सोमवार, 6 जुलाई 2020

जां निसार अख़्तर : दिल और उनकी निगाहों के साए


शबनमी एहसास के शायर जां निसार अख़्तर

संगीत इंसान के दिल में होता है। शायर जां निसार अख़्तर अपने दिल में उस धरती के संगीत की ख़ुशबू लेकर मुम्बई आए थे जिसे तानसेन की नगरी ग्वालियर कहा जाता है। जहां की फ़िज़ाओं में आज भी न जाने कितनी स्वर लहरियां गूंज रही है। संगीत दिल में हो तो ख़ुद ब ख़ुद अलफ़ाज़ से जादू छलकने लगने लगता है।


ये दिल और उनकी निगाहों के साए
मुझे घेर लेते हैं बाहों के साए

जयदेव के सुरीले संगीत और लता मंगेशकर की मोहक आवाज़ म़े फ़िल्म 'प्रेम पर्वत' (1973) का यह गीत सुनते ही दिल में सितार बजने लगता है। कहा जाता है कि इस फ़िल्म का प्रिन्ट आज उपलब्ध नहीं है। यानी इस गीत का फ़िल्मांकन हम नहीं देख सकते। मगर बंद आँखों से देखिए तो पहाड़ों की गोद से झांकते क़ुदरत के हसीन नज़ारे को लफ़्ज़ों का लिबास पहना कर जा़ं निसार अख़्तर ने जिस ख़ूबसूरती से पेश किया है उस सलीक़े और उस मंज़रकशी का जवाब नहीं-

पहाड़ों को चंचल किरण चूमती है
हवा हर नदी का बदन चूमती है
यहाँ से वहाँ तक हैं चाहों के साए

लिपटते ये पेड़ों से बादल घनेरे
ये पल पल उजाले, ये पल पल अंधेरे
बहुत ठंडे ठंडे हैं राहों के साए

दमदार संगीत हो, असरदार गायकी हो, और जज़्बात में भीगे हुए अल्फ़ाज़ हों तो एक दिलकश रूहानी गीत रचा जाता है। ख़य्याम, लता मंगेशकर और जां निसार अख़्तर की त्रिवेणी ने फ़िल्म 'शंकर हुसैन' में यही कमाल किया है। इस गीत को सुनते हुए महसूस होता है कि जैसे संगीत की वादियों में तैरते हुए लफ़्ज़ों का हाथ पकड़ कर एक जादुई आवाज़ रूह की गहराइयों में उतर रही है-

आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहे 
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही 
आप यूँ... 

क़तरा क़तरा पिघलता रहा आस्मां 
रूह की वादियों में न जाने कहाँ 
इक नदी दिलरुबा गीत गाती रही

आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहे 
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही 
आप यूँ... 

संगीत में शायरी कैसे घुल जाती है... दिल से क़दमों की आवाज़ में ये तस्वीर नज़र आती है। संगीत एक रूहानी शय है। 'क़तरा क़तरा पिघलता रहा आस्मां'  इसे आंख बंद करके तनहाई में सुनिए तो महसूस होगा कि लता ने इस नाज़ुक एहसास को कितनी नर्मी से पेश किया है। जब भी इस गीत को सुनता हूं तो भीग जाता हूं। दिल पर एक नशा तारी हो जाता है। माहौल में पाकीज़गी उतर आती है। 

जां निसार अख़्तर का जादू
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तरक़्क़ी पसंद शायरी के दौर में कंधों तक बाल रखने का फ़ैशन था। सरदार जाफ़री और कैफ़ी आज़मी की तरह जां निसार अख़्तर भी बड़े बड़े बाल रखते थे। ज़ुल्फ़ें झटक कर अपना कलाम पेश करते थे। सुनने वाले उनकी इस अदा पर फ़िदा हो जाते थे-

सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी 
तुम आओ तो इस रात की औक़ात बनेगी 
ये हमसे न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़ हमारी न तेरे साथ बनेगी 

जां निसार अख़्तर की ग़ज़लों को कई मशहूर गायकों की आवाज़ मिली। ग़ज़लें पसंद की गईं-

अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त तुमको सुनाने के लिए हैं
आँखों में भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं

जां निसार अख़्तर ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू के प्रोफे़सर थे। सन् 1947 में हिंदुस्तान तक़्सीम हुआ तो ग्वालियर में भी दंगे फैल गए। सितंबर 1948 में नौकरी छोड़ कर वे बीवी-बच्चों के साथ भोपाल चले आए। हमीदिया कॉलेज में उर्दू के प्रोफे़सर बन गए। वामपंथी होने के कारण सियासत की निगाहों में खटकने लगे। अंजाम ये हुआ कि कॉलेज से इस्तीफ़ा देना पड़ा। गिरफ़्तारी से बचने के लिए भूमिगत हो गए। कुछ समय बाद मुंबई आ गए और सिने गीतकार बन गए।

सिने जगत में जां निसार अख़्तर
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सन् 1948 में एक सिने गीतकार के रूप में फ़िल्म ‘शिकायत’ से जां निसार अख़्तर की शुरुआत हुई। फ़िल्म ‘अनारकली’ (1953) से वे पहचाने गए-

कहते हैं किसे प्यार ज़माने को दिखा दे 
दुनिया की नज़र इश्क़ के क़दमों में झुका दे

फ़िल्म 'नया अंदाज़' के साथ लोकप्रियता का दौर शुरू हुआ-

मेरी नींदों में तुम, मेरे ख़्वाबों में तुम 
हो चुके हम तुम्हारी मुहब्बत में गुम

फ़िल्म 'सीआईडी'  ने काबयाबी के इस सिलसिले को आगे बढ़ाया-

आंखों ही आंखों में इशारा हो गया
बैठे बैठे जीने का सहारा हो गया 

जां निसार अख़्तर ने अपने दौर के नामी संगीतकारों के साथ काम किया। ओपी नैयर के संगीत ने उन्हें सिने जगत में प्रतिष्ठा दिलाई। पता नहीं क्यों सन् 1960 के बाद दोनों ने कभी साथ में काम नहीं किया। आगे चलकर संगीतकार ख़य्याम का साथ मिला तो जां निसार अख़्तर ने कामयाबी की नई ऊंचाइयों को छुआ।

जां निसार के गीत पर साहिर का नाम
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फ़िल्म जगत में यह सवाल कई बार सामने आया- क्या साहिर के नाम से जां निसार अख़्तर ने गीत लिखे। सन् 2006 में जां निसार अख़्तर के गीतों पर राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से एक किताब आई- 'निगाहों के साए'। इसे मेरे दोस्त शायर-सिने गीतकार विजय अकेला ने संपादित किया है। इसी किताब में उर्दू के जाने-माने समालोचक डॉ गोपीचंद नारंग ने फ़रमाया है- "सुनते हैं उस ज़माने में साहिर लुधियानवी का सिक्का इतना रवां था कि जो फ़िल्में वो ख़ुद नहीं कर सकते थे उसे जां निसार अख़्तर से लिखवा लेते थे। कहने वाले कहते हैं कि ये नग़मे चले साहिर के नाम से लेकिन उनके सच्चे ख़ालिक़ जां निसार अख़्तर ही थे।"

जां निसार अख़्तर की दूसरी बीवी मुहतरमा ख़दीजा के बेटे शाहिद अख़्तर ने कहा- "हां, अब्बा साहिर के घोस्ट राइटर थे यह मैंने देखा है। इसकी वजह से घर में आए दिन झगड़े भी होते थे। बाबा ने 'बहू बेगम' फ़िल्म बनाई तो अम्मी ने उनसे पूछा था- इस फ़िल्म के गीत आप ही क्यों नहीं लिखते! उन्होंने जवाब दिया- साहिर मेरा दोस्त है। साहिर का नाम बड़ा है और फ़िल्म जगत में नाम बिकता है।"

Jaan Nisar Akhtar Have Also Written Shayari In The Name Of Sahir ...
शायर निदा फ़ाज़ली ने भी कहा था- "फ़िल्म 'बहू बेगम' के लिए जां निसार अख़्तर ने ख़ुद गीत लिखकर उस ज़माने की चलती दुकान साहिर लुधियानवी का लेबल लगा दिया था जिससे लोगों को लगा कि जां निसार अख़्तर एक शायर के तौर पर चूक गए हैं।"

