गीतकार शैलेंद्र ने जन
भावनाओं के इज़हार के लिए जन भाषा में गीत लिखे। रोचक और दिलकश तरीक़े से बात कहने
की कला शैलेंद्र के गीतों की ताक़त है। अगर कोई बात मुहावरेदार शैली में कही जाए तो
उसका असर दोगुना हो जाता है। बात सुनने में अच्छी लगती है और हम उसे अपने यादों के
ख़ज़ाने में शामिल कर लेते हैं। शैलेंद्र के लोकप्रिय गीतों में यह मुहावरेदार शैली
साफ़ साफ़ नज़र आती है। मिसाल के तौर पर उनकी कुछ मुहावरेदार अभिव्यक्तियों की झलक
देखिए-
1. होठों पे सचाई रहती
है
2. दोस्त दोस्त ना रहा
3. आज फिर जीने की तमन्ना
है
4. जीना इसी का नाम
है
5. फिर भी दिल है
हिंदुस्तानी
6. दिल का हाल सुने
दिलवाला
7. ये मेरा दीवानापन
है
8. सजन रे झूठ मत
बोलो
9. ज़ख्मों से भरा सीना है
मेरा
10. सब कुछ सीखा हमने न
सीखी होशियारी
फ़िल्म जगत के सर्वश्रेष्ठ
गीतकार
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शैलेंद्र फ़िल्म जगत के
सर्वश्रेष्ठ गीतकार हैं, यह बयान गीतकार गुलज़ार का है। शैलेंद्र की लेखनी में कुछ
तो ऐसी बात थी जिसने उन्हें अपने दौर का सर्वश्रेष्ठ गीतकार बना दिया। ग़ौरतलब है
कि शैलेंद्र ने अधिकतर गीत धुन पर लिखे। फिर भी उनकी अभिव्यक्ति सरल और सहज है।
उन्होंने कभी जन भाषा, जन जीवन और जीवन दर्शन का दामन नहीं छोड़ा। शैलेंद्र ने जब
हाथ में कलम थामी तब जन आंदोलनों का दौर था। सन् 1942 के आंदोलन में वे जेल भी गए।
उनके शुरुआती गीत इन्हीं जन आंदोलनों में उनकी भागीदारी से उपजे हैं। शैलेंद्र के
अंदर एक लावा उबल रहा था। उनके गीतों में आग ही आग थी। सिने जगत से जुड़ने के बाद
उन्होंने अपने लफ़्ज़ों से भावनाओं के फूल खिलाए। ऐसे फूल जिनकी ख़ुशबू से आज सारा
जहान महक रहा है।
क्रांतिकारी विचारधारा के
हिमायती शंकर शैलेंद्र प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा) के
सक्रिय सदस्य थे। वे रेलवे में वेल्डर थे। मज़दूर यूनियन में सक्रिय थे। वाम पार्टी
की नीतियों में परिवर्तन हुआ तो उनका मोहभंग हो गया। बावजूद इसके वे अपनी सोच,
फ़िक्र और इज़हार में मज़दूरों, शोषितों तथा वंचितों के साथ हमेशा खड़े रहे। कविता
में उनका अभिव्यक्ति कौशल विचारधारा के प्रचार तक सीमित रह जाता। मगर सिनेमा में
संगीत के मेल से शैलेंद्र की विचारधारा कलात्मक अभिव्यक्ति में तब्दील हो गई। यह
उपलब्धि हासिल करने के बाद उन्होंने सिने जगत को कालजयी गीतों से समृद्ध किया।
★
होंगे राजे राजकुंवर हम
बिगड़े दिल शहज़ादे
हम सिंहासन पर जा बैठे जब
जब करे इरादे
★
छोटे से घर में ग़रीब का
बेटा
मैं भी हूं माँ के नसीब का
बेटा
रंजो ग़म बचपन के साथी
आंधियों में जले दीपक
बाती
भूख ने है बड़े प्यार से
पाला
राज कपूर से पहली मुलाक़ात
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एक समय जनकवि शंकर
शैलेंद्र को फ़िल्मी लोगों से नफ़रत थी। मगर बतौर गीतकार जब वे फ़िल्म जगत में गए तो
दूध में शक्कर की तरह घुल गए। ‘माधुरी’ में प्रकाशित एक पत्र में शैलेंद्र ने अपने
मित्र को लिखा था- "अगस्त सन 1947 में श्री राज कपूर एक कवि सम्मेलन में मुझे
पढ़ते देखकर प्रभावित हुए। मुझे फ़िल्म 'आग' में लिखने के लिए कहा किंतु मुझे फ़िल्मी लोगों से घृणा थी। सन् 1948
में शादी के बाद कम आमदनी में घर चलाना मुश्किल हो गया। इसलिए मैं राज कपूर के पास
