शायर सिने गीतकार निदा फ़ाज़ली
होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजै तब समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है
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मेरी आँखों ने चुना है तुझको दुनिया देखकर
किसका चेहरा अब मैं देखूँ तेरा चेहरा देखकर
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तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है, तेरी महफ़िल है
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तुम्हारी पलकों की चिलमनों में
ये क्या छुपा है सितारे जैसा
हसीन है ये हमारे जैसा
शरीर है ये तुम्हारे जैसा
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तेरे लिए पलकों की झालर बुनूँ
कलियों सा गजरे में बाँधे फिरूँ
सरफ़रोश, रज़िया सुल्तान, आहिस्ता-आहिस्ता, विजय, इस रात
की सुबह नहीं, तरक़ीब, सुर, देव, चाहत, अनोखा बंधन, मॉर्निंग वॉक, भाई भाई, बीवी ओ बीवी,
आदि फ़िल्मों में निदा फ़ाज़ली ने गीत लिखे। ये गीत आम कमर्शियल स्टाइल के नहीं थे। फिर
भी ये गीत सुनने वालों को पसंद आए। क्योंकि इनमें शायरी का हुस्न, लफ़्ज़ों का जादू और
जज़्बात की ख़ुशबू शामिल है। फ़िल्म 'तरक़ीब' में निदा साहब ने एक ऐसा गीत भी लिख दिया
जिसे फ़िल्म जगत की फ़िल्मी भाषा में आइटम सांग कहा जाता है-
जवानी का आलम बड़ा बेख़बर है
दुपट्टे का पल्लू किधर का किधर है
कमाल अमरोही की रज़िया सुल्तान
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सन् 1965 में रोज़ी-रोटी की तलाश में निदा फ़ाज़ली मुंबई
आए। 'झूठ बोले कौवा काटे' फेम गीतकार विट्ठल भाई पटेल ने अपने घर पर एक काव्यसंध्या
का आयोजन किया। श्रोताओं में एक निर्माता थे सुगनू जेठवानी। निदा फ़ाज़ली के कलाम से
बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने चार फ़िल्मों की घोषणा की। चारों में बतौर गीतकार निदा
फ़ाज़ली का नाम था। इनमें से तीन फ़िल्में रिलीज़ हुईं- शायद, कन्हैया और हरजाई।
कमाल अमरोही की फ़िल्म रज़िया सुल्तान (1983) के गीतकार
जां निसार अख़्तर अचानक गुज़र गए। कमाल अमरोही ने निदा फ़ाज़ली को बुलाया। निदा फ़ाज़ली
ने फ़िल्म रज़िया सुल्तान के गीत लिखे। ख़य्याम के संगीत निर्देशन में 'हरियाला बन्ना'
गीत आशा भोंसले ने गाया। एक गीत कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ में रिकॉर्ड हुआ।
तेरा हिज्र मेरा नसीब है
तेरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों
तू कहीं भी हो मेरे साथ है
तेरा हिज्र मेरा…
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ख़ुदा ख़ैर करे ...
आई ज़ंजीर की झनकार, ख़ुदा ख़ैर करे
दिल हुआ किसका गिरफ्तार, ख़ुदा ख़ैर करे
आई ज़ंजीर की...
