सूफ़ी अलबम 'कबीराना सूफ़ीयाना' के लोकार्पण समारोह में लखमेंद्र खुराना, गायक विवेक प्रकाश, संगीतकार ख़य्याम, सूफ़ी सिंगर कविता सेठ, कवि नारायण अग्रवाल, उदघोषक देवमणि पाण्डेय और टाइम्स म्यूज़िक के पूर्व सीईओ अरुण अरोड़ा।
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सूफी संत और वसुधैव कुटुम्बकम
सूफ़ी संतों और सूफ़ी शायरों ने पूरी दुनिया को मुहब्बत का पैग़ाम दिया। इन्होंने अपने रब के साथ ऐसा पाक और रुहानी रिश्ता जोड़ा कि उन्हें अपने दिल के आईने में पूरी दुनिया का अक्स नज़र आने लगा। सूफ़ी शायरी और सूफ़ी संगीत के ज़रिए दिल से दिल के तार जोड़ने का यह सिलसिला आज भी जारी है।
सूफ़ीवाद का आग़ाज़
कहा जाता है कि आठ सौ साल पहले ईरान में इमाम ग़ज़ाली के ज़रिए सूफ़ीवाद का आग़ाज़ हुआ। वहाँ से तुर्की होते हुए इसकी ख़ुशबू हिंदुस्तान पहुंच गई। फ़ारसी शायर जलालुद्दीन रूमी और हाफ़िज़ शीराजी ने सूफ़ीवाद को अपने कलाम के ज़रिए दूर दूर पहुंचाया। आज भी लोग मौलाना रूमी से इतनी मुहब्बत करते हैं कि सन् 2007 को पूरी दुनिया में ‘इयर ऑफ दि रूमी’ के नाम से मनाया गया था। यह उनकी 800वीं बरसी थी।
मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी का जन्म अफ़गानिस्तान के बल्ख में 30 सितम्बर 1207 को हुआ। रूमी ने अपना जीवन तुर्की में बिताया। 17 दिसम्बर 1273 को तुर्की के कोन्या में उनका इंतक़ाल हुआ। वे फ़ारसी के महत्वपूर्ण लेखक थे। शायर शम्स तबरीज़ी से मिलने के बाद रूमी की शायरी में मस्ताना रंग आया था। इनके काव्य संग्रह का नाम है दीवान ए शम्स। रूमी ने सूफ़ीवाद में दरवेश परंपरा को आगे बढ़ाया। रूमी की मज़ार पर सैकड़ों सालों से सालाना आयोजन होते रहे हैं।
बारहवीं सदी में कई सूफ़ी फ़कीर हिंदुस्तान आए। ख्वाजा अब्दुल चिश्ती ने हेरात में 'चिश्ती धर्म संघ' की स्थापना की थी। सन् 1192 ई. में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती हिंदुस्तान आए। उन्होंने यहाँ चिश्ती परम्परा की शुरुआत की। उनकी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र अजमेर था। इन्हें ग़रीब नवाज़ कहा जाता है। प्रमुख सूफ़ी सन्तों में बाबा फ़रीद, ख्वाजा बख़्तियार काकी, शेख़ सलीम चिश्त एवं शेख़ बुरहानुद्दीन ग़रीब का नाम लिया जाता है। सुल्तान इल्तुतमिश के समकालीन ख्वाजा बख़्तियार काकी ने फ़रीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। बाबा फ़रीद का आम लोगों से बहुत लगाव था। उनकी अनेक रचनाएं 'गुरुग्रंथ साहिब' में शामिल हैं। बाबा फ़रीद को ग़यासुद्दीन बलबन का दामाद बताया जाता है।
मशहूर सूफ़ी संत हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का कार्यकाल देखा। मगर उन्होंने किसी सुल्तान की परवाह नहीं की। शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया को महबूब-ए-इलाही कहा गया। हिंदुस्तान में निज़ामुद्दीन औलिया के शागिर्द अमीर ख़ुसरो के कलाम के ज़रिए सूफ़ीवाद ने अवाम के साथ अपना रिश्ता जोड़ लिया। ख़ुदा से मेल होने के बाद आदमी अपनी दुनियावी पहचान से आज़ाद होकर एक