पुस्तक समीक्षा : आओ नई सहर का नया शम्स रोक लें
एक जाने-माने समालोचक का कहना है- "ग़ज़ल
में मुहब्बत कम हो गई है और पत्रकारिता ज़्यादा हो गई है"। ग़ज़लकार विनोद
प्रकाश गुप्ता 'शलभ' के यहां मुहब्बत ही मुहब्बत है। उनके ग़ज़ल संग्रह का नाम है-
"आओ नई सहर का नया शम्स रोक लें"। इस संग्रह के ज़रिए उन्होंने साबित
किया है कि शायर का दिल हमेशा जवान रहता है-
ये मुमकिन है कि मुझसे कुछ तो वो रूठा हुआ
होगा
मगर बिछड़े जहां थे हम, वहीं ठहरा हुआ होगा
सिकंदर से हमें यह सीख आख़िर क्यों नहीं मिलती
जो जग को जीतता है ख़ुद से वो हारा हुआ होगा
जो आदमी मुहब्बत के दयार से गुज़रता है, वही मुहब्बत
में अपने दिल के हाथों पराजित भी होता है। यही इस रिश्ते का दस्तूर है-
उसके आंचल की हवाएं छू गईं जिस पल मुझे
प्यास और पानी के मंज़र एक जैसे हो गए
मुहब्बत के दरिया से अब तक न जाने कितना पानी बह
चुका है। इस पानी में नए कंवल खिलाना बड़ा मुश्किल काम है। शलभ जी अपनी सोच, अपने
तेवर और अपने एहसास के ज़रिए अपनी ग़ज़ल में नई कहानी ले आते हैं-
कोई पोखर नहीं सूखे, कोई दरिया नहीं सूखे
हमारे बीच अपनेपन का ये सोता नहीं सूखे
मुझे तामीर करनी है मेरे रंगों की वो बग़िया
जहां बेवक़्त कोई फूल क्या, पत्ता नहीं सूखे
ग़ज़ल अगर लिरिकल हो यानी उसमें गेयता हो तो वह पाठकों
के साथ बड़ी जल्दी अपना एक दोस्ताना रिश्ता कायम कर लेती है। शलभ जी की ग़ज़लों में
ये गेयता मौजूद है। अगर आप उनकी ग़ज़लों को गुनगुना कर पढेंगे तो और ज़्यादा अच्छी
लगेंगी-
हदें पार करनी हैं अब दायरों की
ख़ुदा लाज रखना मेरे हौसलों की
हैं अनमोल नज़दीकियां उनकी लेकिन
न कम आंकना क़ीमतें फ़ासलों की
यहां तक कि जब वे जीवन के स्याह मंज़र को चित्रित
करते हैं तब भी उनके यहां गेयता और गुनगुनाहट मौजूद रहती है-
उखड़ने लगे लोकशाही के तंबू
ये क्या रंग लाई हवा नफरतों की
फ़लक छू न पाओगे एड़ी उठाकर
पड़ेगी ज़रूरत तुम्हें सीढ़ियों की
छोटी बहर में अपनी सोच को अभिव्यक्त करना मुश्किल
काम होता है। शलभ जी ने इस चुनौती का सामना भी बख़ूबी किया है। छोटी बहर में भी
उनके यहां एहसास की रवानी है और मुहब्बत की कहानी है-
फ़न है फ़नकारी की ख़ातिर
उसको तुम हथियार न करना
इश्क़ शलभ से तुमको, है क्या
है तो फिर, इन्कार न करना
संग्रह की कुछ ग़ज़लों में शलभ जी ने प्रकृति का
चित्रण भी सराहनीय तरीक़े से किया है। मिसाल के तौर पर उनकी एक ग़ज़ल के दो शेर
देखिए-
हवाओं की पत्तों से ये छेड़ देखो
हैं अठखेलियां भी, मधुर रागिनी भी
उसी झील में अब उतरता है सूरज
जहां शब मचलती रही चांदनी भी
एक सराहनीय बात यह भी है कि शलभ जी ने अपने कई
शेरों में नए बिम्ब और नए प्रतीक लाने की कामयाब कोशिश की है-
तू अगर केसर कली है, हम स्वयं कश्मीर हैं
रंग अपने इश्क़ का भी, ज़ा'फ़रानी है बहुत
शलभ जी ने कई जगह उर्दू के भारी-भरकम शब्दों का
इस्तेमाल किया है और उनका शब्दार्थ भी दे दिया है। मगर अधिकतर ग़ज़लें उस आम फहम
ज़बान में कहीं हैं जो ज़बान गलियों, चौराहों और नुक्कड़ पर बोली जाती है। इसलिए
उनकी इन ग़ज़लों में संप्रेषणीयता बहुत अच्छी है-
बिना इश्क़ मेरा गुज़ारा नहीं था
ज़माने को बस ये गंवारा नहीं था
नज़र तो तुम्हारी निगहबां थी लेकिन
मगर साफ़ कोई इशारा नहीं था
शलभ जी के कथ्य में परंपरा और आधुनिकता का अच्छा
तालमेल है। वे ख़ुद को शास्त्रीय ग़ज़ल की परंपरा से भी जोड़ लेते हैं और जदीद
ग़ज़ल की रिवायत से भी अपना रिश्ता क़ायम कर लेते हैं। अपनी ग़ज़लों में नयापन और
ताज़गी लाने की उन्होंने सराहनीय कोशिश की है।
एक शायर के लिए यह तय करना बहुत ज़रूरी है कि एक
ग़ज़ल में कितने शेर रखें जाएं। शलभ जी ने कई गजलों में दस-बारह शेर भी रखे हैं।
अगर वे इन्हें संपादित करके छ:-सात तक सीमित रखते तो पाठकों को और ज़्यादा सुकून
हासिल होता। इस सुंदर किताब के लिए डॉ विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ' को मैं बधाई देता
हूं और यह उम्मीद करता हूं आगे भी वे अपनी गजलों में यह रवानी और रोचकता बरकरार
रखेंगें।
डॉ विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ' का संपर्क नंबर :
98111-69069 और 98160-69069
के.बी.एस. प्रकाशन, सराय रोहिल्ला, दिल्ली-110007
से प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह का मूल्य है ₹280 रूपए।
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देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या
पाड़ा, गोकुलधाम,
फ़िल्म सिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुंबई- 400063,
98210-82126
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