गुरुवार, 30 जुलाई 2020

कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी : दो बैलों की कथा




कथा सम्राट प्रेमचंद 

क्या कभी आपने इस बात पर ग़ौर किया कि आपने जीवन में पहली किताब कौन सी पढ़ी थी? मैं कक्षा दो का विद्यार्थी था। एक दिन मुझे भाई साहब की टेबल पर एक किताब नज़र आई- "प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां।" उस समय यह किताब हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में थी। मैंने इसकी विषय सूची देखी। एक जगह लिखा था- "दो बैलों की कथा।" दो बैलों की कथा क्या हो सकती है? मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई। मैंने इसे पढ़ना शुरू किया। यह कथा मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैं पूरी किताब पढ़ गया। मेरे मन पर जैसे जादू छा गया। मैं किताबों की तलाश में जुट गया। 

गर्मियों की छुट्टियों में पढ़ने की प्यास और ज़्यादा बढ़ गई। रामचरित मानस का बालकांड जमा नहीं। पड़ोसी के यहां राधेश्याम रामायण की किताब मिली। उसकी लय इतनी अच्छी थी कि मैं कई कई घंटे उसे गाकर पढ़ता था।गांव के एक बुज़ुर्ग के यहां "सिंहासन बत्तीसी" और "क़िस्सा तोता मैना" जैसी किताबें मिलीं। एक नौजवान को नौटंकी की किताब पढ़ने का शौक़ था। उसके साथ कानपुर के पहलवान श्रीकृष्ण खत्री रचित आल्हा ऊदल के शौर्य को दर्शाने वाली कई किताबों का सामूहिक पाठ किया। 

गर्मी की छुट्टियों में गांव आए एक परदेसी से अचानक दस किताबों का तोहफ़ा मिल गया। इसमें गुलशन नंदा और प्रेम बाजपेई से लेकर कर्नल विनोद और कैप्टन हमीद तक सब शामिल थे। इन्हें पढ़ने में इतना आनंद आया कि मैंने ऐसी किताबें ढूंढ़ ढूंढ़ कर पढ़ीं। 

आगे चलकर एक दोस्त से गुरुदत्त और शरत चंद की किताबें मिलीं। इंटरमीडिएट में पहुंचा तो एक महकता हुआ ख़त मिला। उसमें "लिखती हूँ ख़त ख़ून से" टाइप की शायरी थी। उसका जवाब देने के लिए सुलतानपुर के पंत स्टेडियम में रात भर जाकर मैंने मुशायरा सुना। मैं शायरी में डूब गया और आज तक उबर नहीं पाया। मुशायरे में किसी शायर ने सुनाया था-

भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में 
कांप उठता हूं कोई जान न ले 
ये भी डरता हूं मेरी आंखों में 
तुझे देख के कोई पहचान न ले

जब मैंने महकते ख़त का जवाब लिखा तो उपरोक्त लाइनों को कोट किया। अनवर जलालपुरी की निज़ामत में हुए इस मुशायरे में सुलतानपुर के महबूब शायर अजमल सुल्तानपुरी भी मौजूद थे। उनके चार मिसरे भी मैंने अपनी तहरीर में शामिल किए- 

काजलों की जो ख़ुद अपनी आंख होती 
तो वो किसी की आंख का काजल न होते 
लोग अपने हुस्न को जो देख पाते 
तो किसी के इश्क़ में पागल ना होते 

देहरादून के प्रिय मित्र इंद्रजीत सिंह ने बताया कि प्रेमचंद 3 जून 1934 को मुंबई पहुंचे थे और मार्च 1935 के तीसरे हफ़्ते में वापस लौट गए। एक साल का 6 फ़िल्म लिखने का करार आठ हज़ार रुपये था। प्रेमचंद ने बस दो फ़िल्में लिखीं और साढ़े 6 हज़ार लेकर साढ़े आठ महीने बाद माया नगरी मुम्बई को अलविदा कहकर बनारस लौट आये। मुंबई की फ़िल्म नगरी उन्हें रास नहीं आई। उनकी कहानी 'मज़दूर पर 'मिल मज़दूर' नाम की फ़िल्म बनी। फ़िल्म देखकर उन्होंने कहा था- इसमें मेरा सिर्फ़ दस प्रतिशत है।

