ग़ज़ल के आसमान पर
पंकज
उधास
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बारिश की मोहक फुहारों
में हर शै भीग रही थी। जब मैंने जसलोक अस्पताल के पीछे कारमाइकल रोड पर कदम बढ़ाया
तो यातायात के शोर ने अचानक मेरी पीछा छोड़ दिया। पंकज उधास के बंगले में हरियाली
और उनके होठों पर स्वागत की उजली तबस्सुम थी। उनके संगीत कक्ष की दीवारों पर सुशोभित
अवार्ड और पुरस्कारों से उनकी कामयाबी की दास्तान छलक रही थी। मेरे पास सवालों का
गुलदस्ता था। पंकज उधास के पास आत्मीयता की ख़ुशबू में तरबतर जवाब। वक़्त को पता ही
नहीं चला कि कब उसकी झोली से सरककर तीन घंटे हमारे दरमियान बिछ गए। यह अगस्त 1996
में हमारी पहली मुलाक़ात थी।
चिट्ठी आई है...राजकपूर के
आँसू
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पंकज उधास जयपुर जाने
वाली फ्लाइट में अपनी सीट पर पहुंचे। अगली सीट पर राजकपूर बैठे हुए थे। पंकज उनके
पास गए और उनके पैर छुए। राजकपूर ने आशीर्वाद देने के बजाय अपने निराले अंदाज़ में
कहा- 'पंकज उधास अमर हो गया'। उन्होंने हैरत से राज साहब की तरफ़ देखा। वे मुस्कुरा
कर बोले- 'चिट्ठी आई है'। तब तक महेश भट्ट की फ़िल्म ‘नाम’ (1986) रिलीज़ नहीं हुई
थी। इस फ़िल्म के निर्माता थे अभिनेता राजेंद्र कुमार। उन्होंने एक दिन राज साहब को
डिनर पर बुलाया। अपने घर के होम थिएटर में 'चिट्ठी आई है' गीत दिखाया। उसे देख कर
राज साहब की आंखों से आंसू छलक पड़े।
'चिट्ठी आई है' गीत की
स्टूडियो में लाइव रिकॉर्डिंग हुई थी। संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने एक बड़े
हाल में साठ सत्तर म्यूजीशियन बिठाए थे। सिंगर के केबिन में पंकज उधास को खड़ा
करके रिहर्सल की गई। लक्ष्मीकांत ने कहा पंकज तुम बहुत अच्छा गा रहे हो। मगर मेरी
समझ में ये नहीं आ रहा है कि क्या चीज़ मिसिंग है। कुछ तो गड़बड़ है। उन्होंने टी
ब्रेक कर दिया। चाय पीते पीते लक्ष्मी जी ने पूछा- पंकज तुम स्टेज पर कैसे गाते
हो। पंकज ने बताया- मैं स्टेज पर बैठकर हारमोनियम बजाकर गाता हूँ। स्टूडियो की
पूरी सेटिंग बदली गई। बीच में छोटा सा स्टेज बनाया गया। पंकज उधास को हारमोनियम के
साथ बैठाया गया। लक्ष्मीकांत जी के इशारे पर पंकज ने गाना शुरू कर दिया। आनंद
बख़्शी का लिखा यह गीत लंबा है। तीन अंतरे का है। फिर भी बिना किसी हिचकिचाहट के
पंकज उधास ने पूरा गीत गा दिया। लक्ष्मीकांत ने हंसते हुए कहा- पंकज, तुमने ने
कमाल कर दिया। यही फाइनल टेक है। गीत की रिकॉर्डिंग पूरी हो गई।
'चिट्ठी आई है…' गीत न जाने कितने लोगों की आंखों में आंसू ला चुका है। न जाने
कितने लोग इसे सुनकर परदेस से अपने घर वापस लौट आए। अभिनेता पंकज पाराशर ने अपने
एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि यह गीत सुनने के बाद उन्होंने लंदन में अपना
क़ारोबार समेट लिया और वापस हिंदुस्तान लौट आए।
कभी आंसू कभी ख़ुशबू
कभी नग़मा बनकर