साहिर लुधियानवी
के बाद कौन
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साहिर लुधियानवी का इंतक़ाल 1980 में हुआ। इसके बाद कुछ
साल तक फ़िल्म जगत में यह चर्चा होती रही कि साहिर की जगह कौन लेगा। इस चर्चा में एक
नाम निदा फ़ाज़ली का भी था। यश चोपड़ा ने अपनी मल्टी स्टार फ़िल्म 'विजय' (1988) में संगीतकार शिव हरि
और गीतकार निदा फ़ाज़ली का नाम घोषित किया। इस फ़िल्म के प्रचार प्रसार में निदा फ़ाज़ली
के लिखे एक गीत को काफ़ी हाईलाइट किया गया-
बादल पे चलके आ
सावन में ढल के आ
सांसों से मेरी निकल के आ
बाहों में मेरी मचल के आ
'विजय' फ़िल्म की स्टारकास्ट में राजेश
खन्ना, ऋषि कपूर, अनिल कपूर, हेमा मालिनी, मीनाक्षी शेषाद्री और अनुपम खेर जैसे कलाकार
शामिल थे। यह फ़िल्म कामयाब नहीं हुई। इसके साथ ही 'साहिर के बाद कौन' ये क़िस्सा भी
तमाम हो गया। फ़िल्म जगत में प्रतिभा से ज़्यादा लोग क़िस्मत पर यक़ीन करते हैं।
निदा फ़ाज़ली का फ़िल्मी मुक़दमा
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"मैंने प्यार क्यों किया" फ़िल्म में सलमान ख़ान और सुष्मिता सेन पर एक गीत फ़िल्माया गया- 'टूट गईं चूड़ियां कलाई में'। निदा साहब ने फ़िल्म रायटर्स
एसोसिएशन में शिकायत दर्ज कराई। उनके अनुसार मुखड़े की लाइनें उनके एक काव्य संग्रह
में प्रकाशित गीत से उठाई गई हैं। फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन की डिस्प्यूट सेटलमेंट कमेटी
के सामने गीतकार समीर ने अपना पक्ष रखा। समीर ने कुछ साल पहले एक भोजपुरी फ़िल्म में
गीत लिखा था-
बड़ा मज़ा आया मड़इया मा
टूट गईं चूड़ियां कलइया मा
समीर ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि अपने उसी भोजपुरी
गीत को आधार बनाकर उन्होंने यह गीत लिखा। कमेटी के सदस्यों में मैं भी था। एक सदस्य
शायर इब्राहिम अश्क ने अपना तर्क दिया- "निदा साहब की दो लाइनों से यह पता नहीं
चलता कि लड़ाई किसमें हुई। मियां बीवी में, सास बहू में या ननद भौजाई में।" मैंने
समिति की वरिष्ठ सदस्य डॉ अचला नागर से अनुरोध किया कि आप ही कुछ रास्ता निकालिए। अचला
जी ने दोनों मुखड़ों को टैली किया। निदा साहब की लाइनें थीं-
टूट गई चूड़ी कलाई में
बड़ा मज़ा आया लड़ाई में
गीतकार समीर का मुखड़ा था-
साजन तुमसे प्यार की लड़ाई में
टूट गईं चूड़ियां कलाई में
जानम तुमसे प्यार की लड़ाई में
जागा मैं अकेले रजाई में
अचला नागर ने दोनों का मिलान किया। वे बोलीं-
"निदा फ़ाज़ली का मुखड़ा दो लाइन का और समीर का मुखड़ा चार लाइन का है। दोनों के
कई शब्द अलग हैं। समीर के यहां स्पष्ट है कि यह लड़ाई साजन और सजनी की है। इसलिए यह
गीत समीर का माना जाएगा।" कमेटी के इस फ़ैसले से निदा साहब काफ़ी मायूस हुए। दूसरे
दिन उनका फ़ोन आया। बोले- एसोसिएशन में बड़े जाहिल लोग बैठे हैं। मैंने कहा- निदा साहब
आप उनकी मजबूरी समझने की कोशिश कीजिए। मौजूदा नियमों के अनुसार फ़िल्म गीत में भाव की
चोरी, चोरी नहीं मानी जाती। वे बहस पर उतारू हो गए।
शायर कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल का मतला है-
मैं ढूँढ़ता जिसे हूँ वो जहां नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमां नहीं मिलता
इस मतले के हवाले से मैंने निदा साहब को उनका मतला याद
