फरवरी 1989 की एक ख़ुशनुमा शाम थी। पृथ्वी थिएटर के
सामने खपरैल वाली कॉटेज के हरे भरे लान में हम लोग बैठे थे। शायर कैफ़ी आज़मी, उनकी
बीवी शौक़त आज़मी, उनकी बहू तन्वी आज़मी और मैं। मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि मेरे
साथ एक व्यक्तिगत बातचीत को कैफ़ी साहब ने पारिवारिक रूप दे दिया था। कैफ़ी साहब ने बताया- अब मैं ज़्यादा समय अपने गांव
मिजवां (आज़मगढ़) को देता हूँ। वहाँ कई सुधार योजनाएं चल रही हैं। पांच साल की
मुसलसल कोशिश के बाद गांव तक पक्की सड़क बन गई है। लड़कियों को उच्च शिक्षा मिल
सके इसके लिए कॉलेज बन रहा है। मैं साहित्य का आदमी हूं। रोज़ी रोटी के लिए फ़िल्म
जगत में आया था। अब उम्र काफ़ी हो गई। लकवे और ब्रेन हेमरेज़ का अटैक भी हुआ। इससे
लोगों ने समझ लिया कि कैफ़ी साहब बीमार हो गए हैं। लिखने के क़ाबिल नहीं हैं। जब कि
मैं अब ज़्यादा अच्छा लिख सकता हूं। अखाड़े में कुश्ती तो नहीं लड़ सकता लेकिन क़लम
तो अच्छी तरह चला सकता हूं।
शौक़त के साथ नई दुनिया का ख़्वाब
कामरेड कैफ़ी आज़मी दिन में मज़दूरों के बीच जाकर
उन्हें बेहतर ज़िंदगी का ख़्वाब दिखाते और रात में ग्रांट रोड के खेतवाड़ी मुहल्ले
के कम्यून (सहनिवास) में फ़र्श पर साथियों के साथ सो जाते। कंधे तक झूलते बेतरतीब
बाल, गूंजती हुई आवाज़ और पुरअसर अंदाज़ में नौजवान शायर कैफ़ी आज़मी ने हैदराबाद के
एक मुशायरे में 'औरत' नज़्म सुनाई- "उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है
तुझे"। उनकी यह नज़्म सुनकर एक अमीर घर की शहज़ादी शौक़त मुंबई चली आई।
प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े दोस्तों ने आपस में चंदा किया और दोनों की शादी रचाई।
इस नए जोड़े ने कुछ दिन सरदार जाफ़री के घर पर बिताया। फिर जुहू में अपना आशियाना
बनाया। आज़ादी के बाद के दो दशकों में मुंबई में प्रगतिशील लेखक संघ का बहुत अच्छा
माहौल था। सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, ज़फ़र
गोरखपुरी, ख्वाजा अहमद अब्बास, कृष्ण चंदर और महेंद्र नाथ जैसे क़लमकार प्रगतिशीलता
का परचम लहराते हुए एक नई दुनिया का ख़्वाब देख रहे थे।
फ़िल्म जगत में कैफ़ी आज़मी
अपनी महबूबा शौक़त के साथ कैफ़ी आज़मी ने प्रेम विवाह
किया। जुहू के जानकी कुटीर मुहल्ले में घर बसाकर हमसफ़र के साथ ज़िंदगी के नए सफ़र पर
चल पड़े। कैफ़ी साहब ने कहा- मैं रोज़ी रोटी के लिए फ़िल्म जगत में आया लेकिन ज़्यादा
पैसे की हवस कभी नहीं हुई। यहां मैंने एक लाइन भी अपनी आस्था के ख़िलाफ़ नहीं लिखी।
मुझे उन्हीं लोगों ने गीतकार का काम दिया जिन्हें वाक़ई शायरी की ज़रूरत थी।
कैफ़ी साहब ने बताया- फ़िल्म 'बुज़दिल' में मैंने पहली
बार गीत लिखा था- "रोते-रोते गुज़र गई रात रे, आई याद तेरी हर बार रे"।
इसके निर्देशक शाहिद लतीफ़ और संगीतकार एसडी बर्मन थे। इसके बाद मैंने गुरुदत्त की
फ़िल्म 'काग़ज़ के फूल' में गीत लिखे तो बॉलीवुड ने यह समझ लिया कि मैं गीत लिख
सकता हूं। 'काग़ज़ के फूल' फ्लॉप हो गई। इसके बाद मेरी दो और फ़िल्में फ्लॉप हुईं।
