सिनेमा में गीत लेखन की चुनौतियां
सिनेमा में गीत लिखना हमेशा से युवा पीढ़ी के कवियों,
शायरों, और गीतकारों का ख़्वाब रहा है। बॉलीवुड में संगीत का वो सुनहरा दौर था जब
राज कपूर ने युवा रेलकर्मी शैलेंद्र और युवा बस कंडक्टर हसरत जयपुरी को ढूंढ़ करके
अपनी फ़िल्मों में गीत लिखाया। बाईस साल के मजरूह सुल्तानपुरी को मुंबई के एक
मुशायरे में सुनकर कारदार साहब ने अपनी फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ में गीत लिखने का अवसर
दिया। बी ए फाइनल की परीक्षा देकर मुंबई पहुंचे बीस साल के कवि प्रदीप की तारीफ़
सुनकर देविका रानी ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज़ का गीतकार बनाया।
परदेसियों से न अखियां मिलाना
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आगे चलकर इस राह में दुश्वारियां पैदा हुईं। एक साल
संघर्ष करने के बाद आनंद बख़्शी घर लौट गए थे। दोस्तों ने जोश दिलाया तो वे वापस आ
गए। पांच साल के संघर्ष के बाद क़िस्मत ने उनका साथ दिया और "परदेसियों से न
अखियां मिलाना" गीत से वे मशहूर फ़िल्म गीतकार बन गए। जांनिसार अख़्तर ने एक
फ़िल्म बनाई थी 'बहू बेगम'। कहा जाता है कि गीत ख़ुद लिखे थे मगर फ़िल्म की व्यवसायिक
सफलता के लिए साहिर लुधियानवी का नाम दे दिया। साहिर उस समय बॉलीवुड के सबसे बड़े
गीतकार थे। बतौर गीतकार यह जांनिसार अख़्तर के कैरियर के लिए नुक़सानदेह सिद्ध हुआ।
यह बात शायर-सिने गीतकार निदा फ़ाज़ली ने मुझे बताई थी। शायर ताज भोपाली को बनी
बनाई धुन पर लिखना मुश्किल लगता था इसलिए उन्होंने वापस लौट जाना ही मुनासिब समझा।
पं. प्रदीप पांच साल बाद आते तो !
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"ऐ मेरे वतन के लोगों, आओ बच्चों तुम्हें
दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, चल चल रे नौजवान,
दूर हटो ऐ दुनिया वालो… जैसे सुपरहिट गीत लिखने वाले गीतकार पं प्रदीप ने बताया कि
मैं सही समय पर बॉलीवुड में आ गया था। अगर मैं पांच साल पहले आता या पांच साल बाद
आता तो कामयाब नहीं होता। प्रदीप जी
सन् 1939 में मुंबई आए। उस समय आज़ादी हासिल करने के लिए लोगों में जोश और जज़्बा
था। इसलिए पं प्रदीप के देशभक्ति के गीत काफ़ी पसंद किए गए। जैसे ही समय बदला
प्रदीप जी ने स्वयं अपना जाल समेट लिया। "जय संतोषी मां" फ़िल्म की
कामयाबी के बाद अगर कोई निर्माता उनसे गीत लिखने की गुज़ारिश करता तो वे भक्ति गीत
के लिए उसे भरत व्यास के पास और रोमांटिक गीत के लिए इंदीवर के पास भेज देते।
कविवर पंत और
फड़कता हुआ गीत
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पं प्रदीप ने बताया कि संगीतकार उदय शंकर के बुलावे
पर छायावाद के सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत मुंबई तशरीफ़ लाए थे और उन्हीं के
घर पर रुके थे। एक निर्माता के साथ उनकी मीटिंग हुई। निर्माता ने कहा- पंत जी कुछ
