रविवार, 24 मई 2020

फ़िराक़ गोरखपुरी : हाय क्या चीज़ है जवानी भी



तुमने फ़िराक़ को देखा है

मुम्बई महानगर के एक जलसे में फ़िराक़ साहब तशरीफ़ लाए। उन्हें देखने के लिए कई हज़ार लोग इकट्ठे हो गए। उर्दू अदब के मशहूर समालोचक ज़ोय अंसारी ने स्वागत वक्तव्य दिया। उन्होंने ललकारते हुए कहा- "हम-असरो! फ़िराक़ साहब को आँख भरकर देख लो ताकि आने वाली नस्लों को ये बता सको कि तुमने फ़िराक़ साहब को देखा है।" इस जलसे में शायर ज़फ़र गोरखपुरी भी मौजूद थे। उन्होंने बताया कि फ़िराक़ साहब ने यहां अपना वो मशहूर शेर भी सुनाया-

आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
जब उनको मालूम ये होगा तुमने फ़िराक़ को देखा है
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मुंबई के एक मुशायरे में फ़िराक़ गोरखपुरी की मौजूदगी में एक नौजवान शायर ने फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल में जोड़-तोड़ करके यानी चर्बा करके ग़ज़ल सुनाई। फ़िराक़ साहब ने उसे समझाने की कोशिश की। नौजवान बोलाफ़िराक़ साहब कभी-कभी दो शायरों के भाव टकरा जाते हैं। फ़िराक़ साहब ने कहा- देखो मियां! साइकिल, मोटरसाइकिल से टकरा सकती है। साइकिल, कार से टकरा सकती है। मगर साइकिल, हवाई जहाज़ से कभी नहीं टकरा सकती। आइंदा इस बात का  ध्यान रखो। 

हाय क्या चीज़ है जवानी भी
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मुंबई के रंग भवन में आयोजित सालाना मुशायरे में फ़िराक़ गोरखपुरी ने ग़ज़ल पढ़ी।

रात भी, नींद भी, कहानी भी  
हाय, क्या चीज़ है जवानी भी

जब फ़िराक़ साहब ने ये मतला पढ़ा तो सामने बैठे श्रोता हंसने लगे। फ़िराक़ साहब ने श्रोताओं को डांटा। सन्नाटा छा गया। इसके बाद फ़िराक़ साहब ने दस मिनट तक भाषण दिया कि शायरी सुनने के लिए सलीक़ा और शऊर क्या होता है।
दरअसल देखने में यह एक सीधा-सादा शेर लगता है जिसमें कहा गया है कि रात, नींद और कहानी अच्छी चीजें है मगर जवानी इससे भी सुंदर चीज़ है। एक अच्छी शायरी आइसबर्ग की तरह होती है। एक चौथाई दिखाई पड़ती है और तीन चौथाई छुपी रहती है। अच्छे शेर के साथ भी कुछ ऐसा ही है होता है।
इस मतले में एक ख़ास अर्थ छुपा है। रात का गुण है रहस्यमय होना। नींद आती है तभी मीठे ख्व़ाब आते हैं। कहानी में मोड़, उतार-चढ़ाव और  घुमाव होते हैं। रात के रहस्य, सपनों की मिठास और कहानी के उतार-चढ़ाव को शामिल कीजिए तो जवानी की मोहक तस्वीर बनती है। इसलिए फ़िराक़ साहब ने कहा है - "हाय, क्या चीज़ है जवानी भी" यानी जवानी इन तीनों से कहीं ज़्यादा दिलकश है। सिर्फ़ एक लफ़्ज़ 'हाय' में जवानी की जो तारीफ़ की गई है वह बेमिसाल है। ये ग़ज़ल आप चित्रा सिंह की आवाज़ में सुन सकते हैं। चित्रा और जगजीत सिंह की आवाज़ में उनकी एक और ग़ज़ल बेहद लोकप्रिय हुई।

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

फ़िराक़ साहब अंग्रेजी और फारसी के विद्वान थे।  उर्दू से उन्हें मुहब्बत थी। कभी कभी फ़िराक़ साहब एक ही शब्द से बहुत बड़ा काम लेते थे। उनके दो शेर देखिए-

हमसे क्या हो सका मुहब्बत में 
ख़ैर, तुमने तो बेवफ़ाई की

अब तक तो जी रहा था किसी दोस्त के बग़ैर
अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो ख़ैर

दोनों शेर की ख़ूबसूरती बस एक शब्द 'ख़ैर' पर टिकी हुई है। आप भी इस कशिश को महसूस करने की कोशिश करेंगे तो आपको भी लुत्फ़ आएगा। 

बीसवीं सदी के सबसे बड़े शायर
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फ़िराक़ साहब जानबूझकर कभी-कभी ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कर देते थे कि सुनने वाले हैरान परेशान हो जाते थे। एक बार उन्होंने एक शेर कह दिया जो कुछ इस तरह का था -

नहीं मिले तो नहीं मिले
मिले तो अदबदाकर मिले

कई लोगों ने ऐतराज़ किया मगर फ़िराक़ साहबअदबदाकरबदलने को तैयार नहीं हुए। इसी तरह एक बार एक मुशायरे में उन्होंने सुनाया-