मेरे दोस्त शायर साबिर दत्त एक ज़माने म़े बतौर पीए साहिर का काम देखते थे। साहिर के गुज़रने के बाद वे जावेद अख़्तर के पीए बन गए। उन्हीं की देखरेख में जावेद की किताब 'तरकश' शाया हुई थी। धूम्रपान की वजह से कैंसर से उनकी दोस्ती हुई और वे अल्लाह को प्यारे हो गए। मैंने अपने इस दोस्त साबिर दत्त से एक दिन सवाल किया- क्या साहिर के नाम से जां निसार अख़्तर ने गीत लिखे थे! वो बोले- "साहिर को उस समय एक गीत के लिए पांच हज़ार मिलते थे और जां निसार को पांच सौ। अपना घर चलाने के लिए जां निसार को पैसों की ज़रूरत थी। साहिर के लिए गीत लिखकर उन्होंने अपनी इस ज़रूरत को पूरा किया।"

साहिर और जां निसार की दोस्ती
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साहिर और जां निसार में अच्छी दोस्ती थी। साहिर को बोलने की और अपनी तारीफ़ सुनने की आदत थी। जां निसार शाम को साहिर के घर पर महफ़िल जमाते। साहिर की हां में हां मिलाते। मगर एक दिन उन्होंने किसी बात पर हां के बजाय ना बोल दिया। साहिर नाराज़ हो गए। जां निसार उठे और चुपचाप बाहर निकल आए। 

साहिर की छांव से बाहर निकल कर जां निसार ने ख़ुद को ख़ुद के आईने में देखा। अपने आप को पहचाना। इसके बाद उनकी शायरी में बदलाव आया। उनके कलाम में जदीदियत का रंग नज़र आने लगा अदबी पत्र-पत्रिकाओं में संजीदगी से उनका ज़िक्र होने लगा। मुशायरों में भी उन्हें ज़्यादा ग़ौर से सुना जाने लगा।

जीने की हर तरह से तमन्ना हसीन है
हर शर के बावजूद ये दुनिया हसीन है 
दरिया की तुंद बाढ़ भयानक सही मगर 
तूफां से खेलता हुआ तिनका हसीन है

Jan Nisar Akhtar, Ek Jhalak | Pune365
नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना
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जां निसार अख़्तर ने नर्मो-नाज़ुक ज़बान में दिल को छूने वाले गीत लिखे। ग्वालियर की गलियों में उनका बचपन खेला था। उसी ज़मीन से जुड़ी संगीतमय भाषा लेकर वे सिने जगत में आए थे। फ़िल्म ‘नूरी’ का गीत है- आजा रे, ओ मेरे दिलबर आजा, दिल की प्यास बुझा जा रे … जां निसार अख़्तर की ज़बान में कितनी नर्मी है, कितनी कशिश है, कितनी दिलकशी है, इसका अंदाज़ा आप फ़िल्म 'नूरी' के इस गीत की चंद लाइनों से लगा सकते हैं-

उजला उजला नर्म सवेरा रूह में मेरी झाँके 
प्यार से पूछे कौन बसा है तेरे दिल में आ के

दर्द जगाये मीठा मीठा अरमां जागे जागे
प्यार की प्यासी मैं दीवानी कुछ ना सोचूँ आगे

शाम सुहानी महकी महकी, ख़ुशबू तेरी लाए
पास कहीं जब कलियाँ चटकें, मैं जानू तू आए 

दूर नहीं मैं तुझसे साथी, मैं तो सदा से तेरी
एक नज़र जब तुझको देखूँ, जागे किस्मत मेरी

सन् 1976 में लोक भाषा में लिखा हुआ जां निसार अख़्तर का एक गीत हर गली, हर चौराहे पर बज रहा था। संगीतकार सपन जगमोहन द्वारा संगीतबद्ध फ़िल्म 'सज्जो रानी' के इस गीत के बोल थे- 

नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना …

फ़िल्म 'सज्जो रानी' में उनका दूसरा लोकगीत भी संगीत प्रेमियों को बहुत पसंद आया- 

सैया के गांव में, तारों की छांव में 
बनके दुल्हनिया जाऊंगी ...