अलग ही दुनिया में पहुंच जाता है। अमीर ख़ुसरो लिखते हैं- छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नैना मिलाइ के... बुतख़ाने के परदे में काबा सूफ़ीवाद मुहब्बत के दयार में फ़कीर की तरह घूमने-फिरने की आज़ादी है। ऐसा माना जाता है कि क़तरे से लेकर समंदर तक, ज़र्रे से लेकर आसमान तक अल्लाह हर चीज़ में है। अगर अल्लाह हर चीज़ में है तो वह बुत में भी है। मशहूर शायर डॉ इक़बाल ने अपनी एक ग़ज़ल के ज़रिए सूफ़ीवाद को इस तरह परिभाषित किया है- बुत में भी तेरा या रब जलवा नज़र आता है बुतख़ाने के परदे में काबा नज़र आता है माशूक के रुतबे को महशर में कोई देखे अल्लाह भी मजनूँ को लैला नज़र आता है इक क़तरा-ए-मय जब से साक़ी ने पिलाई है उस रोज़ से हर क़तरा दरिया नज़र आता है साक़ी की मुहब्बत में दिल साफ़ हुआ इतना जब सर को झुकाता हूँ शीशा नज़र आता है दिल और कहीं ले चल ये दैरो-हरम छूटे इन दोनों मकानों में झगड़ा नज़र आता है अल्लाह को पाने के लिए जोगी बनना ज़रूरी नहीं है। घर-गृहस्थी में रहकर भी अल्लाह तक पहुँचा जा सकता है। बीवी से मुहब्बत है तो अल्लाह से भी प्रेम हो सकता है। सूफी संत नूर मुहम्मद फ़रमाते हैं- नूर मुहम्मद यह कथा, है तो प्रेम की बात जेहि मन कोई प्रेम रस, पढ़े सोई दिन रात
सूफ़ी होने का मक़सद
सूफ़ी लोग सूफ़ यानी ऊन का लबादा पहनते थे। सूफ़ी होने का मक़सद है फ़कीर होना। मुहब्बत, सादगी और इंसानियत ही इनका मज़हब है। धन-दौलत से इन्हें कुछ मतलब नहीं। सूफ़ी और संत पूरी दुनिया को अपना घर समझते हैं। सूफ़ियों ने मज़हब की पाबंदियों से बाहर निकलकर पूरी दुनिया की भलाई के लिए मुहब्बत और इंसानियत पर ज़ोर दिया। सूफ़ियों में दिलों को जोड़ने की भावना थी। उन्होंने किसी भी भेदभाव से ऊपर उठकर इंसान के दिलों को जोड़ने का काम हमेशा किया। सूफ़ियों की तरह हमारे देश के संत कवियों ने भी जात-पांत, धर्म और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर, प्रेम के धागे से लोगों के दिलों को जोड़ने का काम बड़ी ख़ूबसूरती से किया। जो इंसान इस प्रेम को पा लेता है उसे किसी और चीज़ की ज़रुरत नहीं रह जाती। कबीर ने लिखा है- कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय रोम रोम में रमि रहा, और अमल कोउ नाय सूफ़ीवाद और संतवाणी का तसव्वुर एक ही है। दोनों मज़हब और धर्म में नहीं बंटे। यूनीवर्सल बने रहे। दोनों ने अपना रिश्ता अल्लाह से और ईश्वर से जोड़ा। पूरी दुनिया को अपना परिवार और सभी को एक जैसा माना। सूफ़ियों और संतों ने दुनिया के सभी इंसानों के लिए मुहब्बत का पैग़ाम दिया। उन्हें इंसानियत का रास्ता दिखाया। ख़ुदा से मुहब्बत यानी परमात्मा से आत्मा का मिलन ही इनकी ज़िंदगी और इनकी शायरी का मक़सद था। हिंदुस्तान में सूफ़ी काव्य परम्परा रामानंद के शिष्य कबीर को कुछ लोग सूफ़ी संत शेख़ तकी का शागिर्द बताते हैं। कबीर पर सूफ़ियों का काफ़ी असर दिखाई देता है- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय हिंदुस्तान में मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, नूर