सुनाइए। पंत जी ने अपना कोई साहित्यिक गीत सुनाया। वह निर्माता की समझ में नहीं
आया। उसने कहा- पंत जी, कोई फड़कता हुआ गीत सुनाइए। यह बात पंत जी को बहुत बुरी
लगी। बिना कुछ कहे वह उठकर चले आए। उन्होंने पं. प्रदीप को ये क़िस्सा सुनाया।
प्रदीप जी हंसने लगे। बोले- पंत जी, इसमें बुरा
मानने की क्या बात है। फड़कता हुआ का मतलब है ऐसा रोचक गीत जिसे सुनकर झूमने का,
नाचने का मन करे। प्रदीप जी ने उन्हें बताया- बतौर फ़िल्म गीतकार जब मैंने बॉलीवुड
में काम शुरू किया तो मैंने मान लिया कि अब मैं साहित्यकार नहीं हूं। अब मैं सिर्फ़
एक तुक्कड़ हूँ। मुझे फ़िल्मों के लिए तुकबंदी करनी है। मैंने कवि सम्मेलन में भी
जाना बंद कर दिया। मुझे पता है कि सिनेमा में गीतकार, निर्माता का मज़दूर होता है।
उसे गीत नाम का एक ऐसा फ़र्नीचर बनाना पड़ता है जो निर्देशक के ड्राइंग रूम में फिट
हो सके और घर की शोभा बढ़ा सके।
ऐ भाई ज़रा देख के चलो
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जिन्होंने सिनेमा की ज़रूरत को समझा, उससे तालमेल
बिठाया वे टिक गए। जो इस माध्यम में ख़ुद को फिट नहीं कर पाए वे वापस लौट गए। साहिर
और शैलेंद्र संगीत जगत में ऐसे घुल गए जैसे दूध में शक्कर घुल जाती है। बिना कोई
गीत लिखे कविवर सुमित्रानंदन पंत वापस लौट गए। "मुझे इस रात की तन्हाई में
आवाज़ न दो" जैसा सुपरहिट गीत लिखने वाले शमीम जयपुरी वापस चले गए। सरस्वती
कुमार दीपक मुंबई में ही गुम हो गए। एक फ़िल्म में चंद गीत लिखकर ताज भोपाली वापस
लौट गए। "ऐ भाई ज़रा देख के चलो" जैसे कई सुपरहिट गीत लिखने वाले
गोपालदास नीरज अंततः वापस लौट गए। "लवेरिया हुआ" जैसा सुपरहिट गीत लिखने
वाले वीनू महेंद्र जिंदगी भर संगीतकार जतिन ललित के चक्कर काटते रहे।
यह सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होने वाला। देश के कोने
कोने से कवि, शायर, गीतकार मुम्बई आएंगे। संघर्ष करेंगे। चुनौतियों का सामना
करेंगे। मौक़ा मिला तो कुछ लिखेंगे। उम्मीद पर ज़िंदा रहेंगे और एक दिन शायर जलीस
शरवानी और शायर मदन पाल की तरह वक़्त के आग़ोश में गुम होकर स्मृति शेष हो जाएंगे।
मगर इससे बॉलीवुड को कुछ फ़र्क नहीं पड़ने वाला।
फ़िल्म 'हासिल’ में गीत लेखन
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बॉलीवुड का संगीत जगत एक अभेद्य क़िले की तरह है।
इसमें प्रवेश करना कोई आसान काम नहीं है। जगह-जगह खाइयां हैं, दीवारें हैं और कंटीली
बाड़ है। फिर भी देश के कोने-कोने से हज़ारों लोग सिने गीतकार बनने का ख़्वाब लेकर
मुम्बई आते हैं। चुनौती का सामना करते हैं। कुछ लोग रुकते हैं, बाक़ी दो-चार महीनों
में ही वापस चले जाते हैं। चंद लोग ही ऐसे ख़ुशनसीब हैं जिनके सपने साकार होते
हैं। मैं ऐसे लोगों से भी मिला हूं कि बीस साल के संघर्ष के बावजूद जिनका एक भी
गीत रिकॉर्ड नहीं हुआ। अच्छे गीत लिखने के बावजूद कई लोगों को दुबारा मौक़ा नहीं