'सज्जो रानी' का यह गीत लिखने के बाद जां निसार अख़्तर सचमुच 'तारों की छांव में' यानी रब के गांव में हमेशा के लिए चले गए। शोभा गुर्टू की आवाज़ में उनके अलफ़ाज़ उन्हें सदाएं देते रहे-

दिल है हाज़िर लीजिए ले जाइए 
और क्या-क्या चाहिए फ़रमाइए


ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में जां निसार अख़्तर को कमाल अमरोही की ऐतिहासिक फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' में गीत लिखने का आमंत्रण मिला। गीत लिखते-लिखते ऊपर वाले का बुलावा आ गया। शायर निदा फ़ाज़ली ने दो गीत लिखकर उनके अधूरे काम को पूरा किया। इस फ़िल्म में उनका गीत आज भी उनकी याद दिलाता रहता है- 

हम भटकते हैं, क्यों भटकते हैं, दश्तो-सहरा में
ऐसा लगता है, मौज प्यासी है, अपने दरिया में
कैसी उलझन है, क्यों ये उलझन है
एक साया सा, रूबरू क्या है
ऐ दिल-ए-नादां, ऐ दिल-ए-नादां
आरज़ू क्या है, जुस्तजू क्या है ...

संगीतकार ख़य्याम ने 'ऐ दिले नादां' गीत में संतूर से लेकर सारंगी तक हिंदुस्तानी वाद्ययंत्रों का अदभुत इस्तेमाल किया। इस ख़ूबसूरत कारनामे के लिए उनको सलाम। एक मुलाक़ात में मैंने संगीतकार ख़य्याम से पूछा था- आप जां निसार अख़्तर को अलफ़ाज़ और इल्म का ख़ज़ाना क्यों कहते हैं? वे बोले- फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' के गीत 'ऐ दिले नादां' में अंतरे छ: लाइन के हैं। उन्होंने छ: लाइनों के सौ से अधिक अंतरे लिखे थे। यह कमाल वही शायर कर सकता है जिसके पास अलफ़ाज़ और इल्म का ख़ज़ाना हो।


जां निसार अख़्तर का जन्म 8 फरवरी  1914 को  ग्वालियर में हुआ। 18 अगस्त 1976 को उनका इंतक़ाल हुआ। उनके सात काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। उनके वालिद मुज़्तर ख़ैराबादी ग्वालियर के प्रतिष्ठित शायर थे।


Safia Akhtar – The Lucknow Observer
सफ़िया अख़्तर और 
जां निसार अख़्तर
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शायर जां निसार अख़्तर की शरीक़ ए हयात सफ़िया अख़्तर जाने-माने शायर मजाज़ की बहन थीं। सफ़िया अख़्तर अपने शौहर से बेइंतिहा मुहब्बत करने वाली बेहद हसीन, ज़हीन और दिलेर औरत थीं। जां निसार अख़्तर मुंबई में जब सिने गीतकार बनने का संघर्ष कर रहे थे उस वक़्त उन्होंने अपने दोनों बेटों सलमान अख़्तर और जावेद अख़्तर की बड़ी अच्छी परवरिश की। सन् 1943 में उनकी शादी हुई थी। सिर्फ़ 9 साल का साथ रहा। सन् 1952 में सफ़िया अख्तर का इंतक़ाल हो गया। उनकी तरबियत का कमाल ये है कि आगे चलकर उनके दोनों बेटे डॉ सलमान अख़्तर (यूएस) और जावेद अख़्तर शायर बन गए। दोनों ने नाम कमाया। यह सफ़िया अख़्तर की ममता का कमाल था कि जावेद ने फ़िल्म 'शोले' में कभी न भूलने वाला एक यादगार सम्वाद लिखा- 'मेरे पास मां है- ...


Jan Nisar Akhtar Filmography | Biography of Jan Nisar Akhtar ...
मां के गुज़रने के बाद जावेद और सलमान को  रिश्तेदारों के साथ रहना पड़ा। जावेद के मन में अपने वालिद के प्रति बग़ावत और नाराज़गी थी। इस बग़ावत में जब तक वालिद ज़िंदा रहे उन्होंने शायरी नहीं की। मरने से 9 दिन पहले जां निसार अख़्तर ने अपनी आख़िरी किताब अपने दस्तख़त के साथ जावेद को भेंट की। उस पर लिखा- "जब हम न रहेंगे तो बहुत याद करोगे।" वालिद के गुज़रने के बाद जावेद अख़्तर के मन से बग़ावत दूर हो गई। उन्होंने शायरी की। उनकी किताबें प्रकाशित हुईं। यानी उन्होंने अपने वालिद की विरासत को उन्होंने संभाल लिया।