मुहम्मद आदि कई ऐसे रचनाकार हुए जिन्हें सूफ़ी परम्परा को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है। जायसी ने पदमावत, अखरावट, और कान्हावत जैसे महाकाव्य लिखकर सूफ़ी साहित्य में इज़ाफ़ा किया। सूफ़ियाना आशिक़ में तड़प, क़सक और दर्द का होना ज़रूरी है। जायसी के पदमावत में इन भावनाओं की गहराई दिखाई देती है। इस प्रेम कथा में रानी पदमावती को परमात्मा और राजा रत्नसेन को आत्मा के रूप में पेश किया गया है। ख़ास बात यह है कि हिंदुस्तान के सूफ़ी कवियों और शायरों ने प्रेम काव्य लिखने के लिए सारे अफ़साने हिंदू मैथोलॉजी से लिए। सूफ़ी कवि यहाँ के जीवन, लोकाचार और लोक संस्कृति से भली भांति वाक़िफ़ थे। रानी नागमती के जुदाई के दर्द को सामने लाने के लिए जायसी ने बारहमासा लिखा जो लोक जीवन की झांकी का बेजोड़ नमूना है। पिय से कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग! सों धनि बिरह जरि मुई, तेहिके धुँआ हम लाग सूफ़ीवाद की ख़ुशबू पंजाब की संतवाणी में भी नुमायां है। गुरुनानक, बुल्ले शाह, वारिस शाह और बाबा फ़रीद के सूफ़ी कलाम से मुहब्बतों की ऐसी बारिश हुई जिसमें समूचा हिंदुस्तान तरबतर हो गया। गुरुनानक ने दिलों को रोशन करने का काम किया। अव्वल अल्ला नूर उपाया, क़ुदरत ते सब बंदे एक नूर ते सब जग उपज्यां , कौन भले कौन मंदे शायरी की रिवायत में महबूब को ख़ुदा का दर्जा हासिल है। शायरी की ख़ूबसूरती इसी फ़न में है कि उसे इशारों में बयां किया जाए। यानी चाहे उसे ख़ुदा के लिए समझिए या महबूब के लिए। सच्चा सूफ़ी ख़ुशी में रक्स करता है और दुख में हँसता है। यानी जब वो ख़ुदा से अपना रिश्ता जोड़ लेता है तो उसके लिए ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ नहीं रह जाता। तसव्वुफ़ के इस सफ़र में पूरी दुनिया उसे अपना ही घर लगने लगती है। तब वह पूरी दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाता है और लोगों के दिल और ज़ह़न को रोशन करके उन्हें इंसान होने का मतलब समझाता है। ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब तुझे हम वली समझते, जो न बादा-ख़्वार होता
आपका- देवमणि पाण्डेय सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 M : 98210-82126
मशहूर सूफ़ी संत हजरत निज़ामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का कार्यकाल देखा। मगर उन्होंने किसी सुल्तान की परवाह नहीं की। शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया को महबूब-ए-इलाही कहा गया। हिंदुस्तान में निज़ामुद्दीन औलिया के शागिर्द अमीर ख़ुसरो के कलाम के ज़रिए सूफ़ीवाद ने अवाम के साथ अपना रिश्ता जोड़ लिया। ख़ुदा से मेल होने के बाद आदमी अपनी दुनियावी पहचान से आज़ाद होकर एक अलग ही दुनिया में पहुंच जाता है। अमीर ख़ुसरो लिखते हैं- छाप तिलक सब छीनी रे, मोसे नैना मिलाइ के... बुतख़ाने के परदे में काबा सूफ़ीवाद मुहब्बत के दयार में फ़कीर की तरह घूमने-फिरने की आज़ादी है। ऐसा माना जाता है कि क़तरे से लेकर समंदर तक, ज़र्रे से लेकर आसमान तक अल्लाह हर चीज़ में