गुरुवार, 30 जुलाई 2020

कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी : दो बैलों की कथा




कथा सम्राट प्रेमचंद 

क्या कभी आपने इस बात पर ग़ौर किया कि आपने जीवन में पहली किताब कौन सी पढ़ी थी? मैं कक्षा दो का विद्यार्थी था। एक दिन मुझे भाई साहब की टेबल पर एक किताब नज़र आई- "प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां।" उस समय यह किताब हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में थी। मैंने इसकी विषय सूची देखी। एक जगह लिखा था- "दो बैलों की कथा।" दो बैलों की कथा क्या हो सकती है? मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई। मैंने इसे पढ़ना शुरू किया। यह कथा मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैं पूरी किताब पढ़ गया। मेरे मन पर जैसे जादू छा गया। मैं किताबों की तलाश में जुट गया। 

गर्मियों की छुट्टियों में पढ़ने की प्यास और ज़्यादा बढ़ गई। रामचरित मानस का बालकांड जमा नहीं। पड़ोसी के यहां राधेश्याम रामायण की किताब मिली। उसकी लय इतनी अच्छी थी कि मैं कई कई घंटे उसे गाकर पढ़ता था।गांव के एक बुज़ुर्ग के यहां "सिंहासन बत्तीसी" और "क़िस्सा तोता मैना" जैसी किताबें मिलीं। एक नौजवान को नौटंकी की किताब पढ़ने का शौक़ था। उसके साथ कानपुर के पहलवान श्रीकृष्ण खत्री रचित आल्हा ऊदल के शौर्य को दर्शाने वाली कई किताबों का सामूहिक पाठ किया। 

गर्मी की छुट्टियों में गांव आए एक परदेसी से अचानक दस किताबों का तोहफ़ा मिल गया। इसमें गुलशन नंदा और प्रेम बाजपेई से लेकर कर्नल विनोद और कैप्टन हमीद तक सब शामिल थे। इन्हें पढ़ने में इतना आनंद आया कि मैंने ऐसी किताबें ढूंढ़ ढूंढ़ कर पढ़ीं। 

आगे चलकर एक दोस्त से गुरुदत्त और शरत चंद की किताबें मिलीं। इंटरमीडिएट में पहुंचा तो एक महकता हुआ ख़त मिला। उसमें "लिखती हूँ ख़त ख़ून से" टाइप की शायरी थी। उसका जवाब देने के लिए सुलतानपुर के पंत स्टेडियम में रात भर जाकर मैंने मुशायरा सुना। मैं शायरी में डूब गया और आज तक उबर नहीं पाया। मुशायरे में किसी शायर ने सुनाया था-

भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में 
कांप उठता हूं कोई जान न ले 
ये भी डरता हूं मेरी आंखों में 
तुझे देख के कोई पहचान न ले

जब मैंने महकते ख़त का जवाब लिखा तो उपरोक्त लाइनों को कोट किया। अनवर जलालपुरी की निज़ामत में हुए इस मुशायरे में सुलतानपुर के महबूब शायर अजमल सुल्तानपुरी भी मौजूद थे। उनके चार मिसरे भी मैंने अपनी तहरीर में शामिल किए- 

काजलों की जो ख़ुद अपनी आंख होती 
तो वो किसी की आंख का काजल न होते 
लोग अपने हुस्न को जो देख पाते 
तो किसी के इश्क़ में पागल ना होते 

देहरादून के प्रिय मित्र इंद्रजीत सिंह ने बताया कि प्रेमचंद 3 जून 1934 को मुंबई पहुंचे थे और मार्च 1935 के तीसरे हफ़्ते में वापस लौट गए। एक साल का 6 फ़िल्म लिखने का करार आठ हज़ार रुपये था। प्रेमचंद ने बस दो फ़िल्में लिखीं और साढ़े 6 हज़ार लेकर साढ़े आठ महीने बाद माया नगरी मुम्बई को अलविदा कहकर बनारस लौट आये। मुंबई की फ़िल्म नगरी उन्हें रास नहीं आई। उनकी कहानी 'मज़दूर पर 'मिल मज़दूर' नाम की फ़िल्म बनी। फ़िल्म देखकर उन्होंने कहा था- इसमें मेरा सिर्फ़ दस प्रतिशत है।

इस फ़िल्म में मिल मज़दूर का बेटा अपने पिता की तरह मज़दूरों पर अत्याचार करता है। मिल मालिक की बेटी मज़दूरों के साथ खड़ी हो जाती है और इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मिल में हड़ताल करवा देती है। यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो इससे प्रेरित होकर मुंबई की कई मिलों में हड़ताल हो गई। सरकार ने इस फ़िल्म को बैन कर दिया। बाद में फ़िल्म का नाम बदलकर इसे दोबारा प्रदर्शित किया गया मगर अपेक्षित सफलता नहीं मिली। 31 जुलाई प्रेमचंद का जन्म दिन है। उनकी स्मृति को सादर नमन। 

आपका- 
देवमणि पांडेय 

98210-82126

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