मुम्बई के बॉलीवुड में शायर सुदर्शन फ़ाकिर
इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
वर्ना क्या बात थी जिस बात ने रोने न दिया
फ़ाकिर साहब की इस ग़ज़ल ने बेगम अख़्तर की आवाज़ में
लोकप्रियता का कीर्तिमान रच दिया। इस ग़ज़ल पर ओशो ने एक घंटे का प्रवचन किया था।
सन् 1969 में मल्लिका ए तरन्नुम बेगम अख़्तर ने सुदर्शन फ़ाकिर को मुंबई बुलाया।
संगीतकार मदन मोहन से मिलाया। दोनों प्रतिभाओं के मेल से संगीत जगत में कुछ नया
करिश्मा हो, ऊपर वाले को यह मंज़ूर नहीं था। उसने मदन मोहन को बड़ी जल्दी ऊपर बुला
लिया।
आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया
राज गेस्ट हाउस में सुदर्शन फ़ाकिर
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सन् 1989 में मरीन ड्राइव के ताराबाई हाल में
"प्यार का पहला ख़त" लिखने वाले शायर हस्तीमल हस्ती के प्रथम ग़ज़ल संग्रह
का लोकार्पण साहू श्रेयांश प्रसाद जैन ने किया। कार्यक्रम के संचालन के बाद जब मैं
मंच से नीचे उतरा तो एक सीधे-साधे इंसान ने हाथ मिलाकर मुझे बधाई दी। मैंने पूछा-
आपका शुभ नाम? वे बोले- सुदर्शन फ़ाकिर।
अगली मुलाक़ात सांताक्रुज के राज गेस्ट हाउस में
हुई। गेस्ट हाउस का मालिक फ़ाकिर साहब की शायरी का दीवाना था। उसने कहा- फ़ाकिर
साहब, आप चाहें तो ज़िंदगी भर हमारे गेस्ट हाउस में रह सकते हैं। फ़ाकिर साहब ज़िंदगी
भर उसी गेस्ट हाउस में रहे। संगीतकार कुलदीप सिंह ने बताया- राज गेस्ट में फ़ाकिर
साहब की मेज़ पर दो चीज़ें हमेशा मौजूद रहती थीं- दवा और दारू। फ़ाकिर साहब को
अलग-अलग क़िस्म की दवाइयां खाने का भी शौक़ था। देर तक जागते थे और देर तक सोते थे।
फ़ाकिर साहब रोज़ शाम 8:00 से 8:30 बजे तक शायर
हस्तीमल हस्ती के ज्वेलरी इंपोरियम में मौजूद रहते थे ताकि किसी को ज़रूरत हो तो
फ़ोन कर ले। इसके बाद वे एक घंटे ईवनिंग वॉक करते। फ़ाकिर साहब बोले- आप मेरे साथ
ईवनिंग वाक कर सकते हैं। मैं कभी आपके साथ मयख़ाने में नहीं बैठूंगा। शराब मैं
अकेले पीता हूं।
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी
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जालंधर के डीएवी कॉलेज में जगजीत सिंह और सुदर्शन
फ़ाकिर सहपाठी थे। वहीं दोनों में दोस्ती हुई। दोस्ती के इस उजाले में उनकी
ज़िंदगी ज़िंदगीभर मुस्कुराती रही। सन् 1982 में जगजीत सिंह ने सुदर्शन फ़ाकिर
का सोलो अल्बम जारी किया- 'दि लेटेस्ट'। उनकी नज़्म "वो काग़ज़ की कश्ती वो