मिला और वे गुमनामी के अंधेरे में चले गए। कुल मिलाकर फ़िल्मों में गीत लिखना एक
बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना मुझे भी करना पड़ा जब निर्देशक तिग्मांशु
धूलिया की सहमति के बावजूद संगीतकार जतिन ललित की ज़िद पर मुझे फ़िल्म 'हासिल' में
एक ही सिचुएशन पर चार बार गीत लिखना पड़ा। मैं आप सबके साथ वही अनुभव साझा कर रहा
हूं।
◆
फ़िल्म 'हासिल' के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ने
संगीतकार जतिन ललित से कहा- "जैसा गीत मैं चाहता हूं आपके चारों गीतकार नहीं
लिख पाएंगे। मुझे यूपी का पढ़ा-लिखा एक ऐसा गीतकार चाहिए जिसे फोक कल्चर की समझ
हो।" जतिन ललित ने कहा- "हमारे पास ऐसा गीतकार नहीं है। आप ख़ुद ढूंढ
लीजिए।"
◆
मेरे दोस्त राजीव सेठी ने मुझे यह बात बताई। राजीव
इस फ़िल्म की निर्माता कंपनी कर्मा नेटवर्क से जुड़े हुए थे। उन्होंने बताया कि
फ़िल्म 'हासिल' में चार गीतकार हैं- इसरार अंसारी, कौसर पांडेय (मुनीर), वीनू
महेंद्र और सत्य प्रकाश। इनके गीत रिकॉर्ड हो चुके हैं। तिशू (तिगमांशु) यूपी
स्टाइल का एक गीत चाहते हैं। उसे आपको लिखना है। आप तिशू से बात कर लीजिए।
◆
फ़ोन पर तिगमांशु ने बताया कि सिचुएशन सेम है-
"मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने।" यानी एक माफ़िया के जश्न में एक लड़की का
डांस। मगर यह गीत मुझे बड़ा चीप लगता है। मैं चाहता हूं कि आप इस सिचुएशन पर मुझे
एक बेहतर गीत दें। मैंने इस बारे में सोचना शुरू किया तो एक मुखड़ा ख़याल में उतरा-
दरपन ने जाने क्या देखा
आज मेरी अंगड़ाई में
छेड़ रहा है मेरा कंगना
मुझको ही तनहाई में
अगली सुबह जब मैं तिगमांशु जी से मिलने के लिए घर
से निकला तो रास्ते में इसका एक अंतर भी हो गया-
जब जब भी मैं घर से निकलूं
पायल छम छम बोले
पल भर भी ख़ामोश रहे ना
भेद जिया के खोले
जाने क्यूं ये आंचल ढलके
धीमी सी पुरवाई में
छेड़ रहा है मेरा कंगना
मुझको ही तनहाई में
अगले दिन तिगमांशु जी से मुलाक़ात हुई। मैंने उन्हें
मुखड़ा सुनाया। वे बोले- "आपने अच्छा लिखा है। बस 'दरपन' की जगह 'सजना' कर
लीजिए। तिगमांशु जी मुझे साथ लेकर चंदन सिनेमा जुहू के पास शीतल बिल्डिंग में जतिन
ललित के म्यूज़िक रूम पहुंचे। शायर-सिने गीतकार नक़्श जलालपुरी ने मुझे बताया था कि
जब तक संगीतकार दिल से न चाहे फ़िल्म गीत लेखन के इस चक्रव्यूह में प्रवेश करना
संभव नहीं होता। मुझे भी ये आशंका थी कि एक संगीतकार के चार गीतकारों को दरकिनार
करके एक नए निर्देशक के गीतकार को शामिल करना संगीतकार को पसंद नहीं आएगा। आख़िर
वही हुआ। लेखक-निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की पसंद के बावजूद मुझे एक ही सिचुएशन पर
चार बार लिखना पड़ा।
बतौर गीतकार पहला मुखड़ा
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सजना ने जाने क्या देखा आज मेरी अंगड़ाई में
छेड़़ रहा है मेरा कंगना मुझको ही तन्हाई में