दिलाया-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता
मैंने कहा- निदा साहब, आप दोनों के मतले टकरा रहे हैं।
वे बोले- ये तो शायरी की रिवायत है। मैंने कहा- यही रिवायत सिने गीतों में भी है। आनंद
बख़्शी ने लिखा था- "जाने क्यों लोग मुहब्बत किया करते हैं।" जावेद अख़्तर
ने लिखा- "जाने क्यों लोग प्यार करते हैं।" किसी ने इस पर एतराज़ नहीं किया।
धूप भरी छत पर
बरस गया पानी
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मुम्बई के वरिष्ठ गीतकार वीरेंद्र मिश्र की अध्यक्षता
में सन् 1987 में गोरेगांव के केशव गोरे हाल में "इंद्रधनुषी गीत संध्या"
का आयोजन किया गया। इसमें निदा फ़ाज़ली मुख्य अतिथि थे और मैं संचालक। यहीं से निदा
साहब के साथ दोस्ती का रिश्ता कायम हो गया। निदा साहब कवि सम्मेलन के मंच पर
कभी गीत नहीं सुनाते थे। सिर्फ़ ग़ज़लें पढ़ते थे। इस गीत संध्या में उन्होंने गीत सुनाया-
धूप भरी छत पर बरस गया पानी
आंगन में आके, अंगीठी बुझा के,
नागिन-सा लहरा के डस गया पानी
धूप भरी छत पर बरस गया पानी
उनके इस गीत पर ज़ोरदार तालियां बजीं। वंस मोर की आवाज़ें
बुलंद हुईं। उन्होंने एक गीत और सुनाया-
सुन रे पीपल तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वो आते हैं
पहला पहला प्यार हमारा
हम डर जाते हैं
निदा फ़ाज़ली से नाराज़ साहिर
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मुंबई आकर निदा फ़ाज़ली हिंदी-उर्दू पत्रकारिता से जुड़
गए। उन्होंने बड़े-बड़े शायरों के इंटरव्यू किए। वे कुछ ऐसा लिख देते थे कि साहित्य
जगत में चर्चा शुरू हो जाती। उन्होंने वामपंथी शायर कैफ़ी आज़मी के बारे में लिख दिया
कि उनकी बिल्ली मोटी है और नौकर दुबला पतला है। चर्चा चल पड़ी कि बिल्ली को ज़्यादा
खाना मिलता है और नौकर को कम।
◆
एक वरिष्ठ शायर ने बताया- निदा फ़ाज़ली ने साहिर लुधियानवी
के बारे में लिखा कि साहिर को अपनी तारीफ़ सुनने का बहुत शौक़ है। इसीलिए वे शाम को रोज़
महफ़िल सजाते हैं। लोगों को दारू पिलाते हैं। अपने खिलाफ़ एक लफ़्ज़ भी बरदाश्त नहीं कर
पाते। कुछ और बातें थी जिससे साहिर साहब बेहद ख़फ़ा हो गए। उन्होंने दो हट्टे कट्टे पठान
बुलवाए। अपनी कार में उन्हें बैठा कर निदा फ़ाज़ली को ढूंढने निकल पड़े। निदा फ़ाज़ली
को इसकी ख़बर मिल गई। वे नागपाड़ा में अपने एक दोस्त के घर चले गए। साहिर साहब पूरा
दिन ढूंढते रहे मगर निदा फ़ाज़ली को ढूंढ नहीं पाए।
जब कहीं कोई फूल मुस्कुराता है
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निदा साहब की आदत थी कि मंच पर ग़ज़ल सुनाने से पहले
वे कुछ ऐसे जुमले बोलते थे जिस पर तालियां बज जाती थीं। वही जुमले वे हर आयोजन में
दोहराते थे। उन दिनों मैं सांध्य दैनिक 'संझा जनसत्ता' में "साहित्यनामचा"
स्तंभ लिखता था। मैंने एक कार्यक्रम की सूचना दी। उसमें यह भी जोड़ दिया कि निदा साहब
जब माइक पर आएंगे तो वही जुमले सुनाएंगे जो हर जगह सुनाते हैं -
जब कहीं कोई फूल मुस्कुराता है
जब कहीं कोई बच्चा खिलखिलाता है
जब कहीं जगजीत सिंह ग़ज़ल गाता है
तो मेरा भरोसा इंसानियत पर बढ़ जाता है
निदा साहब जब माइक पर आए तो सचमुच उन्होंने वही किया जो मैंने लिखा था। उन्होंने जैसे
