
दोहे पर विचार-विमर्श
हिंदी में ‘ग़ज़ल’ और उर्दू में ‘दोहा’ कभी-कभी विवाद का विषय बन जाते हैं। इस मुद्दे पर बहस, तकरार और झड़पें हो चुकी हैं। मुझे लगा कि क्यों न इस मुद्दे पर बुज़ुर्गों की राय ले ली जाए। मुंबई में ज़फ़र गोरखपुरी और नक़्श लायलपुरी का शुमार सबसे वरिष्ठ शायरों में किया जाता हैं। दोहे पर इनकी राय पेश करते हुए मैं सभी पाठकों, कवियों और शायरों से अनुरोध करता हूं कि कृपया मिलजुल कर इस चर्चा को आगे बढ़ाएं। मगर इसके लिए अपनी उत्तेजना पर क़ाबू रखते हुए सह्रदयता, विनम्रता और धीरज से काम लें ताकि रचनात्मकता का भला हो सके।
दोहे में दोहे का अनुशासन ज़रुरी है -ज़फ़र गोराखपुरी
हिंदुस्तान में कबीर, रहीम, मीरां, तुलसी आदि के दोहों की एक समृद्ध परंपरा है । अमीर खुसरो ने भी दोहे लिखे हैं मसलन-
गोरी सोवे सेज पर ,मुख पर डारे केस ।
चल खुसरो घर आपने रैन हुई चहुं देस ।।
दोहे का छंद तेरह और ग्यारह मात्राओं में बंटा हुआ है। अगर इसमें एक भी मात्रा कम या ज़्यादा होती है तो वह दोहा नहीं रह जाता। पाकिस्तान में शायरों ने दोहा लिखने के लिए अलग बहर ( छंद) का इस्तेमाल किया। उसमें तेरह और ग्यारह मात्राओं का अनुशासन नहीं है हिंदुस्तान में भी कई शायरों ने उनका अनुकरण किया। मगर वैसी रचनाओं को ‘दोहा’ घोषित कर देने से उन्हें ‘दोहा’ नहीं माना जा सकता। उन्हें दोहा घोषित करने के बजाय मतला, मुखड़ा, मिनीकविता या मुक्तक जैसा ही कोई नाम देना ठीक होगा।
दोहा बहुत ख़ूबसूरत विधा है। हमें इसकी शुद्धता बरकरार रखनी चाहिए। दोहे में छंद के अनुशासन के साथ ही प्रभावशाली कथ्य और आम फहम भाषा का भी होना ज़रुरी है। अरबी, फ़ारसी या संस्कृत के कठिन शब्दों में दोहा लिखना दोहे के साथ अन्याय करना है। सहजता, सरलता और तर्क संगत बात दोहे में ज़रुरी है और यह बात तेरह- ग्यारह मात्राओं की बंदिश के साथ होनी चाहिए ।
ज़फ़र गोरखपुरी के दोहे
कौन बसंती धो गई, नदी में अपने गाल ।
तट ख़ुशबू से भर गया, सारा पानी लाल ।।
मेंहदी ऐसी रच सखी, आज हथेली थाम ।
लाल लकीरें जब मिलें, उभरे पी का नाम ।।
पी ने भीगी रैन में, आज छुआ यूं अंग ।
नैनों में खिल खिल गए, धनक के सातों रंग ।।
साजन को जल्दी सखी,मन है कि उमड़ा आय ।
कांटा समय के पांव में, काश कोई चुभ जाय ।।
आंगन चंचल नंद-सा, घर है ससुर समान ।
भीत अंदर दो खिड़कियां, ज्यों देवरान जेठान ।।
जन गणना के काम से, अफ़सर आया गांव ।
लाज आए लूं किस तरह, सखी मैं उनका नांव ।।
रैन सखी बरसात की, निंदिया उड़ उड़ जाय ।
थमें ज़रा जो बूंदिया, चूड़ी शोर मचाय ।।
साजन ने तन यूं हुआ, जैसे कोई चोर ।
सुन पाई न मैं सखी, सांसों का भी शोर ।।
मन में पिय के नेह का, चुभा ये कैसा तीर ।
मैके जाने की घड़ी, और आंखों में नीर ।।
गुज़रा घर के पास से, कौन सजिल सुकुमार ।