मुखड़ा सुनने के बाद जतिन पंडित ख़ामोश हो गए। फिर
बोले- तिशू जी, यह गीत बहुत हाई लेवल का है। अगर इसे माधुरी दीक्षित पर शूट करते
तो यह सुपर हिट हो जाता। मगर आपको इसे एक नई लड़की पर शूट करना है। इसलिए यह नहीं
चलेगा। गीत नई लड़की के बारे में होना चाहिए। तिगमांशु जी के चेहरे से लगा कि
उन्हें जतिन पंडित का यह तर्क पसंद नहीं आया। मगर वह एक नए निर्देशक थे। 'हासिल'
उनकी पहली फ़िल्म थी। इस लिए वे संगीतकार को नाराज़ नहीं करना चाहते थे। तय हुआ कि
हम लोग कल फिर मिलेंगे।
बतौर गीतकार दूसरा मुखड़ा
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दूसरे दिन तिगमांशु जी के साथ मैं फिर जतिन पंडित
के यहां पहुंचा। इस बार भी तिग्मांशु जी को मेरा गीत पसंद आ गया था। मैंने जतिन
पंडित को वो मुखड़ा सुनाया-
सांसों में महक गुलाबों की
अंगड़ाई में रस घोल गया
यूं लगा सोलहवां साल मुझे
हाय राम ज़माना डोल गया
जतिन पंडित इसे सुनकर इतना उदास हो गए। बोले- तिशू
जी इसमें शायरी है। हमें शायरी बिल्कुल नहीं चाहिए। जैसे सात सहेलियों वाला गीत
है। एक सहेली का सैंया है डॉक्टर, इंजेक्शन लगावे घड़ी-घड़ी। पांडेय जी से आप ऐसा
कुछ लिखवाएं। रास्ते में मैंने तिगमांशु जी से
पूछा- सात सहेलियां वाला गीत आपको कैसा लगता है? वे बोले इसमें डबल मीनिंग है।
मुझे बिलो स्टैंडर्ड लगता है। आप 'नथनी' पर कुछ सोचिए। मैंने पूछा- इस दौर में
नथनी की क़ीमत कितनी होना चाहिए। तिशू हंसने लगे। बोले- पंद्रह-सोलह लाख तो होनी ही
चाहिए।
बतौर गीतकार तीसरा मुखड़ा
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शायरी से बाहर निकल कर मैंने तीसरा मुखड़ा
लिखा-
मेरी नथनी सोलह लाख की है
यह बात जो बस इक रात की है
तुझको हर रात जगाएगी
मेरी नथनी बहुत सताएगी
तिगमांशु जी ने इस गीत को भी ओके कर दिया। अगले दिन
जतिन पंडित के साथ फिर हमारी बैठक हुई। ये मुखड़ा सुनकर उनके चेहरे पर कोई ख़ुशी नज़र
नहीं आई। उन्होंने कहा- तिशू जी, इस गीत में करंट कम है। और ज़्यादा करंट चाहिए।
करंट की मात्रा और बढ़ाइए। हम लोग जब चलने लगे तब जतिन पंडित ने कहा-
तिगमांशु जी, मेरे पास एक गीत है। आप कहें तो मैं उसे रिकॉर्ड कर लूं। तिगमांशु जी
ने कहा- मुखड़ा सुनाइए। जतिन पंडित ने सुनाया-
मैं लड़की पटने की हूं मैं पटने वाली हूं
तू मुझसे पेंच लड़ा मैं कटने वाली हूं
तिगमांशु जी ने झट से कहा- जतिन जी मेरी फ़िल्म में
यह नहीं चलेगा। हम कल फिर आते हैं। शीतल बिल्डिंग से हम नीचे उतरे तो मैंने कहा-
तिगमांशु जी, जतिन पंडित बार-बार इशारा कर रहे हैं कि गीत डबल मीनिंग का
होना चाहिए। लेकिन मैं न तो डबल मीनिंग लिखूंगा और न ही अश्लील गीत लिखूंगा।
तिगमांशु जी बोले- पांडेय जी मैं आपके साथ हूं। आपका ही गीत रिकॉर्ड होगा। चलिए
कर्मा नेटवर्क के ऑफिस में काफ़ी पीते हैं। वहीं मुखड़ा लिख दीजिए। अंतरा घर जाकर
लिख लीजिएगा।
बतौर गीतकार चौथा मुखड़ा