इस फ़िल्म में मिल मज़दूर का बेटा अपने पिता की तरह मज़दूरों पर अत्याचार करता है। मिल मालिक की बेटी मज़दूरों के साथ खड़ी हो जाती है और इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मिल में हड़ताल करवा देती है। यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो इससे प्रेरित होकर मुंबई की कई मिलों में हड़ताल हो गई। सरकार ने इस फ़िल्म को बैन कर दिया। बाद में फ़िल्म का नाम बदलकर इसे दोबारा प्रदर्शित किया गया मगर अपेक्षित सफलता नहीं मिली। 31 जुलाई प्रेमचंद का जन्म दिन है। उनकी स्मृति को सादर नमन। 

आपका- 
देवमणि पांडेय 

98210-82126

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कमलेश पांडेय : फ़िल्म रंग दे बसंती के लेखक



रंग दे बसंती के लेखक कमलेश पांडेय 

मनचाही मंज़िलें आसानी से नहीं मिलतीं। सिने जगत में मुक़ाम हासिल करने के लिए फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय को एक लम्बा सफ़र तय करना पड़ा। ये सफ़र काफ़ी दुश्वार था। मगर उनके आत्मविश्वास की लौ कभी मद्धम नहीं हुई। उम्मीद का दामन पकड़कर उन्होंने अपने सपनों को साकार किया। उनकी क़लम को पहचान मिली तो उन्होंने कहा- "लेखक फ़िल्म का पहला स्टार है। उसके बिना फ़िल्म एक कोरा काग़ज़ है"। बतौर फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय ने तेज़ाब, सौदागर, खलनायक, दिल, बेटा, चालबाज़, रंग दे बसंती आदि कई ऐसी कामयाब फ़िल्में सिने प्रेमियों को दी हैं जिनमें उनके फ़न और हुनर का जलवा दिखाई पड़ता है। 

प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू छात्र जीवन में उनके सुपर हीरो थे। सन् 1957 में कमलेश पांडेय ने  चाचा नेहरू को मंच से बोलते हुए सुना- "जो भी भ्रष्ट पाया जाएगा उसे नज़दीकी टेलीफ़ोन के खंभे पर लटका दिया जाएगा"। शहर में जो भ्रष्टाचारी थे उनके बारे में सबको पता था। घर से विद्यालय जाते समय उन्होंने दोस्तों के साथ एक सूची बनाई कि किस खंभे पर कौन भ्रष्टाचारी लटकाया जाएगा। शाम को घर लौटते समय यह सपना टूट गया। उन्होंने देखा कि सारे खंभे ख़ाली पड़े हैं। टेलीफ़ोन खंभे पर भ्रष्टाचारियों को लटकाने वाला ये ख़्वाब आज तक साकार नहीं हुआ।

स्वप्नभंग की बुनियाद पर ‘रंग दे बसंती’ 
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आज़ादी के बाद देखे गए सपने सच नहीं हुए। इसी मोहभंग की बुनियाद पर उन्होंने एक फ़िल्म लिखी- 'रंग दे बसंती'। इस फ़िल्म ने लोकप्रियता का एक नया अध्याय लिखा। मोहभंग से गुज़रते हुए देश के करोड़ों युवाओं को महसूस हुआ कि आज का सच यही है जो इस फ़िल्म के ज़रिए सामने आया। ‘रंग दे बसंती’ फ़िल्म ने ये भरोसा दिलाया कि हमारे ख़्वाब टूटेंगे मगर उम्मीद क़ायम रहेगी। 


भारतीय समाज पर फ़िल्म ‘रंग दे बसंती’ ने गहरा असर डाला। कहा जाता है कि इस फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद हिंदुस्तान के कई शहरों में युवाओं ने एकजुट होकर कई मोर्चों पर प्रदर्शन किए। ‘रंग दे बसंती’ की तरह इंडिया गेट पर मोमबत्ती जला कर लोगों ने 'प्रियदर्शिनी मट्टू' और 'जेसिका लाल' के मामले में अदालत के फ़ैसलों के खिलाफ़ मोर्चा निकाला। आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में शायद पहली बार इस तरह से शांतिप्रिय जुलूस निकाल कर उच्च न्यायालय और सरकार को ये मुक़दमे फिर से खोलने पर मजबूर किया गया।

