साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी और फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी |
फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी
जाने माने फ़िल्मकार सत्यजीत रे को फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी (1977) के लिए एक ऐसे लेखक की तलाश थी जो सन् 1856 की क्लासिकल उर्दू से वाक़िफ़ हो। प्रतिष्ठित लेखिका शमा ज़ैदी ने जावेद सिद्दीकी का नाम सुझाया। सत्यजीत रे ने जावेद सिद्दीक़ी को कलकत्ता बुलाया। सिर्फ़ तीन मिनट बात करने के बाद सत्यजीत रे ने फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' की फाइल जावेद को थमा दी और कहा- इसके संवाद लिखकर लाइए।
शमा ज़ैदी के साथ मशविरा करके जावेद सिद्दीक़ी ने फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' के संवाद आठ दिन में लिख डाले। उर्दू स्क्रिप्ट का अनुवाद अंग्रेजी में किया क्योंकि सत्यजीत रे को सिर्फ़ दो ही भाषाएं आती थीं अंग्रेज़ी और बांग्ला। सवाल ये था कि कलाकारों की संवाद अदायगी सही है या ग़लत इसका पता कैसे चलेगा! सत्यजीत रे ने जावेद को अपनी फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी में डायलॉग डायरेक्टर बना दिया। एक साल आठ महीने कलकत्ता में रहकर जावेद ने कलाकारों को संवाद अदायगी का हुनर सिखाया। 'शतरंज के खिलाड़ी सत्यजीत रे की आख़िरी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म को तीन फ़िल्मफेयर अवार्ड मिले जिसमें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी शामिल है। जावेद के अनुसार 'शतरंज के खिलाड़ी' से फ़िल्म लेखन का जो हुनर सीखा आज तक उसी को कैश कर रहा हूं।
फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी ने जाने-माने निर्देशकों सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल और मुज़फ़्फ़र अली की ऑफ बीट फिल्मों से लेकर यश चोपड़ा, सुभाष घई और रमेश सिप्पी की कमर्शियल फ़िल्मों के लिए पटकथा और संवाद लिखकर अपना एक ख़ास मुकाम बनाया। कई सुपरहिट फ़िल्मों की कामयाबी में जावेद सिद्दीक़ी की क़लम का कमाल भी शामिल है। पत्रकार, कहानीकार और नाट्य लेखक के रूप में भी जावेद सिद्दीक़ी ने प्रतिष्ठा अर्जित की।
फ़िल्म एक बाप छ: बेटे
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जावेद सिद्दीक़ी के फ़िल्म लेखन की शुरुआत यूं तो अभिनेता महमूद के साथ हुई मगर सही मायने में ब्रेक उन्हें सत्यजीत रे से मिला। खार के होटल सीजर पैलेस में शायर अज़ीज़ क़ैसी अभिनेता महमूद की फ़िल्म 'एक बाप छ: बेटे' की पटकथा लिख रहे थे। एक दिन जावेद सिद्दीक़ी उनसे मिलने गए। अज़ीज़ क़ैसी ने कहा- मैंने कुछ सीन लिखे हैं। अगर जुहू की तरफ़ जा रहे हो तो ये स्क्रिप्ट महमूद साहब को दे दो। होटल सन एन सैंड जुहू में अभिनेता महमूद के हाथ में जावेद सिद्दीक़ी ने स्क्रिप्ट थमाई। वे बोले- इसे पढ़ कर सुनाइए। जावेद की आवाज़, ज़बान और लहजा अच्छा है। इन तीनों ने कमाल किया। महमूद साहब ने ख़ुश होकर कहा- आप मेरी बेटी जिनी को उर्दू सिखा दीजिए। 'जिनी और जॉनी' (1976) फ़िल्म का निर्देशन महमूद ने इसी बेटी के लिए किया था।
