सोमवार, 11 मई 2020

सागर सरहदी : फ़िल्म बाज़ार एक लेखक का ख़्वाब

सागर सरहदी

फ़िल्म लेखक-निर्देशक सागर सरहदी एक टीवी चैनल से मुख़ातिब थे- "हम एक अजीब संकट से गुज़र रहे हैं। एक मोबाइल हमारी ज़िंदगी पर हावी हो गया है। नई पीढ़ी के हाथ में मोबाइल आया तो सिनेमा, किताब, जज़्बात और कल्चर सब ख़त्म हो गए। 

गंगासागर तलवार उर्फ़ सागर सरहदी का जन्म 11 मई 1933 को सूबा सरहद के बफा गांव में हुआ। उनकी फ़िल्म 'नूरी' की कहानी उसी गांव की है। उस गांव में दरिया है, पहाड़ है, हरियाली है और उनका बचपन है। 14 साल की उम्र में एक दिन अचानक उन्हें इन चीज़ों से महरूम कर दिया गया। सागर सरहदी जानना चाहते हैं कि वह कौन सी ताक़त है जिसने एक हंसते खेलते आदमी को एक रिफ़्यूज़ी में तब्दील कर दिया। इसके लिए उनके अंदर बेहद ग़ुस्सा है। इस ग़ुस्से को ठंडा रखने के लिए वे बात बात में गाली देते हैं। दोस्तों से मिलते हैं तो हालचाल पूछने के पहले मां-बहन की गालियाँ देते हैं। मगर ये गालियां वे बड़ी मुहब्बत से हंसते हुए देते हैं इसलिए कोई बुरा नहीं मानता।

संवाद के लिए फ़िल्म फेयर अवार्ड 
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यश चोपड़ा की फ़िल्म 'कभी-कभी' (1976), 'सिलसिला' (1981) और 'चांदनी' (1989) में उन्होंने संवाद लिखे। फ़िल्म 'कभी-कभी' में संवाद लेखन के लिए उन्हें फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। सागर सरहदी ने कहा- "मैं पटकथा-संवाद लेखन को सृजनात्मक कार्य नहीं मानता। ऐसी फ़िल्मों में गिनती के संवाद लिखने पड़ते हैं। मुझसे कहा गया कि नायक के लिए 8 लाइन का, नायिका के लिए 6 लाइन का और सहनायक के लिए 4 लाइन का संवाद लिख दीजिए। ऐसे में कोई लेखक कैसे ख़ुश रह सकता है।" 

अभिनेत्री राखी के लिए उन्होंने एक संवाद लिखा- "तुम्हारी आंखें अजीब हैं। जहां देखती हैं एक रिश्ता कायम कर लेती हैं।" फिर निर्देशक की डिमांड पर उन्होंने रेखा के लिए लिखा- "तुम्हारी आंखों में आसमान झांकता है।" उन्हें महसूस हुआ कि जब तक दूसरों की मांग पर वे दूसरों की आंखों के बारे में लिखते रहेंगे तब तक उनके अपने ख़्वाब मुकम्मल नहीं होंगे।

'बाज़ार' यानी एक लेखक का ख़्वाब
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सागर सरहदी का ख़्वाब था- अपनी मर्ज़ी की फ़िल्म लिखें। अपनी मर्ज़ी से उसने निर्देशित करें। उसमें किसी का दख़ल हो। इस ख़्वाब को उन्होंने फ़िल्म 'बाज़ार' के ज़रिए 1982 में बड़े पर्दे पर साकार किया। यश चोपड़ा के प्रस्ताव के बावजूद उन्होंने इस फ़िल्म में यश चोपड़ा के बैनर का इस्तेमाल नहीं किया। फिर भी यश चोपड़ा ने बाहर से उनकी मदद की और बिना किसी आर्थिक संकट के 'बाज़ार' फ़िल्म रिलीज़ हो गई। दस लाख की इस फ़िल्म ने कई गुना ज़्यादा कमाया।

