मजरुह सुलतानपुरी से देवमणि पांडेय की बातचीत
सबको मारा जिगर के शेरों ने, और जिगर को शराब ने मारा। इस हक़ीक़त को जीने वाले जिगर मुरादाबादी ज़िंदगी के अंतिम दिनों में जब गम्भीर रूप से बीमार पड़े तो मुम्बई में थे और एक साधारण से होटल में ठहरे हुए थे। एक पत्रकार ने उनका इंटरव्यू किया। उसने एक सवाल किया-‘जिगर साहब, आपने अपनी शायरी के अलावा इस दुनिया को क्या दिया है’ ? जिगर साहब ने फ़ौरन जवाब दिया- ‘मैंने इस दुनिया को मजरूह सुलतानपुरी दिया है’। दूसरे दिन एक उर्दू अख़बार में यह चर्चित इंटरव्यू प्रकाशित हुआ। मजरूह साहब अपने उस्ताद के पास गए। उन्हें एक अच्छे अस्पताल में दाख़िल कराया। ज़रा स्वस्थ हुए तो उन्हें ले जाकर कुछ दिनों अपने घर पर रखकर तीमारदारी की। पूरी तरह स्वस्थ होकर जिगर साहब अपने उस्ताद असगर गोंडवी के शहर गोंडा चले गए। वहाँ फिर से बीमार पड़े और हमेशा के लिए उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज जिगर साहब की कोई बात किसी को याद हो या न याद हो मगर मुम्बई के पुराने शायरों को उनका यह जुमला आज भी याद है- ‘मैंने इस दुनिया को मजरूह सुलतानपुरी दिया है’।
मजरूह सुलतानपुरी उर्फ़ असरार हुसैन ख़ान का जन्म सन् 1919 में उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर ज़िले की एक रियासत कुड़वार के पास गँजेड़ी गाँव में हुआ। 25 मई 2000 को उनका इंतकाल हो गया। सन् 1994 में मजरूह साहब को जब दादा साहब फाल्के अवार्ड मिला तो मैंने हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ (मुम्बई) की नगर पत्रिका 'सबरंग' के लिए उनका इंटरव्यू किया था। अब वही धरोहर मैं आपके लिए पेश कर रहा हूँ। मुझे उम्मीद है कि मजरूह साहब की साफ़गोई आपको ज़रूर पसंद आएगी।
आपको ‘फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पुरस्कारों के बारे में आपकी क्या राय है ?
पुरस्कार तो अक्सर अपनों को ही दिए जाते हैं। फ़िल्मफ़ेयर से लेकर नोबल तक यही होता है। मैं तो चुपचाप लिखने वाला आदमी हूं। इसलिए जब मुझे सूचना मिली कि ‘फाल्के’ पुरस्कार मिलेगा तो एकबारगी विश्वास हीनहीं हुआ। अब तो पुरस्कार ख़रीदे जाते हैं। मैंने एक गीत लिखा था- ‘हम बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले गए / साग़र को ज़िंदगी में उतारे चले गए।’
इसको ‘फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार’ नहीं मिला। शैलेन्द्र के गीत ‘ये मेरा दीवानापन था’ को मिल गया। काफ़ी लोगों ने मुझसे कहा था कि मजरुह साहब, आपका गीत ज़्य़ादा अच्छा था। युवा जब कॉलेज से निकलता है तो उसे नहीं मालूम होती। इस स्थिति को दर्शाने वाला गीत मैंने लिखा- ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’। भारी लोकप्रियता के बावजूद इसे पुरस्कार नहीं मिला और गुलज़ार के जाने किस गीत को मिल गया। गुलज़ार के गीत ‘यारा सिली सिली’ को भी पुरस्कार मिला। जबकि मेंहदी हसन ने मुझे बताया था कि यह गीत रेशमा का है। पुरस्कारों का सच यही है।
एक गीतकार के रुप में आज आप खुद को कहाँ पाते हैं ?