तीन फ्लॉप फ़िल्मों ने मुझे फ्लॉप गीतकार बना दिया। लोग कहने लगे मेरा सितारा ख़राब
है। इसके बावजूद चेतन आनंद ने फ़िल्म 'हक़ीक़त' में गीत लिखने के लिए मुझे आमंत्रित किया।
'हक़ीक़त' कामयाब हुई और मैं सफल गीतकारों की श्रेणी में आ गया। मुझे एक बात बहुत
अच्छी लगी कि बॉलीवुड में किसी से यह नहीं पूछा जाता कि तुम हिंदू हो या मुसलमान।
यहां बस यही पूछा जाता है कि तुम गीत लिख सकते हो या नहीं।
कथाकार प्रेमचंद वापस लौट गए
बॉलीवुड में कवियों की तुलना में शायरों को ज़्यादा
महत्व दिया जाता है? कैफ़ी साहब ने फ़रमाया- भारतीय फ़िल्मों की कहानी हिंदी होती है।
गीत हिंदी होते हैं। व्यवसाय हिंदी होता है। इसलिए यहां हिंदी और उर्दू को अलग
करके नहीं देखा जाता। वास्तव में यह बेहद व्यवसायिक लाइन है। यहां सफल होने के लिए
व्यवसायिक बनना ही पड़ता है। कुछ लोग समझौता नहीं कर पाते। प्रेमचंद जी यहाँ आए
थे। फ़िल्म 'मज़दूर' की कहानी उन्होंने लिखी। लेकिन उनको लगा कि उनके कहानी के स्तर
की फ़िल्म नहीं बन सकती तो वे वापस लौट गए। नीरज ने 'मेरा नाम जोकर' और 'नई उमर की
नई फ़सल' फ़िल्मों के लिए बड़े अच्छे गीत लिखे। गाने लोकप्रिय होने के बावजूद फ़िल्म
नहीं चली। बॉलीवुड में फ़िल्म सफल होती है तभी गीतकार भी सफल होता है। फ़िल्म की
असफलता ने कई अच्छे गीतकारों को पर्दे के पीछे पहुंचा दिया।
कैफ़ी साहब बोले- बॉलीवुड ने लिखने वालों को जो ऊंचा
स्थान दिलाया है वह हिंदुस्तान के अलावा और कहीं नहीं मिल सकता था। कई अच्छे
गीतकार घर बैठे हैं। इसके बहुत सारे कारण हैं। भरत व्यास धार्मिक फ़िल्मों के लिए
बहुत अच्छा लिखते थे। पं प्रदीप ने बड़े अच्छे देशभक्ति के गीत लिखे। अब ऐसी
फ़िल्में नहीं बनतीं। अब पहले जैसे संगीतकार और फ़िल्म निर्देशक भी नहीं हैं। पहले
लोग अच्छी कविता खोजते थे। लेकिन अब कविता को महत्व ही नहीं दिया जाता।
हिन्दी फ़िल्मों में गीत का महत्व
कैफ़ी साहब ने बताया- पहले फ़िल्म में दर्जनों गीत
होते थे। वही फ़िल्म को चलाते थे। अब कहानी के जोड़-तोड़ पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता
है। संगीत उपेक्षित रह जाता है। दो-तीन ऐसे गाने डाल दिए जाते हैं जिससे फ़िल्म की
गति रुके नहीं। अब तो न 'हीर रांझा' जैसी फ़िल्में बनती हैं। न अब मदन मोहन जैसे
संगीतकार हैं। न तो पहले जैसा संगीत है। सिचुएशन मुश्किल मिले तो मैं ज़्यादा अच्छा
गीत लिख सकता हूं। आज ज़रा सी मेहनत से गीत बन जाते हैं। आज फ़िल्म के परदे पर गाना
आता है तो लोग बाहर निकल आते हैं। इसी लिए लोग आज फ़िल्म में गीत रखने से घबराते
हैं। कई गाने तो फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले ही अपना असर खो देते हैं। गुरुदत्त और
राज कपूर ने गीत-संगीत का बेहतर इस्तेमाल अपनी फिल्मों में किया था। अब तो लोग
शायरी से डरते हैं।
धुन पर गीत लिखना मुश्किल काम
धुन पर लिखना या स्वतंत्र रूप से लिखना... क्या
अच्छा लगता है? कैफ़ी साहब बोले- धुन पर गीत लिखना कुछ इसी तरह का है जैसे क़ब्र
खोदकर कहा जाए कि इस साइज का मुर्दा लाओ। इसीलिए कभी-कभी गीत के बोल उखड़े उखड़े