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ग़ज़ल गायकी में एक ठहराव
आया। पंकज उधास ने इस ठहराव को तोड़ने के लिए एक प्रयोग किया। पार्श्वगायिका साधना
सरगम के साथ फ़िल्म ‘मोहरा’ (1994) में गाया उनका गीत ‘न कजरे की धार’ बेहद लोकप्रिय हुआ।
साधना की आवाज़ में मिठास है। पं. जसराज से उसने शास्त्रीय गायन सीखा है।
पंकज को यह ख़याल आया कि क्यों न उसे साथ लेकर एक अलबम निकाला जाए। पंकज ने इस अलबम
की संगीत रचना की ज़िम्मेदारी राजस्थान की मिट्टी से जुड़े संगीतकार अली ग़नी को
सौंपी। अली ग़नी ने अपने वालिद से शास्त्रीय संगीत सीखा था। राजस्थानी लोकसंगीत और
शास्त्रीय संगीत के मेल से अपनी कम्पोजीशन में अली ग़नी ने एक नया एहसास पैदा
किया। कुल मिलाकर दिल को सुकून पहुंचाने वाला संगीत तैयार हुआ। इस अलबम में पहली
ग़ज़ल मुमताज़ राशिद की है।
कभी आंसू कभी ख़ुशबू कभी
नग़मा बनकर
मुझसे हर शाम मिली है तेरा
चेहरा बनकर
इस मतले में ज़िंदगी की एक दास्तान पोशीदा है। इसी मतले से इसका
नामकरण हुआ। आंसू, ख़ुशबू और नग़मा ये तीनों ज़िंदगी के अहम पहलू हैं। संगीत प्रेमियों ने इस प्रयोग
को बहुत पसंद किया। पाश्चात्य वाद्य यंत्रों के साथ शास्त्रीय रागों के आकर्षक
समन्वय से उन्होंने ग़ज़ल गायिकी को ताल के पारम्परिक बंधन से आज़ाद करने की कोशिश
की। पंकज का कहना है कि ऐसे प्रयोग ज़रूरी हैं। जब तक संगीत के साथ युवा पीढ़ी
नहीं जुड़ेगी तब तक वह दुनिया के कोने-कोने में नहीं पहुंच सकता।
न कजरे की धार न मोतियों का हार =========================
गीतकार इंदीवर का लिखा ये गीत फ़िल्म 'मोहरा' (1994) में
कवयित्री पूजाश्री की अभिनेत्री बेटी पूनम झँवर पर फ़िल्माया
गया। पंकज उधास और साधना सरगम का गाया फ़िल्म ‘मोहरा’ का गीत ‘न कजरे की धार न मोतियों का हार’
सुनकर जालंधर का एक युवक अरुण खुराना दीवाना हो गया। उसने कई कई घंटे इस गीत को
सुनना शुरु किया। एक रजिस्टर में दर्ज करता गया। दस हज़ार बार सुनने पर उसकी यह
दीवानगी लिम्का बुक ने रिकार्ड की। इस युवक ने क़सम खाई कि जब तक पंकज उधास उससे
जालंधर में आकर नहीं मिलेंगे वह इस गीत को सुनना बंद नहीं करेगा। पंकज ने मुझे
अरुण खुराना द्वारा भेजे गए ख़त और अख़बार की कतरनें दिखाईं। 26 मार्च 1996 के
‘पंजाब केसरी’ दैनिक के अनुसार अरुण खुराना तब तक इस गीत को 30 हज़ार बार सुन चुका
था। 10 जून 1996 के जालंधर के दैनिक ‘अजीत समाचार’ अनुसार वह इस गीत को 35 हज़ार से
भी अधिक बार सुन चुका था। पंकज उधास अपने इस दीवाने से मिलने सितंबर 1996 में
जालंधर गए। अरुण खुराना की हालत ऐसी हो चुकी थी कि टेप रिकार्ड बंद होने पर भी
उसके कानों में यह गीत बजता रहता था।
चांदी जैसा रंग है तेरा
सोने जैसे बाल
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चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल
एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल
शायर क़तील शिफ़ाई ने मुझे बताया कि लंदन में एक अंग्रेज युवती की