मैं हमेशा दो नावों पर सवार रहा- साहित्य और सिनेमा। जगह दोनों में मिली, लेकिन खुल के किसी के सिर पर नहीं बैठ सका। यानी न इधर के रहे न उधर के। सर्मपण के बावजूद मैं हमेशा नंबर दो पर रहा। राजेन्द्र कृष्ण के ज़माने में भी और आनंद बख़्शी के दौर में भी। आज समीर नंबर वन है तो भी मैं नंबर दो पर मौजूद हूँ। मैं हमेशा विभाजित रहा। लेकिन शायरी को मैंने पहले स्थान पर रखा, क्योंकि फ़िल्म गीत रोटी देता है मगर शायरी सुकून देती है।
शायरी में प्रतिष्ठा के बावजूद किन कारणों से आपको फ़िल्म जगत में आना पड़ा ?
फ़िल्म के लिए मेरे मन में कभी क्रेज़ नहीं रहा। आना नहीं चाहता था, संयोगवश आ गया। सन् 1940 में जब मैंने सुलतानपुर के पलटन बाज़ार में एक हकीम के रुप में दवाख़ाना खोला था तो उसी समय अचानक शेर कहना शुरुकिया। उस वक़्त अवध में मुशायरे बहुत होते थे। लोगों ने सर-आँखों पर उठा लिया, तो हकीमी छोड़कर मैं शायरीमें डूब गया। सन् 1945 में जिगर मुरादाबादी मुम्बई के एक मुशायरे में मुझे लेकर आए। मुशायरा बहुत बड़ा था।फ़िल्म जगत के तमाम लोग वहाँ उपस्थित थे। मैं नया था, लेकिन जम गया। बस फ़ौरन कारदार साहब का बुलावा आ गया।
इस तरह मैं फ़िल्म लाइन में आ गया, पहले कोई इरादा नहीं था। उस वक्त एक डिप्टी कलेक्टर को ढाई सौ रुपये वेतन मिलता था। मैं मुशायरों से तीन-साढ़े तीन सौ कमा लेता था। इसलिए पहले तो मैंने इंकार कर दिया। जिगर साहब ने तब मुझे समझाया कि अभी तुमने न घर बनाया न शादी की। बीमार पड़ गये तो क्या करोगे ? आफ़र स्वीकार कर लो। पसंद न आए तो बाद में छोड़ देना। तब मैं तैयार हो गया। पाँच सौ रुपये मेरा वेतन निश्चित हुआ और कारदार साहब की फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ के गीत मैंने लिखे। गीत तो सभी पसंद किए गए, लेकिन एक गीत को सहगल साहब ने लीजेंड बना दिया। गीत था – ‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे ?’ यह फ़िल्म 1947 मेंआई। इसके बाद विभाजन के कारण छह-सात महीने तक फ़िल्म उद्योग बंद ही रहा। 1949 में मैंने महबूब खान की फ़िल्म ‘अंदाज़’ के गीत लिखे। वे भी कामयाब हुए।
सुना है उस दौरान आपको जेल भी हो गई थी ?