लगते हैं। नए लोगों के लिए यह बहुत मुश्किल काम है। फ़िल्म 'हीर रांझा' के गीत
मैंने धुन पर ही लिखे थे। फ़िल्म 'अर्थ' में दी गई सिचुएशन पर मैंने स्वतंत्र रूप
से लिखा था बाद में जगजीत सिंह ने इसकी धुन बनाई।
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
कैफ़ी साहब के अनुसार धुन पर लिखवाना संगीतकारों की
कमज़ोरी है। लेकिन ऐसा होना भी ज़रूरी है। हम ख़ुद लिखते हैं तो ग़ज़ल के ज्यादा क़रीब
होते हैं। कोरस और फॉक स्टाइल के गीत मैं धुन पर ही लिखना पसंद करता हूं। अगर
गीतकार के अंदर हुनर हो तो बनी बनाई धुन पर भी अच्छे गीत लिखे जा सकते हैं। हमारे
बाद के गीतकारों में आनंद बख़्शी सबसे कामयाब गीतकार हैं। उन्हें लय की समझ है।
उन्हें पंजाब के लोक संगीत की अच्छी जानकारी है। वह ख़ुद गा भी लेते हैं। इससे
संगीत निर्देशक को आसानी हो जाती है। नए लोगों को गीत लेखन के इस मेथड की जानकारी
नहीं है।
कैफ़ी साहब ने कहा- फ़िल्मों में डिस्को की धुन पर
सस्ते गीत लिखे जा रहे हैं। फ़िल्म और राजनीति में जितना भी पाप किया जा रहा है वह
पब्लिक के नाम पर हो रहा है। पब्लिक अच्छी चीज़ें ही पसंद करती है लेकिन लोग उसे
देते नहीं। लोग देखते हैं कि कौन सी फ़िल्म चली। बस उसी फार्मूले पर दूसरी बना
डालते हैं। फ़िल्म जगत में ऐसे लोग भी हैं जो लेखक को लंदन में चलती फ़िल्म दिखाने
के लिए हवाई जहाज़ से वहां ले जाते हैं और लेखक उसी का हिंदी संस्करण पेश कर देता
है। अब तो ग़ज़ल भी डिस्को होने लगी है। भजन में भी दर्जनों पश्चिमी वाद्य यंत्रों
का प्रयोग होने लगा है। जनता की किसे परवाह है।
कैफ़ी आज़मी के काव्य संग्रह
कैफ़ी आज़मी ने बताया कि उनके पांच काव्य संग्रह
प्रकाशित हो चुके हैं- झंकार, आख़िरी शब्द, आवारा सजदे, सरमाया और मजलिस ए शूरा।
उनकी किताब 'आवारा सजदे' काफ़ी लोकप्रिय हुई। उन्हें नेशनल अवार्ड, फ़िल्म फेयर
अवार्ड और पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा गया। कैफ़ी आज़मी ने ग्यारह साल की उम्र में
गज़लें कहनी शुरू कर दीं थी। उनके वालिद को ख़बर हुई तो उन्होंने ग़ज़ल कहने के लिए
कैफ़ी को एक मिसरा दिया- "आया ही था ख़याल कि आंसू निकल पड़े"। ग्यारह साल
के कैफ़ी ने इस विषय पर ग़ज़ल कह डाली-
इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े
जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े
कैफ़ी आज़मी के गीतों की ख़ासियत
कैफ़ी आज़मी जिस दौर में फ़िल्म जगत में गीत लिखने आए
उस दौर में फ़िल्मों में गीत लेखन को साहित्यकार दोयम दर्जे का काम समझते थे। फिर
भी रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आए कई शायरों ने फ़िल्मी गीतों में शायरी का रंग
घोलकर इसका चेहरा ख़ूबसूरत बना दिया। कैफ़ी आज़मी ने भी यही किया। उनके पास एक दृष्टि
थी। बेहतर दिनों का ख़्वाब था। ज़िंदगी के जज़्बात थे। इन्हीं चीज़ों के दम पर
उन्होंने जो गीत रचे उसकी ख़ुशबू आज भी महसूस की जा सकती है।
कैफ़ी आज़मी फ़िल्म गीत लेखन में नया अंदाज़ लेकर आए।
यहां तक कि फ़िल्म 'हीर रांझा' के संवादों को शायरी की शक्ल देकर उन्होंने एक