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे
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फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' का काम पूरा करके जावेद मुंबई वापस आए। आते ही उन्हें इंडो सोवियत को-प्रोडक्शन की मल्टी स्टार फ़िल्म 'अलीबाबा और चालीस चोर' (1980) में सम्वाद लेखन का काम मिल गया। निर्माता-निर्देशक उमेश मेहरा की कम्पनी 'ईगल फ़िल्म्स' की कई फ़िल्मों में जावेद सिद्दीक़ी ने लेखन किया। इनमें प्यार के दो पल, सोनी महिवाल, जाल आदि फ़िल्में शामिल हैं।
नब्बे का दशक जावेद सिद्दीक़ी के लिए ज़बरदस्त कामयाबी का रहा। फ़िल्म डर (1993), बाज़ीगर (1993), दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), राजा हिंदुस्तानी (1996), परदेस (1997), ताल (1999), जैसी कई बड़ी फ़िल्मों में जावेद ने अपनी क़लम का जलवा दिखाया। इन सुपरहिट फ़िल्मों ने उनके लफ़्ज़ों की ख़ुशबू को हिंदुस्तान के घर घर में पहुंचा दिया। उमराव जान (1981), मम्मो (1994), फ़िज़ा (2000), ज़ुबैदा (2001), आदि अॉफबीट फ़िल्मों में लेखन के ज़रिए उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई।
फ़िल्म फेयर अवार्ड
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फ़िल्म 'बाज़ीगर को बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए' 1994 में और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' को बेस्ट डायलॉग के लिए 1996 में फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। फ़िल्म 'राजा हिंदुस्तानी' को बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए 'स्क्रीन अवार्ड', हासिल हुआ। फ़िल्म 'उमराव जान' को बीएफजेए अवार्ड और फ़िल्म 'फ़िज़ा' को आंध्र प्रदेश जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन का अवार्ड मिला। नाट्य लेखन के लिए जावेद सिद्दीक़ी को 'अवध सम्मान' से नवाज़ा गया।
साहित्य, पत्रकारिता, रंगमंच और सिनेमा से जुड़े जावेद सिद्दीक़ी का जन्म रामपुर यूपी में 13 जनवरी 1942 को हुआ। इंटरमीडिएट करने के बाद 17 साल की उम्र में जावेद मुंबई आ गए। उर्दू दैनिक अख़बार 'ख़िलाफ़त' से उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत की। 'इंक़लाब' और 'हिंदुस्तान' जैसे मशहूर अख़बारों में काम करने के बाद उन्होंने अपना अख़बार 'उर्दू रिपोर्टर' निकाला। सोलह साल की सक्रिय पत्रकारिता के बाद आपातकाल की बंदिशों के चलते जावेद सिद्दीकी ने पत्रकारिता छोड़ दी। वे सिने जगत में बतौर लेखक सक्रिय हो गए।
जीम जीम स्वाद स्वाद
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जावेद सिद्दीक़ी अपने शुरुआती दिनों में कुर्ला में शायर अब्दुल हमीद के साथ रहते थे। अब्दुल हमीद रेलवे में मुलाज़िम थे। शाम को दोनों दोस्त महफ़िल जमाते। किसी शायर का एक मिसरा लेकर उस पर कई कई शेर कहते। एक रजिस्टर में अब्दुल हमीद सारे शेर लिख लेते। अपने शेर के नीचे अपना नाम और जावेद के शेर के नीचे जावेद का नाम लिख देते। एक दिन जावेद सिद्दीक़ी ने रजिस्टर देखा। उनके शेर के नीचे हर जगह उर्दू में 'जीम जीम स्वाद स्वाद' लिखा हुआ था। उन्होंने अब्दुल हमीद से पूछा- मेरे नाम का पहला हर्फ़ 'जीम' और 'स्वाद' है। आपने 'जीम जीम स्वाद स्वाद' क्यों लिखा है। अब्दुल हमीद ने जवाब दिया- हुज़ूर, मैं आपकी शान में गुस्ताख़ी कैसे कर सकता हूं। मैंने तो आपका पूरा नाम लिखा है- 'जीम जीम स्वाद स्वाद' यानी 'जनाब जावेद सिद्दीक़ी साहब'।