गया। उन्होंने तुरंत अपने चित्र 'बरसात' में लिखने का अवसर दिया।"
शैलेंद्र ने पहली मुलाक़ात
में राज कपूर से कहा था- मैं पैसे के लिए नहीं लिखता। सवाल यह है शैलेंद्र को
फ़िल्मी लोगों से घृणा क्यों थी। शैलेंद्र जिस विचारधारा के साथ थे उसमें पैसे
वालों को पूंजीपति कहा जाता है। ये लोग फ़िल्म में पैसा लगाते हैं और पैसा कमाते
हैं। दूसरी ओर फ़िल्म जगत में परदे के पीछे काम करने वाला एक ऐसा मज़दूर वर्ग है
जिसका आज भी शोषण होता है। उन्हीं की मेहनत के बल पर पैसा लगाने वाले फ़िल्म
निर्माता ऐश करते हैं। शैलेंद्र इस सच्चाई से वाक़िफ़ थे। इसीलिए फ़िल्मी लोगों से
उन्हें घृणा थी और उन्होंने पैसे के लिए लिखने से मना कर दिया था।
सिनेमा का नया
प्लेटफार्म
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शैलेंद्र प्रगतिशील लेखक
संघ से जुड़े कवि थे। इस प्रगतिशीलता में वाम विचारधारा का प्रचार भी शामिल था। वे
किसानों मज़दूरों की बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध थे। सिनेमा से जुड़ने के बाद शैलेंद्र
को अपनी प्रतिभा के विस्तार के लिए एक नया प्लेटफार्म मिल गया। सिनेमा जन-जन में
पहुंचने वाला माध्यम है। शैलेंद्र ने हिंदी सिनेमा के विशाल कैनवास पर ज़िंदगी और
समाज के जो चित्र बनाए उनमें नयापन था। उनके रंगों में आम आदमी के संघर्ष और सपने
शामिल थे।
अगर शैलेंद्र सिर्फ़
प्रगतिशील कवि बने रहते तो उनकी प्रतिभा राख के ढेर में चिंगारी की तरह छुप जाती।
जन-जन तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंच पाती। सच यही है कि तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप
में विचारधारा के लिए लिखी गई कविताओं का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं होता।
प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े मजरूह सुल्तानपुरी अपने उस गीत को अदबी गीत नहीं
मानते थे जिसके लिए उन्हें डेढ़ साल की जेल हुई थी। वह एक तात्कालिक प्रतिक्रिया
थी जिसमें पं. नेहरू और कॉमनवेल्थ पर कटाक्ष किया गया था-
अमन का झंडा इस धरती
पर
किसने कहा लहराने न
पाए
ये भी है कोई हिटलर का
चेला
मार ले साथी जाने न
पाए
मजरूह साहब की तरह गीतकार
शैलेंद्र ने भी प्रगतिशील विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई और लिख
दिया-
मत समझो पूजे जाओगे क्योंकि
लड़े थे दुश्मन से
रुत ऐसी है आंख लड़ी है अब
दिल्ली की लंदन से
कामनवेल्थ कुटुम्ब देश को
खींच रहा है मंतर से
प्रेम विभोर हुए नेतागण
नीरा बरसी अम्बर से
शैलेंद्र फ़िल्म गीतकार न
बनते तो ऐसी ही तात्कालिक और प्रचारात्मक कविताओं के दायरे में बंधकर रह जाते।
उनकी फ़िक्र को वैसी परवाज़ नहीं मिलती जैसी सिने जगत में उन्हें मिली। सन् 1955 में
शैलेंद्र का एक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ- 'न्योता और चुनौती'। ये कविताएं मज़दूर आंदोलन में उनकी सक्रियता को रेखांकित करती हैं।
इस संग्रह में बीसवीं सदी का सबसे लोकप्रिय नारा भी है- "हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है" और उनका लोकप्रिय गीत भी है-
तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की
जीत पर यक़ीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार
ला ज़मीन पर
उस दौर में विचारधारा के