ही पहला जुमला बोला- जब कहीं कोई फूल मुस्कुराता है…तो अचानक सभागार में एक ज़बरदस्त
ठहाका लगा। निदा साहब ने हैरत से मेरी तरफ़ देखा। संचालन मैं ही कर रहा था। मैंने कहा
आप जारी रखिए। आपकी तक़रीर में सबको लुत्फ़ आ रहा है। निदा साहब ने ग़ज़ल के पूरे इतिहास
को चंद जुमलों में बड़ी ख़ूबसूरती के साथ बाँध दिया था। इसे वो ताउम्र मंच पर दोहराते
रहे। उनके इन जुमलों पर ख़ूब तालियां बजतीं थीं-
"ग़ज़ल अरब के रेगिस्तान में इठलाई, ईरान के बाग़ों
में खिलखिलाई। वहाँ से चलकर जब अमीर ख़ुसरो के मुल्क हिन्दुस्तान में आई तो उसके माथे
पर जरस्थुर का नूर था, उसके एक हाथ में गीता थी, दूसरे में क़ुरआन था और उसका नाम सेकुलर
हिंदुस्तान था।"
यारों के यार निदा फ़ाज़ली
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जनसत्ता के फीचर संपादक धीरेंद्र अस्थाना के सुझाव पर
मैंने निदा फ़ाज़ली से एक अदबी बातचीत की। 25 नवंबर 1990 को जनसत्ता की नगर पत्रिका
सबरंग में निदा फ़ाज़ली का यह शानदार इंटरव्यू प्रकाशित हुआ। निदा साहब ने धीरेंद्र
अस्थाना को और मुझे अपने घर आमंत्रित किया। कथाकार चित्रकार कमल शुक्ल भी पधारे। इसके
बाद दोस्ती का ऐसा रिश्ता कायम हुआ कि जब तक कमल शुक्ल ज़िंदा रहे निदा साहब के खार
डांडा वाले मकान पर हर सप्ताह हमारी महफिलें जमती रह़ी। जब निदा साहब को मालूम हुआ
कि धीरेंद्र अस्थाना, हरीश पाठक, संजय मासूम और मैंने गीता नगर, मीरा रोड में फ्लैट
बुक किया है तो उन्होंने मीरा रोड में हमारे पड़ोस में एक फ्लैट ख़रीदा। सन् 1997 में
हम सब वहां रहने लगे। निदा साहब अपनी जीवनसंगिनी मालती जोशी के साथ महीने में दो-तीन
बार मीरा रोड आते और हम सब के साथ महफ़िलें जमाते। अपनी बेटी तहरीर का जन्मदिन भी उन्होंने
अपने मीरा रोड वाले फ्लैट में मनाया था। उसमें साहित्य अनुरागी रामनारायण सराफ भी मौजूद
थे।
परफॉर्मिंग आर्ट है कविता पाठ
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निदा साहब के अनुसार कविता जब मंच पर पढ़ी जाती है तो
वह परफॉर्मिंग आर्ट हो जाती है। कविता पाठ में स्वर के उतार-चढ़ाव और बॉडी लैंग्वेज
की ज़बर्दस्त भूमिका होती है। कविता जब मंच पर पेश की जाए तो रंगमंच और सिनेमा की तरह
श्रोताओं का उससे मनोरंजन होना चाहिए। बतौर निदा फ़ाज़ली कविता मंच के ज़रिए या किसी
पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होकर समाज में जाती है तो वह समाज की हो जाती है। तब समाज
का हक़ होता है कि वह आपकी कविता को अच्छी कविता का तोहफ़ा दे या बुरी कविता का प्रमाण
पत्र। आपको आलोचना बर्दाश्त करने का शऊर होना चाहिए। शायर निदा फ़ाज़ली कबीर, सूर और
मीरा से बहुत प्रभावित थे। सूरदास का एक पद है- ऊधो मन न भए दस-बीस। निदा साहब ने स्वीकार
किया कि उन्होंने इसी से प्रभावित होकर यह शेर लिखा था -
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना
मीनाकारी का काम है ग़ज़ल
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निदा फ़ाज़ली के अनुसार ग़ज़ल लिखना मीनाकारी का काम
है। ग़ज़ल बेहद नाज़ुक विधा है। वह हमेशा धीमे सुरों में बात करती है। ग़ज़ल के इस
लहजे में बड़ी से बड़ी बात भी कही जा सकती है। अपने फ़िल्मी गीतों में भी निदा साहब
