हिंदुस्तान के लोक कवि खानखाना रहीम
हिंदी में शोध ग्रंथों की दशा और दिशा से आप सुपरिचित हैं। कंकड़ के इस ढेर में कभी-कभी हीरे भी नज़र आते हैं। डॉ दीपा गुप्ता की प्रकाशित शोध पुस्तक 'खानखाना रहीम' से गुज़रते हुए महसूस हुआ कि यह पुस्तक सृजनात्मकता का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। सौ से अधिक किताबों के अध्ययन, मनन और अनुशीलन से डॉ दीपा गुप्ता ने लोक कवि खानखाना रहीम का जो व्यक्तित्व निर्मित किया है वह बेमिसाल और विलक्षण है। उल्लेखनीय है कि रहीम के कवि रूप के साथ साथ दीपा जी ने उनके शौर्य और पराक्रम वाले रूप को भी प्रमुखता से सामने रखा है।
अब्दुर्रहीम खानखाना अपनी काव्यात्मक उपलब्धियों के ज़रिए आज भी भारतीय जनमानस में रचे बसे हैं। दीपा गुप्ता अपने शोध में इस तथ्य को सामने लाती हैं कि खानखाना रहीम ने अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत, ब्रज, अवधी आदि कई भाषाओं में काव्य रचना की। नीति, भक्ति, श्रृंगार और जीवन दर्शन से समृद्ध अपने दोहों के लिए रहीम आज भी लोक स्मृति का हिस्सा बने हुए हैं। लोक भाषा में लोक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले उनके दोहे आज भी बात बात में उद्धृत किए जाते हैं-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकायटूटे तो फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ि जाय
रहीम जिस तरह हमारी परंपरा और संस्कृति से जुड़े लोक नायकों को दोहे का कथ्य बनाते हैं वह अद्भुत है-
थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घट जाहिं
गिरिधर-मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं
दूध में मिश्री की तरह रहीम भारतीय समाज में घुल मिल गए थे। कृष्ण भक्त रहीम ने आम आदमी की सोच से अपना रिश्ता जोड़ लिया था। उन्होंने कई ऐसे दोहे रचे जो आज भी भारतीय समाज में आचरण और व्यवहार की कसौटी माने जाते हैं-
डॉ दीपा गुप्ता ने अपनी इस शोध पुस्तक के ज़रिए रेखांकित किया है कि जीवन के अंतिम दिनों तक रहीम को बार-बार युद्ध में शामिल होना पड़ा। वे बार-बार शाही खानदान के सदस्यों के छल कपट का शिकार हुए। कई बार उन्हें गंभीर मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा। जहांगीर के शासनकाल में रहीम को उपेक्षा और अनादर के दिन देखने पड़े। ऐसी विषम परिस्थितियों में रहते हुए रहीम ने किस तरह लगातार काव्य सृजन किया यह हैरत की बात है। रहीम अपने संगीत प्रेम के लिए भी विख्यात हुए।
खानखाना रहीम ने परंपरा से प्राप्त विविध काव्य विधाओं में काव्य रचना के अलावा बरवै छंद में 'बरवै नायिका भेद' लिखा। उनकी यह कृति काफ़ी पसन्द की गई। रहीम क़लम और तलवार दोनों के धनी थे। वे हुमायूं के विश्वासपात्र और अकबर के संरक्षक बैरम खां के सुपुत्र थे। सोलह साल की उम्र में सम्राट अकबर के सेनापति के रूप में रहीम रण क्षेत्र में सक्रिय हो गए थे। युवावस्था में ही गुजरात युद्ध में अदभुत शौर्य का परिचय देने के बाद उनको खानखाना की उपाधि प्रदान की गई थी।
जीवन के आख़िरी दिनों में खानखाना रहीम लाहौर में थे। वे आख़िरी सांस दिल्ली में लेना चाहते थे। लाहौर से दिल्ली पहुंचने पर सन् 1627 में लगभग 72 वर्ष की उम्र में रहीम का प्राणांत हो गया। दिल्ली में हुमायूं के मकबरे के पास खानखाना रहीम की कब्र मौजूद है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में आगा खां ट्रस्ट फॉर कल्चर ने इसके पुनरुद्धार की ज़िम्मेदारी ली है। ट्रस्ट के प्रयास से रहीम के मकबरे को नया स्वरूप प्राप्त हुआ है।
डॉ दीपा गुप्ता संभल (उप्र) की मूल निवासी हैं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा के एक कॉलेज में विगत सोलह साल से हिंदी पढ़ाती हैं। राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनके शोध, लेख, कहानी और कविताओं का नियमित प्रकाशन होता है। खानखाना रहीम पर यह शोध कार्य उन्होंने 23 वर्ष की उम्र में किया था। किताब कुछ समय पहले प्रकाशित हुई। दीपाजी के अनुसार रहीम का जीवन जैसा गरिमामय, आदर्श और विराट था उनका काव्य भी उतना ही उदात्त एवं मंगलमय है। उसमें अनुभूति, सरसता और अभिव्यंजना तीनों का ही उदात्त रूप प्राप्त होता है।
रहीम का जन्म 17 दिसंबर 1556 को हुआ था। पिता बैरम ख़ान की अप्रत्याशित मृत्यु होने पर 4 साल के अबोध बालक रहीम को आगरा बुलाकर अकबर ने उनकी शिक्षा दीक्षा का समुचित प्रबंध किया। रहीम ने अपने गुरुजनों से अरबी, फारसी, तुर्की और संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। रहीम की दानशीलता के अनेक क़िस्से लोक में किवदंती बन गए।
दान देते समय रहीम अपनी आंखें नीची रखते थे क्योंकि उनके मन में कीर्ति की कामना नहीं थी। एक बार गंग कवि ने उनसे पूछा-
सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी दैन
ज्यों ज्यों कर ऊंचा करो, त्यों त्यों नीचे नैन
इस पर रहीम ने उत्तर दिया-
देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन
खानखाना रहीम कवि, सेनानी, संगीत रसिक और कला पारखी होने के साथ साथ दीन दुखियों के मददगार थे। सरल सहज भाषा और आत्मीय शैली में लिखी गई डॉ दीपा गुप्ता की यह कृति रहीम के व्यक्तित्व और कृतित्व को बड़े सलीक़े और सुरुचिपूर्ण तरीके से हमारे सामने उद्घाटित करती है। इस कृति के ज़रिए डॉ दीपा गुप्ता ने यह साबित किया है कि अगर अध्ययन, चिंतन, लगन और समर्पण से शोध किया जाए तो वह साहित्य की एक अमूल्य धरोहर बन सकता है। इस सुंदर कृति के लिए मैं डॉ दीपा गुप्ता को बधाई देता हूं। उम्मीद करता हूं कि वे सृजनात्मकता के इस सिलसिले को आगे भी जारी रखेंगी। इसी नेक ख़्वाहिशात के साथ-
आपका-
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा,
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