प्रचार के लिए मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी और कैफ़ी आज़मी ने भी कई
प्रचारवादी रचनाएं लिखी थीं। बाद में उन्होंने अपनी ऐसी तात्कालिक कविताओं को ख़ुद
ही रद्द किया क्योंकि तात्कालिक टिप्पणी को साहित्य नहीं माना जाता। प्रचार की यह
शैली शैलेंद्र के यहां भी दिखाई पड़ती है-
★
लीडर जी, परनाम तुम्हें हम
मज़दूरों का
हो न्यौता स्वीकार तुम्हें
हम मज़दूरों का
★
वीर जवाहरलाल अब अपना वचन
निभाए दियो
जनता की सरकार अब दिल्ली
में बैठाए दियो
★
रामराज्य का ढोल
बजाया
नेता ने कंट्रोल
उठाया
काले बाज़ारी बनियों
को
दिल में दिल्ली में बैठाया
गीतकार शैलेंद्र का सुहाना
सफ़र
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विचारधारा के प्रचार से
ऊपर उठकर गीतकार शैलेंद्र जब अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में इंसानियत, मानवता,
प्रकृति, रिश्ते नाते और ज़िंदगी के जज़्बात से जुड़े तो उनका सुहाना सफ़र शुरू हुआ।
उन्होंने सिने जगत को बेमिसाल गीतों का तोहफ़ा दिया-
ये गोरी नदियों का चलना
उछलकर
कि जैसे अल्हड़ चले पी से मिलकर
यह कौन हंसता है फूलों में
छुपकर
बहार बेचैन है किसकी धुन
पर
कहीं रुनझुन, कहीं
गुनगुन,
कि जैसे नाचे जमीं ...
★
अब के बरस भेज भैया को
बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे …
1. यह मेरा दीवानापन है
(यहूदी-1958)
2. सब कुछ सीखा हमने
(अनाड़ी-1959)
3. मैं गाऊँ तुम सो जाओ
(ब्रह्मचारी-1968)
शैलेंद्र (शंकर दास राव)
का जन्म रावलपिंडी में 30 अगस्त 1923 को हुआ था। 14 दिसंबर 1966 को मुंबई में उनका
का देहांत हुआ। शैलेंद्र का बचपन मथुरा में बीता। घर में उर्दू और फ़ारसी का माहौल
था। ब्रजभाषा के मुहल्ले में रहते हुए शैलेंद्र ने अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति के
लिए हिंदी और भोजपुरी भाषा को चुना। शैलेंद्र को उर्दू आती थी मगर उन्होंने
परंपरा से प्राप्त उर्दू फ़ारसी के प्रतीकों का उपयोग नहीं किया। उनके गीतों में
मुहब्बत से ज़्यादा प्यार दिखाई देता है- प्यार हुआ इकरार हुआ, तू प्यार का सागर
है।
गीतकार शैलेंद्र और तीसरी क़सम
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फणीश्वरनाथ रेणु के दिलकश
संवाद, नवेंदु घोष की सशक्त पटकथा, राजकपूर और वहीदा रहमान का बेमिसाल अभिनय, शंकर जयकिशन का मनभावन संगीत, शैलेंद्र के मर्मस्पर्शी गीत और बासु
भट्टाचार्य के कुशल निर्देशन के बावजूद 'तीसरी क़सम' बॉक्स ऑफिस की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। इस फ़िल्म के लिए राजकपूर ने
मेहनताना सिर्फ़ एक रुपए लिया था। वितरकों के दबाव में वे फ़िल्म का अंत बदलना चाहते
थे मगर शैलेंद्र और रेणु इसके लिए तैयार नहीं हुए।
शैलेंद्र ने सोचा था कि
ढाई-तीन लाख ख़र्च होंगे और छ: महीने में 'तीसरी
क़सम' बन जाएगी। काम जल्दी हो इसलिए उन्होंने रेणु को भी
मुंबई बुला लिया था। 'तीसरी कसम' को बनने में लगभग छ: साल लग गए। बजट बाईस-तेईस
लाख पहुंच गया। क़र्ज़ के बोझ ने शैलेंद्र की नींद उड़ा दी। सितंबर 1966 में दिल्ली
में 'तीसरी क़सम' का प्रीमियर हुआ। राजकपूर
वहां मौजूद थे। फाइनेंसर की तरफ़ से अरेस्ट वारंट निकलने के कारण अपने परिवार के
साथ शैलेंद्र अपनी ही फ़िल्म के प्रीमियर शो में दिल्ली नहीं पहुंच सके।