सफ़िया अख़्तर ने अपने महबूब शौहर जां निसार अख़्तर को ढेर सारे प्यार भरे ख़त लिखे थे। उनके ख़तों की किताब 'ज़ेरे लब' उर्दू ज़बान और अदब का एक बेमिसाल तोहफ़ा मानी जाती है। जां निसार अख़्तर ने अपनी बीवी की मुहब्बत में रुबाइयां लिखीं। इन रुबाइयां की किताब 'घर-आंगन' नाम से प्रकाशित हुई। 

'ज़ेरे लब' और 'घर-आंगन' ये दोनों किताबें बेहद मक़बूल हुईं। उस दौर में कई लोगों के घर में यह दोनों किताबें एक साथ दिखाई पड़ती थीं। लोग मज़ाक में कहते- हमारे पास मियां बीवी दोनों हैं। शायर जां निसार अख़्तर के लिए उनकी बीवी ही उनके लेखन की प्रेरणा थी-

हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह 
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह 
और क्या इससे ज़ियादा कोई नरमी बरतूं 
दिल के ज़ख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह

सफ़िया अख़्तर के इंतक़ाल के चार साल बाद जां निसार अख़्तर ने सन् 1956 में मोहतरमा ख़दीजा को अपनी ज़िंदगी का हमसफ़र बनाया। ख़दीजा के पास एक बेटा था शाहिद। जां निसार से शादी के बाद दो बेटियां पैदा हुईं।

अलीगढ़ यूनीवर्सिटी के गोल्डमेडिलिस्ट शायर जां निसार अख़्तर को फ़िल्म जगत में वो मुक़ाम नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। उन्होंने 80 फ़िल्मों में गीत लिखे। सिर्फ़ 10 फ़िल्मों में वो सोलो गीतकार थे। बाक़ी फ़िल्मों में उन्होंने दूसरे गीतकारों के साथ एक दो गीत ही लिखे। फिर भी ज़िंदगी के आख़िरी सालों में संगीतकार ख़य्याम के साथ 'शंकर हुसैन' (1977) 'नूरी' (1979) 'रज़िया सुल्तान' (1983) जैसी फ़िल्मों में बेहतरीन गीत लिखकर उन्होंने सिने जगत में अपने योगदान को यादगार बना दिया।

यह ख़ुद में एक करिश्मा ही है कि शोख़, चंचल और चुलबुले गीतों के बजाय जां निसार अख़्तर की क़लम से ऐसे गीत निकले जो तनहाइयों को आबाद करते हैं। मुहब्बत की ख़ुशबू से दिल को महकाते हैं। टूटे दिलों पर मरहम लगाते हैं। इन गीतों को प्यार करने वाले गुनगुनाते हैं। अपने जज़्बात से उन्होंने गीतों का एक ऐसा जहां आबाद किया जिसमें मुहब्बत के गुलाब खिलते हैं। जिसकी ख़ुशबू से दिलो-जां महकते हैं। जां निसार अख़्तर के गीतों में गुज़रे हुए वक़्त की धड़कन शामिल है। आने वाले वक़्त में भी उनके गीत दिलों में फूल खिलाते रहेंगे और अपनी ख़ुशबू से हमारे एहसास को महकाते रहेंगे। 

अंत में आप सबके लिए पेश है फ़िल्म शंकर हुसैन में जां निसार अख़्तर का यह गीत।

आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहे 
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही 
आहटों-सी अंधेरे चमकते रहे 
रात आती रही रात जाती रही  
आप यूँ... 

गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँ 
दूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँ
ज़िंदगी ज़िंदगी को बुलाती रही 
आप यूँ... 

क़तरा क़तरा पिघलता रहा आस्माँ 
रूह की वादियों में न जाने कहाँ 
इक नदी दिलरुबा गीत गाती रही
आप यूँ... 

आप की गर्म बाहों में खो जाएंगे 
आपके नर्म शानों पे सो जाएंगे, 
मुद्दतों रात नींदें चुराती रही
आप यूँ... 

🍁🍁🍁

आपका-
देवमणि पांडेय

Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti, 
Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road, Goregaon East, Mumbai-400063
M : 98210-82126
devmanipandey.blogspot.com
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