बारिश का पानी" लाखों दिलों की धड़कन बन गई। जगजीत सिंह ने पूछा- फ़ाकिर साहब,
आपको रायल्टी चाहिए कि रकम। फ़ाकिर साहब ने फ़रमाया- एक लाख नगद चाहिए। उस समय यह एक
बड़ी रकम थी।
उस मोड़ से शुरू करें फिर ये जिंदगी
हर शय जहां हसीन थी हम तुम थे अजनबी
दर्द ने ज़िंदगी को पाला है
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संगीतकार कुलदीप सिंह का फ़ोन आया। फ़ाकिर साहब बोले-
आज ही आपका चेक क्लियर हुआ है। अब इस पैसे से मैं दो-तीन दिन दारू पिऊंगा। जब मूड
बनेगा तो लिखूंगा। दस हज़ार का एडवांस चेक देकर फ़ाकिर साहब से अनुरोध किया गया था
कि वे 'उम्मीद' धारावाहिक का शीर्षक गीत लिखें।
निर्देशक रमन कुमार, संगीतकार कुलदीप सिंह और
गीतकार जावेद अख़्तर ने हमें एक ख़ूबसूरत फ़िल्म दी थी 'साथ-साथ'। 'उम्मीद' धारावाहिक
में यह कामयाबी दोहराने की उम्मीद लेकर रमन कुमार और कुलदीप सिंह एक दिन जावेद
अख़्तर से मिलने गए। जावेद अख़्तर की व्यस्तता के चलते शायद ये सपना साकार नहीं हो
पाया। फ़ाकिर साहब ने 'उम्मीद' धारावाहिक के लिए गीत लिख दिया।
सब किताबों में यह लिखा पाया
दर्द ने ज़िंदगी को पाला है
डूब जाती है ये ग़म के दरिया में
इसको उम्मीद ने संभाला है
एक छोटा सा गांव जिसमें पीपल की छांव
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फ़िरोज़ ख़ान फ़िल्म 'यलग़ार' में फ़ाकिर साहब ने
क़ाबिले-तारीफ़ संवाद लिखे। फ़िल्म को वो कामयाबी हासिल नहीं हुई जिसकी उम्मीद थी।
फ़िरोज़ ख़ान को ज़ी सिने लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला। उन्होंने फ़ाकिर साहब के एक
शेर से उन लम्हों को रोशन किया।
न मुहब्बत के लिए, न दोस्ती के लिए
वक़्त रुकता नहीं किसी के लिए
फ़िल्म 'यलग़ार' के लिए फ़ाकिर साहब ने गांव पर एक गीत
लिखा था। फ़िरोज़ ख़ान ने उसका उपयोग नहीं किया। फ़ाकिर साहब का वह गीत ग़ज़ल गायक
राजेंद्र मेहता ने रिकॉर्ड किया।
एक प्यारा सा गांव, जिसमें पीपल की छांव,
छांव में आशियां था, एक छोटा मकां था,
छोड़कर गांव को, उस घनी छांव को,
शहर के हो गए हैं, भीड़ में खो गए हैं.
एक दिन राजेश खन्ना के सचिव का फ़ोन आया- काका आपसे
मिलना चाहते हैं। फ़ाकिर साहब बोले- मिलना चाहते हैं तो वो ख़ुद फोन करें। काका ने
फ़ोन किया। मुलाक़ात हुई। फ़िल्म 'ख़ुदाई' में फ़ाकिर साहब का गीत काका पर फ़िल्माया गया
था- "या रब तूने ये दिल तोड़ा किस मौसम में।" काका बोले- मुझे इस गीत
में अपनी ज़िंदगी की तस्वीर दिखाई पड़ती है।
तू ही माता तू ही पिता है...