याद--यार तुझसे सर--राह--ज़िंदगी
अक्सर मिला हूँ और बगलिया गया हूँ मैं

बगलियासुनकर कई लोग जलभुन गए। मगर फ़िराक़ साहब इसे बदलने को तैयार नहीं हुए। फ़िराक़ साहब अपने दौर के सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे शायर थे फिर भी उन्होंने आसान भाषा में कई ऐसे शेर कहे जो आज भी लोगों की ज़बान पर हैं-

ये माना ज़िंदगी है चार दिन की 
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी 

मौत का भी इलाज हो शायद 
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं 

अब तो उनकी याद भी आती नहीं 
कितनी तन्हा हो गईं तनहाइयां 

ख़ुदा को पा गया वाइज़, मगर है 
ज़रूरत आदमी को आदमी की

फ़िराक़ साहब के बारे में उर्दू के मशहूर समालोचक पद्मश्री कालिदास गुप्ता रिज़ा ने कहा था कि वह बीसवीं सदी के सबसे बड़े शायर हैं। फ़िराक़ साहब ने उर्दू की रिवायती शायरी के शबे-विसाल को हिंदुस्तानी संस्कृति से जोड़कर उसे उदात्त स्वरूप प्रदान किया-

ज़रा विसाल के बाद आईना तो देख दोस्त!  
तेरे जमाल की दोशीजगी निखर आई 

फ़िराक़ और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में पाकिस्तान के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को आमंत्रित किया गया। विश्वविद्यालय के कुछ छात्र फ़िराक़ साहब के पास गए। उन्होंने फ़िराक़ साहब से अनुरोध किया कि आप इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करें। फ़िराक़ साहब बोले- अगर मूड हुआ तो जाऊंगा। कार्यक्रम के दिन फ़ैज़ साहब दिल्ली से ट्रेन पकड़ कर सुबह इलाहाबाद पहुंचे। कुछ छात्र उनको रिसीव करने आए थे। फ़ैज़ ने छात्रों से कहा- सबसे पहले मैं फ़िराक़ साहब से मिलना चाहता हूं। छात्रों ने कहा- आप पहले होटल चलिए। नहा धोकर तैयार हो जाइए। फिर हम आपको फ़िराक़ साहब के पास ले चलेंगे। फ़ैज़ साहब नहीं माने। बोले- पहले में फ़िराक़ साहब को सलाम करूंगा तभी आगे जाऊंगा। अस्त-व्यस्त कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी और बिखरे बाल वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सीधे फ़िराक़ साहब के घर गए। उन्हें सलाम किया। फ़िराक़ साहब ने उन्हें गले लगाया। बोले- फ़ैज़! शाम को मैं आऊंगा। तुम्हारे कार्यक्रम की सदारत करूंगा।
काव्य संग्रह 'गुल नगमा' के लिए सन् 1960 में फ़िराक़ साहब को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। फिराक साहब अकेले ऐसे इंसान थे जो पंडित नेहरू को जवाहर कहकर बुलाते थे। पंडित नेहरू के आग्रह पर वे लगभग : माह तक प्रदेश कांग्रेस के जॉइंट सेक्रेटरी भी रहे। 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में जन्मे रघुपति सहाय फ़िराक़ का 3 मार्च 1982 को नई दिल्ली में इंतक़ाल हुआ।
फ़िराक़ साहब का कहना था कि हिंदुस्तान में ग़ज़ल को आए हुए अरसा हो गया लेकिन इसमें हिंदुस्तान के खेत-खलिहान, नदियां-पहाड़, राम और कृष्ण अब तक क्यों नहीं दिखाई देते। उन्होंने ख़ुद इस कमी को दूर करने की कोशिश की। सूरदास का पद "मैया मैं तो चंद्र खिलौना लेइहौं" आपने सुना होगा। फ़िराक़ साहब की यह रुबाई देखिए

आंगन में ठुनक रहा ज़िदयाया है  
बालक तो हई चांद पर ललचाया है  
दर्पण उसे देके कह रही है मां  
देख, आईने में चांद उतर आया है


फ़िराक़ साहब की नाराज़गी 
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प्रयाग के मुशायरे के संयोजक थे बन्ने भाई  यानी सज्जाद ज़हीर। प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित इस मुशायरे में मुंबई से सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी और ज़फ़र  गोरखपुरी विशेष रूप से आमंत्रित थे। मुशायरे की  अध्यक्षता फ़िराक़ साहब कर रहे थे। फ़िराक़ साहब जब माइक पर खड़े हुए तो उनके पाज़ामे का नाड़ा  बाहर लटक रहा था। यह देख कर लोग हंसने लगे। फ़िराक़ साहब ने लोगों को डांटना शुरू किया। कैफ़ी आज़मी फ़िराक़ साहब के पास गए। उन्होंने फ़िराक़ साहब का नाड़ा समेट कर पाज़ामें के अंदर खोंस दिया और चुपचाप अपनी जगह पर आकर बैठ गए।.इसके बाद पब्लिक शांत हो गई और फ़िराक़ साहब ने अपनी ग़ज़लें सुनाईं।  इस घटना का ज़िक्र ज़फ़र गोरखपुरी ने किया था।

