किदार शर्मा की चेतक के महाराणा प्रताप
फ़िल्म निर्देशक किदार शर्मा और अभिनेता पृथ्वीराज
कपूर अलग-अलग रास्तों पर चलते हुए भी ताउम्र अच्छे दोस्त बने रहे । किदार शर्मा ने
हमेशा नए कलाकारों के साथ फ़िल्में बनाईं। पृथ्वीराज कपूर बड़े स्टार बन गए थे।
उन्होंने बड़ी फ़िल्में की। पं जवाहरलाल नेहरू के सुझाव पर किदार शर्मा को चिल्ड्रन
फ़िल्म सोसायटी का डायरेक्टर इन चीफ बनाया गया। सोसाइटी के लिए किदार शर्मा ने कई
बाल फ़िल्में बनाई। सन् 1956 में फ़िल्म 'जलदीप' के लिए उन्हें बेस्ट चिल्ड्रन फ़िल्म का नेशनल अवार्ड मिला।
किदार शर्मा चिल्ड्रन फ़िल्म सोसाइटी के लिए 'चेतक' फ़िल्म बना रहे थे। यह
सवाल उठा कि महाराणा प्रताप कौन बनेगा। उन्होंने कहा- बस एक ही इंसान महाराणा
प्रताप बनने लायक़ है पृथ्वीराज कपूर। सोसाइटी वाले मान गए। यह प्रस्ताव पाकर
पृथ्वीराज कपूर बहुत ख़ुश हुए। बोले- यार किदार शर्मा, इतने दिनों बाद ऑफर दिया वह
भी सेकंड लीड का। इसमें असली हीरो तो चेतक है।
जानवर डायलॉग
नहीं समझते
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'चेतक' की मौत के बाद महाराणा प्रताप द्वारा उसे
विदा करने का दृश्य फिल्माया जाना था। सारी तैयारी हो चुकी थी। पृथ्वीराज कपूर को
डायलॉग बोलने का बहुत शौक़ था। उन्होंने सोचा था कि इस दृश्य में राणा प्रताप आठ दस
लंबे भावुक डायलॉग बोलेगा। आते ही वे बोले- लाइए संवाद कहां हैं? याद कर लूं।
किदार शर्मा ने कहा- संवाद नहीं हैं। पृथ्वीराज को बहुत आश्चर्य हुआ। बोले- ऐसा
सीन संवाद के बिना कैसे हो सकता है! किदार शर्मा ने जवाब दिया- जानवर डायलॉग नहीं
समझते। तुम अपना मुंह चेतक के मुंह पर रख देना और दो मिनट तक चुप रहना। सीन ऐसे ही
फ़िल्माया गया और बहुत प्रभावशाली बन गया।
पृथ्वीराज कपूर बीमार पड़े। अस्पताल में भर्ती थे।
किदार शर्मा उनसे मिलने गए। दोस्त को दिलासा देते हुए उन्होंने कहा- महाराणा
प्रताप इतनी आसानी से नहीं मरेगा। अभी तुम्हें मेरे साथ काम करना है। पृथ्वीराज
थोड़ी देर उन्हें देखते रहे। उनकी आंखें छलक उठीं। बोले- जानवर डायलॉग नहीं समझते।
मेरे मुंह पर अपना मुंह रख दो। किदार शर्मा ने तुरंत अपना गाल उनके गाल पर रख
दिया। दोनों रो पड़े। यह दो दोस्तों का अंतिम मिलन था। वापस आने के लिए किदार
शर्मा अस्पताल की सीढ़ियां उतर रहे थे। उसी समय पीछे से शम्मी भागता हुआ आया।
बोला- अंकल पिता जी गुज़र गए। 29 मई 1971 को किदार शर्मा का सबसे प्यारा दोस्त
छोड़कर चला गया। उस दृश्य को याद करके वे कई बार रोए। 2 जून 1988 को उनका शिष्य
राजकपूर भी चला गया। उसने भी किदार शर्मा को बहुत रुलाया।
किदार शर्मा और
संगीतकार मदन मोहन
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किदार शर्मा 1954 में फ़िल्म 'शोख़ियां' का संगीत
तैयार करवा रहे थे। संगीत की रिहर्सल के समय एक नौजवान पूरे समय दरवाज़े के पास कान
लगाए खड़ा रहता था। उन्होंने सोचा- जाने दो होगा कोई। एक दिन किसी ने बताया- अरे