मजरूह सुल्तानपुरी की स्मृति सभा
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मजरूह सुल्तानपुरी का इंतक़ाल 24 मई 2000 को हुआ। फ़िल्म राइटर एसोसिएशन ने उनकी याद में स्मृति सभा का आयोजन किया। जावेद सिद्दीक़ी ने मजरूह साहब की शख़्सियत पर बड़ी ख़ूबसूरत नज़्म पेश की। मुझसे पहले के वक्ताओं का बस यही कहना था कि मजरूह साहब ने फ़िल्मों में बड़े कमाल के गीत लिखे। मेरी बारी आई तो मैंने फ़िल्म के बजाय मजरूह साहब के अदबी योगदान का ज़िक्र किया। प्रगतिशील लेखक संघ में उनकी भूमिका के हवाले से उनके चंद शेर कोट किए-
देख ज़िंदां से परे रंग ए चमन जोश ए बहार
रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख
सभा की समाप्ति पर जावेद सिद्दीक़ी ने मुझे बधाई दी। अपना विजिटिंग कार्ड दिया। मुलाक़ात का आमंत्रण दिया। बोले- कल दोपहर एक बजे आइए। साथ में खिचड़ी खाएंगे और गपशप करेंगे। चार बंगला स्थित उनके ऑफिस में मुलाक़ात हुई। हमने खिचड़ी खाई। उनका ऑफिस ब्वॉय बहुत अच्छी खिचड़ी बनाता था। जावेद सिद्दीक़ी के साथ गपशप में कब तीन चार घंटे गुज़र गए पता ही नहीं चला।
फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी और श्रीमती फरीदा सिद्दीक़ी अपने बेटों मुराद सिद्दीक़ी एवं समीर सिद्दीक़ी के साथ। |
जावेद सिद्दीक़ी के गुरु अबरार अल्वी
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जावेद सिद्दीकी संवाद लेखन में अबरार अल्वी को अपना गुरु मानते हैं। अक्टूबर 2009 में हमने तय किया कि भवंस कल्चर सेंटर अंधेरी में उनके गुरु अबरार अल्वी पर एक कार्यक्रम किया जाए। उन्होंने गुरुदत्त की प्रमुख फ़िल्में अबरार अल्वी नज लिखी हैं। उन्होंने फ़िल्म 'साहब बीवी और ग़ुलाम' का निर्देशन भी किया। अबरार अल्वी की प्रमुख फ़िल्मों के विजुअल जुटाकर हमने कार्यक्रम की तैयारी की। जिस दिन कार्यक्रम था उस दिन अबरार अल्वी की तबीयत कुछ ज़्यादा ख़राब हो गई। वे कार्यक्रम में नहीं आ पाए। पूरा कार्यक्रम हमारे कंधों पर आ गया। विजुअल के बाद मैंने माइक संभाला और जावेद सिद्दीक़ी से सवाल-जवाब शुरू कर दिया। जावेद ने अपने गुरु अबरार अल्वी और गुरुदत्त के रिश्तों के बारे में तथा पटकथा लेखन के हुनर के बारे में बड़े रोचक ढंग से बोलते हुए कुशल वक्ता होने का सबूत दिया। लोग मंत्रमुग्ध होकर उनको सुनते रहे। कब दो घंटे गुज़र गए पता ही नहीं चला। अगले महीने 18 नवंबर 2009 को अबरार अल्वी गुज़र गए।
रंगमंच और जावेद सिद्दीक़ी
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जावेद सिद्दीक़ी का रंगमंच से विशेष लगाव रहा है। 'इप्टा' के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रह चुके हैं। वे अब तक 35 नाटक लिख चुके हैं। इनमें सालगिरह, तुम्हारी अमृता', श्याम रंग, बेगम जान, हमसफ़र, कच्चे लमहे, आपकी सोनिया, धुआं, कटे हुए रास्ते, पतझड़ से ज़रा पहले, वो लड़की, रात, मोगरा आदि शामिल हैं। उन्होंने बर्तोल्त ब्रेख़्त और लोर्का के कुछ नाटकों का भारतीयकरण भी किया। जावेद सिद्दीक़ी का कहना है कि आप देश काल के अनुसार नाटक में कभी भी तब्दीलियां कर सकते हैं। यही वजह है कि कालिदास और शेक्सपियर आज भी ज़िंदा हैं।