बिना किसी प्रचार के दिल्ली के डिलाइट सिनेमा में 'तीसरी क़सम' प्रदर्शित हुई और तीसरे दिन उतर गई। राजस्थान में भी इस फ़िल्म को दर्शक नहीं मिले। अपने लोगों के विश्वासघात से शैलेंद्र को ज़बरदस्त सदमा पहुंचा। 14 दिसम्बर 1966 की दोपहर को 3 बजे अंततः अपनी जान क़ुर्बान करके शैलेंद्र को अपने इस ख़्वाब की क़ीमत चुकानी पड़ी।
अगले साल 1967 में मुंबई के अप्सरा टाकीज में 'तीसरी क़सम' को रिलीज़ किया गया। यह फ़िल्म 5 हफ़्ते हाउसफुल चली। इसे क्लासिक फ़िल्म का दर्जा प्राप्त हुआ। सन् 2013 में भारत सरकार ने शैलेंद्र पर डाक टिकट जारी किया। ‘’जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां’’ फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' का यह मुखड़ा शैलेंद्र ने लिखा था। उनके सुपुत्र शैली शैलेंद्र ने इस अधूरे गीत को पूरा किया।
मेरा कवि और मेरे गीत
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धर्मयुग 16 मई 1965 में
शैलेंद्र का एक लेख प्रकाशित हुआ था- मैं, मेरा कवि और मेरे गीत। इसमें शैलेंद्र ने कहा था- "जनता को मूर्ख या सस्ती रुचि का
समझने वाले कलाकार या तो जनता को नहीं समझते या अच्छा और ख़ूबसूरत पैदा करने की
क्षमता उनमें नहीं है। हाँ, वह अच्छा मेरी नज़रों में बेकार है जिसे केवल गिने-चुने
लोग ही समझ सकते हैं।"
शैलेंद्र ने कहा कि इसी
विश्वास से रचे हुए मेरे कई गीत बेहद लोकप्रिय हुए जिन्हें लड़के-लड़कियां एक
दूसरे को छेड़ने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते, जैसे-
1. नन्हे मुन्ने बच्चे
तेरी मुट्ठी में क्या है (बूट पॉलिश)
2. तुम्हारे हैं तुमसे दया
मांगते हैं (बूट पॉलिश)
3. मेरा जूता है जापानी
(श्री 420)
4. ऐ मेरे दिल कहीं और चल
(दाग़)
5. तू प्यार का सागर है
(सीमा)
6. बहुत दिया देनेवाले ने
तुझको (सूरत और सीरत)
7. सब कुछ सीखा हमने न
सीखी होशियारी (अनाड़ी)
8. सूरज ज़रा और पास आ
(उजाला)
9. हम उस देश के वासी हैं
(जिस देश में गंगा बहती है)
10. ओ जाने वाले, हो सके
तो लौट के आना (बंदिनी)
शैलेंद्र के सिने गीत एक
ऐसे मंज़िल का पता देते हैं जहां से उम्मीद की एक नई किरण फूटती है। जहां से हौसलों
का एक नया सूरज निकलता है। शैलेंद्र के गीतों में जज़्बात की एक ऐसी नमी है जो
दिलों में फूल खिलाती है। शैलेंद्र के गीतों में धरती गाती है, आसमान झूमता है और
कायनात मुस्कराती है। जीवन के सुख दुख और धूप छांव के लिबास में नज़र आने वाले ये
गीत आम आदमी को संघर्ष में जीने की और आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। गीतकार
शैलेंद्र की आवाज़ आज भी फ़िज़ाओं में गूंज रही है-
काम नए नित गीत बनाना
गीत बनाकर जहां को
सुनाना
कोई ना मिले तो अकेले में
गाना
देहरादून के प्रतिष्ठित
लेखक इंद्रजीत सिंह के संपादन में गीतकार शैलेंद्र पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई है- 'धरती कहे पुकार के'। इस पुस्तक से गीतकार
शैलेंद्र के सिनेमाई योगदान और शख़्सियत के बारे में बहुत अच्छी जानकारी मिलती है।
इस खूबसूरत तोहफ़े के लिए मित्र इंद्रजीत सिंह को बहुत-बहुत बधाई।
आपका-
देवमणि पांडेय
Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti,
Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063
M : 98210-82126
devanipandey.blogspot.com
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