वो तो रायबहादुर चुन्नीलाल का बेटा मदन मोहन है। किदार शर्मा ने उसे बुलाया और
कहा- मदन मोहन तुमको मेरे पास आकर बैठना चाहिए था। जवाब में उसने एक शेर
सुनाया।
मैं लुटा रहा हूं सजदे अभी तेरी रहगुज़र में
तेरी आस्तां के क़ाबिल अभी मेरा सर नहीं है
मदन मोहन ने कहा- सुना है आप जिस पर ख़ुश होते हैं
उसे चवन्नी देते हैं। किदार शर्मा ने कहा- ठीक सुना है। वह बोला- मैंने एक धुन
बनाई है। कल आपको सुनाता हूं। अच्छी लगे तो मुझे भी चवन्नी दीजिएगा। दूसरे दिन मदन
मोहन आया। उसने बहुत बढ़िया धुन में एक गीत सुनाया।
सावन के महीने में
इक आग सी सीने में
लगती है तो पी लेता हूं
दो चार घड़ी जी लेता हूं
मदन मोहन की धुन सुनकर किदार शर्मा ने जेब में हाथ
डाला। सौ रूपये का एक नोट निकाला। मदन मोहन के हाथ पर रख दिया। वह बोला- आपने तो
चवन्नी देने की बात कही थी। किदार शर्मा बोले- तुम्हारी यह धुन अनमोल है। जैसा कि
आप जानते हैं आगे चलकर मदन मोहन बहुत बड़े संगीतकार बने।
किदार शर्मा की भीगी पलकें
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ज़िंदगी में एक मोड़ ऐसा भी आता है जब आपकी मुट्ठी से
रेत की तरह वक़्त फिसलने लगता है। किदार शर्मा के साथ भी ऐसा ही हुआ। 'हमारी याद आएगी' (1961) के बाद किदार शर्मा ने 'मयख़ाना' बनाई। सिनेमा में अब साहित्य की मांग कम हो गई थी। मारधाड़ और सेक्स
का प्रवेश हो चुका था। फ़िल्म 'मयख़ाना' सुपर फ्लॉप हुई। किदार शर्मा के लिए बुरा
वक़्त आ गया। लेकिन उन्होंने हारना नहीं सीखा था। सन् 1971 में उन्होंने 'प्यासे नैन' बनाई। परेशानियों से
जूझती यह फ़िल्म दिसंबर 1989 में सेंसर द्वारा पास की गई। कोई वितरक नहीं मिला तो
उन्होंने इसे दूरदर्शन को दे दिया। इसके बाद किदार शर्मा को अनुभव हुआ कि अब जिस
तरह बिना सिर पैर वाली फ़िल्में बन रही हैं ऐसी फ़िल्में वे नहीं बना सकते। माहौल भी
अनुकूल नहीं है। अब लोग पहले की तरह बड़ों की क़द्र नहीं करते।
दूरदर्शन के लिए किदार शर्मा ने टेलीफ़िल्में बनाईं।
फ़िल्म 'भीगी पलकें' में उन्होंने अभिनेत्री
सपना सारंग को इंट्रोड्यूस किया। इसके बाद 'अंधविश्वास', 'ऐसे लोग भी होते
हैं' तथा 'काग़ज़ की नाव' फ़िल्में बनाईं। सभी में उन्होंने सपना सारंग को अवसर दिया।
दूरदर्शन के लिए वह एक अच्छी अभिनेत्री थी। सन् 1993 में किदार शर्मा से कई
मुलाकातें हुईं। एक दिन बोले- अब मैं 83 साल का हो चुका हूं। कान और आंखें उतना
साथ नहीं देतीं। फिर भी एक फ़िल्म का काम चल रहा है।
किदार शर्मा के
सहमे हुए सितारे
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किदार शर्मा की आख़िरी फ़िल्म थी 'सहमे हुए सितारे'। इसमें भी उन्होंने एक नई
लड़की बैम्बी को नायिका के रूप में इंट्रोड्यूस किया। मुख्य भूमिका में थे मराठी
अभिनेता रमेश भाटकर। यह फ़िल्म बाप बेटी के भावनात्मक रिश्तों पर आधारित है। सन्
1993 में किदार शर्मा ने इस फ़िल्म के विशेष शो में मुझे बुलाया। लघु बजट की यह