हाँ, सही बात है। मुम्बई के परेल इलाक़े में मज़दूरों की एक सभा थी। मुझे वहां गीत पढ़ने के लिए बुलाया गया। मुझसे कहा गया कि मैं इतना सरल गीत पढूं कि अनपढ़ मज़दूरों की समझ में भी वह आ जाए। मैंने बहुत सरल भाषा में गीत लिखा, लेकिन बात वही थी, जो मैं कहना चाहता था। गीत के बोल थे –
अमन का झंडा इस धरती पर
किसने कहा लहराने न पाए
ये भी है कोई हिटलर का चेला
मार ले साथी जाने न पाए
उस वक़्त कामनवेल्थ का काफी ज़ोर था। मैंने उसकी भी ख़बर गीत में ली थी। कुछ लोगों ने गलत ढंग से उसमें नेहरु का नाम जोड़कर प्रचारित कर दिया कि मैंने नेहरु को मारने की बात की है। अदालत में मेरी पेशी हुई। डिटेंशन ऐक्ट लगाया गया। मुझसे कहा गया कि आपने नेहरु को मारने के लिए भीड़ को उकसाया। माफ़ी मांगिए। मैं ठहरा स्वाभिमानी आदमी। माफ़ी मांगने का मतलब था अपनी ज़हनी सोच को नकारना। मैंने इंकार किया तो डेढ़ साल की कै़द सुनाई गई। आर्थर रोड जेल में बंद कर दिया गया। उसी दौरान ‘अंदाज’ फ़िल्म रिलीज़ हो गई। गाने लोकप्रिय हुए तो काम भी मिला। कमाल अमरोही ने फ़िल्म ‘दायरा’ और गुरुदत्त ने ‘बाज़’, ‘जाल’ आदि फ़िल्मों के गीत लिखवाए।
फ़िल्म जगत के पुराने गीतकारों और आज के गीतकारों के बारे में आपकी क्या राय है ?
मैं जब यहाँ आया तो फ़िल्म जगत में ख़ुमार बाराबंकवी, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री, राजेन्द्र कृष्ण जैसे गीतकार मौजूद थे। हम सब जो गीत लिखते थे, उसकी भाषा अच्छी होती थी। वह व्याकरण की दृष्टि से भी शुध्द होता था और उसके भावों में एक ख़ूबसूरती होती थी। एक ख़ास बात यह थी कि हम सब मिल बैठकर आमने-सामने एक दूसरे के गीतों को क्रिटिसाइज़ करते थे। मैंने फ़िल्म ‘दिल्ली का ठग’ में एक गीत लिखा था - ‘सी ए टी कैट, कैट माने बिल्ली, दिल है तेरे पंजे में तो क्या हुआ’।
तब हमारे गीतकार मित्रों ने इसकी ख़ूब आलोचना की। मैंने उनसे कहा कि यह गीत किशोर कुमार जैसे उछल-कूद वाले अभिनेता के लिए लिखा गया है और सिचुएशन के अनुसार इसका कन्टेन्ट भी ठीक है तो मित्रगण सहमत हुए। क्योंकि शेक्सपियर भी अपने ‘क्लाउन’ के लिए कुछ अलग तरह के ही संवाद लिखते हैं, लेकिन वहां भी भाषा की एक मर्यादा होती है। अब कंसेप्शन बदल गया है। आज गीत में शायरी ऐब मानी जाती है।
अब तो अर्थहीन शब्द चलते हैं। गीत का सोर्स तो ‘फ़ोक’ होता है लेकिन अब वह नहीं रहा। गीत में बहुत बड़ी बात कही जा सकती है, लेकिन अब पहले जैसी सादगी और गहराई नहीं रही। अब तो गीतों में बहुत वल्गराइजेशन आ गया है। ग़लत भाषा में लिखना और ‘गिमिक’ प्रस्तुत करना फैशन बन गया है। बहुत दुखी हूं मैं इससे। कभी-कभी तो रोने को जी चाहता है।
पहले के अच्छे गीतकारों की प्रतिभा का आज उचित उपयोग नहीं हो रहा है। इस स्थिति को आप किस रुप में देखते हैं?
अच्छी प्रतिभा के उपयोग की आज गुंजाइश ही कहाँ रही ? क्योंकि लेखन में एक गिरावट आ गई है। और मैं भी तो इसी में शामिल हूँ। जी बहुत चाहता है कि हमारे अनुभवी लेखक भाषा का सम्मान करें, लेकिन सिर्फ़ मेरे सोचने से क्या होता है। हर बदमाशी के लिए आदमी कोई दर्शन गढ़ लेता है। ‘कमोडिटी’ बन गया है आज सब कुछ। और मेरा भी हाल यह है कि –तूले ग़मे-हयात से घबरा रहा हूं मैं / घबरा रहा हूं और चला जा रहा हूं मैं।
आपके गीत अपने नएपन, ताज़गी और अंदाज़ में अलग ही नज़र आते हैं। इसके लिए आपने किन बातों पर ध्यान दिया ?