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तिगमांशु ने कहा- पांडेय जी नथनी तो चाहिए। सोलह
लाख के बजाय महंगी वाली कर दीजिए। हमारा जो हीरो है उसके हाथ से गोली चल जाती है।
उसे डर है कि कहीं पुलिस केस ना बन जाए। आप गीत में ये लाइन भी डाल दीजिए- कहीं
पुलिस केस ना बन जाए। काफ़ी पीते-पीते कर्मा नेटवर्क के ऑफिस में मैंने चौथा मुखड़ा
लिखना शुरू किया-
मेरी नथनी महंगी वाली है
ऐसी बंदूक दुनाली है
मैंने ये दो लाइनें लिखकर तिगमांशु से पूछा- क्या
यह चलेगा। वे हंसने लगे। चलेगा, इसी में फिट कर दीजिए- पुलिस केस ना बन जाए। मैंने
थोड़ी देर सोचा और लिखा-
मेरी नथनी महंगी वाली है
ऐसी बंदूक दुनाली है
जो दिल को छलनी कर जाए
कोई आह भरे कोई मर जाए
तू संभल के हाथ लगा सजना
कहीं पुलिस केस ना बन जाए
तिग्मांशु जी ने मुखड़ा ओके कर दिया। मैंने कहा- ये
रिकॉर्ड होना चाहिए। अगर ऐसा ना हुआ तो मैं आपके लिए पांचवा गीत नहीं लिखूंगा।
तिगमांशु जी बोले- पांडेय जी, बेशक़ यही गीत रिकॉर्ड होगा। मैंने उनसे पूछा कि
अंतरे कैसे होने चाहिए। उन्होंने कहा कि अंतरे में कोई घटना लाने की कोशिश कीजिए।
अगर उसी में कहीं बम, कट्टा जैसे शब्द आ सकें तो फिट कर दीजिएगा। रात में घर पर
मैंने तीन अंतर लिखे। गीत पूरा हुआ तो चैन की नींद आई।
◆
अगले दिन हम जतिन ललित के म्यूजिक रूम में पहुंचे।
सामने अपनी सीट पर जतिन पंडित बैठे हुए थे। सामना होते ही तिग्मांशु जी मुस्कुराए
और बोले- जतिन जी काम हो गया। आप रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो बुक कर दीजिए। यह
कहकर उन्होंने काग़ज़ जतिन पंडित के हाथ में थमा दिया। जतिन पंडित ने किसी तरह अपने
होठों पर मुस्कान सजाई और बोले ठीक है तिशूजी, यही रिकॉर्ड कर लेते हैं। उन्होंने
छोटे भाई ललित पंडित को बुलाया और कहा- पांडेय जी का गीत ले लीजिए। ललित पंडित ने
एक रजिस्टर निकाला। बोले- आप इस रजिस्टर में अपना पूरा गीत लिख दीजिए। गीत के नीचे
अपना पता और फोन नंबर भी लिख दीजिए।
◆
जतिन ललित ने उसी दिन मेरा गीत संंगीतबद्ध
किया। अगले दिन उसका संगीत संयोजन हुआ। चौथे दिन मेरा गीत जुहू के एक स्टूडियो में
ऋचा शर्मा की आवाज़ में रिकॉर्ड हो गया। रिकॉर्ड होने के बात ललित पंडित ने मुझसे
कहा- पांडेय जी आपका गीत बहुत अच्छा है। आप हमारे यहां आते रहिए। कोई ऐसी सिचुएशन
फिर आएगी तो हम आपको मौक़ा देंगे। मैंने कहा- ललित जी, आप बिजी हैं और मैं भी बिजी
हूं। आपके रजिस्टर में मेरा पता और फ़ोन नंबर लिखा हुआ है। आप जिस दिन मुझे याद
करेंगे मैं हाज़िर हो जाऊंगा।
◆
संगीतकार जतिन ललित की तरफ़ से मेरे पास कभी कोई फ़ोन
नहीं आया और मैंने भी उन्हें कभी फ़ोन नहीं किया। उन्हीं दिनों युवा गीतकार देव
नारायण शुक्ला ने मुझे बताया था- मैं आठ साल से संगीतकार जतिन ललित के यहां चक्कर
लगा रहा हूं मगर आज तक मेरा एक भी गीत रिकॉर्ड नहीं हुआ। मायूस होकर एक दिन शुक्ला