है। अगर अल्लाह हर चीज़ में है तो वह बुत में भी है। मशहूर शायर डॉ इक़बाल ने अपनी एक ग़ज़ल के ज़रिए सूफ़ीवाद को इस तरह परिभाषित किया है- बुत में भी तेरा या रब जलवा नज़र आता है बुतख़ाने के परदे में काबा नज़र आता है माशूक के रुतबे को महशर में कोई देखे अल्लाह भी मजनूँ को लैला नज़र आता है इक क़तरा-ए-मय जब से साक़ी ने पिलाई है उस रोज़ से हर क़तरा दरिया नज़र आता है साक़ी की मुहब्बत में दिल साफ़ हुआ इतना जब सर को झुकाता हूँ शीशा नज़र आता है दिल और कहीं ले चल ये दैरो-हरम छूटे इन दोनों मकानों में झगड़ा नज़र आता है अल्लाह को पाने के लिए जोगी बनना ज़रूरी नहीं है। घर-गृहस्थी में रहकर भी अल्लाह तक पहुँचा जा सकता है। बीवी से मुहब्बत है तो अल्लाह से भी प्रेम हो सकता है। सूफी संत नूर मुहम्मद फ़रमाते हैं- नूर मुहम्मद यह कथा, है तो प्रेम की बात जेहि मन कोई प्रेम रस, पढ़े सोई दिन रात
सूफ़ीवाद पर चर्चा करते हुए शायर देवमणि पाण्डेय, सूफी सिंगर कविता सेठ और कवि नारायण अग्रवाल
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सूफ़ी लोग सूफ़ यानी ऊन का लबादा पहनते थे। सूफ़ी होने का मक़सद है फ़कीर होना। मुहब्बत, सादगी और इंसानियत ही इनका मज़हब है। धन-दौलत से इन्हें कुछ मतलब नहीं। सूफ़ी और संत पूरी दुनिया को अपना घर समझते हैं। सूफ़ियों ने मज़हब की पाबंदियों से बाहर निकलकर पूरी दुनिया की भलाई के लिए मुहब्बत और इंसानियत पर ज़ोर दिया। सूफ़ियों में दिलों को जोड़ने की भावना थी। उन्होंने किसी भी भेदभाव से ऊपर उठकर इंसान के दिलों को जोड़ने का काम हमेशा किया। सूफ़ियों की तरह हमारे देश के संत कवियों ने भी जात-पांत, धर्म और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर, प्रेम के धागे से लोगों के दिलों को जोड़ने का काम बड़ी ख़ूबसूरती से किया। जो इंसान इस प्रेम को पा लेता है उसे किसी और चीज़ की ज़रुरत नहीं रह जाती। कबीर ने लिखा है- कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय रोम रोम में रमि रहा, और अमल कोउ नाय सूफ़ीवाद और संतवाणी का तसव्वुर एक ही है। दोनों मज़हब और धर्म में नहीं बंटे। यूनीवर्सल बने रहे। दोनों ने अपना रिश्ता अल्लाह से और ईश्वर से जोड़ा। पूरी दुनिया को अपना परिवार और सभी को एक जैसा माना। सूफ़ियों और संतों ने दुनिया के सभी इंसानों के लिए मुहब्बत का पैग़ाम दिया। उन्हें इंसानियत का रास्ता दिखाया। ख़ुदा से मुहब्बत यानी परमात्मा से आत्मा का मिलन ही इनकी ज़िंदगी और इनकी शायरी का मक़सद था। हिंदुस्तान में सूफ़ी काव्य परम्परा रामानंद के शिष्य कबीर को कुछ लोग सूफ़ी संत शेख़ तकी का शागिर्द बताते हैं। कबीर पर सूफ़ियों का काफ़ी असर दिखाई देता है- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय हिंदुस्तान में मलिक मुहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, नूर मुहम्मद आदि कई ऐसे रचनाकार हुए जिन्हें सूफ़ी परम्परा को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है। जायसी ने पदमावत, अखरावट, और कान्हावत जैसे महाकाव्य लिखकर