मैं चरित्रों के व्यक्तित्व, व्यवहार और बोलचाल को ध्यान में रखकर ही गीत लिखता हूँ। एक तरफ़ मैंने लिखा-‘गम दिए मुस्तकिल’, तो दूसरी तरफ़ लिखा-‘कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र’। तीसरी तरफ़ ‘छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा’ जैसे गीत लिखकर मैंने रोमांटिक कामेडी गीतों के लिए एक नई राह बनाई। फ़िल्म क्षेत्र में सक्रियता के बावजूद मैंने मुशायरों में जाना बंद नहीं किया। सन् 1983 में मैं एक मुशायरे में अमेरिका गया। जगह-जगह लोग मुझे सुनना चाहते थे। साढ़े चार महीना मुझे रुकना पड़ गया। लौटकर आया तो देखा मेरी जगह कोई और बैठ गया था। फ़िल्म ‘क़यामत से क़यामत तक’ के ज़रिए मेरी वापसी हुई।
आज की फ़िल्में आपको कैसी लगती है ?
अब नान-प्रोफेशनल प्रोड्यूसरों की बाढ़ आ गई है। पहले लोग सामाजिक ज़िम्मेदारी महसूस करते थे और ऐसी फ़िल्में बनाते थे, जो सपरिवार देखी जा सकें। सन् 1994-95 से प्रोड्यूसरों की जो भीड़ आई है उसे समाज की कोई चिंता नहीं है। पहले तवायफ़ के परिवार से नायिकाएं आती थीं, मगर इनका पहनावा शरीफ़ घरों की औरतों की तरह होता था। आज की अभिनेत्रियां अच्छे घरों से आती हैं मगर इनका पहनावा तवायफ़ों से भी गया-बीता है। अमरीकी बनना चाहते हैं। लेकिन न अमरीकी बन पाते है और न भारतीय। तीतर-बटेर बनकर रह जाते हैं। इन्हें लड़के-लड़कियों के बिगड़ने की चिंता नहीं है। समाज के मूल्यों का ध्यान नहीं है। अब अधकचरा लेखन चल रहा है। गीत के नाम पर अर्थहीन शब्द चलते हैं।
क्या अच्छे गीतों का जमाना कभी फिर लौटेगा ?
नौशाद आदि के ज़माने में गीतों का जो स्तर था, वह अब वापस नहीं आने वाला। बच्चों में भी अब वैसी साहित्यिक और सांस्कृतिक समझ नहीं है। प्राइमरी में ही उन्हें दस-दस विषय पढ़ने पड़ते हैं। फलस्वरुप वे ‘जैक ऑफ आल’ और मास्टर ऑफ नन’ बनते हैं। उनका मानसिक स्तर काफ़ी नीचे होता है। आज गीतों में शायरी ऐब मानी जाती है। कई बार मुझे फ़िल्म में लेकर भी छोड़ दिया गया। उनको लगा कि मेरे गीतों में शायरी ज़्यादा है। पब्लिक की भी पसंद सस्ती होती जा रही है। उन्हें लगता है,यही अच्छे गीत हैं। मुझसे लिखवाने वाले अब बहुत थोड़े रह गये हैं। गीत और कविता का फ़र्क़ हर ज़माने में रहा है। गीत, कविता का ज़्यादा बोझ नहीं उठा पाता। ‘कितनी अकेली कितनी तनहा मैं लगी तुझसे मिलने के बाद’ या ‘वादियां मेरा दामन रास्ते मेरी बांहे’ अथवा ‘रहे न रहें हम, महका करेंगे’ जैसे काव्यात्मक गहराई वाले गीत अब नई पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ते। ऊँचे स्तर से वे घबरा जाते हैं।
अपने बाद की पीढ़ी के गीतकारों के बारे में आपकी क्या राय है ?