जी ने फ़ोन करके जतिन पंडित को खरी खोटी सुना दी और उनके यहां जाना बंद कर दिया।
फ़िल्म 'पिंजर में "चरखा" गीत
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एक दिन फ़िल्म के निर्माता विजय जिंदल ने अंधेरी
स्थित कर्मा नेटवर्क के ऑफिस में मुझे गपशप के लिए बुलाया। उन्होंने मेरे गीत की
मुक्त कंठ से तारीफ़ की। वे बोले- पांडेय जी, आपका गीत बहुत अच्छा है। मगर आपने
जितना सुंदर गीत लिखा है जतिन ललित ने उतनी सुंदर धुन नहीं बनाई। विजय जिंदल ने भी
बताया कि कल डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी मिलने आए थे यह गीत सुनकर चंद्र प्रकाश
जी ने तारीफ़ की और बोले- मुझे पता नहीं था कि पांडेय जी फिल्मों में भी गीत लिखते
हैं। मैं भी अपनी फ़िल्म 'पिंजर' में उनसे कुछ काम लूंगा। कुछ दिन बाद फ़िल्म
'पिंजर' में मेरा गीत "चरखा चलाती मां" संगीतकार उत्तम सिंह ने रिकॉर्ड
किया। सन् 2003 में इस गीत को बेस्ट लिरिक ऑफ द इयर अवार्ड प्राप्त हुआ।
◆
कुछ दिनों बाद तिग्मांशु जी ने बताया- पांडेय जी
फ़िल्म पूरी हो चुकी है मगर बजट प्राब्लम्स के कारण अभी तक आपका गीत शूट नहीं हो
पाया। आपके गीत की कोरियोग्राफी के लिए हमने सरोज ख़ान से सम्पर्क किया था।
उन्होंने इस पर दस लाख का ख़र्च बताया। अभी निर्माता के पास इतने पैसे नहीं है।
जैसे ही किसी वितरक से अग्रिम धनराशि मिलती है हम फ़ौरन आप का गीत शूट करके फ़िल्म
में डाल देंगें।
◆
मगर ऊपर वाले को यह मंज़ूर नहीं था। मेरा गीत शामिल
किए बिना निर्धारित तारीख़ पर फ़िल्म को प्रदर्शित करना पड़ा। बहरहाल मैं 'हासिल' के
लेखक-निर्देशक तिग्मांशु धूलिया और कर्मा नेटवर्क का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं
कि इन्होंने कैसेट पर, सीडी पर और फिल्म के सभी प्रचार माध्यमों में बतौर गीतकार
मेरा नाम शामिल किया। फ़िल्म 'हासिल' के स्क्रीन पर भी प्रमुखता से मेरा नाम
प्रदर्शित किया गया।
एक चाबी है पड़ोस में धारावाहिक
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वक्त़ गुज़रता रहा। एक दिन तिग्मांशु जी का फ़ोन आया
उन्होंने कहा कि मेरे दोस्त धरम मेहरा स्टार प्लस के लिए एक धारावाहिक बना रहे
हैं- "एक चाबी है पड़ोस में"। उसमें आपसे सावन का एक ऐसा गीत चाहिए जिस
पर मुहल्ले की औरतें डांस कर सकें। दूसरा ऐसा गीत चाहिए जिसे उस्ताद जी गाकर अपनी
शिष्या को संगीत का प्रशिक्षण देते हैं। आप आज ये दोनों गीत लिख लीजिए। कल सुबह दस
बजे मेरे घर आइए चाय पीते हैं। अगले दिन तिग्मांशु जी के घर पहुंचा तो वहां
निर्माता धरम मेहरा भी मौजूद थे। मैंने गीत का काग़ज़ तिग्मांशु जी को थमा दिया।
उन्होंने गीतों पर एक नज़र डाली और उसे धरम मेहरा को थमाते हुए बोले- इसमें एक भी
शब्द चेंज करने की ज़रूरत नहीं है। आप रिकॉर्ड कर लीजिए।
पहला गीत था-
सजनी आंख मिचोली खेले
बांध दुपट्टा झीना, महीना सावन का
बिन सजना क्या जीना, महीना सावन का
दूसरा गीत था-