एक दिन शाम की सैर करते हुए फ़ाकिर साहब ने "हे
राम" का क़िस्सा सुनाया। कई साल पहले उन्होंने जगजीत सिंह के लिए 'राम धुन'
लिखी थी-
तू ही माता, तू ही पिता है
तू ही तो है राधा का श्याम,
हे राम, हे राम… हे राम, हे राम …
गुजरात के एक व्यवसायी को ये लाइनें बेहद पसंद आईं।
उसने अपने घर पर इसके कई कैसेट रिकॉर्ड किए। सुबह-शाम बजाने लगा। लोगों को अच्छा
लगा। उन्होंने कैसेट मांगे। व्यवसायी ने सैकड़ों कैसेट बनाकर बांट दिए। "हे
राम" की लोकप्रियता जगजीत सिंह तक पहुंच गई। उन्होंने म्यूज़िक कंपनी से
सम्पर्क किया। उनकी आवाज़ में कैसेट और सीडी जारी किए गए। रिकॉर्ड बिक्री हुई।
जगजीत सिंह ने याराना निभाया। राम धुन के लेखक सुदर्शन फ़ाकिर को म्यूज़िक कंपनी से
पांच लाख का चेक दिलाया।
अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें
हम उनके लिए ज़िंदगानी लुटा दें
दस लाख में फ़ाकिर की दस ग़ज़लें
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सुदर्शन फ़ाकिर का परिवार जालंधर में था। बीवी और
बेटे ने कहा- आप यहां नहीं आ सकते तो हम लोग ही मुंबई आ जाते हैं। फ़ाकिर साहब ने
अपने दोस्त जगजीत सिंह से कहा- मैंने ठाकुर कांप्लेक्स, कांदिवली में एक फ्लैट
देखा है। मुझे आपसे दस लाख चाहिए। फ़ाकिर साहब को दस लाख का चेक थमाते हुए जगजीत
सिंह मुस्कुराए- इसके बदले में मुझे शराब पर दस ग़ज़लें चाहिए। फ़ाकिर साहब ने दस
ग़ज़लें लिखकर जगजीत सिंह के हवाले कर दीं। अपने अगले अलबम 'मिराज' में जगजीत सिंह
ने उसमें से एक ग़ज़ल जारी की-
शेख़जी, थोड़ी सी पीकर आइए
मैं है क्या शय फिर हमें समझाइए
फ़ाकिर साहब का परिवार ठाकुर कांप्लेक्स में बस गया।
फ़ाकिर साहब राज गेस्ट हाउस में रह गए। कुछ समय बाद फ़ाकिर साहब का परिवार वापस
जालंधर चला गया। मुंबई में उन लोगों का मन नहीं लगा।
पत्थर के सनम, पत्थर के ख़ुदा,
पत्थर के ही इंसां पाए हैं.
तुम शहर-ए-मुहब्बत कहते हो,
हम जान बचा कर आए हैं.
मेरे प्रकाशक दोस्त ने कहा- हम सुदर्शन फ़ाकिर की
किताब प्रकाशित करना चाहते हैं। आप उनसे स्क्रिप्ट दिला दीजिए। मैंने बात की।
फ़ाकिर साहब ने कहा- मुझे रायल्टी नहीं चाहिए। किताब छपने से पहले प्रकाशक हमें एक
लाख दे दे। प्रकाशक जी पीछे हट गए। फ़ाकिर साहब के गुज़रने के दस साल बाद राजपाल
प्रकाशन से उनकी किताब "वो काग़ज़ की कश्ती" प्रकाशित हुई।
सुदर्शन फ़ाकिर का जन्म 19 दिसंबर 1934 को फ़िरोज़पुर
में हुआ था। उन्होंने कई फ़िल्मों में भी गीत लिखे। फ़िल्म 'दूरियां' के गीत
"मेरे घर आना ज़िंदगी" के लिए सन् 1980 में उन्हें फ़िल्मफेयर अवार्ड से
नवाज़ा गया। उनका गीत "हम सब भारतीय" एनसीसी में गाया जाता है।
सन 2007 में मित्र हस्तीमल हस्ती ने सूचित किया के
फ़ाकिर साहब अस्पताल में हैं। मैं देखने गया। वे वे ठीक लग रहे थे। डिस्चार्ज होकर
फ़ाकिर साहब जालंधर चले गए। बीमारी से उनकी दोस्ती हो गई थी। 18 फरवरी 2008 को
उन्होंने हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
सुदर्शन फ़ाकिर के चंद अशआर
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आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा
ज़िंदगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा
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आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूं
है
ज़ख़्म हर सर पे, हर इक हाथ में पत्थर क्यूं है
जब हक़ीक़त है कि हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद, कहीं मंदिर क्यूं है
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ये शीशे, ये सपने, ये रिश्ते ये धागे,
किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जाएं.
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के,
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जाएं.
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अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी,
हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का.
लगाए हैं हमने भी सपनों के पौधे,
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का.
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मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोए,
मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे.
ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो,
कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे.
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जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा,
नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से.
रिवायत है शायद ये सदियों पुरानी,
शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से.
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आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा,
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126
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