अब तो नया ज़माना आ गया है इसलिए शैली भी बदल गई है। आज के गीतकार के लिए ज़रुरी हो गया है कि वह कैबरे, कामेडी, भजन, ग़ज़ल, प्रेमगीत सब कुछ लिख सके। सभी पर उसकी कमांड होनी चाहिए। मेरे बाद की पीढ़ी में आनंद बख़्शी, फ़ारुक़ क़ैसर, एस.एच.बिहारी आदि ने अच्छे गीत लिखे। अनजान भी कभी-कभी अच्छा लिखते हैं। जावेद अख्त़र और हसन कमाल में बहुत अच्छी प्रतिभा है। निदा फ़ाज़ली क़तार में हैं। लेकिन मुझे लगता है उन्होंने अभी तक कुछ भी उल्लेखनीय नहीं लिखा है।
साहित्य का इक़बाल सम्मान मिलने पर आपने कैसा महसूस किया था ?
अच्छा लगा था। तीन साल से इसके लिए मेरा नाम लिया जाता था और हटा दिया जाता था। मेरे पहले यह जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला को मिला। वे अच्छे शायर हैं, सीनियर हैं। लेकिन शायरी ही देखी जाए तो मुझे उनसे पहले मिल जाना चाहिए था। मैंने प्रगतिशील ग़ज़लें लिखकर एक नई राह निकाली।
लोग प्रगतिशील ग़ज़लों के लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पहला श्रेय देते हैं ?
बात बिल्कुल साफ़ है, मैं 1945 में प्रलेस (P.W.A.) से ज़ुडा। 1947 में मेरे कई प्रगतिशील शेर लोगों की ज़बान पर चढ़ चुके थे। फ़ैज़ का प्रगतिशील ग़ज़लों का संग्रह ‘दस्त-ए-सबा’ 1953 में आया। लोग इससे पहले उनकी प्रगतिशील ग़ज़लों से वाक़िफ़ नहीं थे। प्रगतिशील होते हुए भी फ़ैज़ हमेशा रोमांटिक बने रहे। बग़ैर माशूक़ के वे बात ही नहीं करते। असमानता, शोषण और जु़ल्म की बात भी वे माशूक़ के गले में बाहें डालकर ही करते हैं। उनकी ‘मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग’ तथा ‘चन्द रोज़ और मेरी जान’ आदि रचनाएं उस संदर्भ में देखी जा सकती हैं। मेरी ग़ज़लों का चरित्र हमेशा आंदोलनात्मक रहा।
अभी आपने अपनी प्रगतिशील ग़ज़लों का ज़िक्र किया। इसके बारे में ज़रा और खुलासा करें ?