सुंदरता से मुतास्सिर होकर उन्होंने यह ग़ज़ल कही थी। पंकज उधास जब यह ग़ज़ल कंपोज़
कर रहे थे तब उनके मन में एक ख़याल आया कि इसे गीतनुमा बनाया जाए। उन्होंने कोशिश
की लेकिन फ़ोन पर पाकिस्तान के शायर क़तील शिफ़ाई से संपर्क नहीं हो पाया। फिर
उन्होंने शायर मुमताज़ राशिद से गुज़ारिश की। तीन शेर के तीन ऊला मिसरों पर एक एक
मिसरा लगाकर मुमताज़ राशिद ने अंतरा बना दिया। इस गीतनुमा ग़ज़ल ने लोकप्रियता का
कीर्तिमान बनाया। इसमें मुमताज़ राशिद की सिर्फ़ तीन लाइने हैं। कुछ लोगों ने इस
ग़ज़ल को मुमताज़ राशिद के नाम से प्रचारित किया। इसका क़तील शिफ़ाई को काफ़ी अफ़सोस
था। ‘मोहे आई न जग से लाज, मैं इतना ज़ोर से नाची आज, कि
घुंघरू टूट गए…’ क़तील शिफ़ाई का यह गीत
भी पंकज की आवाज़ में काफ़ी लोकप्रिय हुआ।
बिहार के एक शहर में संगीतकार गायक शेखर सेन का एक कार्यक्रम था।
शुरू होने से पहले ही सैकड़ों युवकों ने मंच घेर लिया और फरमाइश की- पहले आप पंकज
उधास की ग़ज़ल सुनाइए- ‘चांदी जैसा रंग है तेरा
सोने जैसे बाल’। शेखर जी दूसरों की
कम्पोजीशन नहीं गाते। उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया। दोनों पक्ष अड़ गए। युवकों ने
कहा- यह ग़ज़ल सुने बिना हम कार्यक्रम नहीं होने देंगे। आख़िरकार एक रास्ता निकल आया।
एक स्थानीय गायक निर्मल ने मंच पर आकर पंकज उधास की यह ग़ज़ल गाई। उसके बाद
कार्यक्रम शुरु हो पाया। आज भी पंकज उधास जब किसी कार्यक्रम में क़तील शिफ़ाई की यह
ग़ज़ल गाते हैं तो सारे युवा नाचने लगते हैं।
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जनता नएपन का स्वागत हमेशा करती है। ज़फ़र गोरखपुरी की ग़ज़ल 'इक तरफ़ उसका घर इक तरफ़ मैकदा'
पंकज की आवाज़ में बहुत पसंद की गई। आगे चलकर पंकज ने ज़फ़र गोरखपुरी का सोलो
अल्बम निकाला 'दि स्टोलेन मूमेंट'। इसमें एक नज़्म 'और आहिस्ता कीजिए बातें' बहुत लोकप्रिय हुई।
‘ख़याल’ अलबम में पंकज उधास ने ज़फ़र गोरखपुरी की एक नज़्म गाई है ‘इक्कीसवीं सदी’। इसमें तीन पीढ़ियों
के बदलाव के चित्रण के साथ ही आने वाली नस्लों की भी फ़िक्र है। इस नज़्म को लोगों
ने बहुत पसंद किया।
दुख सुख था एक सबका, अपना
हो या बेगाना
इक वो भी था ज़माना, इक ये
भी है जमाना
ऐ आने वाली नस्लों, ऐ आने
वाले लोगो
भोगा है हमने जो कुछ, वो
तुम कभी न भोगो
जो दुःख था साथ अपने, तुम
से क़रीब न हो
पीड़ा जो हम ने भोगी, तुमको
नसीब न हो
जिस तरह भीड़ में हम, तन्हा
रहे अकेले
वो ज़िंदगी की महफ़िल, तुमसे
न कोई ले ले
तुम जिस तरफ़ से गुज़रो, मेला
हो रौशनी का
रास आये तुमको मौसम,
इक्कीसवीं सदी का
हम तो सुकूं को तरसे, तुम
पर सुकून बरसे
आनंद हो दिलों में, जीवन
लगे सुहाना …
इक वो भी था ज़माना, इक ये
भी है जमाना
ग़ज़ल गायक रुमानी ग़ज़लों पर बहुत ज़ोर देते हैं। ग़ौरतलब है कि
पंकज उधास की सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाएं संजीदा और गै़ररुमानी हैं। "दीवारों