कमलेश पांडेय का कहना है कि एक साज़िश के तहत रोज़मर्रा की ज़िंदगी को इतनी मुश्किल में डाल दिया जाता है कि इंसान कुछ सोच न सके। बचपन में बचपन का क़त्लेआम कर दिया जाता है। बचपन में यह बता दिया जाता है कि हमको बनना क्या है। अपनी मर्ज़ी से अपने ख़्वाबों का हमसफ़र बनने के लिए कमलेश पांडेय ने एक दिन इस बंदिश से ख़ुद को आज़ाद कर लिया। उन्होंने ऐलान कर दिया कि वे ग्रेजुएशन नहीं करेंगे। पढ़ लिखकर वो नहीं बनेंगे जो दूसरे लोग चाहते हैं।

दूसरों के लिए प्रेम पत्र लिखने वाले कमलेश
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छात्र जीवन में ही कमलेश पांडेय ने बड़े बड़े लेखकों को पढ़ना शुरू कर दिया था। आठवीं कक्षा में उन्होंने प्रेमचंद, प्रसाद, निराला और अज्ञेय को पढ़ लिया था। कमलेश के पास एक सरस भाषा, बेहतर सोच और उर्वर कल्पनाशीलता थी। कॉलेज के दिनों में अपनी इस प्रतिभा का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने सहपाठियों के लिए प्रेम पत्र लिखे। उनके प्रेम पत्र के ज़रिए उनके कई सहपाठी मुहब्बत के मिशन में कामयाब हुए।

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के हंस नगर गांव में 21 सितम्बर 1947 को कमलेश पांडेय का जन्म हुआ। बलिया में एक स्वतंत्रता सेनानी थे चित्तू पांडेय। सन् 1942 में उन्होंने हिंदुस्तान की पहली आज़ाद सरकार बलिया में बनाई थी। यह सरकार छः महीने चली। इसी गांव ने कमलेश पांडेय को संस्कार, सोच और व्यक्तित्व दिया। छात्र जीवन में कमलेश पांडेय की प्रतिभा का कमाल ये था कि परीक्षा में वे ख़ुद के कोटेशन पर शेक्सपियर जैसे बड़े बड़े लेखकों का नाम जोड़ देते थे। शिक्षक उसको सच मानकर उन्हें अच्छे नंबर दे देते थे। बारहवीं पास करने के बाद उन्होंने यह घोषणा कर दी कि वे बीए नहीं करेंगे। ड्राइंग और पेंटिंग में उनकी रूचि को देखते हुए पिताजी ने कमलेश को मुम्बई भेज दिया। 

कला की नगरी मुम्बई में कमलेश पांडेय
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मुंबई के सर जे.जे.इंस्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड आर्ट में सन् 1965 में कमलेश पांडेय का दाख़िला हुआ। चार साल का कोर्स था मगर उन्होंने कोर्स पूरा नहीं किया। कमलेश कुछ असहज सवाल पूछ लिया करते थे। जिसके लिए उन्हें अक्सर क्लास के बाहर निकाल दिया जाता था। यह उनके लिए वरदान सिद्ध हुआ। क्लास से बाहर निकलकर कमलेश ब्रिटिश काउन्सिल या अमेरिकन सेंटर या यूएसआइएस लाइब्रेरी में बैठ कर फ़िल्मों पर किताबें पढ़ा करते थे और टॉयलेट पेपर पर नोट्स भी लिखते थे। वहीं कमलेश ने अपनी ज़िंदगी की पहली स्क्रिप्ट पढ़ी- ‘सिटीज़ेन केन’ जो दुनिया की महानतम फ़िल्मों में गिनी जाती है। उससे मालूम पड़ा की स्क्रिप्ट क्या होती है और कैसे लिखी जाती है.

सन् 1967 में बिना कोर्स पूरा किए कमलेश पांडेय ने जे.जे. छोड़ दिया। तब ज़िंदगी की असली पढ़ाई उस कॉलेज में शुरू हुई जिसे मुंबई शहर कहते हैं। इसका पहला सबक़ होता है ‘भूख’, ‘अकेलापन’, ‘कुंठा’, ‘बेचैनी’ और ‘घुटन’। भूखा रहकर कमलेश पांडेय ने महसूस किया- ‘‘भूख तीन दिन सताती है। मगर भूख की याद ज़िंदगी भर सताती है।’’ संघर्ष के उन दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं- "उन्हीं दिनो ने मुझे बनाया है, वही मेरा बैंक बैलेन्स हैं जिससे आज तक मैं विदड्रॉ करता रहा हूँ।"