फ़िल्म अच्छी थी। यह पता नहीं चल सका कि फ़िल्म रिलीज़ हुई या नहीं।
लेखक, निर्देशक, गीतकार किदार शर्मा का जन्म 12
अप्रैल 1910 को अमृतसर में हुआ। 29 अप्रैल 1999 को 89 साल की उम्र में मुंबई में
उनका स्वर्गवास हुआ। सन् 2002 में उनके बेटे विक्रम शर्मा के संपादन में अंग्रेजी
में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई- 'दि वन एंड लोनली किदार शर्मा'।
फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय के अनुसार केदार शर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। लेखक और चित्रकार तो थे ही सौंदर्य के पारखी भी थे और शायर भी। उनकी फ़िल्में उनके अद्भुत सौंदर्यबोध का प्रमाण हैं। किदार शर्मा ने अपने बेटे अशोक शर्मा को फ़िल्म ‘हमारी याद आएगी’ में हीरो बना कर लॉंच किया मगर बेटा चल नहीं पाया। उनकी ‘जोगन’ एक क्लासिक फ़िल्म है। उनका एक शेर याद आता है-
तेरा चेहरा है कि क़ुरान का पाकीज़ा वरक़,
तेरी आँखों में है लिखी हुई गीता जैसे.
मां की तीन क़समें
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सन् 1933 में 23 साल की उम्र में किदार शर्मा फ़िल्मों में अपना भाग्य आज़माने जब
कलकत्ता जा रहे थे तो उनकी मां ने उन्हें तीन क़समें दिलाई थीं-
1. कभी मांसाहारी भोजन नहीं करेंगे।
2. कभी शराब नहीं पिएंगे।
3. कभी ऐसी फ़िल्म नहीं बनाएंगे जिसे मां बेटी एक
साथ बैठकर न देख सकें।
किदार शर्मा ने आजीवन मां से किया हुआ वादा निभाया।
किदार शर्मा ने मुझसे कहा था- एक कलाकार को अच्छा इंसान भी होना चाहिए। मैं न
हिंदू हूँ और न मुसलमान। फ़िल्म ही मेरा धर्म है। इसी के साथ जिऊंगा। इसी के साथ
मरूंगा।
सौंदर्य के पारखी किदार शर्मा
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सन् 1993 में मैं पहली बार किदार शर्मा से मिलने गया। उनका ऑफिस एक सुसज्जित फ्लैट में था। उनकी मेज़ बहुत बड़ी थी। शायद 8X4 फुट की। जैसे ही मैं उनके सामने बैठा वे बोले- दो मिनट बैठो मैं आता हूं। मैंने देखा उनकी कुर्सी के पीछे एक शानदार रंगीन पोस्टर था। पोस्टर में एक षोडशी बाला थी। कमर से ऊपर निर्वस्त्र। लड़की के होंठों पर मंद मुस्कान थी। उसकी देहयष्टि बेहद कलात्मक थी। उसको देखने से मन में किसी विपरीत विचार के बजाय सौंदर्य के प्रति सराहना का भाव जगता था।
किदार शर्मा लौट कर आए। हंसते हुए बोले- देख लिया। जी हां, मैंने जवाब दिया। वे बोले- स्त्री, सौंदर्य और कला की देवी है। हमें उसके इस रूप का सम्मान करना चाहिए। फ़िल्म 'चित्रलेखा' में मैंने एक स्नान दृश्य फ़िल्माया था। इसमें एक साथ कई स्त्रियों को नहाते हुए दिखाया गया था। यह दृश्य भी कलात्मक था। इस दृश्य की भी तारीफ़ हुई थी। फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय ने किदार शर्मा का एक शेर सुनाया था। वह शायद इसी बाला के सम्मान में कहा गया था-
तेरा चेहरा है कि क़ुरान का पाकीज़ा वरक़,
तेरी आँखों में है लिखी हुई गीता जैसे.
फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय के अनुसार किदार शर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। लेखक और चित्रकार तो थे ही, सौंदर्य के पारखी भी थे और शायर भी। उनकी फ़िल्में उनके अद्भुत सौंदर्यबोध का प्रमाण हैं। किदार शर्मा की ‘जोगन’ एक क्लासिक फ़िल्म है।
किस हाल में है रंजीत स्टूडियो
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किदार शर्मा बातचीत के रसिक थे। उनकी गपशप में लुत्फ़ आता था। इसलिए मैं उनके ऑफिस में कई बार मिलने गया। उन्होंने बताया कि दिलीप कुमार और नरगिस की फ़िल्म 'जोगन' उन्होंने रंजीत स्टूडियो में 29 दिन में पूरी कर डाली थी। मन में एक इच्छा जगी कि उस जगह के दर्शन किए जाएं। दादर पूर्व में टर्मिनस के सामने जो गली हिंदमाता की तरफ़ जाती है उसी गली में अधिकांश स्टूडियो थे। दादर की उस गली में पहुंचा तो पहले रूपतारा स्टूडियो का बोर्ड दिखाई पड़ा। थोड़ा आगे बढ़ने पर रंजीत स्टूडियो का वह गेट मिला जहां फ़िल्म 'गौरी' की नायिका मोनिका देसाई ने दरबानों से झगड़ा किया था। रंजीत स्टूडियो की खपरैल वाली बिल्डिंग में कई एसोसिएशन के कार्यालय थे। स्टूडियो अपने अतीत का गौरव समेटे ख़ामोश खड़ा था। श्रीसाउंड स्टूडियो के बारे में मालूम पड़ा कि उसकी जगह टावर बन गया है और उसमें आधुनिक सुविधा संपन्न रिकॉर्डिंग स्टूडियो खुल गया है। पिछले 25 सालों में उस गली में मेरा आना जाना फिर नहीं हुआ। पता नहीं अब किस हाल में हैं ये स्टूडियो।
एक भव्य दुनिया के स्मारक
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दादर स्टेशन के सामने पुरानी इमारतें लगातार टूट रही हैं। गगनचुंबी टावर बन रहे हैं। हिंदी सिनेमा के गौरवशाली अतीत को साकार करने वाले ये केंद्र स्मृति शेष बनते जा रहे हैं। तीस साल पहले मैं मालाड में बाम्बे टॉकीज देखने गया था। इस स्टूडियो की मालकिन देविका रानी ने एक साम्राज्ञी के रूप में कभी फ़िल्म जगत पर राज किया था। सन् 1939 में गीतकार पं प्रदीप ने एक सुसज्जित विशाल हाल में ऊपर से आती हुई अर्धचंद्राकार सीढ़ियों पर देविका रानी को महारानी की तरह उतरते हुए देखा था। जब मैं वहां गया था तो बाम्बे टॉकीज के मलबे पर कई दुकानें बन गईं थी। स्टूडियो के अवशेष के रूप में टूटे फूटे सिर्फ़ दो पिलर ही दिखाई पड़े थे। तब समझ में आया कि एक जीती जागती भव्य दुनिया पहले खंडहर में, फिर मलबे में और फिर इतिहास में कैसे तब्दील हो जाती है।
किदार शर्मा ने अपना एक शेर सुनाया था जो आज भी मेरे साथ है और हमेशा रहेगा। इसी शेर के साथ उनकी दास्तान मुकम्मल होती है।
मैंने तो हमेशा कश्ती को धारे के सहारे छोड़ा है
वर्ना ये किनारे ऐसे हैं जब चाहें किनारा कर जाएं
आपका-
देवमणि पांडेय
Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti,
Kanya Pada,
Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063, M: 98210 82126
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