से मिलकर रोना अच्छा लगता है"... क़ैसरुल जाफ़री की यह ग़ज़ल रूमानी नहीं है फिर
भी बहुत लोकप्रिय हुई। पंकज के अनुसार जदीद ग़ज़लों में ऐसे लफ़्जों का इस्तेमाल
किया जाता है जिन्हें गाने में मधुरता नहीं पैदा होती। संजीदा विषयों की
अभिव्यक्ति संगीतमय हो तो उसे गाने में कोई असुविधा नहीं होती। मुशायरों में
तात्कालिक विषय चल जाते हैं मगर संगीत के लिए अच्छे विचार की तुलना में अच्छे
जज़्बात ज़रुरी हैं।
पंकज उधास की समाज सेवा
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जिस समाज से पंकज उधास को दौलत, शोहरत और मुहब्बत मिली उस समाज के
लिए कुछ करना पंकज अपना कर्तव्य समझते हैं। कैंसर पीड़ितों की सहायता के लिए वे कई
साल से ‘ख़ज़ाना’ कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इसमें ग़ज़ल के सभी प्रमुख कलाकार
शिरकत करते हैं। सन् 1996 में पंकज उधास का फ़ोन आया। उन्होंने घर बुलाया। वे
थैलीसीमिया पीड़ित बच्चों के सहायतार्थ कुछ करना चाहते थे। गुजरात के कच्छी समाज
में यह बीमारी तेज़ी से फैल रही थी। वे चाहते थे कि लोगों को जागरूक करने के लिए
मैं इस पर लिखूं। एक दोस्त के साथ उन्होंने मुझे सेंट जार्ज अस्पताल भेजा। वहाँ
थैलीसीमिया पीड़ित बच्चों का एक स्पेशल वार्ड है। अपने भविष्य से अनजान एक हाल में
पचास साठ बच्चे हँसते मुस्कराते मस्ती कर रहे थे। जनसत्ता की नगर पत्रिका सबरंग
में मैंने थैलीसीमिया पीड़ित बच्चों पर आवरण कथा लिखी। एक कलाकार के रुप में पंकज
उधास की यह सामाजिक पहल क़ाबिले तारीफ़ है।
पंकज उधास को पद्मश्री सम्मान
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सन् 2006 में पंकज उधास को पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा गया। पंकज
उधास का जन्म गुजरात में 17 मई 1951 को हुआ। राजकोट में बचपन बीता। सन् 1962 में
11 साल की उम्र में नवरात्र के उत्सव में उन्होंने 'ऐ
मेरे वतन के लोगो' गीत सुना कर श्रोताओं
को भाव विभोर कर दिया। एक श्रोता ने ख़ुश होकर उन्हें ₹51 का इनाम दिया। उन्होंने
रेडियो पर 'ऐ मेरे वतन के लोगो' गीत सुनकर उसे पूरा याद कर लिया था। पंकज उधास ने
सन् 1969 में छोटी-छोटी महफिलों में ग़ज़ल गायन की शुरुआत की। कठिन संघर्ष के बाद
पंकज उधास का पहला ग़ज़ल अलबम ‘आहट’ सन् 1980 में निकला और पसंद किया गया। अब तक उनकी ग़ज़लों के पचास
से अधिक अलबम निकल चुके हैं। 'तीन मौसम' में पंकज, निर्मल और मनहर उधास तीनों भाई हैं। वे पहले गायक हैं
जिनके ग़ज़ल अलबम 'आफ़रीन' को ट्रिपल प्लेटेनिम डिस्क मिला। पंकज मानते हैं कि कलाकार मुल्क,
मज़हब और ज़ात से ऊपर होता है। वह पूरी दुनिया का होता है। पंकज को पाकिस्तान से
काफ़ी ख़त आते हैं।
पनघट पर वो …
पानी पीना भूल गई
पानी पीना भूल गई
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'मुझको देखा पनघट पर तो पानी भरना भूल गई'। इस लाइन को स्विट्जरलैंड में शूट किया जा रहा