कविता की तमाम आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अपने समय की सबसे ज़्यादा चुभने वाली चीज़ों को साथ लेकर जो बातें कही जाती हैं, वही प्रगतिशील हैं। पहले तो ‘महबूब’ ही ग़ज़ल की मंज़िल थी, लेकिन बाद में इसमें बदलाव आया। उदाहरण के लिए मैं अपनी कुछ प्रगतिशील रचनाओं के मुखड़े सुना रहा हूं-
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
सर पर हवाएं जु़ल्म चलें सौ जतन के साथ
अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ
देख ज़िंदां से परे रंग-ए-चमन जोशे बहार
रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर न देख
हम भी हमेशा क़त्ल हुए हैं और तुमने भी देखा दूर से लेकिन,
ये न समझना हमको हुआ है जान का नुक़्सां तुमसे ज़ियादा
ये बातें मैंने बहुत पहले कही थीं, लेकिन इनकी प्रासंगिकता हमेशा रहेगी। इसलिए ये चीजें शाश्वत हैं। फ़ैज़ की प्रगतिशील ग़ज़लों का संग्रह ‘दस्त-ए-सबा’ सन् 1953 में देखा गया, जबकि मैंने ये ग़ज़लें 1945 में लिखीं थीं। इसीलिए मैं कहता हूं कि प्रगतिशील ग़ज़लों की शुरुआत मैंने की। फ़ैज़ और मजाज़ मुझसे सीनियर थे और बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़लें लिखते थे। उनके सामने मुझे अपनी ग़ज़लें काफी खुरदुरी लगती थी। मैंने फ़ैज़ और मजाज़ से बहुत कुछ सीखा। फ़ैज़ ग़ज़लों में हमेशा मीठा ही बोलते रहे। मैं समझता हूं कि यह भी एक प्रकार का ऐब है। कभी-कभी कड़वा बोलना भी बहुत ज़रुरी होता है, लेकिन फ़ैज़ का हाल तो यह था कि-
ग़मे-जहां हो, रुख़े-यार हो कि दस्ते-अदू
सुलूक जिससे किया हमने आशिक़ाना किया
शांति के ज़माने में दुश्मनों को माफ़ करना तो ठीक है लेकिन जंग के मैदान में दुश्मन से आशिक़ाना व्यवहार कैसे हो सकता है ? इसके बावजूद फ़ैज़ से हमने सीखा है, वे हमारे बड़े शायर हैं।
जिस शायर (इक़बाल) के नाम से आपको सम्मान दिया गया, उनकी शायरी आपको कैसी लगती है ?
इक़बाल उर्दू शायरी की सर्वोच्च शैली के कवि हैं। वे बीसवीं सदी के सबसे बड़े शायर हैं। कुछ लोग उनके साथ फ़ैज़ का नाम रख देते हैं। मुक़ाबला वैसा ही है जैसे बड़े गु़लाम अली खां और मोहम्मद रफ़ी। मोहम्मद रफ़ी की नक़ल करने वाले बहुत मिलेंगे क्योंकि ऐसा करना आसान है। फ़ैज़ की शायरी इक़बाल से बहुत सस्ती है। इक़बाल के साथ जोश मलीहाबादी का ही नाम लिया जा सकता है।
लेकिन आप यह भी स्वीकार करते हैं कि आपने ख़ुद फ़ैज़ से बहुत कुछ सीखा है ?
हां, सही बात है। बाद में आने वाला शायर अपने सीनियर से सीखता है। मैंने फ़ैज़ से रसीला अंदाज़ सीखा। मैं चाहता था कि मेरे बयान में तनतना, जोश और ज़लज़ला के साथ ही रस हो, मिठास हो। मैंने ऐसा लिखा भी।‘साथी’ को ‘महबूब’ माना। एक शेर देखिए –
मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए
तेरा हाथ, हाथ में आया गया कि चराग़ राह में जल गए
मैंने मजाज़ से भी बहुत कुछ सीखा। मजाज़ ने उर्दू नज्म़ में सबसे पहले नई राह बनाई। फ़ैज़ भी उनके पीछे चले। मजाज़ की ‘ख़्वाब-ए-शहर’ तथा ‘रात और रेल’ जैसी नज़्में पहले नहीं लिखी गईं थीं। मजाज़ की ग़ज़लों में भी ऐसे प्रगतिशील शेर थे कि मुझे आगे बढ़ने की राह मिली। फ़ैज़ का लहजा धीमा था। पर यह धीमा लहजा गंभीर भी था।
फ़िराक़ गोरखपुरी का लबो-लहजा आपको कैसा लगता है ?