ने ग़ज़ल के इस जादू को बरकरार रखा। इसलिए उनके लिखे हुए गीत सीधा दिल में उतर जाते हैं।
उन्होंने देशी विदेशी साहित्य पढ़ा था। साहित्य, इतिहास, धर्म और संस्कृति वे किसी
भी मसले पर बेबाक राय देते थे।
◆
निदा फ़ाज़ली का ज़्यादा पढ़ा लिखा होना फ़िल्मी दुनिया
को रास नहीं आया। उनकी विद्वता से कई लोग डर जाते थे। इसलिए कई निर्माता-निर्देशक और
संगीतकार उनसे दूर दूर रहे। जगजीत सिंह से उनकी अच्छी दोस्ती थी। जगजीत सिंह के अलबम
'इनसाइट' में निदा साहब की ग़ज़लें, नज़्में और दोहे शामिल हैं। 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली
में जन्मे निदा फ़ाज़ली की पढ़ाई लिखाई ग्वालियर में हुई। 8 फरवरी 2016 को मुंबई में
उनका इंतकाल हुआ।
◆
निदा फ़ाज़ली ने बॉलीवुड में जो काम किया वह अपने स्तर
और अपनी पसंद का किया। साहित्य में उनका जो मुकाम था, जो मान प्रतिष्ठा थी, उसे उन्होंने
फ़िल्मों में ज़ाया नहीं किया। उन्होंने सिने जगत में ख़ुद को इतना मसरूफ़ कभी नहीं किया
कि हाथ से साहित्य का दामन छूट जाए। बॉलीवुड में रहते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, दोहे,
नज़्म, उपन्यास और संस्मरण सब कुछ लिखा। सन् 1996 में 'खोया हुआ सा कुछ' काव्य
संकलन के लिए निदा साहब को साहित्य अकादमी अवार्ड और सन् 2003 में फ़िल्म 'सुर' के लिए
'स्टार स्क्रीन अवार्ड' प्राप्त हुआ। उनके अप्रतिम योगदान के लिए लोग उन्हें हमेशा
याद करेंगे।
निदा फ़ाज़ली के कुछ और गीत
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1. चाहत नदिया चाहत सागर।
2. तू इतनी दूर क्यों है मां।
3. चांद के पास जो सितारा है।
4. चुप तुम रहो चुप हम रहें।
5. कभी शाम ढले तो मेरे दिल में आ जाना।
6. आ भी जा ऐ सुबह आ भी जा।
7. गोरी हो काली हो या नखरे वाली हो।
8. कभी दिल से कम मुहब्बत।
9. कभी पलकों पे आंसू हैं।
10. दिल की तनहाई को आवाज़ बना।
11. मीठी मीठी बातें हरी-भरी शाम।
12. जाने क्या ढूंढता है ये मेरा दिल।
13. अजनबी कौन हो तुम।
◆
आपके लिए पेश है फ़िल्म 'हरजाई' (1981) से निदा फ़ाज़ली का गीत।
संगीतकार आर डी बर्मन ने यह गीत किशोर कुमार की आवाज़ में रिकॉर्ड किया था।
◆
कभी पलकों पे आँसू हैं
कभी लब पे शिकायत है
मगर ऐ ज़िन्दगी फिर भी
मुझे तुझसे मोहब्बत है
जो आता है वो जाता है, ये दुनिया आनी-जानी है
यहाँ हर शह मुसाफ़िर है, सफ़र में ज़िन्दगानी है
उजालों की ज़रूरत है, अन्धेरा मेरी क़िस्मत है
कभी पलकों पे आँसू हैं, कभी लब पे शिकायत है
मगर ऐ ज़िन्दगी फिर भी, मुझे तुझसे मोहब्बत है
ज़रा ऐ ज़िन्दगी दम ले, तेरा दीदार तो कर लूँ
कभी देखा नहीं जिसको, उसे मैं प्यार तो कर लूँ
अभी से छोड़ के मत जा, अभी तेरी ज़रूरत है
कभी पलकों पे आँसू हैं, कभी लब पे शिकायत है
मगर ऐ ज़िन्दगी फिर भी, मुझे तुझसे मोहब्बत है
कोई अनजान सा चेहरा, उभरता है फ़िज़ाओं में
ये किसकी आहटें जागीं, मेरी ख़ामोश राहों में
अभी ऐ मौत मत आना, मेरी वीरान जन्नत है
कभी पलकों पे आँसू हैं, कभी लब पे शिकायत है
मगर ऐ ज़िन्दगी फिर भी, मुझे तुझसे मोहब्बत है
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आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126
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