था। वहां पनघट तो मिल नहीं सकता। निर्देशक अनुभव सिन्हा को एक दीवाल
में लगा हुआ नल मिल गया। लड़की नल से पानी पीने लगी। उसने लड़के को देखा तो
पानी पीना भूल गई। पंकज के वीडियो में यह दृश्य बड़ा मज़ेदार लगता है। टी सीरीज़
द्वारा 1999 में जारी इस अलबम का नाम है 'महक'। पंकज उदास को अभिनेता जॉन अब्राहम अपना मेंटर मानते हैं। अभिनेता
बनने का संघर्ष कर रहे जॉन अब्राहम को इस वीडियो में पंकज उदास ने ब्रेक दिया था।
युवा पीढ़ी को अपने साथ शामिल करना पंकज उधास का मक़सद है। इसलिए
अपनी ग़ज़लों में उन्होंने शास्त्रीय रागों के साथ पाश्चात्य वाद्ययंत्र शामिल
किेए। पंकज की कोशिश है कि पॉप, रॉक और रैप की चुनौती के सामने ग़ज़ल ज़िंदा रहे।
ये कहा जाता है कि बेगम अख़्तर ने ग़ज़ल को कोठों से आज़ाद करके मंच पर पहुंचाया।
फिर मेंहदी हसन ने उसे आगे बढ़ाया। ख़ुद मेंहदी हसन ने कहा था- ग़ज़ल को अवाम में
लोकप्रिय बनाने की ज़िम्मेदारी पंकज के कंधों पर है। पंकज ने यह ज़िम्मेदारी बख़ूबी
निभाई। ग़ज़ल गायिकी में अनेक उतार चढ़ाव आए और चले गए। मगर पिछले चार दशकों से
पंकज उधास ग़ज़ल के आसमान पर एक सितारे की तरह रोशन हैं।
फ़िल्म 'नाम' का गीत : चिट्ठी आई है …
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चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है
चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है
बड़े दिनों के बाद, हम बेवतनों को याद
वतन की मिट्टी आई है, चिट्ठी आई है ...
ऊपर मेरा नाम लिखा है,
अंदर ये पैग़ाम लिखा है
ओ परदेस को जाने वाले,
लौट के फिर ना आने वाले
सात समुंदर पार गया तू,
हमको ज़िंदा मार गया तू
ख़ून के रिश्ते तोड़ गया तू,
आँख में आँसू छोड़ गया तू
कम खाते हैं कम सोते हैं,
बहुत ज़ियादा हम रोते हैं,
चिट्ठी आई है ......
सूनी हो गईं शहर की गलियाँ,
कांटे बन गईं बाग़ की कलियाँ
कहते हैं सावन के झूले,
भूल गया तू हम नहीं भूले
तेरे बिन जब आई दीवाली,
दीप नहीं दिल जले हैं ख़ाली
तेरे बिन जब आई होली,
पिचकारी से छूटी गोली
पीपल सूना पनघट सूना,
घर शमशान का बना नमूना
फ़सल कटी आई बैसाख़ी,
तेरा आना रह गया बाक़ी,
चिट्ठी आई है ......
पहले जब तू ख़त लिखता था,
काग़ज़ में चेहरा दिखता था
बंद हुआ ये मेल भी अब तो,
ख़त्म हुआ ये खेल भी अब तो
डोली में जब बैठी बहना,
रस्ता देख रहे थे नैना
मैं तो बाप हूँ मेरा क्या है,
तेरी माँ का हाल बुरा है
तेरी बीवी करती है सेवा,
सूरत से लगती है बेवा
तूने पैसा बहुत कमाया,
इस पैसे ने देश छुड़ाया
पंछी पिंजरा तोड़ के आजा,
देश पराया छोड़ के आजा
आजा उमर बहुत है छोटी,
अपने घर में भी है रोटी,
चिट्ठी आई है ......
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आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा,
गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व,
मुम्बई-400063, M: 98210-82126
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