गर्भाधान और बच्चे के जन्म की प्रकिया पर एक डॉक्यूमेंट्री ने कमलेश पांडेय को ख़ुदकुशी की गिरफ़्त से छीन कर ज़िंदगी के हवाले कर दिया। ज़िंदगी अरबों शुक्राणुओं में से सिर्फ़ एक को चुनती है जो मनुष्य बनता है। ज़िंदगी ने इंसान में न जाने कितनी उम्मीदों का निवेश किया है। ज़िंदगी ने एक तरह से इंसान के भविष्य में ख़ुद अपने भविष्य का निवेश किया है, इंसान पर दाँव लगाया है, यह एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ने कमलेश पांडेय को बताया, किसी धर्मग्रंथ ने नहीं। इसलिए कमलेश पांडेय ने स्वीकार किया कि उनकी ज़िंदगी पर फ़िल्मों का क़र्ज़ है।

कमलेश पांडेय की जॉब ऐप्लिकेशन
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अपने नए हौसले के साथ कमलेश पांडेय सुप्रसिद्ध एडवरटाइजिंग कंपनी हिंदुस्तान थाम्पसन के दरवाज़े पर खड़े थे। उन्होंने एक जॉब ऐप्लिकेशन डाल दिया। उसमें लिखा था- I need a haircut and if you can give me a job, I can get a haircut. यानी आप मुझे काम देंगे तो मैं बाल कटा लूंगा।

कमलेश पांडेय को जिस शख़्स ने नौकरी दी वो एक ऑस्ट्रेलियन था- मरे बेल (Murray Bail) जो आज ऑस्ट्रेलिया का सबसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार है। उसने तनख़्वाह पूछी। कमलेश को उसके आस्ट्रेलियन उच्चारण से कुछ समझ में नहीं आया। कमलेश की ख़ामोशी को उसने इंकार समझा। ऑफ़र 500 रुपए महीना था। फ़ाइनली मरे ने कहा 800 रुपए महीना। कमलेश को इस बार ठीक सुनायी पड़ा। कोर्स पूरा कर चुके कमलेश पांडेय के दूसरे सहपाठी सिर्फ़ 150 रुपए पर काम कर रहे थे। मि. मरे बेल ने कमलेश पर विश्वास करते हुए कहा था- "कमज़ोर अंग्रेज़ी के बावजूद एक दिन तुम हिंदुस्तान के सर्वश्रेष्ठ कॉपीराइटर बनोगे।" उनके इस कथन को सही साबित करने के लिए कमलेश पांडेय ने पाँच साल तक किसी को सर्वश्रेष्ठ कॉपीराइटर का अवार्ड जीतने नहीं दिया।

कमलेश पांडेय को फ़िल्म फेयर अवार्ड 
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न्यू वेब सिनेमा और नाटकों में दिलचस्पी के कारण कमलेश पांडेय की मुलाक़ात अभिनेता अमोल पालेकर से हुई। सन् 1986 में अमोल जी फ़िल्म 'अनकही' बना रहे थे। उन्होंने कहा- मैं पैसा देने की हालत में नहीं हूं। मगर मैं चाहता हूं कि तुम मेरी फ़िल्म लिखो। कमलेश पांडेय ने फ़िल्म 'अनकही' से फ़िल्म जगत में प्रवेश किया। इसके बाद निर्देशक पंकज पाराशर की फ़िल्म 'जलवा' लिखी। 'जलवा' में काम की तारीफ़ हुई। सन् 1987 में एन चंद्रा की फ़िल्म 'तेज़ाब' का ऑफर आ गया। फ़िल्म 'तेज़ाब' में श्रेष्ठ सम्वाद लेखन के लिए सन् 1988 में कमलेश पांडेय को फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। इसके बाद कमलेश पांडेय ने दिल, बेटा, चालबाज़, सौदागर और खलनायक जैसी कई सुपरहिट फ़िल्मों के सम्वाद लिखे। फ़िल्म जगत में उन्हें कामयाब राइटर माने जाने लगा।