'बाज़ार' से पहले 'नूरी' फ़िल्म (1979) बेहद कामयाब रही। यह फ़िल्म सागर सरहदी की कहानी 'राखा' पर आधारित है। निर्माता यश चोपड़ा और निर्देशक थे मनमोहन कृष्णा। नायिका के रूप में पूनम ढिल्लो की क़िस्मत रोशन हुई। जां निसार अख़्तर के दिलकश गीत थे। ख़य्याम साहब का मनभावन संगीत था। गोल्डन जुबली मना कर फ़िल्म 'नूरी' एक यादगार अफ़साना बन गई। 'बाज़ार' की कामयाबी के बाद सागर सरहदी ने तय किया कि अब कमर्शियल फ़िल्में नहीं लिखेंगे। 'बाज़ार' से जो पैसा रहा है उसे अगली फ़िल्म के निर्माण में लगाएंगे।

सागर सरहदी ने सन् 1984 में 'लोरी' फ़िल्म बनाई। शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह, फारुख़ शेख़ और स्वरूप संपत अभिनीत यह फ़िल्म अच्छी होने के बावजूद फ्लाप हो गई। इसके तीन कारण थे। पहला- उस वक़्त एकदिवसीय क्रिकेट मैच चल रहे थे। दूसरा- उसी समय वीडियो ने ज़ोर पकड़ा। तीसरा- उसी समय दूरदर्शन पर 'हम लोग', 'यह जो है ज़िंदगी' और 'ख़ानदान' जैसे पारिवारिक धारावाहिक चल रहे थे। इस दौरान वीडियो और टीवी के कारण एक-एक करके कई फ़िल्में धराशाई हुईं।

'लोरी' फ़िल्म के पिटने से सागर सरहदी को 15 लाख का घाटा हुआ। उन्होंने जुहू स्थित अपना फ्लैट बेच दिया। मलाड लिंक रोड पर चले गए कांचपाड़ा के इसी फ्लैट में उनसे मेरी पहली मुलाक़ात हुई। उन्होंने सारा क़िस्सा बयान किया। हमारी ये बातचीत दैनिक जनसत्ता की नगर पत्रिका 'सबरंग' में 3 मार्च 1991 को प्रकाशित हुई।

टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती 
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उस समय सागर सरहदी की दो फ़िल्में प्रदर्शन के लिए तैयार थीं- 'तेरे शहर में' और 'अगला मौसम' उन्होंने बताया- 'तेरे शहर में' स्मिता पाटिल की फ़िल्म है। इसमें उनके चरित्र के तीन पड़ाव हैं। यह 'बाज़ार' से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है। स्मिता के साथ इसमें कुलभूषण खरबंदा, नसीर, दीप्ति नवल और रोहिणी हट्टंगड़ी हैं। गांव की लड़की, फिर वेश्या, और फिर वृद्धा के रूप में स्मिता ने यादगार अभिनय किया है। यह मेरी कहानी 'समझौता' पर आधारित है। मेरी यह कहानी पढ़कर चित्रा मुद्गल बहुत विचलित हो गईं थीं। उन्होंने ही मुझसे कहा था कि आप इस पर फ़िल्म क्यों नहीं बनाते। उनकी बात मुझे जंच गई और इस तरह यह फ़िल्म बनी। 'अगला मौसम' हिंदी और पंजाबी में साथ साथ बनी है। पंकज कपूर और सुप्रिया पाठक अभिनीत यह फ़िल्म गांव की सामंतशाही और औरतों के शोषण पर आधारित है। गांव में आज भी औरतें देहरी में क़ैद हैं। उन पर बहुत ज़ुल्म हो रहे हैं। इस फ़िल्म की पूरी शूटिंग पंजाब के ख़ूबसूरत इलाक़ों में की गई।

इंसान जैसा सोचता है बिल्कुल वैसा नहीं होता। 'तेरे शहर में' फ़िल्म के निर्माता ने सागर सरहदी पर मुक़दमा कर दिया है। मुक़दमे का सामना करने के लिए सागर सरहदी ने मलाड वाला फ्लैट बेच दिया। 'तेरे शहर में' और 'अगला मौसम' दोनों फ़िल्में हालात के शिकंजे में क़ैद होकर रह गईं। वे कभी सिनेमा हॉल तक नहीं पहुंच पाईं।

अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है
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सागर सरहदी समाज में अपनी भूमिका कल्चरल एक्टीविस्ट की मानते हैं। चाहे फ़िल्म हो या नाटक वे चाहते हैं कि सामाजिक समस्याओं पर बात हो। वे कहते हैं- मैंने जीवन को नज़दीक से देखा है। मेरा जीवन मुझसे बड़ा है। विलासिता मेरे जीवन और मिज़ाज से मेल नहीं खाती। व्यवसायिक फ़िल्में लिखकर मैंने पैसा कमाया तो घुटन होने लगी। इस घुटन से बाहर निकलने के लिए मैंने 'बाज़ार' फ़िल्म बनाई।

मैंने सार्थक सिनेमा का ज़िक्र किया तो सागर सरहदी बोले- 'बाज़ार' व्यावसायिक और सार्थक सिनेमा के बीच की एक कड़ी थी। सार्थक सिनेमा इधर का रहा उधर का। श्याम बेनेगल सरकारी दामाद बन गए। सईद मिर्ज़ा की फ़िल्म देखकर मेरी समझ में नहीं आया कि 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' ऐसी फ़िल्में सामान्य आदमी में अरुचि पैदा करती हैं। 'नुक्कड़' सीरियल देखकर लगा कि इस देश का ग़रीब आदमी सबसे ज़्यादा ख़ुश है। 

हमारी सबसे बड़ी कमी यह है कि हम मासेज यानी भारी जनसमूह को आकर्षित नहीं कर पाए। इसलिए हमें व्यवसायिक सफलता नहीं मिल पाई। इस मामले में मृणाल सेन अच्छे हैं। वे थीम के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करते हैं। फ़िल्म शुरू करने से पहले ही वह पूरे यूरोप में पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिए उसकी थीम का प्रचार कर देते हैं। उससे प्रभावित होकर कोई कोई वितरक फ़िल्म ख़रीदने के लिए तैयार हो जाता है। थीम के प्रति आम लोगों का रुझान बहुत ज़रूरी है। गोविंद निहलानी के 'तमस' ने जन सामान्य का ध्यान खींचा। दूसरे लोग साहित्यिक कृतियों को भुना रहे हैं। रिश्तेदारियां निभाई जा रही हैं। मंडी हाउस कला मंडी होकर दालमंडी हो गया है। ख़रीद फ़रोख़्त जारी है।

इप्टा यानी फ़िल्मों में प्रवेश का प्लेटफॉर्म 
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मुंबई आने पर सागर सरहदी 'इप्टा' से जुड़ गए थे।  उन दिनों को याद करते हुए वे बोले 'इप्टा' बहुत प्रतिष्ठित संस्था थी। आज यह फ़िल्मों में प्रवेश का प्लेटफॉर्म बन गई है। मेरे ज़्यादातर नाटक 'इप्टा' ने मंचित किए। 'तनहाई' कई भाषाओं में खेला गया। 'भूखे भजन होय गोपाला' आदि नाटकों की कई प्रस्तुतियां हुईं। लेकिन इससे मैं ख़ुश नहीं हूँ। 

हमारे यहां थिएटर का कंसेप्ट ही किसी के पास नहीं है। आज की संवेदना को थिएटर नहीं ला पा रहा है। विदेशी नाटक भी होने चाहिए लेकिन अंग्रेजी नाटक खेलते हुए हमें अंग्रेज नहीं बनना चाहिए। अच्छा साहित्य विश्वभर में साझा होता है। 'महाभारत' और 'अभिज्ञान शाकुंतल' विश्व की कई भाषाओं में मंचित किए गए। हबीब तनवीर ने फॉक फार्म को ज़िंदा करके महत्वपूर्ण कार्य किया, लेकिन वे छत्तीसगढ़ी से आगे नहीं बढ़ सके। सफ़दर हाशमी ने दिन प्रतिदिन की समस्याओं से जुड़े नाटक करके अच्छा कल्चरल एक्टीविस्ट होने का सबूत दिया। अख़बार की तरह नुक्कड़ नाटक भी जरूरी हैं।