सूफ़ी साहित्य में इज़ाफ़ा किया। सूफ़ियाना आशिक़ में तड़प, क़सक और दर्द का होना ज़रूरी है। जायसी के पदमावत में इन भावनाओं की गहराई दिखाई देती है। इस प्रेम कथा में रानी पदमावती को परमात्मा और राजा रत्नसेन को आत्मा के रूप में पेश किया गया है। ख़ास बात यह है कि हिंदुस्तान के सूफ़ी कवियों और शायरों ने प्रेम काव्य लिखने के लिए सारे अफ़साने हिंदू मैथोलॉजी से लिए। सूफ़ी कवि यहाँ के जीवन, लोकाचार और लोक संस्कृति से भली भांति वाक़िफ़ थे। रानी नागमती के जुदाई के दर्द को सामने लाने के लिए जायसी ने बारहमासा लिखा जो लोक जीवन की झांकी का बेजोड़ नमूना है। पिय से कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग! सों धनि बिरह जरि मुई, तेहिके धुँआ हम लाग सूफ़ीवाद की ख़ुशबू पंजाब की संतवाणी में भी नुमायां है। गुरुनानक, बुल्ले शाह, वारिस शाह और बाबा फ़रीद के सूफ़ी कलाम से मुहब्बतों की ऐसी बारिश हुई जिसमें समूचा हिंदुस्तान तरबतर हो गया। गुरुनानक ने दिलों को रोशन करने का काम किया। अव्वल अल्ला नूर उपाया, क़ुदरत ते सब बंदे एक नूर ते सब जग उपज्यां , कौन भले कौन मंदे शायरी की रिवायत में महबूब को ख़ुदा का दर्जा हासिल है। शायरी की ख़ूबसूरती इसी फ़न में है कि उसे इशारों में बयां किया जाए। यानी चाहे उसे ख़ुदा के लिए समझिए या महबूब के लिए। सच्चा सूफ़ी ख़ुशी में रक्स करता है और दुख में हँसता है। यानी जब वो ख़ुदा से अपना रिश्ता जोड़ लेता है तो उसके लिए ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ नहीं रह जाता। तसव्वुफ़ के इस सफ़र में पूरी दुनिया उसे अपना ही घर लगने लगती है। तब वह पूरी दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाता है और लोगों के दिल और ज़ह़न को रोशन करके उन्हें इंसान होने का मतलब समझाता है। ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब तुझे हम वली समझते, जो न बादा-ख़्वार होता
आपका- देवमणि पाण्डेय सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 M : 98210-82126
6 टिप्पणियां:
बहुत ही सुंदर। आनंद आ गया।
SUFI SHAYRON AUR KAVIYON PAR AAPKA
LEKH ACHCHHA LAGAA HAI . BABA
SHAIKH FARID , BULLE SHAH ,WARIS
SHAH AADI KEE RACHNA PANJABI KAVYA SAHITYA KEE ATMA HAI . IN KAVIYON
KEE VANI PANJAB KE GHAR - GHAR MEIN
PAHUNCHEE .
AAPKEE GAZAL MEIN BHEE
SUFI SWAR HAI . ZAROORAT HAI HINDI
MEIN AESEE GAZALON KEE . PREET GAZAL KEE ROOH HAI .
waah waah
devmani ji aaj to aapne mera manpasand vishay par likha hai. subah office me aakar bas aapki hi post padh raha hoon . bahut hi sundar. man sufi ho gaya , tan sufi ho gaya ... mujhe sufi nazme bahut pasand hai aur yakinan sufi sangeet aatma ko sukh deta hai
aapka bahut bahut aabhaar.. is lekh ke liye ..
aapka
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार !
Subhanallah kya kehne sir
Sufi sant ka co.no. aasramka co.no.dijiye.
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