राजकुमार और दिलीप कुमार के साथ कमलेश
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फूल में अगर ख़ुशबू है तो हवाएं उसे फ़िज़ाओं में घोल देती हैं। फ़िल्म 'तेज़ाब' के गीतकार जावेद अख़्तर ने फ़िल्म निर्देशक सुभाष घई से कमलेश पांडेय का ज़िक्र किया। सुभाष घई ने फ़िल्म 'सौदागर' लिखने के लिए बुलाया। कमलेश पांडेय को यह विश्वास नहीं हो रहा था कि जिस दिलीप कुमार और राजकुमार के वे बहुत बड़े फैन हैं उन्हीं के लिए उनको संवाद लिखने हैं। सुभाष घई ने कहा- "आप इतना याद रखिए कि अब आप इनके फैन नहीं  हैं। आप इनके लेखक हैं।" फ़िल्म 'सौदागर' के समय अभिनेता राजकुमार को कैंसर था। फिर भी उन्होंने अपने जॉनी वाले अंदाज़ में ही पूरी फ़िल्म की सूटिंग की।

अभिनेता राजकुमार को विदेशी लेखकों को पढ़ने का और दिलीप कुमार को खाने का शौक़ था। कमलेश पांडेय ने दोनों के शौक़ में उनका साथ निभाया। मनाली में कई दिन 'सौदागर' की सूटिंग हुई। वे कई दिन इन दोनों महान कलाकारों के सानिध्य में रहे। एक दिन दिलीप कुमार ने कमलेश पांडेय के सामने फ़िल्म का एक सीन ख़ुद डिक्टेट किया। कमलेश ने कहा- दिलीप साहब, आपका सीन ज़ोरदार है। मगर मेरे हिसाब से यह ठीक नहीं है। आपके सीन में राजकुमार विलेन हैं और आप हीरो हैं। हमारी फ़िल्म में आप दोनों हीरो हैं। दिलीप कुमार मान गए।

सबसे अच्छा स्क्रीनप्लेराम चरित मानस
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सुभाष घई ने फ़िल्मजलवादेखने के बाद निर्देशक पंकज पराशर से कह दिया था कि आज से तेरा राइटर मेरा राइटर हो गया। फिर भी फ़िल्मसौदागरदेने के पहले कमलेश पांडेय का इम्तिहान लेने के लिए उन्होंने पूछा था- "आपकी निगाह में सबसे अच्छा स्क्रीनप्ले कौन सा है।" कमलेश पांडेय का उत्तर था- ‘राम चरित मानस सुभाष घई ने पूछा क्यों? कमलेश ने बताया- "राम को सिंहासन मिलना होता है तो उन्हें 14 बरस का वनवास हो जाता है। वनवास से लौटने का समय आता है तो सीता चोरी हो जाती है। सीता को वापस लाने के लिए रावण से युद्ध करने जाते हैं तो भाई लक्ष्मण की जान पर बन आती है। सीता वापस भी जाती हैं तो अयोध्या में अपवाद के भय से सीता को त्यागना पड़ता है। लव-कुश के जन्म के बाद सीता लौटती भी हैं तो राम जिस सीता को शिव का धनुष तोड़ कर और बाद में रावण को मार कर लाए थे उसे खो देते हैं क्योंकि सीता धरती में समा जाती हैं। पूराराम चरित मानसहर क़दम पर राम की परीक्षा है। सीता को पाने, खोने, फिर पाने और अंत में फिर खो देने की व्यथा-कथा है। स्क्रीनप्ले के व्याकरण के अनुसार इससे बेहतर स्क्रीनप्ले के क्या हो सकता है? राम इसीलिए जनमानस के इतने क़रीब हैं क्योंकि अवतार होने के बावजूद एक स्क्रिप्ट या कह लीजिए मनुष्य होने की मर्यादा से बँधे हुए हैं। आम जन सोचता कि जब अवतार हो कर राम इतना दुःख सह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं?

सुरक्षित कोने की तलाश में बॉलीवुड
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कमलेश पांडेय का कहना है कि फ़िल्म जगत वाले हमेशा एक सुरक्षित कोने की तलाश में रहते हैं। इस लिए कलाकारों को उनकी क्षमता के अनुरूप चैलेंजिंग रोल नहीं मिलता। माधुरी दीक्षित में हॉलीवुड सितारों जैसी प्रतिभा थी। मगर उनको अपनी प्रतिभा दिखाने लायक विविधतापूर्ण फ़िल्में नहीं मिलीं। यह अच्छी बात है श्रीदेवी को कुछ चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं मिलीं तो उन्होंने साबित कर दिया कि वे श्रेष्ठ अभिनेत्री हैं। अच्छे कलाकारों को जो चुनौतीपूर्ण कार्य मिलना चाहिए वह मुंबई के बॉलीवुड में नहीं मिलता। फ़िल्मी सोच का एक नमूना देखिए। कमलेश जी ने एक निर्माता से ज़िक्र किया कि वे ‘रंग दे बसंती’ फ़िल्म लिख रहे हैं। वे झट से बोले- बसंती का रोल कौन कर रहा है? आप हेमा मालिनी की बेटी ईशा देओल को बसंती बनाएंगे तो अच्छा रहेगा।