फिराक़ का लबो-लहजा बिलकुल नया है। उन्होंने संस्कृत, अंग्रेज़ी और फ़ारसी से फा़यदा उठाकर बात कही। पहले ग़ज़ल का बैक ग्राउंड ‘तसव्वुर’ था। उन्होंने हिन्दू दर्शन के अनुसार सेक्स को इबादत का रुप देकर ग़ज़ल के पसमंज़र को तसव्वुर से आज़ाद करके यथार्थवादी आधार दिया। मतलब उन्होंने परंपरा की पृष्ठभूमि को बदला। लेकिन सेक्स के ज़रिए इबादत को लाना सबके वश का नहीं है। यह बहुत बड़े शायर का काम है। इससे ग़ज़ल ज़मीन पर आकर खड़ी हो गई। मगर इक़बाल तो खु़द में एक पहाड़ हैं। उनके सामने फ़िराक़ नहीं खड़े किए जा सकते। हाँ,फ़िराक़ ने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लबो-लहजा दिया। इससे ग़ज़ल का काफ़ी फ़ायदा हुआ।
बंबई (मुम्बई) में आपको सबसे अच्छा शायर कौन लगता है ?
अगर गीतकार के रुप में देखें तो पहले स्थान पर जावेद अख़्तर, दूसरे स्थान पर हसन कमाल और तीसरे स्थान पर निदा फ़ाज़ली को रखा जा सकता है। लेकिन शायर के रुप में मुझे निदा फ़ाज़ली सबसे बेहतर लगता है। पता नहीं क्यों वह मेरी मुख़ालिफ़त भी करता है। निदा ने परंपरा से हटकर कुछ कहने की कोशिश की और अच्छा कहा। उसकी शायरी की ज़बान बहुत अच्छी है। उसे मामूली आदमी भी समझ लेता है। इनकी कमी यह है कि ये तीनों लोग अंग्रेज़ी और फ्रेंच साहित्य से प्रभावित हैं। इनकी बुनियाद बाहर से जुड़ी है।
उर्दू में गीत को और हिन्दी में ग़ज़ल को उचित सम्मान क्यों नहीं मिला ?
हिंदी की जड़ें ज़मीन में हैं। उर्दू इस मामले में पीछे है। ग़ज़ल महफ़िल से जुड़ी रही है। गीत में धरती की बात आएगी तो हिन्दी मे अच्छा लगेगा। हिन्दी जितनी नेशनल है, उर्दू उतनी नहीं। उर्दू का मिज़ाज उतना भारतीय नहीं है, जितना होना चाहिए। इधर कई भाषाओं में ग़ज़लें कही जा रही हैं। लेकिन मुझे गुजराती ग़ज़लें उर्दू के अधिक क़रीब लगती हैं। ग़ज़ल और नज़्म की शैली अलग है। ग़ज़ल की शैली ही हिन्दी वालों की पकड़ में नहीं आई। ग़ज़ल हर लफ़्ज़ का बोझ नहीं उठा सकती।
आपका
देवमणिपांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य
स्तुति,
कन्या पाडा, गोकुलधाम,
फिल्मसिटी रोड,
गोरेगांव पूर्व,
मुम्बई-400063, 98210-82126
4 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लगा आ कर । एक तो आलेख उम्दा, दूसरे शायरी पर, तीसरे मज़रूह के बारे में - उन्हीं की ज़बानी, ख़ूब!
मज़रूह के ही शे'र को दुहराया जाए -
"लोग आते जायँगे तो कारवाँ बन जायगा
दर्दे-दिल उस दिन सुकूने-दो-जहाँ बन जायगा"
फिल्मी गीत रोटी देते हैं पर शायरी सकुन देती है। बहुत अच्छा साक्षात्कार। दुबारा पढ़वाने के लिए आभाऱ। वैसे में मुंबई जनसत्ता सबरंग पढ़ती रही हूँ।
ग़ज़ल की शैली ही हिन्दी वालों की पकड़ में नहीं आई। ग़ज़ल हर लफ़्ज़ का बोझ नहीं उठा सकती।
..sahi kaha. aapki mehnat ko salaam pandey ji...
purani yadin taza ho gai.
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