राधा और कृष्ण के प्रेम पर आधारित नाटक 'श्याम रंग' के प्रकाशन के समय सन् 2008 में जावेद सिद्दीक़ी ने उसकी स्क्रिप्ट मुझे पढ़ने के लिए दी। यह उनका बड़प्पन है कि मेरे मशविरे पर उन्होंने अमल किया और भूमिका में आभार व्यक्त किया। संस्मरणों की मशहूर किताब 'रोशनदान' हिंदी में छपने से पहले जावेद ने उसका भी प्रिंटआउट मुझे पढ़ने के लिए दिया और उस पर भी हमारी चर्चा हुई।
जावेद सिद्दीकी की हिंदी में दो किताबें प्रकाशित हुईं। श्याम रंग (नाटक) और रोशनदान (संस्मरण)। उर्दू में उनकी पांच किताबें प्रकाशित हुईं। ग़ौरतलब है कि जावेद सिद्दीकी के बेटों ने उनकी विरासत संभाल ली है। बड़ा बेटा मुराद डायरेक्टर और एडीटर है। बिग बॉस से जुड़ा है। छोटा बेटा समीर राइटर और डायरेक्टर है। उसका लोकप्रिय सीरियल 'उड़ान' पांच साल तक चला। जावेद की बड़ी बेटी लुबना और दामाद सलीम आरिफ़ भी रंगमंच और सिनेमा से जुड़े हुए हैं।
श्रीमती फरीदा सिद्दीक़ी,फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी और शायर देवमणि पांडेय (मुम्बई 18-11-2012) |
वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है
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लॉक डाउन के दौरान ख़ैरियत जानने के लिए मैंने जावेद सिद्दीक़ी को फ़ोन किया। उन्होंने बताया कि कहानियां लिखकर वे समय का सदुपयोग कर रहे हैं। जावेद सिद्दीक़ी का कहना है कि बदलते वक़्त के साथ हम लेखकों को भी बदलना ज़रूरी है। सन् 1915 में मुज़फ़्फ़र अली की फ़िल्म 'जां निसार' के लिए जावेद ने सम्वाद लिखे थे। नए कलाकारों की इस फ़िल्म ने तीन-चार दिन में अपनी लागत वसूल कर ली थी। जावेद साहब ने फ़रमाया- पहले सिंगल स्क्रीन सिनेमा में एक सप्ताह में 28 शो होते थे। सब कुछ पता चल जाता था। अब एक दिन में 52 शो होते हैं और कुछ पता नहीं चलता।
जावेद सिद्दीक़ी के अनुसार पहले लोगों में फ़िल्म बनाने के प्रति ये भावना थी कि हम समाज को कुछ देने जा रहे हैं। अब निर्माता फ़िल्म निर्माण में 50 करोड़ तभी लगाना चाहता है जब 100 करोड़ वापस आने की संभावना हो। अब वितरक का हस्तक्षेप भी ज़्यादा बढ़ गया है।
संवाद लेखन में लेखक की भूमिका पर चर्चा हुई तो जावेद ने कहा- अगर हम फ़िल्म में गाली देंगे तो हमारे बच्चे भी गाली देंगे। हम मुस्कुरा कर उनकी गाली का स्वागत नहीं कर सकते। समाज बनाने की ज़िम्मेदारी मीडिया की है और सिनेमा की भी है। ज़िंदगी वहां ख़त्म नहीं होती जहां इंसान सांस लेना बंद कर देता है। हमेशा एक सुनहरे भविष्य की ख़्वाहिश में इंसान को जीना चाहिए और मैं भी इसी ख़्वाहिश के साथ जी रहा हूं।
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आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M: 98210-82126
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