साहित्य के अध्ययन का सिलसिला आज भी जारी है। आज के हिंदी लेखकों में चंदन पांडेय, कुणाल सिंह, नीलाक्षी सिंह, गौरव सोलंकी, मनोज रूपड़ा, अखिलेश, राकेश मिश्र, योगेंद्र आहूजा, संजीव, मो. आरिफ़, मनोज कुमार पांडेय, और विमल चंद्र पांडेय के लेखन को कमलेशजी ख़ास तौर से पसंद करते हैं।

कमलेश पांडेय का एक सवाल है- कमलेश्वर और राही मासूम रज़ा को छोड़ दें तो क्या कारण हैं कि ज़्यादातर हिंदी साहित्यकार फ़िल्म लेखन से बचते रहे हैं। उर्दू साहित्यकारों में ख्वाजा अहमद अब्बास, कृष्ण चंदर, इस्मत चुगताई, राजेंद्र सिंह बेदी, मंटो, अख़्तर उल ईमान, अर्जनदेव रश्क, सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, अली रज़ा, वजाहत मिर्ज़ा, अमानुल्ला ख़ान, कमाल अमरोहवी तथा और भी बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने साहित्य के साथ-साथ फ़िल्मों को भी समृद्ध किया है। हिंदी लेखकों को इस मुद्दे पर ग़ौर करना चाहिए।


फ़िल्म लेखन कला के अदभुत वक्ता
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कमलेश पांडेय बहुत विनम्र और शालीन आदमी हैं। साहित्य और सिनेमा संबंधी ज्ञान के अद्भुत भंडार हैं। देश-विदेश की फ़िल्मों पर उन्हें बोलने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रमों में बुलाया जाता है। दस साल पहले हमारे मित्र केशव राय ने 14 सितंबर को विश्व हिंदी अकादमी की ओर से हिंदी सेवा सम्मान शुरू किया। कमलेश पांडेय बतौर मुख्य अतिथि हर साल आते हैं। अपने हाथों से कलाकारों को सम्मानित करते हैं। लोखंडवाला कविता क्लब में भी हम सिनेमा पर कोई चर्चा रखते हैं तो कमलेश पांडेय हमारे कार्यक्रम में मौजूद रहते हैं। 

कमलेश पांडेय को फ़िल्म तेज़ाब (1988) के लिए फ़िल्म फेयर अवार्ड, सौदागर (1991) के लिए स्टार स्क्रीन अवार्ड और रंग दे बसंती (2006) के लिए आईफा अवार्ड से नवाज़ा गया। सिने जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए कमलेश पाण्डेय को महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा वी शांताराम  पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

कमलेश पांडेय ने कई टीवी शोज़ भी लिखे हैं। अस्सी के दशक में ‘करमचंद’, ‘कच्ची धूप’ और ‘नक़ाब’ लिखे। ज़ी टीवी के प्रोग्रैमिंग हेड रहते हुए उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र’ (2002) में, ‘द्रौपदी’, ‘एक दिन की वर्दी’ (2007) में ‘थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा सा आसमान’, ‘विरुद्ध’( विरुद्ध के लिए कई पुरस्कार) 2012 में, ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ इत्यादि टीवी शोज़ लिखे। अमोल पालेकर की फ़िल्म ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ’ में संवाद के साथ-साथ दस गीत भी कमलेश पांडेय ने लिखे।

स्क्रीन राइटर्स एसोसिएशन के दो बार महासचिव रह चुके कमलेश पांडेय बतौर वक्ता फ़िल्म लेखन की कक्षाओं में बहुत व्यस्त रहते हैं। मगर वे दोस्तों के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं। उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान फ़िल्म लेखन पर उनकी ऑनलाइन क्लास चल रही है। 

आपका-

देवमणि पांडेय

Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti, Kanya Pada,
Gokuldham, Film City Road, Goregaon East,
Mumbai-400063, M : 98210-82126
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