करिश्मा कर दिया। शब्दों की ताक़त क्या होती है, एहसास और जज़्बात का जादू क्या होता
है, इज़हारे तसव्वुर क्या होता है यह कैफ़ी आज़मी के गीतों ने साबित किया। कैफ़ी के
गीतों में मुहब्बत की एक ऐसी दास्तान है जिसमें मुहब्बत करने वालों को अपना अक्स
नज़र आता है। उन्होंने कई ऐसे गीत रचे हैं जो सुनने वालों की तनहाइयों को आबाद करते
हैं। उदासी में ख़ुशी का एहसास दिलाते हैं। लोग अकेले में उन्हें गुनगुनाते हैं।
इन्हीं गीतों के दम पर कैफ़ी आज़मी हमेशा हमारे साथ हैं। 14 जनवरी 1919 को आज़मगढ़
के मिजवां गांव में जन्म लेने वाले शायर कैफ़ी आज़मी का 10 मई 2002 को मुंबई में
इंतक़ाल हो गया।
कैफ़ी आज़मी के चंद लोकप्रिय गीत
1.वक़्त ने किया क्या हसीं सितम।
2.जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें।
3.ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है।
4. है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या।
5. होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा।
6. धीरे धीरे मचल ऐ दिले बेकरार कोई आता है।
7. मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली।
8. ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं।
9. तेरे कूचे में तेरा दीवाना आज दिल खो
बैठा।
10. मिलो न तुम तो हम घबराएं।
11. जा रे पवनिया पिया के देश जा।
12. आज सोचा तो आंसू भर आए।
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
फ़िल्म 'हक़ीकत' (1964) में कैफ़ी साहब का गीत
"कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियो" बेहद लोकप्रिय हुआ। कैफ़ी आज़मी के
शब्द, मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ और मदन मोहन के दिलकश संगीत से सजे इस गीत को सुनकर आज
भी हम देशभक्ति के जज़्बे से लबरेज़ हो जाते हैं। पेश है आप सब के लिए यही गीत-
कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन
साथियो
सांस थमती गई नब्ज़ जमती गई
फिर भी बढ़ते क़दम को न रुकने दिया
कट गये सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया
मरते मरते रहा बांकपन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज़ आती नहीं
हुस्न और इश्क़ दोनों को रुसवा करे
वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं
बाँध लो अपने सर पर कफ़न साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
राह क़ुर्बानियों की न वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नये क़ाफ़िले
फ़तह का जश्न इस जश्न के बाद है
ज़िंदगी मौत से मिल रही है गले
आज धरती बनी है दुल्हन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
खींच दो अपने खूँ से ज़मीं पर लकीर
इस तरफ़ आने पाये न रावण कोई
तोड़ दो हाथ गर हाथ उठने लगें
छूने पाये न सीता का दामन कोई
राम भी तुम तुम्हीं लक्ष्मण साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
आपका-
देवमणि पांडेय
Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti,
Kanya Pada,
Gokuldham, Film City Road,
Goregaon East, Mumbai-400063,
M : 98210-82126
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