मुंबई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज से ग्रेजुएशन करने वाले सागर सरहदी ने शादी नहीं की। उनका कहना है- एक संवेदनशील रचनाकार को शादी नहीं करनी चाहिए क्योंकि शादी में तलाक़ की भी संभावना मौजूद रहती है। मेरी बीवी होती तो मुझे तो 'बाज़ार' बनाने देती 'लोरी' के लिए फ्लैट बेचने देती। मेरे लिए शाम को गर्लफ्रेंड के साथ घूमना या दोस्तों से बतियाना सबसे अच्छा काम है।

बदल गया है वक़्त का चेहरा
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सन् 2000 में प्रदर्शित "कहो ना प्यार है" फ़िल्म में सागर सरहदी के संवाद थे। इसके बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने वक़्त का चेहरा बदल दिया। लोगों की रुचियां बदल गईं। उन्होंने 'राज दरबार' नाटक लिखा। दर्शकों को उसमें लुत्फ़ नहीं आया। उन्होंने 'चौसर' फ़िल्म बनाई। वितरक नहीं मिला। 'चौसर' सिनेमा हाल तक नहीं पहुंच पाई। सागर सरहदी ने अपने भतीजे रमेश तलवार के अंधेरी लिंक रोड वाले ऑफिस में हर रविवार कविता-कहानी की महफ़िल जमाई। युवा पीढ़ी को यह महफ़िल अधिक दिनों तक रास नहीं आई। उनके पुराने क़िस्सों में नए लोगों को मज़ा नहीं आया।

सागर सरहदी से जब मेरी पहली मुलाक़ात हुई थी तो उन्होंने कहा- हिंदी वाले अपने कार्यक्रमों में मुझे क्यों नहीं बुलाते? हमने उन्हें बुलाया। कथाकार धीरेंद्र अस्थाना के कहानी संग्रह 'उस रात की गंध' के लोकार्पण समारोह में वे मंच पर मौजूद थे। उसके बाद वे हिंदी के कई कार्यक्रमों में पधारे। सागर सरहदी ने किताबें बहुत पढ़ी हैं। मगर नई पीढ़ी की किताबों में दिलचस्पी नहीं है। भौगोलिक दूरियों के साथ व्यक्तिगत दूरियां भी बढ़ीं। मोबाइल के चलते मेलजोल कम हुआ। मुंबई में धीरे धीरे साहित्यिक आयोजन समाप्त हो गए। सागर सरहदी जैसे जीनियस की ज़रूरत कम होती गई।

सरदार नगर (कोलीवाड़ा) सायन के अपने घर में 87 साल के सागर सरहदी अब किताबों से अपने तनहाइयों को आबाद करते हैं। वे कहते हैं- मैंने बहुत नाम कमाया मगर अब मैं बेकार हूं। मेरे पास कोई काम नहीं है। मोबाइल ने मुझसे सब कुछ छीन लिया। मेरे पास उर्दू की दो सौ किताबें हैं। मैं किसी लाइब्रेरी को दान करना चाहता हूं मगर कोई लेने को तैयार नहीं।" कहा जाता है कि फ़िल्म जगत में सिर्फ उगते सूरज की पूजा होती है। ढलते सूरज की तरफ़ कोई नहीं देखता।

फ़िल्म 'बाज़ार' का एक गीत
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करोगे याद तो, हर बात याद आयेगी 
गुज़रते वक़्त की, हर मौज ठहर जायेगी 
करोगे याद तो ...

ये चाँद बीते ज़मानों का आईना होगा   
भटकते अब्र में, चहरा कोई बना होगा
उदास राह कोई दास्तां सुनाएगी   
करोगे याद तो ...

बरसता-भीगता मौसम धुआँ-धुआँ होगा   
पिघलती शमओं पे दिल का मेरे ग़ुमां होगा
हथेलियों की हिना, याद कुछ दिलायेगी    
करोगे याद तो ...

गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा    
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी   
करोगे याद तो

संगीतकार : ख़य्याम 
गीतकार : बशर नवाज़
गायक : भूपेंद्र 

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आपका-
देवमणि पांडेय

Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti, 
Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063, M : 98210-82126


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