बिन होली के दूर तक,रंगों की बौछार ।।

दोहे पर बंदिश परवाज़ को रोकने की कोशिश है -नक्श़ लायल पुरी
दोहा हिंदी की देन है जिसमें तेरह और ग्यारह मात्राएं होती हैं। मैंने जानबूझकर इस रवायत से अलग हटकर नई बहर में दोहे लिखे। ग़ज़ल में भी जो रवायती बहरें हैं लोगों ने उनसे अलग नई बहरें ईजाद करके ग़ज़लें कहीं और उन्हें स्वीकार किया गया। दोहा नई बहर में भी हो सकता है मगर दोहे में मौलिकता का ध्यान रखना ज़रुरी है । उसमें ग़ज़ल की ज़बान और ग़ज़ल का कंटेंट नहीं चलता ।
शायर किसी बंदिश को तस्लीम नहीं करता। क़ाफ़िया-रदीफ़ की बंदिश तो हुनर है। शायर किसी विधा के लिए नई बहरें क्यों नहीं तराश सकता ? दोहे को इस दौर में तेरह-ग्यारह की बंदिश में बांधना शायरी की परवाज़ को रोकने की कोशिश है। ग़ज़ल फ़ारसी से आई मगर हिंदुस्तान में जल्दी लोकप्रिय हुई क्यों कि यहां दोहे में यानी दो मिसरों में बात कहने की ट्रैडीशन मौजूद थी । पुरानी ट्रैडीशन में विकास लाने के लिए बदलाव ज़रुरी है। मैंने फ़िल्मों के पारंपरिक मुखड़े को भी बदलने की कोशिश की और यह कोशिश कामयाब हुई । मसलन मेरे दो गीत के मुखड़े हैं-
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन
चांदनी रात में इक बार तुझे देखा है
ख़ुद पे इतराते हुए, खुद से शरमाते हुए
इन मुखड़ों में पारंपरिक तुकबंदी नहीं है। समय आ गया है कि हम नई बहर में दोहे लिखें और विकास का रास्ता रोशन करें।
चांदनी रात में इक बार तुझे देखा है
ख़ुद पे इतराते हुए, खुद से शरमाते हुए
इन मुखड़ों में पारंपरिक तुकबंदी नहीं है। समय आ गया है कि हम नई बहर में दोहे लिखें और विकास का रास्ता रोशन करें।
नक़्श लायलपुरी के दोहे
अपना तो इक पल न बीते, हाथ पे धर के हाथ
दिन मेहनत मज़दूरी का हैं, सैंयाजी की रात
नैनों में सपनों की छाया, हर सपना अनमोल
साजन के संग सभी बहारें,कहूं बजाकर ढोल
आशा बिन जीवन है सूना, ज्यूं बाती बिन दीप
सीप है जीवन, आशा मोती, क्या मोती बिन सीप
आंखों देखी कान सुनी से, धोका भी हो जाए
सच का शोर मचाने वाला, क्या अपना झूठ छुपाए
पेड़ों से पत्ते झड़ जाएं, पेड़ न खोएं धीर
धूप सहें, सर्दी में सिकुड़े, खड़े रहें गंभीर
आंखों को लगते हैं प्यारे प्रेम के सारे रुप
प्रेम चैत की कभी चांदनी, कभी जेठ की धूप
दर्द न जब तक छेदे,दिल में छेद न होने पाए
छेद न हो तो कैसे मोती, कोई पिरोया जाए
तेरे हाथ में देखी मैंने, अपनी जीवन रेखा
मैंने अपना हर सपना, तेरी आंखों से देखा
किसी की पूजा निष्फल जाए, किसी का पाप फूले
हाथ किसी के चांद को नोचें, कोई हाथ मले
धन दौलत,बरसात,जवानी,चार दिनों का खेल
प्रेम की जोत सदा जलती है,बिन बाती बिन तेल
आपका-
देवमणि
पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति,
कन्या
पाडा, गोकुलधाम, फ़िल्म सिटी रोड,
गोरेगांव
पूर्व, मुम्बई-400063, 98210 82126