सहते हम गुलाब हो गए

यह स्वाभाविक है कि इंसान जीवन में प्रेम के संयोग पक्ष की कामना अधिक करता है। लेकिन इस कवयित्री का मानना है कि जीवन में संयोग की सुगंध जितनी ज़रूरी है, उतनी ही ज़रूरी है वियोग के काँटों की चुभन भी-

माना मैंने फूलों में सुगंध है भरी
माना मैंने फूलों में सुंदरता है बड़ी
काँटे अपने रूप से रिझाते नहीं हैं 
लेकिन काँटे धूप में मुरझाते नहीं हैँ
फूल सदा इनके हवाले होते हैं 
काँटे ही तो इनके रखवाले होते हैं

सर्दियों के आगोश में जैसे धूप और बदली के दामन में जैसे बूँद पनाह लेती है, उसी तरह कवयित्री माया गोविंद के दिल में प्रेम की पीर बसी हुई है। यह पीर उनकी भाग्य रेखा पर लालिमा की तरह उपस्थित है-

जैसे कोई सर्दियों में धूप को छुपा ले 
जैसे कोई बदली से बूँद को चुरा ले
वैसे मैंने भी चुरा ली प्यार की ये पीर 
सेंदुर-सेंदुर हो गई मेरे भाग्य की लकीर 

कवयित्री माया गोविंद 
कवयित्री माया गोविंद के गीतों में लोकप्रियता के ऐसे तत्व हैं जो पढ़ने और सुनने वालों को सहज ही अपना बना लेते हैं। जा़हिर है इसके पीछे काव्य मंचों पर सक्रियता का योगदान होगा। मंच पर श्रृंगारिक रचनाओं की माँग प्राय: अधिक रहती है। कवयित्री माया गोविंद के यहाँ भी प्रेम गीतों का वैभव है। ख़ास बात यह है कि उनके गीतों में प्रणय की अभिव्यक्ति स्वाभाविक और श्रृंगार की प्रस्तुति सहज है। उनके गीतों में निजी अनुभव की मुखरता है। ये गीत अपनी सरलता,सहजता, प्रवाह और अनुभूतियों की तीव्रता में आज के नए गीतकारों के लिए चुनौती हैं। साहित्यिकता की शाल ओढने वाले लोग प्राय: मंचीय रचनाकारों में दिलचस्पी नहीं लेते। अगर कवयित्री माया गोविंद के गीतों को गंभीरता से परखा जाए तो इनमें सृजनात्मकता के कई नए आयाम नज़र आएंगे।

डॉ.धर्मवीर भारती के अनुसार- जीवन के कुछ संवेदन ऐसे हैं जिन्हें नारी ही महसूस कर पाती है,नारी ही अपनी बोली में व्यक्त कर पाती है। ऐसे विशिष्ट नारीसुलभ संवेदनों और काव्य उपकरणों ने भक्तिकाल में, रीतिकाल में तथा छायावादी युग में हिंदी कविता को समृद्ध बनाया है। माया गोविंद की काव्य रचना में वे तत्व बीज रूप में हैं। भारती जी की राय में माया गोविंद की कविताओं का मूल ढांचा तो कवि सम्मेंलनों में प्रचलित लोकप्रिय गीतों का ही है लेकिन उनकी कविताओं के अनेक बिंब, अनेक उपमाएं बिलकुल उनकी अपनी हैं।

कवयित्री माया गोविंद के लिए प्रेम भले ही मोक्ष का मार्ग हो लेकिन उन्होंने समय-समय पर उठने वाले सामाजिक प्रश्रों को अनदेखा नहीं किया है। ‘डाकिए ने द्वार खटखटाया। अनबाँचा पत्र लौट आया’… क्या किसी नवगीत से कम है ? ‘जीवन के सौदागर बोल / मिट्टी का क्या होगा मोल’ और ‘हिंदू मरा है न मुसलमान मरा है / इंसानियत की लाश पे इंसान मरा है’ तथा ‘हमें पानी चाहिए’, ‘सूरज बुझा दूंगी मैं’, ‘जीवन तो गिरवी है मौत की तिजोरी में’, ‘नैना जलें नीर जल जाए सपना जले नहीं’ आदि गीतों में कवयित्री ने जीवन और समाज के अहम प्रश्रों का भी जवाब ढूँढ़ने की सराहनीय कोशिश की है।

अपनी भाषा और अभिव्याक्ति में कवयित्री माया गोविंद के गीत एक ताज़गी भरी कोशिश हैं। इनमें न तो नवगीतों की दुरूहता, जटिलता और अनगढ़पन है और न सतही गीतकारों जैसी कोरी भावुकता। इनकी गेयता और संगीतात्मकता भी इनकी शक्ति है। कवयित्री माया गोविंद ने अपने गीतों के ज़रिए सस्ती मंचीय लोकप्रियता और छद्म बौद्धिकता के लोभ से बचकर एक सहज रास्ता बनाया है। आशा है ये रास्ता अन्य मंचीय प्रतिभाओं के लिए भी दीपस्तंभ साबित होगा।

आपका-
देवमणि पाण्डेय : 
सम्पर्क : 98210-82126 

माया गोविंद : 2 शेल्टन, रोड नं.-10, जुहू, मुम्बई - 400 049, M : 97731-12268