सखी री मोहे प्रीतम की छवि भायो
रोम रोम में बसे हैं प्रीतम
मन में वही समायो
सखी री मोहे प्रीतम की छवि भायो
बाद में मुझे धरम मेहरा ने बताया कि गीत की सिचुएशन
कुछ दिन से फंसी हुई थी। क्योंकि अंग्रेजी माध्यम में शिक्षित नए गीतकारों को यह
पता नहीं कि सावन का गीत कैसे लिखा जाए और उस गीत की भाषा कैसी हो जिसे गुरुजी
अपनी शिष्या को सिखाते हैं। आगे चलकर तिगमांशु जी ने अपनी फ़िल्म "पान सिंह
तोमर" में भी मुझे एक गीत लिखने का प्रस्ताव दिया था लेकिन बाद में उन्होंने
फ़ैसला किया कि फ़िल्म में गीत नहीं रहेंगे।
गीतकार का संघर्ष समाप्त नहीं होता
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मुझे लगता है कि सुपरहिट गीत लिखने के बावजूद
बॉलीवुड में गीतकार का संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता। उसे हर बार ख़ुद को एक समर्थ
गीतकार साबित करना पड़ता है। वैसे भी यह दौर मुंबई फ़िल्म उद्योग में गीतकारों के
लिए मुश्किल दौर है। एक ज़माने में जब किसी गीतकार का कोई गीत हिट होता था तो
दूसरे निर्माता उसे ढूंढते थे और अपनी फ़िल्म में गीत लिखवाते थे। अब वह समय नहीं
रहा। अब यह समझना आसान नहीं है कि कौन गीतकार है, कौन संगीतकार है और कौन गायक है।
एक ही आदमी तीनों हो सकता है। पहले के एक सुपरहिट गीत का मुखड़ा और वही धुन ले कर
दो नए अंतरे लिखकर कहा जाता है कि हमने इसे रिक्रिएट किया है। मूल गीतकार और
संगीतकार को क्रेडिट देने के बजाय नए गीतकार और संगीतकार को इसका क्रेडिट दे दिया
जाता है और उन्हें अवार्ड भी मिल जाता है।
अब सब्ज़ी-भाजी की तरह बिकते हैं गीत
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अब बॉलीवुड में सब्ज़ी-भाजी की तरह गीत बिक रहे हैं।
जब कोई निर्माता फ़िल्म बनाने की घोषणा करता है तो उसके यहां संगीतकारों की लाइन
लग जाती है। वह सबके रेडीमेड माल जांचता परखता है। उसे जो पसंद आता है उसे ख़रीद
लेता है और अपनी फ़िल्म में सिचुएशन बनाकर फिट कर देता है। इसलिए एक ही फ़िल्म में
पांच-छ: संगीतकार दिखाई पड़ जाते हैं। कभी कभी इसमें कोई गीत हिट भी हो जाता है और
कभी कभी सारा माल बेकार चला जाता है।
◆
कुल मिलाकर गीत संगीत का मामला फास्ट फूड जैसा हो
गया है। ऐसे माहौल में फ़िल्म फेयर अवॉर्ड से सम्मानित कई प्रतिष्ठित गीतकार घर
बैठे हैं। अब तो निर्माता लोग संगीतकारों को भी संपर्क नहीं करते। ये और बात है कि
कई संगीतकार अब रियलिटी शोज़ में जज बनकर भरपूर कमाई कर रहे हैं। लगता है कि
सर पर टोकरी रख कर सब्ज़ी भाजी की तरह गीत बेचने का यह सिलसिला कभी ख़त्म नहीं
होने वाला।
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आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा,
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063
98210 82126
https://youtu.be/Y8OdiT6shZI
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