फ़िराक़ साहब के बारे में कई क़िस्से मशहूर हैं। इलाहाबाद के एक मुशायरे में फ़िराक़ साहब ग़ज़ल पढ़कर जैसे ही अपनी जगह पर वापस लौटे मुशायरे के संचालक ने फ़िराक़ साहब से कहा- फ़िराक़ साहब ट्रेन लेट होने के कारण एक नौजवान शायर अभी अभी यहां पहुंचा है। क्या आप के बाद वह अपनी ग़ज़ल पढ़ सकता है? फ़िराक़ साहब फ़ौरन बोले- जब ये नौजवान मेरे बाद पैदा हो सकता है तो मेरे बाद पढ़ क्यों नहीं सकता।
एक मुशायरे में फ़िराक़ साहब ने जैसे ही ग़ज़ल का पहला मिसरा पढ़ा श्रोताओं में किसी की आवाज़ आई- वाह वाह। फ़िराक़ साहब नाराज़ हो गए। बोले- ये कौन बेवकूफ़ है। इसे बाहर निकालो तभी मैं ग़ज़ल पढूंगा। माइक छोड़कर वे अपनी जगह पर वापस जाकर बैठ गए। आयोजकों ने उस आदमी को सभागार से बाहर निकाल दिया। उसके बाद फ़िराक़ साहब ने अपनी ग़ज़ल सुनाई।

कविता से भूत भी डरते हैं 
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फ़िराक़ साहब मुंहफट मगर स्वभाव से दिलचस्प इंसान थे। मुशायरे में उनकी बारी बहुत देर में या सबसे बाद में आती थी। तब तक ढेर सारे शायरों को सुनकर श्रोता थक जाते थे। श्रोता बोर हों इस लिए ग़ज़ल पढ़ने से पहले फ़िराक़ साहब कोई लतीफ़ा सुना देते। एक मुशायरे में फ़िराक़ साहब ने यह लतीफ़ा सुनाया। 
बनारस के एक मकान के बारे में यह ख़बर फैल गई कि उसमें भूत रहता है। कोई भी उस मकान में रहने के लिए तैयार नहीं था। वर्षों से ख़ाली पड़े उस मकान को एक कवि ने किराए पर लिया। कवि ने मकान का ताला खोला। घर में घुसते ही कवि ने कविता पाठ शुरू कर दिया। लगभग एक घंटे बाद कवि ने देखा कि एक परछाईं दरवाज़े से बाहर निकल गई। उसके बाद कवि उस मकान में सुख से रहने लगा। 
फ़िराक़ साहब प्रेम और सौंदर्य के शायर हैं। उनकी रुबाइयों का संग्रह रूप और उनके द्वारा संपादित पुस्तकउर्दू की इश्क़िया शायरी को मुहब्बत करने वालों ने बहुत पसंद किया।  


फ़िराक़ गोरखपुरी के चंद अशआर
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(1)
हमारा यह तजुर्बा है कि ख़ुश होना मुहब्बत में 
कभी मुश्किल नहीं होता कभी आसां नहीं होता 
(2)
मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई हमें 
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं 
(3)
शामें किसी को मांगती हैं आज भी फ़िराक़ 
गो ज़िंदगी में यूं मुझे कोई कमी नहीं 
(4) 
गरज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन दोस्त 
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में
(5)
तबीअ' अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में 
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं 
(6)
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी
(7)
मुझ को मारा है हर इक दर्द दवा से पहले
दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म--ख़ता से पहले
(8)
रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुब्ह--चमन क्या कहना
(9)
आई है कुछ पूछ क़यामत कहाँ कहाँ
उफ़ ले गई है मुझ को मुहब्बत कहाँ कहाँ
(10)
आए थे हंसते खेलते मयख़ाने में फ़िराक़ 
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए
(11)
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने 
ख़राब होके भी ये ज़िंदगी ख़राब नहीं 
(12)
जाने अश्क से आंखों में क्यों हैं आए हुए 
गुज़र गया है ज़माना तुझे भुलाए हुए 
(13)
कोई नई जमीं हो नया आसमां भी हो 
दिल अब उसके पास चलें वो जहां भी हो 
(14)
हो जिन्हें शक़ वो करें और ख़ुदाओं की तलाश 
हम तो इंसान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं 
(15)
तुम इसे शिकवा समझकर किसलिए शरमा गए
मुद्दतों के बाद देखा था तो आंसू गए 
(16)
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं 
ज़िंदगी तूने तो धोके पे दिया है धोका 
(17)
ग़ैर क्या जानिए क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बजा कहते हैं
(18)
शिव का विषपान तो सुना होगा 
मैं भी दोस्त पी गया आंसू
(19)
कोई आया आएगा लेकिन 
क्या करें गर इंतज़ार करें 
(20)
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो 
तुमको देखें कि तुमसे बात करें


आपका-
देवमणि पांडेय

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126

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